पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री लावण्या शाह से लम्बी बातचीत - भाग-2
पहले पढ़ें भाग १
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का 'शनिवार विशेषांक' में। पिछले शनिवार से हमनें इसमें शुरु की है शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है', जो कि केन्द्रित है सुप्रसिद्ध कवि, साहित्यकार और गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से की गई हमारी बातचीत पर। आइए आज प्रस्तुत है इस शृंखला की दूसरी कड़ी।
सुजॉय - लावण्या जी, एक बार फिर हम आपका स्वागत करते है 'आवाज़' पर, नमस्कार!
लावण्या जी - नमस्ते!
सुजॉय - लावण्या जी, पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी पंडित जी के आयुर्वेद ज्ञान की चर्चा पर। साथ ही आपनें पंडित जी के शुरुआती दिनों के बारे में बताया था। आज बातचीत हम शुरु करते हैं उस मोड़ से जहाँ पंडित जी मुंबई आ पहुँचते हैं। हमने सुना है कि पंडित जी ३० वर्ष की आयु में बम्बई आये थे भगवती चरण वर्मा के साथ। यह बताइए कि इससे पहले उनकी क्या क्या उपलब्धियाँ थी बतौर कवि और साहित्यिक। बम्बई आकर फ़िल्म जगत से जुड़ना क्यों ज़रूरी हो गया?
लावण्या जी - पापा जी ने इंटरमीडीयेट की पढाई खुरजा से की और आगे पढने वे संस्कृति के गढ़, इलाहाबाद मे आये और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी जोइन की। १९ वर्ष की आयु मे, सन १९३४ मे प्रथम काव्य-संग्रह, "शूल - फूल" प्रकाशित हुआ। अपने बलबूते पर, एम्.ए. अंग्रेज़ी विषय लेकर, पास किया। 'अभ्युदय दैनिक समाचार पत्र' के सह सम्पादक पद पर काम किया। सन १९३६ मे "कर्ण - फूल" छपी, पर १९३७ मे "प्रभात - फेरी" काव्य संग्रह ने नरेंद्र शर्मा को कवि के रूप मे शोहरत की बुलंदी पर पहुंचा दिया। काव्य-सम्मलेन मे उसी पुस्तक की ये कविता जब पहली बार नरेंद्र शर्मा ने पढी तब, सात बार, 'वंस मोर' का शोर हुआ ...गीत है - "आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगें, आज से दो प्रेम योगी, अब वियोगी ही रहेंगें".
लिंक :
और एक सुमधुर गीतकार के रूप मे नरेंद्र शर्मा की पहचान बन गयी। इसी इलाहाबाद मे, आनंद भवन मेँ, 'अखिल भारतीय कोँग्रेस कमिटि के हिंदी विभाग से जुडे, हिंदी सचिव भी रहे जिसके लिये पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने पापा जी को अखिल भारतीय कोंग्रेस कमिटी के दस्तावेजों को, जलदी से अंग्रेज़ी से हिंदी मे अनुवाद कर, भारत के कोने कोने तक पहुंचाने के काम मे, उन्हे लगाया था। अब इस देश भक्ति का नतीजा ये हुआ के उस वक्त की अंग्रेज़ सरकार ने, पापा जी को, २ साल देवली जेल और राजस्थान जेल मे कैद किया जहां नरेंद्र शर्मा ने १४ दिन का अनशन या भूख हड़ताल भी की थी और गोरे जेलरों ने जबरदस्ती सूप नलियों मे भर के पिलाया और उन्हे जिंदा रखा। जब रिहा हुए तब गाँव गये, सारा गाँव बंदनवार सजाये, देश भक्त के स्वागत मे झूम उठा! दादी जी स्व. गंगा देवी जी को १ सप्ताह बाद पता चला के उनका बेटा, जेल मे भूखा है तो उन्होंने भी १ हफ्ते भोजन नहीं किया। ऐसे कई नन्हे सिपाही महात्मा गांधी की आज़ादी की लड़ाई मे, बलिदान देते रहे तब कहीं सन १९४७ मे भारत को पूर्ण स्वतंत्रता मिली थी।
सुजॉय - वाह! बहुत सुंदर!
लावण्या जी - इस रोमांचक घटना का जिक्र करते हुए जनाब सादिक अली जी का लिखा अंग्रेज़ी आलेख देखें ..वे कहते हैं -- "Poet, late Pandit Narendra Sharma, was arrested without trial under the British Viceroy's Orders, for more than two years. His appointment to AICC was made by Pandit Jawaharlal Nehru. Pandit Narendra Sharma's photo along with then AICC members, is still there in Swaraj Bhavan, Allahabad."
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सुजॉय - बम्बई कैसे आना हुआ उनका?
लावण्या जी - आपका कहना सही है के भगवती चरण वर्मा, 'चित्रलेखा ' के मशहूर उपन्यासकार नरेन्द्र शर्मा को अपने संग बम्बई ले आये थे। कारण था, फिल्म निर्माण संस्था "बॉम्बे टॉकीस" नायिका देविका रानी के पास आ गयी थी जब उनके पति हिमांशु राय का देहांत हो गया और देविका रानी को, अच्छे गीतकार, पट कथा लेख़क, कलाकार सभी की जरूरत हुई। भगवती बाबू को, गीतकार नरेंद्र शर्मा को बोम्बे टाकीज़ के काम के लिये ले आने का आदेश हुआ था और नरेंद्र शर्मा के जीवन की कहानी का अगला चैप्टर यहीं से आगे बढा।
फ़ोटो: Magic of Black & WhitePapaji @ Allahabad with Famous writer Bhagwati Charan Vermaji
सुजॉय - पंडित जी का लिखा पहला गीत पारुल घोष की आवाज़ में १९४३ की फ़िल्म 'हमारी बात' का, "मैं उनकी बन जाऊँ रे" बहुत लोकप्रिय हुआ था। क्योंकि यह उनका पहला पहला गीत था, उन्होंने आपको इसके बारे में ज़रूर बताया होगा। तो हम भी आपसे जानना चाहेंगे उनके फ़िल्म जगत में पदार्पण के बारे में, इस पहली फ़िल्म के बारे में, इस पहले मशहूर गीत के बारे में।
लावण्या जी - पापा ने बतलाया था कि फिल्म 'हमारी बात' के लिए लिखा सबसे पहला गीत 'ऐ बादे सबा, इठलाती न आ...' उन्होंने इस ख्याल से इलाहाबाद से बंबई आ रही ट्रेन मे ही लिखा रखा था कि हिन्दी फिल्मों मे उर्दू अलफ़ाज़ लिए गीत जूरूरी है, जैसा उस वक्त का ट्रेंड था, तो वही गीत पहले चित्रपट के लिए लिखा गया और 'हमारी बात' मे अनिल बिस्वास जी ने स्वरबद्ध किया और गायिका पारुल घोष ने गाया। आप इस सुमधुर गीत 'मैं उनकी बन जाऊं रे' को सुनवा दें; पारुल घोष, मशहूर बांसुरी वादक श्री पन्ना लाल घोष की पत्नी थीं और भारतीय चित्रपट संगीत के भीष्म पितामह श्री अनिल दा अनिल बिस्वास की बहन। जब यह गीत बना तब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था पर आज इस गीत को सुनती हूँ तब भी बड़ा मीठा, बेहद सुरीला लगता है।
सुजॉय - ज़रूर इस गीत को हम आज की कड़ी के अंत में सुनवायेंगे, बहरहाल आप इस गीत से जुड़ी कुछ और बात बता सकती हैं?
लावण्या जी - एक वाकया याद आ रहा है, हमारे पडौसी फिल्म कलाकार जयराज जी के घर श्री राज कपूर आये थे और बार बार इसी गीत की एक पंक्ति गा रहे थे, 'दूर खड़ी शरमाऊँ, मैं मन ही मन अंग लगाऊँ, दूर खडी शरमाऊँ, मैं, उनकी बन जाऊं रे, मैं उनकी बन जाऊं' और इसी से मिलते जुलते शब्द यश राज की फिल्म 'दिल तो पागल है' मे भी सुने 'दूर खडी शरमाये, आय हाय', तो प्रेम की बातें तब भी और अब भी ऐसे ही दीवानगी भरी होती रहीं हैं और होतीं रहेंगीं ..जब तक 'प्रेम', रहेगा ये गीत भी अमर रहेगा।
सुजॉय - बहुत सुंदर! और पंडित जी ने भी लिखा था कि "मेरे पास मेरा प्रेम है"। अच्छा लावण्या जी, यह बताइए कि 'बॉम्बे टॉकीज़' के साथ वो कैसे जुड़े? क्या उनकी कोई जान-पहचान थी? किस तरह से उन्होंने अपना क़दम जमाया इस कंपनी में?
लावण्या जी - पापा के एक और गहरे मित्र रहे मशहूर कथाकार श्री अमृत लाल नागर : उनका लिखा पढ़ें -
नागर जी चाचा जी लिखते हैं ...
"एक साल बाद श्रद्धेय भगवती बाबू भी "बोम्बे टाकीज़" के आमंत्रण पर बम्बई पहुँच गये, तब हमारे दिन बहुत अच्छे कटने लगे। प्राय: हर शाम दोनोँ कालिज स्ट्रीट स्थित, स्व. डॉ. मोतीचंद्र जी के यहाँ बैठेकेँ जमाने लगे। तब तक भगवती बाबू का परिवार बम्बई नहीँ आया था और वह, कालिज स्ट्रीट के पास ही माटुंगा के एक मकान की तीसरी मंजिल मेँ रहते थे। एक दिन डॉक्टर साहब के घर से लौटते हुए उन्होँने मुझे बतलाया कि वह एक दो दिन के बाद इलाहाबाद जाने वाले हैँ। "अरे गुरु, यह इलाहाबाद का प्रोग्राम एकाएक कैसे बन गया ?" "अरे भाई, मिसेज रोय (देविका रानी रोय) ने मुझसे कहा है कि, मैँ किसी अच्छे गीतकार को यहाँ ले आऊँ! नरेन्द्र जेल से छूट आया है और मैँ समझता हूँ कि वही ऐसा अकेला गीतकार है जो प्रदीप से शायद टक्कर ले सके!' सुनकर मैँ बहुत प्रसन्न हुआ प्रदीप जी तब तक, बोम्बे टोकीज़ से ही सम्बद्ध थे "कंगन, बंधन" और "नया संसार" फिल्मोँ से उन्होँने बंबई की फिल्मी दुनिया मेँ चमत्कारिक ख्याति अर्जित कर ली थी, लेकिन इस बात के से कुछ पहले ही वह बोम्बे टोकीज़ मेँ काम करने वाले एक गुट के साथ अलग हो गए थे। इस गुट ने "फिल्मीस्तान" नामक एक नई संस्था स्थापित कर ली थी - कंपनी के अन्य लोगोँ के हट जाने से देविका रानी को अधिक चिँता नहीँ थी, किंतु, ख्यातनामा अशोक कुमार और प्रदीप जी के हट जाने से वे बहुत चिँतित थीँ - कंपनी के तत्कालीन डायरेक्टर श्री धरम्सी ने अशोक कुमार की कमी युसूफ ख़ान नामक एक नवयुवक को लाकर पूरी कर दी! युसूफ का नया नाम, "दिलीप कुमार" रखा गया, (यह नाम भी पापा ने ही सुझाया था - एक और नाम 'जहांगीर' भी चुना था पर पापा जी ने कहा था कि युसूफ, दिलीप कुमार नाम तुम्हे बहुत फलेगा - (ज्योतिष के हिसाब से) और आज सारी दुनिया इस नाम को पहचानती है। किंतु प्रदीप जी की टक्कर के गीतकार के अभाव से श्रीमती राय बहुत परेशान थीँ। इसलिये उन्होँने भगवती बाबू से यह आग्रह किया था एक नये शुद्ध हिंदी जानने वाले गीतकार को खोज लाने का। इस बारे में आप और विस्तृत रूप से नीचे दिये गये लिंक्स में पढ़ सकते हैं।
http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/05/blog-post_1748.html
http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/05/blog-post_24.html
http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/05/blog-post_12.html
सुजॉय - किसी भी सफल इंसान के पीछे किसी महिला का हाथ होता है, ऐसी पुरानी कहावत है। आपके विचार में आपकी माताजी का कितना योगदान है पंडित जी की सफलता के पीछे? अपनी माताजी की शख़्सीयत के बारे में विस्तार से बतायें।
लावण्या जी - मेरी माँ, श्रीमती सुशीला नरेंद्र शर्मा, कलाकार थीं। ४ साल हलदनकर इंस्टिट्यूट मे चित्रकला सीख कर बेहतरीन आयल कलर और वाटर कलर के चित्र बनाया करतीं थीं। हमारे घर की दीवारों को उनके चित्रोँ ने सजाया। उस सुन्दर, परम सुशील, सर्वगुण संपन्न मा के लिये, पापा का गीत गाती हूँ - "दर भी था, थीं दीवारें भी, माँ, तुमसे, घर घर कहलाया!"
सुजॉय - आइए इस गीत को यूट्युब पर सुनते हैं:
फ़ोटो-२: श्रीमती सुशीला नरेन्द्र शर्मा की तसवीर
लावण्या जी - ये एक चित्र जो मुझे बहुत प्रिय है। और ये कम लोग जानते हैं के सुशीला गोदीवाला संगीत निर्देशक गायक अविनाश व्यास के ग्रुप मे गाया भी करतीं थीं; रेडियो आर्टिस्ट थीं और अनुपम सुन्दरी थीं - हरी हरी, अंगूर सी आँखें, तीखे नैन नक्श, उजला गोरा रंग और इतनी सौम्यता और गरिमा कि स्वयं श्री सुमित्रानंदन पन्त जी ने सुशीला को दुल्हन के जोड़े मे सजा हुआ देख कहा था, "शायद दुष्यंत राजा की शकुन्तला भी ऐसी ही होगी"। पन्त जी तो हैं हिंदी के महाकवि! मैं, अम्मा की बेटी हूँ! जिस माँ की छाया तले अपना जीवन संवारा वो तो ऐसी देवी मा को श्रद्धा से अश्रू पूरित नयनों से प्रणाम ही कर सकती है। कितना प्यार दुलार देकर अपनी फुलवारी सी गृहस्थी को अम्मा ने सींचा था। पापा जी तो भोले शम्भू थे, दिन दुनिया की चिंता से विरक्त सन्यासी - सद गृहस्थ! अम्मा ही थी जो नमक, धान, भोजन, सुख सुविधा का जुगाड़ करतीं, साक्षात अम्बिका भवानी सी हमारी रक्षा करती, हमे सारे काम सीख्लाती, खपती, थकती पर कभी घर की शांति को बिखरने न दिया, न कभी पापा से कुछ माँगा। अगर कोई नयी साड़ी आ जाती तो हम ३ बहनों के लिये सहेज कर रख देतीं। ऐसी निस्पृह स्त्री मैंने और नहीं देखी और हमेशा सादा कपड़ों मे अम्मा महारानी से सुन्दर और दिव्य लगतीं थीं। अम्मा की बगिया के सारे सुगंधी फूल, नारियल के पेड़, फलों के पेड़ उसी के लगाए हुए आज भी छाया दे रहे हैं पर अम्मा नहीं रहीं, यादें रह गयीं, बस!
सुजॉय - बहुत खी सुंदर तरीके से आपनें अपनी माताजी का वर्णन किया, हम भी भावुक हो गए हैं। क्योंकि माँ ही शुरुआत है और माँ पर ही सारी दुनिया समाप्त हो जाती है, इसलिए यहीं पर हम आज की बातचीत समाप्त करते हैं, और वादे के मुताबिक फ़िल्म 'हमारी बात' से पारुल घोष का गाया "मैं उनकी बन जाऊँ रे" सुनवाते हैं।
गीत - "मैं उनकी बन जाऊँ रे" (हमारी बात)
तो ये था पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से की गई लम्बी बातचीत पर आधारित लघु शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है' की दूसरी कड़ी। बातचीत जारी रहेगी अगले सप्ताह भी। ज़रूर पधारियेगा, और आज के लिए मुझे अनुमति दीजिये, नमस्कार!
पहले पढ़ें भाग १
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का 'शनिवार विशेषांक' में। पिछले शनिवार से हमनें इसमें शुरु की है शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है', जो कि केन्द्रित है सुप्रसिद्ध कवि, साहित्यकार और गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से की गई हमारी बातचीत पर। आइए आज प्रस्तुत है इस शृंखला की दूसरी कड़ी।
सुजॉय - लावण्या जी, एक बार फिर हम आपका स्वागत करते है 'आवाज़' पर, नमस्कार!
लावण्या जी - नमस्ते!
सुजॉय - लावण्या जी, पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी पंडित जी के आयुर्वेद ज्ञान की चर्चा पर। साथ ही आपनें पंडित जी के शुरुआती दिनों के बारे में बताया था। आज बातचीत हम शुरु करते हैं उस मोड़ से जहाँ पंडित जी मुंबई आ पहुँचते हैं। हमने सुना है कि पंडित जी ३० वर्ष की आयु में बम्बई आये थे भगवती चरण वर्मा के साथ। यह बताइए कि इससे पहले उनकी क्या क्या उपलब्धियाँ थी बतौर कवि और साहित्यिक। बम्बई आकर फ़िल्म जगत से जुड़ना क्यों ज़रूरी हो गया?
लावण्या जी - पापा जी ने इंटरमीडीयेट की पढाई खुरजा से की और आगे पढने वे संस्कृति के गढ़, इलाहाबाद मे आये और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी जोइन की। १९ वर्ष की आयु मे, सन १९३४ मे प्रथम काव्य-संग्रह, "शूल - फूल" प्रकाशित हुआ। अपने बलबूते पर, एम्.ए. अंग्रेज़ी विषय लेकर, पास किया। 'अभ्युदय दैनिक समाचार पत्र' के सह सम्पादक पद पर काम किया। सन १९३६ मे "कर्ण - फूल" छपी, पर १९३७ मे "प्रभात - फेरी" काव्य संग्रह ने नरेंद्र शर्मा को कवि के रूप मे शोहरत की बुलंदी पर पहुंचा दिया। काव्य-सम्मलेन मे उसी पुस्तक की ये कविता जब पहली बार नरेंद्र शर्मा ने पढी तब, सात बार, 'वंस मोर' का शोर हुआ ...गीत है - "आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगें, आज से दो प्रेम योगी, अब वियोगी ही रहेंगें".
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और एक सुमधुर गीतकार के रूप मे नरेंद्र शर्मा की पहचान बन गयी। इसी इलाहाबाद मे, आनंद भवन मेँ, 'अखिल भारतीय कोँग्रेस कमिटि के हिंदी विभाग से जुडे, हिंदी सचिव भी रहे जिसके लिये पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने पापा जी को अखिल भारतीय कोंग्रेस कमिटी के दस्तावेजों को, जलदी से अंग्रेज़ी से हिंदी मे अनुवाद कर, भारत के कोने कोने तक पहुंचाने के काम मे, उन्हे लगाया था। अब इस देश भक्ति का नतीजा ये हुआ के उस वक्त की अंग्रेज़ सरकार ने, पापा जी को, २ साल देवली जेल और राजस्थान जेल मे कैद किया जहां नरेंद्र शर्मा ने १४ दिन का अनशन या भूख हड़ताल भी की थी और गोरे जेलरों ने जबरदस्ती सूप नलियों मे भर के पिलाया और उन्हे जिंदा रखा। जब रिहा हुए तब गाँव गये, सारा गाँव बंदनवार सजाये, देश भक्त के स्वागत मे झूम उठा! दादी जी स्व. गंगा देवी जी को १ सप्ताह बाद पता चला के उनका बेटा, जेल मे भूखा है तो उन्होंने भी १ हफ्ते भोजन नहीं किया। ऐसे कई नन्हे सिपाही महात्मा गांधी की आज़ादी की लड़ाई मे, बलिदान देते रहे तब कहीं सन १९४७ मे भारत को पूर्ण स्वतंत्रता मिली थी।
सुजॉय - वाह! बहुत सुंदर!
लावण्या जी - इस रोमांचक घटना का जिक्र करते हुए जनाब सादिक अली जी का लिखा अंग्रेज़ी आलेख देखें ..वे कहते हैं -- "Poet, late Pandit Narendra Sharma, was arrested without trial under the British Viceroy's Orders, for more than two years. His appointment to AICC was made by Pandit Jawaharlal Nehru. Pandit Narendra Sharma's photo along with then AICC members, is still there in Swaraj Bhavan, Allahabad."
लिंक :
सुजॉय - बम्बई कैसे आना हुआ उनका?
लावण्या जी - आपका कहना सही है के भगवती चरण वर्मा, 'चित्रलेखा ' के मशहूर उपन्यासकार नरेन्द्र शर्मा को अपने संग बम्बई ले आये थे। कारण था, फिल्म निर्माण संस्था "बॉम्बे टॉकीस" नायिका देविका रानी के पास आ गयी थी जब उनके पति हिमांशु राय का देहांत हो गया और देविका रानी को, अच्छे गीतकार, पट कथा लेख़क, कलाकार सभी की जरूरत हुई। भगवती बाबू को, गीतकार नरेंद्र शर्मा को बोम्बे टाकीज़ के काम के लिये ले आने का आदेश हुआ था और नरेंद्र शर्मा के जीवन की कहानी का अगला चैप्टर यहीं से आगे बढा।
फ़ोटो: Magic of Black & WhitePapaji @ Allahabad with Famous writer Bhagwati Charan Vermaji
सुजॉय - पंडित जी का लिखा पहला गीत पारुल घोष की आवाज़ में १९४३ की फ़िल्म 'हमारी बात' का, "मैं उनकी बन जाऊँ रे" बहुत लोकप्रिय हुआ था। क्योंकि यह उनका पहला पहला गीत था, उन्होंने आपको इसके बारे में ज़रूर बताया होगा। तो हम भी आपसे जानना चाहेंगे उनके फ़िल्म जगत में पदार्पण के बारे में, इस पहली फ़िल्म के बारे में, इस पहले मशहूर गीत के बारे में।
लावण्या जी - पापा ने बतलाया था कि फिल्म 'हमारी बात' के लिए लिखा सबसे पहला गीत 'ऐ बादे सबा, इठलाती न आ...' उन्होंने इस ख्याल से इलाहाबाद से बंबई आ रही ट्रेन मे ही लिखा रखा था कि हिन्दी फिल्मों मे उर्दू अलफ़ाज़ लिए गीत जूरूरी है, जैसा उस वक्त का ट्रेंड था, तो वही गीत पहले चित्रपट के लिए लिखा गया और 'हमारी बात' मे अनिल बिस्वास जी ने स्वरबद्ध किया और गायिका पारुल घोष ने गाया। आप इस सुमधुर गीत 'मैं उनकी बन जाऊं रे' को सुनवा दें; पारुल घोष, मशहूर बांसुरी वादक श्री पन्ना लाल घोष की पत्नी थीं और भारतीय चित्रपट संगीत के भीष्म पितामह श्री अनिल दा अनिल बिस्वास की बहन। जब यह गीत बना तब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था पर आज इस गीत को सुनती हूँ तब भी बड़ा मीठा, बेहद सुरीला लगता है।
सुजॉय - ज़रूर इस गीत को हम आज की कड़ी के अंत में सुनवायेंगे, बहरहाल आप इस गीत से जुड़ी कुछ और बात बता सकती हैं?
लावण्या जी - एक वाकया याद आ रहा है, हमारे पडौसी फिल्म कलाकार जयराज जी के घर श्री राज कपूर आये थे और बार बार इसी गीत की एक पंक्ति गा रहे थे, 'दूर खड़ी शरमाऊँ, मैं मन ही मन अंग लगाऊँ, दूर खडी शरमाऊँ, मैं, उनकी बन जाऊं रे, मैं उनकी बन जाऊं' और इसी से मिलते जुलते शब्द यश राज की फिल्म 'दिल तो पागल है' मे भी सुने 'दूर खडी शरमाये, आय हाय', तो प्रेम की बातें तब भी और अब भी ऐसे ही दीवानगी भरी होती रहीं हैं और होतीं रहेंगीं ..जब तक 'प्रेम', रहेगा ये गीत भी अमर रहेगा।
सुजॉय - बहुत सुंदर! और पंडित जी ने भी लिखा था कि "मेरे पास मेरा प्रेम है"। अच्छा लावण्या जी, यह बताइए कि 'बॉम्बे टॉकीज़' के साथ वो कैसे जुड़े? क्या उनकी कोई जान-पहचान थी? किस तरह से उन्होंने अपना क़दम जमाया इस कंपनी में?
लावण्या जी - पापा के एक और गहरे मित्र रहे मशहूर कथाकार श्री अमृत लाल नागर : उनका लिखा पढ़ें -
नागर जी चाचा जी लिखते हैं ...
"एक साल बाद श्रद्धेय भगवती बाबू भी "बोम्बे टाकीज़" के आमंत्रण पर बम्बई पहुँच गये, तब हमारे दिन बहुत अच्छे कटने लगे। प्राय: हर शाम दोनोँ कालिज स्ट्रीट स्थित, स्व. डॉ. मोतीचंद्र जी के यहाँ बैठेकेँ जमाने लगे। तब तक भगवती बाबू का परिवार बम्बई नहीँ आया था और वह, कालिज स्ट्रीट के पास ही माटुंगा के एक मकान की तीसरी मंजिल मेँ रहते थे। एक दिन डॉक्टर साहब के घर से लौटते हुए उन्होँने मुझे बतलाया कि वह एक दो दिन के बाद इलाहाबाद जाने वाले हैँ। "अरे गुरु, यह इलाहाबाद का प्रोग्राम एकाएक कैसे बन गया ?" "अरे भाई, मिसेज रोय (देविका रानी रोय) ने मुझसे कहा है कि, मैँ किसी अच्छे गीतकार को यहाँ ले आऊँ! नरेन्द्र जेल से छूट आया है और मैँ समझता हूँ कि वही ऐसा अकेला गीतकार है जो प्रदीप से शायद टक्कर ले सके!' सुनकर मैँ बहुत प्रसन्न हुआ प्रदीप जी तब तक, बोम्बे टोकीज़ से ही सम्बद्ध थे "कंगन, बंधन" और "नया संसार" फिल्मोँ से उन्होँने बंबई की फिल्मी दुनिया मेँ चमत्कारिक ख्याति अर्जित कर ली थी, लेकिन इस बात के से कुछ पहले ही वह बोम्बे टोकीज़ मेँ काम करने वाले एक गुट के साथ अलग हो गए थे। इस गुट ने "फिल्मीस्तान" नामक एक नई संस्था स्थापित कर ली थी - कंपनी के अन्य लोगोँ के हट जाने से देविका रानी को अधिक चिँता नहीँ थी, किंतु, ख्यातनामा अशोक कुमार और प्रदीप जी के हट जाने से वे बहुत चिँतित थीँ - कंपनी के तत्कालीन डायरेक्टर श्री धरम्सी ने अशोक कुमार की कमी युसूफ ख़ान नामक एक नवयुवक को लाकर पूरी कर दी! युसूफ का नया नाम, "दिलीप कुमार" रखा गया, (यह नाम भी पापा ने ही सुझाया था - एक और नाम 'जहांगीर' भी चुना था पर पापा जी ने कहा था कि युसूफ, दिलीप कुमार नाम तुम्हे बहुत फलेगा - (ज्योतिष के हिसाब से) और आज सारी दुनिया इस नाम को पहचानती है। किंतु प्रदीप जी की टक्कर के गीतकार के अभाव से श्रीमती राय बहुत परेशान थीँ। इसलिये उन्होँने भगवती बाबू से यह आग्रह किया था एक नये शुद्ध हिंदी जानने वाले गीतकार को खोज लाने का। इस बारे में आप और विस्तृत रूप से नीचे दिये गये लिंक्स में पढ़ सकते हैं।
http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/05/blog-post_1748.html
http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/05/blog-post_24.html
http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/05/blog-post_12.html
सुजॉय - किसी भी सफल इंसान के पीछे किसी महिला का हाथ होता है, ऐसी पुरानी कहावत है। आपके विचार में आपकी माताजी का कितना योगदान है पंडित जी की सफलता के पीछे? अपनी माताजी की शख़्सीयत के बारे में विस्तार से बतायें।
लावण्या जी - मेरी माँ, श्रीमती सुशीला नरेंद्र शर्मा, कलाकार थीं। ४ साल हलदनकर इंस्टिट्यूट मे चित्रकला सीख कर बेहतरीन आयल कलर और वाटर कलर के चित्र बनाया करतीं थीं। हमारे घर की दीवारों को उनके चित्रोँ ने सजाया। उस सुन्दर, परम सुशील, सर्वगुण संपन्न मा के लिये, पापा का गीत गाती हूँ - "दर भी था, थीं दीवारें भी, माँ, तुमसे, घर घर कहलाया!"
सुजॉय - आइए इस गीत को यूट्युब पर सुनते हैं:
फ़ोटो-२: श्रीमती सुशीला नरेन्द्र शर्मा की तसवीर
लावण्या जी - ये एक चित्र जो मुझे बहुत प्रिय है। और ये कम लोग जानते हैं के सुशीला गोदीवाला संगीत निर्देशक गायक अविनाश व्यास के ग्रुप मे गाया भी करतीं थीं; रेडियो आर्टिस्ट थीं और अनुपम सुन्दरी थीं - हरी हरी, अंगूर सी आँखें, तीखे नैन नक्श, उजला गोरा रंग और इतनी सौम्यता और गरिमा कि स्वयं श्री सुमित्रानंदन पन्त जी ने सुशीला को दुल्हन के जोड़े मे सजा हुआ देख कहा था, "शायद दुष्यंत राजा की शकुन्तला भी ऐसी ही होगी"। पन्त जी तो हैं हिंदी के महाकवि! मैं, अम्मा की बेटी हूँ! जिस माँ की छाया तले अपना जीवन संवारा वो तो ऐसी देवी मा को श्रद्धा से अश्रू पूरित नयनों से प्रणाम ही कर सकती है। कितना प्यार दुलार देकर अपनी फुलवारी सी गृहस्थी को अम्मा ने सींचा था। पापा जी तो भोले शम्भू थे, दिन दुनिया की चिंता से विरक्त सन्यासी - सद गृहस्थ! अम्मा ही थी जो नमक, धान, भोजन, सुख सुविधा का जुगाड़ करतीं, साक्षात अम्बिका भवानी सी हमारी रक्षा करती, हमे सारे काम सीख्लाती, खपती, थकती पर कभी घर की शांति को बिखरने न दिया, न कभी पापा से कुछ माँगा। अगर कोई नयी साड़ी आ जाती तो हम ३ बहनों के लिये सहेज कर रख देतीं। ऐसी निस्पृह स्त्री मैंने और नहीं देखी और हमेशा सादा कपड़ों मे अम्मा महारानी से सुन्दर और दिव्य लगतीं थीं। अम्मा की बगिया के सारे सुगंधी फूल, नारियल के पेड़, फलों के पेड़ उसी के लगाए हुए आज भी छाया दे रहे हैं पर अम्मा नहीं रहीं, यादें रह गयीं, बस!
सुजॉय - बहुत खी सुंदर तरीके से आपनें अपनी माताजी का वर्णन किया, हम भी भावुक हो गए हैं। क्योंकि माँ ही शुरुआत है और माँ पर ही सारी दुनिया समाप्त हो जाती है, इसलिए यहीं पर हम आज की बातचीत समाप्त करते हैं, और वादे के मुताबिक फ़िल्म 'हमारी बात' से पारुल घोष का गाया "मैं उनकी बन जाऊँ रे" सुनवाते हैं।
गीत - "मैं उनकी बन जाऊँ रे" (हमारी बात)
तो ये था पंडित नरेन्द्र शर्मा की सुपुत्री श्रीमती लावण्या शाह से की गई लम्बी बातचीत पर आधारित लघु शृंखला 'मेरे पास मेरा प्रेम है' की दूसरी कड़ी। बातचीत जारी रहेगी अगले सप्ताह भी। ज़रूर पधारियेगा, और आज के लिए मुझे अनुमति दीजिये, नमस्कार!
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आभार सहित
अवध लाल