साहिब मेरा एक है.. अपने गुरू, अपने साई, अपने साहिब को याद कर रही है कबीर, आबिदा परवीन और गुलज़ार की तिकड़ी
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११२
नशे इकहरे ही अच्छे होते हैं। सब कहते हैं दोहरे नशे अच्छे नहीं। एक नशे पर दूसरा नशा न चढाओ, पर क्या है कि एक कबीर उस पर आबिदा परवीन। सुर सरूर हो जाते हैं और सरूर देह की मिट्टी पार करके रूह मे समा जाता है।
सोइ मेरा एक तो, और न दूजा कोये ।
जो साहिब दूजा कहे, दूजा कुल का होये ॥
कबीर तो दो कहने पे नाराज़ हो गये, वो दूजा कुल का होये !
गुलज़ार साहब के लिए यह नशा दोहरा होगा, लेकिन हम जानते हैं कि यह नशा उससे भी बढकर है, यह तिहरा से किसी भी मायने में कम नहीं। आबिदा कबीर को गा रही हैं तो उनकी आवाज़ के सहारे कबीर की जीती-जागती मूरत हमारे सामने उभर आती है, इस कमाल के लिए आबिदा की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। लेकिन आबिदा गाना शुरू करें उससे पहले सबा के झोंके की तरह गुलज़ार की महकती आवाज़ माहौल को ताज़ातरीन कर जाती है, इधर-उधर की सारी बातें फौरन हीं उड़न-छू हो जाती है और सुनने वाला कान को आले से उतारकर दिल के कागज़ पर पिन कर लेता है और सुनता रहता है दिल से.. फिर किसे खबर कि वह कहाँ है, फिर किसे परवाह कि जग कहाँ है! ऐसा नशा है इस तिकड़ी में कि रूह पूरी की पूरी डूब जाए, मदमाती रहे और जिस्म जम जाए वहीं का वहीं!!
कबीरा खड़ा बजार में, सब की चाहे खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।
कबीर... कबीर ऐसा नाम है, जिसे सुनते हीं दिल सूफ़ियाना हो जाता है। जैसे सूफ़ियों के हर कलाम में उस ऊपर वाले का ज़िक्र होता है, उसी तरह कबीर अपने गुरू, अपने साईं, अपने साहिब का ज़िक्र किसी न किसी बहाने अपने दोहों में ले हीं आते हैं। गुरू के प्रति कबीर का यह प्रेम अनुपम है। कबीर अपने गुरू की बहुत कदर करते थे। एक शिष्य के लिए गुरू का क्या महत्व होता है, यह बताने के लिए कबीर ने इतना तक कह दिया कि:
कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
गुरू का माहात्म्य जानना हो तो कोई कबीर से पूछे:
सब धरती कागद करूं, लेखन सब बनराय ।
सात समुंद्र कि मस करूं, गुरु गुन लिखा न जाय ॥
कबीर का अपने गुरू के प्रति प्रेम और लगाव का बखान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक "हिन्दी साहित्य का इतिहास" में कुछ यूँ किया है:
गुरू गोविंद दोऊ खड़े काकै लागूं पाय,
बलिहारी गुरू आपने गोविंद दियो बताय।
गुरू को गोविंद के आगे खड़े करने वाले संत कबीर ने गुरू के बारे में और क्या-क्या कहा है, यह जानने के लिए चलिए आबिदा परवीन की मनमोहक आवाज़ की ओर रूख करते हैं। और हाँ, आईये हम भी साथ-साथ गुनगुनाएँ "साहिब मेरा एक है"..:
साहिब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय ।
दूजा साहिब जो कहूं, साहिब खडा रसाय ॥
माली आवत देख के, कलियां करें पुकार ।
फूल फूल चुन लिये, काल हमारी बार ॥
____ गयी चिन्ता मिटी, मनवा बेपरवाह ।
जिनको कछु न चहिये, वो ही शाहनशाह ॥
एक प्रीत सूं जो मिले, ताको मिलिये धाय ।
अन्तर राखे जो मिले, तासे मिले बलाय ॥
सब धरती कागद करूं, लेखन सब बनराय ।
सात समुंद्र कि मस करूं, गुरु गुन लिखा न जाय ॥
अब गुरु दिल मे देखया, गावण को कछु नाहि ।
कबीरा जब हम गांवते, तब जाना गुरु नाहि ॥
मैं लागा उस एक से, एक भया सब माहि ।
सब मेरा मैं सबन का, तेहां दूसरा नाहि ॥
जा मरने से जग डरे, मेरे मन आनन्द ।
तब मरहू कब पाहूं, पूरण परमानन्द ॥
सब बन तो चन्दन नहीं, सूर्य है का दल(?) नाहि ।
सब समुंद्र मोती नहीं, यूं सौ भूं जग माहि ॥
जब हम जग में पग धरयो, सब हसें हम रोये ।
कबीरा अब ऐसी कर चलो, पाछे हंसीं न होये ॥
अवगुण किये तो बहु किये, करत न मानी हार ।
भांवें बन्दा बख्शे, भांवें गर्दन मार ॥
साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहि ।
धन का भूखा जो फिरे, सो तो साधू नाहि ॥
कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
करता था तो क्यों रहा, अब काहे पछताय ।
बोवे पेड बबूल का, आम कहां से खाय ॥
साहिब सूं सब होत है, बन्दे ते कछु नाहि ।
राइ से परबत करे, परबत राइ मांहि ॥
ज्यूं तिल मांही तेल है, ज्यूं चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें बसे, जाग सके तो जाग ॥
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो दोहे हमने पेश किए हैं, उसके एक दोहे की एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उन दोहों को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "पिया" और मिसरे कुछ यूँ थे-
सती बिचारी सत किया, काँटों सेज बिछाय ।
ले सूती पिया आपना, चहुं दिस अगन लगाय ॥
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:
पिया रे, पिया रे , पिया रे, पिया रे,
तेरे बिन लागे नहीँ मोरा जिया रे ।
मंजु जी, आपने शब्द पहचानने में गलती कर दी, इसलिए हम आपके शेर (दोहे) को यहाँ पेश नहीं कर सकते। अगली बार से ध्यान दीजिएगा।
पिछली महफ़िल की शुरूआत सजीव जी की प्रेरणादायक टिप्पणी से हुई। बंधुवर धन्यवाद आपका! आपके बाद महफ़िल को रंगीन करने आए शरद जी। शरद जी ने न सिर्फ़ सही शब्द की पहचान की बल्कि उस पर एक शेर भी कहा। यह क्या, आपसे हमें स्वरचित शेर की उम्मीद रहती है, आपने तो नुसरत साहब के एक गाने की दो पंक्तियों से हीं काम चला लिया। आगे से ऐसा नहीं चलेगा। समझे ना? :) आपने एक गलती की तरफ़ हमारा ध्यान दिलाया, इसके लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। हमने आज की महफ़िल में उस गलती को ठीक कर लिया है। अवध जी, शायद "दोहावली" हीं कहा जाना चाहिए। मैं और भी एक-दो जगह से पता करता हूँ, उसके बाद आगे से इसी शब्द का प्रयोग करूँगा। बहुत-बहुत धन्यवाद। मंजु जी, हाँ पिछली बार मैंने "अहसास" पर सारे शेर जमा तो कर दिये थे, लेकिन जल्दीबाजी में "आँगन" को हटाना भूल गया। दर-असल "आँगन" पिछली से पिछली महफ़िल का गुमशुदा शब्द था। आपको यकीन दिलाता हूँ कि आगे से ऐसा नहीं होगा। कुलदीप जी, महफ़िल को और महफ़िल में पेश की गई रचना को पसंद करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। बस लगे हाथों आप "पिया" पर कोई शेर भी कह देते तो खुशी चौगुनी हो जाती। खैर, इस बार से कोशिश कीजिएगा।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
नशे इकहरे ही अच्छे होते हैं। सब कहते हैं दोहरे नशे अच्छे नहीं। एक नशे पर दूसरा नशा न चढाओ, पर क्या है कि एक कबीर उस पर आबिदा परवीन। सुर सरूर हो जाते हैं और सरूर देह की मिट्टी पार करके रूह मे समा जाता है।
सोइ मेरा एक तो, और न दूजा कोये ।
जो साहिब दूजा कहे, दूजा कुल का होये ॥
कबीर तो दो कहने पे नाराज़ हो गये, वो दूजा कुल का होये !
गुलज़ार साहब के लिए यह नशा दोहरा होगा, लेकिन हम जानते हैं कि यह नशा उससे भी बढकर है, यह तिहरा से किसी भी मायने में कम नहीं। आबिदा कबीर को गा रही हैं तो उनकी आवाज़ के सहारे कबीर की जीती-जागती मूरत हमारे सामने उभर आती है, इस कमाल के लिए आबिदा की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। लेकिन आबिदा गाना शुरू करें उससे पहले सबा के झोंके की तरह गुलज़ार की महकती आवाज़ माहौल को ताज़ातरीन कर जाती है, इधर-उधर की सारी बातें फौरन हीं उड़न-छू हो जाती है और सुनने वाला कान को आले से उतारकर दिल के कागज़ पर पिन कर लेता है और सुनता रहता है दिल से.. फिर किसे खबर कि वह कहाँ है, फिर किसे परवाह कि जग कहाँ है! ऐसा नशा है इस तिकड़ी में कि रूह पूरी की पूरी डूब जाए, मदमाती रहे और जिस्म जम जाए वहीं का वहीं!!
कबीरा खड़ा बजार में, सब की चाहे खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।
कबीर... कबीर ऐसा नाम है, जिसे सुनते हीं दिल सूफ़ियाना हो जाता है। जैसे सूफ़ियों के हर कलाम में उस ऊपर वाले का ज़िक्र होता है, उसी तरह कबीर अपने गुरू, अपने साईं, अपने साहिब का ज़िक्र किसी न किसी बहाने अपने दोहों में ले हीं आते हैं। गुरू के प्रति कबीर का यह प्रेम अनुपम है। कबीर अपने गुरू की बहुत कदर करते थे। एक शिष्य के लिए गुरू का क्या महत्व होता है, यह बताने के लिए कबीर ने इतना तक कह दिया कि:
कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
गुरू का माहात्म्य जानना हो तो कोई कबीर से पूछे:
सब धरती कागद करूं, लेखन सब बनराय ।
सात समुंद्र कि मस करूं, गुरु गुन लिखा न जाय ॥
कबीर का अपने गुरू के प्रति प्रेम और लगाव का बखान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक "हिन्दी साहित्य का इतिहास" में कुछ यूँ किया है:
कहते हैं, काशी में स्वामी रामानंद का एक भक्त ब्राह्मण था, जिसकी किसी विधवा कन्या को स्वामी जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद भूल से दे दिया। फल यह हुआ कि उसे एक बालक उत्पना हुआ जिसे वह लहरतारा के ताल के पास फेंक आयी। अली या नीरू नाम का जुलाहा उस बालक को अपने घर उठा लाया और पालने लगा। यही बालक आगे चलकर कबीरदास हुआ। कबीर का जन्मकाल जेठ सुदी पूर्णिमा, सोमवार विक्रम संवत १४५६ माना जाता है। कहते हैं कि आरंभ से हीं कबीर में हिंदू भाव से भक्ति करने की प्रवृत्ति लक्षित होती थी जिसे उसे पालने वाल माता-पिता न दबा सके। वे "राम-राम" जपा करते थे और कभी-कभी माथे पर तिलक भी लगा लेते थे। इससे सिद्ध होता है कि उस समय स्वामी रामानंद का प्रभाव खूब बढ रहा था। अत: कबीर पर भी भक्ति का यह संस्कार बाल्यावस्था से ही यदि पड़ने लगा हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
रामानंद जी के माहात्म्य को सुनकर कबीर के हृदय में शिष्य होने की लालसा जगी होगी। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक दिन वे एक पहर रात रहते हुए उप्त (पंचगंगा) घाट की सीढियों पर जा पड़े जहाँ से रामानंद जी स्नान करने के लिए उतरा करते थे। स्नान को जाते समय अंधेरे में रामानंद जी का पैर कबीर के ऊपर पड़ गया। रामानंद जी बोल उठे, ’राम-राम कह’। कबीर ने इसी को गुरूमंत्र मान लिया और वे अपने को गुरू रामानंद जी का शिष्य कहने लगे।
आरंभ से हीं कबीर हिंदू भाव की उपासना की ओर आकर्षित हो रहे थे। अत: उन दिनों जब कि रामानंद जी की बड़ी धूम थी, अवश्य वे उनके सत्संग में भी सम्मिलित होते रहे होंगे। रामानुज की शिष्य परंपरा में होते हुए भी रामानंद जी भक्ति का एक अलग उदार मार्ग निकाल रहे थे जिसमे जाति-पाँति का भेद और खानपान का आचार दूर कर दिया गया था। अत: इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर को ’राम-राम’ नाम रामानंद जी से हीं प्राप्त हुआ। पर आगे चलकर कबीर के ’राम’ रामानंद के ’राम’ से भिन्न हो गए। अत: कबीर को वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत नहीं ले सकते। कबीर ने दूर-दूर तक देशाटन किया, हठयोगियों तथा सूफ़ी मुसलमान फकीरों का भी सत्संग किया। अत: उनकी प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की ओर दृढ हुई। फल यह हुआ कि कबीर के राम धनुर्धर साकार राम नहीं रह गये, वे ब्रह्म के पर्याय हुए -
दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।
राम नाम का मरम है आना॥
सारांश यह है कि जो ब्रह्म हिंदुओं की विचारपद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था उसी को कबीर ने सूफ़ियों के ढर्रे पर उपासना का हीं विषय नहीं, प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफ़ियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मत रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया। उनकी बानी में ये सब अवयव लक्षित होते हैं।
गुरू गोविंद दोऊ खड़े काकै लागूं पाय,
बलिहारी गुरू आपने गोविंद दियो बताय।
गुरू को गोविंद के आगे खड़े करने वाले संत कबीर ने गुरू के बारे में और क्या-क्या कहा है, यह जानने के लिए चलिए आबिदा परवीन की मनमोहक आवाज़ की ओर रूख करते हैं। और हाँ, आईये हम भी साथ-साथ गुनगुनाएँ "साहिब मेरा एक है"..:
साहिब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय ।
दूजा साहिब जो कहूं, साहिब खडा रसाय ॥
माली आवत देख के, कलियां करें पुकार ।
फूल फूल चुन लिये, काल हमारी बार ॥
____ गयी चिन्ता मिटी, मनवा बेपरवाह ।
जिनको कछु न चहिये, वो ही शाहनशाह ॥
एक प्रीत सूं जो मिले, ताको मिलिये धाय ।
अन्तर राखे जो मिले, तासे मिले बलाय ॥
सब धरती कागद करूं, लेखन सब बनराय ।
सात समुंद्र कि मस करूं, गुरु गुन लिखा न जाय ॥
अब गुरु दिल मे देखया, गावण को कछु नाहि ।
कबीरा जब हम गांवते, तब जाना गुरु नाहि ॥
मैं लागा उस एक से, एक भया सब माहि ।
सब मेरा मैं सबन का, तेहां दूसरा नाहि ॥
जा मरने से जग डरे, मेरे मन आनन्द ।
तब मरहू कब पाहूं, पूरण परमानन्द ॥
सब बन तो चन्दन नहीं, सूर्य है का दल(?) नाहि ।
सब समुंद्र मोती नहीं, यूं सौ भूं जग माहि ॥
जब हम जग में पग धरयो, सब हसें हम रोये ।
कबीरा अब ऐसी कर चलो, पाछे हंसीं न होये ॥
अवगुण किये तो बहु किये, करत न मानी हार ।
भांवें बन्दा बख्शे, भांवें गर्दन मार ॥
साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहि ।
धन का भूखा जो फिरे, सो तो साधू नाहि ॥
कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
करता था तो क्यों रहा, अब काहे पछताय ।
बोवे पेड बबूल का, आम कहां से खाय ॥
साहिब सूं सब होत है, बन्दे ते कछु नाहि ।
राइ से परबत करे, परबत राइ मांहि ॥
ज्यूं तिल मांही तेल है, ज्यूं चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें बसे, जाग सके तो जाग ॥
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो दोहे हमने पेश किए हैं, उसके एक दोहे की एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उन दोहों को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "पिया" और मिसरे कुछ यूँ थे-
सती बिचारी सत किया, काँटों सेज बिछाय ।
ले सूती पिया आपना, चहुं दिस अगन लगाय ॥
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:
पिया रे, पिया रे , पिया रे, पिया रे,
तेरे बिन लागे नहीँ मोरा जिया रे ।
मंजु जी, आपने शब्द पहचानने में गलती कर दी, इसलिए हम आपके शेर (दोहे) को यहाँ पेश नहीं कर सकते। अगली बार से ध्यान दीजिएगा।
पिछली महफ़िल की शुरूआत सजीव जी की प्रेरणादायक टिप्पणी से हुई। बंधुवर धन्यवाद आपका! आपके बाद महफ़िल को रंगीन करने आए शरद जी। शरद जी ने न सिर्फ़ सही शब्द की पहचान की बल्कि उस पर एक शेर भी कहा। यह क्या, आपसे हमें स्वरचित शेर की उम्मीद रहती है, आपने तो नुसरत साहब के एक गाने की दो पंक्तियों से हीं काम चला लिया। आगे से ऐसा नहीं चलेगा। समझे ना? :) आपने एक गलती की तरफ़ हमारा ध्यान दिलाया, इसके लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। हमने आज की महफ़िल में उस गलती को ठीक कर लिया है। अवध जी, शायद "दोहावली" हीं कहा जाना चाहिए। मैं और भी एक-दो जगह से पता करता हूँ, उसके बाद आगे से इसी शब्द का प्रयोग करूँगा। बहुत-बहुत धन्यवाद। मंजु जी, हाँ पिछली बार मैंने "अहसास" पर सारे शेर जमा तो कर दिये थे, लेकिन जल्दीबाजी में "आँगन" को हटाना भूल गया। दर-असल "आँगन" पिछली से पिछली महफ़िल का गुमशुदा शब्द था। आपको यकीन दिलाता हूँ कि आगे से ऐसा नहीं होगा। कुलदीप जी, महफ़िल को और महफ़िल में पेश की गई रचना को पसंद करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। बस लगे हाथों आप "पिया" पर कोई शेर भी कह देते तो खुशी चौगुनी हो जाती। खैर, इस बार से कोशिश कीजिएगा।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
निदा फाजली का एक दोहा:
'चाहे गीता बांचिये या पढ़िए कुरआन
मेरी तेरी प्रीत है हर पुस्तक का ज्ञान.'
और निदा की ही कुछ और ...
चाहत नदिया, चाहत सागर
चाहत धरती, चाहत अम्बर
चाहत खुशबू, चाहत रंगत
चाहत मूरत, चाहत कुदरत
चाहत गंगा, चाहत जमुना
चाहत घूंघट, चाहत दर्पण
चाहत सजनी, चाहत साजन
चाहत पूजा, चाहत दर्शन,
आँख भर आना यही चाहत है
जी घबराना यही चाहत है
चाहत न होती कुछ भी न होता
मैं भी न होती, तू भी न होता.
अवध लाल
दोहा प्रस्तुत है -
चाह मेरे भारत की ,विश्व कप जाए जीत .
हर एक करे प्रार्थना , क्रिकेट से है प्रीत .
दोहा प्रस्तुत है -
चाह मेरे भारत की , विश्व कप जाए जीत
हर एक करे प्रार्थना , क्रिकेट से है प्रीत .
इस बार के गायब शब्द ''चाह'' पर मैं एक शेर पेश करती हूँ:
चाह होती है तो राह होती नहीं
हर ख्वाहिश कभी पूरी होती नहीं
जिंदगी जीने का ढूँढती है सबब
हर कली खिलके फूल होती नहीं.
(स्वरचित)
ये रहा चाह शब्द पे बड़े शायर का बड़ा शेर
कभी हम में तुम में भी चाह थी , कभी हम से तुम से भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना तुम्हे याद हो के न याद हो
- मोमिन khan मोमिन