ओल्ड इस गोल्ड - शनिवार विशेष - अभिनेत्री व फ़िल्म-निर्मात्री आशालता के जीवन की कहानी उन्हीं की सुपुत्री शिखा बिस्वास वोहरा की जुबानी
नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' की ३१-वीं कड़ी में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। आज हम आपको मिलवा रहे हैं एक ऐसी शख्सियत से जिनकी माँ ना केवल हिंदी सिनेमा की पहली पीढ़ी की एक जानीमानी अदाकारा रहीं, बल्कि अपने एक निजी बैनर तले कई फ़िल्मों का निर्माण भी किया। इस अदाकारा और फ़िल्म निर्मात्री को हम आशालता के नाम से जानते हैं। जी हाँ, वही आशालता बिस्वास जिन्हें आप मशहूर संगीतकार अनिल बिस्वास की पहली पत्नी के रूप में ज़्यादा जानते हैं। इसे हम अफ़सोस की बात ही कहेंगे कि आशालता जी के बारे में बहुत कम और ग़लत जानकारियाँ दुनिया को मिल पायी है, कारण चाहे कोई भी हो। लेकिन हक़ीक़त यह है कि आशालता जी का अपना भी एक अलग व्यक्तित्व था, अपनी अलग पहचान थी, और इस बात का अंदाज़ा आपको इस साक्षात्कार को पढ़ने के बाद हो जाएगा। आशालता जी के बारे में विस्तार से बातचीत करने के लिए 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से हमने आमंत्रित किया उनकी सुपुत्री शिखा बिस्वास वोहरा जी को। तो आइए आपको मिलवाते हैं आशालता जी और अनिल दा की सुपुत्री शिखा बिस्वास वोहरा जी से।
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सुजॊय - शिखा जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंदयुग्म' पर, और बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने हमारे इस निमंत्रण को स्वीकारा, और आशालता जी के बारे में विस्तार से हमारे पाठकों को बताने के लिए राज़ी हुईं।
शिखा - आपका बहुत धन्यवाद जो आपने अपने फ़ोरम में मुझे बुलाया। सब से पहले मैं यह कहना चाहूँगी कि बच्चे अपने माता-पिता के काम के बारे में बहुत कम ही बातचीत करते हैं और हम भी दूसरे बच्चों से अलग नहीं थे। हमने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा आ जाएगा कि ये सब बातें इतिहास बन जाएँगी या इन सब बातों को जानने में लोगों की दिलचस्पी होगी। माँ-बाप चाहे बाहर कितने भी लोकप्रिय या पब्लिक फ़िगर हों, बच्चों के लिए तो वो केवल माँ-बाप ही होते हैं। सिनेमा के रसिक उनके बारे में ज़्यादा जानकारी रखते हैं, इसलिए आपके इस मुहिम में शायद मैं बहुत ज़्यादा कारगर न साबित हो सकूँ।
सुजॊय - शिखा जी, आशालता जी उस पीढ़ी की अभिनेत्री थीं जब बोलती फ़िल्मों की बस शुरुआत ही हुई थी। जब मैंने इंटरनेट पर उपलब्ध आशालता जी की फ़िल्मोग्राफ़ी पर नज़र दौड़ाई, तो पाया कि उनकी पहली फ़िल्में थीं 'सजीव मूर्ती', 'आज़ादी' और 'सती तोरल', और ये फ़िल्में आईं थीं सन् १९३५ में। क्या आप बता सकती हैं कि क्या वाक़ई आशालता जी १९३५ में लौंच हुईं थीं?
शिखा - 'आज़ादी' का निर्माण १९३४ में शुरु होकर फ़िल्म १९३५ में रिलीज़ हुई थी, इसलिए यही फ़िल्म शायद उनकी डेब्यु फ़िल्म थी, और इसमें उनके नायक थे विजय कुमार। उस वक़्त आशालता जी की उम थी १८ वर्ष।
सुजॊय- क्या आशालता जी ने कभी आपको बताया कि उनका सिनेमा में पदार्पण किस तरह से हुआ था?
शिखा - न उन्होंने कभी इसके बारे में हमें बताया और न ही हमने कभी उनसे यह पूछा। लेकिन जितना मुझे मालूम है, वो और शोभना समर्थ क्लासमेट्स थीं और बहुत अच्छे दोस्त भी। इसलिए हो सकता है कि वे दोनों एक ही समय पर फ़िल्मी मैदान में उतरी होंगी। शोभना समर्थ जी के अंकल एक फ़ोटो-स्टुडिओ चलाते थे 'देवारे' नाम से।
सुजॊय - मैंने सुना है कि आशालता जी का असली नाम था मेहरुन्निसा। जहाँ तक एक फ़िल्मी नायिका के नाम का सवाल है, इस नाम में कोई ख़ामी नहीं थी। फिर उन्होंने अपना नाम क्यों बदला होगा, क्या इसके बारे में आप कुछ बता सकती हैं?
शिखा - उनका असली नाम था मेहरुन्निसा भगत। शायद उन्होंने या फ़िल्म के निर्माता ने उनका नाम बदल दिया होगा क्योंकि उन दिनों यह एक रवायत थी।
सुजॊय - ये जो तीन फ़िल्मों का ज़िक्र हमने अभी किया, वे सभी 'शक्ति मूवीज़' के बैनर तले निर्मित फ़िल्में थीं। उस ज़माने में फ़िल्मी कलाकार फ़िल्म कंपनी के कर्मचारी हुआ करते थे जिन्हें मासिक तौर पर तनख्वा मिलती थी। तो क्या आशालता जी भी 'शक्ति मूवीज़' में कार्यरत थीं?
शिखा - मुझे नहीं लगता कि उनका किसी स्टुडिओ विशेष से कोई अनुबंधन था, बल्कि फ़िल्म निर्माण के दौरान उन्हें उस कंपनी से मासिक तनख्वा मिला करती होगी।
सुजॊय - शायद आप ठीक कह रही हैं, क्योंकि अगले ही साल, यानी १९३६ से वो कई बैनरों की फ़िल्मों में नज़र आयीं, जैसे कि 'गोल्डन ईगल', 'ईस्टर्ण आर्ट्स', 'सागर मूवीटोन', 'दर्यानी प्रोडक्शन्स' आदि। अच्छा, १९३६ की बात करें तो इस साल 'शेर का पंजा' और 'पिया की जोगन' जैसी फ़िल्में उनकी आयीं, जिनमें संगीत आपके पिता श्री अनिल बिस्वास जी का था। तो यह बताइए कि आशालता जी अनिल दा से कब मिलीं? क्या इन्ही दो फ़िल्मों के निर्माण के दौरान या उससे पहले?
शिखा - अनिल बिस्वास 'मनमोहन' फ़िल्म के संगीतकार के सहायक थे, जिसका निर्माण १९३५ से ही शुरु हो चुका था। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि वे दोनों तभी मिले होंगे और दोनों ने शादी की १९३६ में।
सुजॊय - अच्छा शिखा जी, वह ३० का दशक कुंदन लाल सहगल साहब का दशक था, और १९४० में एक बहुत ही मशहूर फ़िल्म आयी थी 'ज़िंदगी' जिसमें सहगल साहब मुख्य भूमिका में थे। इस फ़िल्म में आशालता जी ने भी अभिनय किया था। क्या उन्होंने आपको इस फ़िल्म के बारे में या सहगल साहब के बारे में कुछ बताया?
शिखा - जी नहीं, उन्होंने कभी ऐसा कुछ ज़िक्र नहीं किया कि इस फ़िल्म में उनका सहगल साहब के साथ कोई सीन था।
सुजॊय - १९३७ में आशालता जी की एक मशहूर फ़िल्म आयी थी 'प्रेमवीर', जिसका निर्माण हिंदी और मराठी, दोनों में हुआ था। यह बताइए कि क्या आशालता जी ने इस फ़िल्म के लिए मराठी सीखा था? उनकी मातृभाषा क्या थी?
शिखा - 'प्रेमवीर', मास्टर विनायक के साथ। नंदा जी के पिता मास्टर विनायक जी के लिए उनके दिल में बहुत सम्मान था। वो ख़ुद बहुत अच्छा मराठी, गुजराती और सिंधी बोल लेती थीं और शादी के बाद बंगला भी सीख गई थीं। वो मूलत: भुज की थीं और उनकी मातृभाषा थी कच्छी।
सुजॊय - फ़िल्मों से संन्यास लेने के एक अरसे बाद वो फिर से नज़र आयीं गुजराती फ़िल्म 'मारे जावुण पेले पार' फ़िल्म में जो १९६८ में बनी थी। इस फ़िल्म के लिए उन्हें न्योता कैसे मिला?
शिखा - दरअसल १९६६ में उन्होंने एक फ़िल्म 'श्रीमान फ़ंटूश' का निर्माण किया था अपने भाई के बैनर तले और जिसमें उन्होंने किशोर कुमार के माँ का किरदार भी निभाया था। उसी दौरान मुझे भी एक फ़िल्म 'फिर वही आवाज़' में नायिका बनने का ऒफ़र आया था जिसमें सुजीत कुमार नायक थे, और उस फ़िल्म के निर्देशक थे शांतिलाल सोनी, जो कि एक गुजराती थे। उन्होंने मेरी मम्मी को रेकमेण्ड किया उस रोल के लिए। वह फ़िल्म बहुत बड़ी हिट साबित हुई और उसका हिंदी में री-मेक हुआ 'खिलौना' शीर्षक से, जिसमें अरुणा इरानी वाला किरदार मुमताज़ ने निभाया।
सुजॊय - एक फ़िल्म निर्मात्री के रूप में आशालता जी के करीयर को देखें तो उन्होंने कुछ यादगार म्युज़िकल फ़िल्मों का निर्माण किया है जैसे कि 'लाडली', 'बड़ी बहू', 'लाजवाब', 'हमदर्द', 'बाज़ूबंद', जो अपने ज़माने के हिट फ़िल्में हैं। इन सब फ़िल्मों के बारे में आप क्या जानती हैं?
शिखा - देखिए वो हमेशा से ही एक ऐक्टिव पर्सन रही हैं अपने प्रोफ़ेशनल लाइफ़ में। वो काम करना चाहती थीं, लेकिन दो बच्चों के जन्म के बाद वो अभिनय से संयास लेना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने अभिनय को छोड़ कर फ़िल्म निर्माण का काम ले लिया और अपने बैनर 'वरायटी पिक्चर्स' की स्थापना की। मैं एक बात ज़रूर कहना चाहूँगी कि उन्होंने फ़िल्म निर्माण के हर पहलु को वो ख़ुद परखती थीं, रोज़ ऒफ़िस जाना, और पूरे शिड्युल को बकायदा मेण्टेन करना। निम्मी, शेखर, सुलोचना चटर्जी जैसे कलाकारों के साथ उनका रिश्ता बहुत ही अच्छा था। मैं अक्सर उनके साथ आउटडोर जाया करती थी जैसे कि पंचगनी और महाबलेश्वर। एक बार किसी डान्स सिक्वेन्स के शूटिंग् के दौरान मैं ग़लती से कैमरे के फ़्रेम में आ गई और जुनियर आर्टिस्ट्स के साथ डान्स करने लग पड़ी। फ़िल्म के निर्देशक 'कट' बोलने ही वाले थे कि उन्होंने कैमरा चलते रहने का इशारा किया। उनकी ज़्यादातर फ़िल्में 'रणजीत' और दादर के 'श्री साउण्ड स्टुडिओ' में शूट हुआ करती थी। मुझे याद है कि फ़िल्म 'बड़ी बहू' के गीत "मेरे दिल की धड़कन में" और "सपने तुझे बुलाये" का डान्स रिहर्सल हमारे घर के बैठकखाने में हुई थी। और रिहर्सल कर रहे थे गोपी कृषन और स्मृति बिस्वास; और बाद में इनका फ़िल्मांकन 'फ़ेमस स्टुडिओ महालक्ष्मी' में हुआ, जहाँ पर मम्मा ने अपना ऒफ़िस बाद में शिफ़्ट कर लिया था।
सुजॊय - बहुत ही हसीन यादें जुड़ी हुई होगी इनके साथ, है न? तो क्यों न यहाँ पर हम फ़िल्म 'बड़ी बहू' का एक गाना सुन लें!
गीत - मीठी मीठी निंदिया आई रे (बड़ी बहू)
सुजॊय - अच्छा शिखा जी, जैसा कि आपने बताया कि आपके घर पर फ़िल्मों के रिहर्सल हुआ करते थे, तो यह बताइए कि किस तरह का माहौल हुआ करता था?
शिखा - बहुत ही मज़ेदार होते थे वो दिन कि जब बाबा खाना बनाते थे सभी के लिए और जैसे घर पर एक पिकनिक का माहौल बन जाता था। उस ज़माने में फ़िल्म से जुड़े सभी लोग आपस में एक दूसरे के बहुत नज़दीक हुआ करते थे और एक परिवार की तरह काम किया करते थे। मुझे याद है बाबा ने 'हमदर्द' में एक गेस्ट अपीयरेन्स दिया था, उन्होंने एक नाई की भूमिका निभाई थी। और जितना मुझे याद है 'मेहमान' में उन्होंने एक पुजारी का रोल निभाया था और उन पर एक गीत भी फ़िल्माया गया था "खोल दे पुजारी द्वार खोल दे"।
सुजॊय - अरे वाह! यह तो वाक़ई दुर्लभ जानकारी है! शिखा जी, हमनें कोशिशें तो बहुत की थी कि इस गीत का विडिओ कहीं से ढूंढ सकें, लेकिन अफ़सोस कि कहीं पर हम इसे खोज नहीं पाये। भविष्य में कभी अगर हमारे हाथ लगा तो आप के साथ भी और अपने श्रोता-पाठकों के साथ भी ज़रूर बाँटेंगे। लेकिन फ़िल्हाल यहाँ पर हम अपने पाठकों को फ़िल्म 'मेहमान' का पोस्टर ज़रूर दिखा सकते हैं जिसे आपके सौजन्य से ही हमें प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम आपके आभारी हैं।
शिखा - पता है 'वरायटी पिक्चर्स' का जो लोगो था, उसे भी बाबा ने ही डिज़ाइन किया था, एक ढोलक के उपर विराजमान माँ सरस्वती, जिसके दोनों तरफ़ तानपुरे से सहारा दिया गया है। इस लोगो का एक रेप्लिका हमारे बैठकखाने की दीवार पर टंगा होता था।
सुजॊय - 'लाजवाब' फ़िल्म के बारे में कुछ बताइए।
शिखा - फ़िल्म 'लाजवाब' का निर्माण रेस-कोर्स में हुई जीत के पैसे से हुआ था। 'लाजवाब' नाम से एक घोड़ा था जिस पर ममा ने बाज़ी रखी थी। यह घोड़ा अभिनेता मोतीलाल जी का था। और इस तरह से फ़िल्म का नाम भी 'लाजवाब' रख लिया गया।
सुजॊय - यह तो वाक़ई दिलचस्प बात है। 'हमदर्द' फ़िल्म भी एक यादगार फ़िल्म थी अनिल दा के करीयर की। इस फ़िल्म से जुड़ी क्या यादें हैं आपकी?
शिखा - 'हमदर्द' की रचनात्मक रागमाला "ऋतु आये ऋतु जाये", जो बाबा की जीवनी का भी शीर्षक बना, हमारे घर में लगभग तीन हफ़्तों तक इसकी रिहर्सल चलती रही और तब जाकर बाबा आश्वस्त हुए रेकॊर्डिंग के लिए। वो बहुत ज़्यादा एक्साइटेड थे जब रेकॊर्डिंग के बाद गीत को बजाया जा रहा था। मन्ना दा के शब्दों में बाबा नृत्य करने लगे थे। मन्ना दा हम बच्चों को अंग्रेज़ी के शरारत भरे गीत सिखाया करते थे।
सुजॊय - जब 'हमदर्द' और मन्ना दा की बात चल ही पड़ी है तो क्यों ना यहाँ पर "ऋतु आये ऋतु जाये" का भी आनंद हम उठा ही लें!
शिखा - ज़रूर!
गीत - ऋतु आये ऋतु जाये (हमदर्द)
सुजॊय - फ़िल्म 'बड़ी बहू' के बारे में कुछ कहना चाहेंगी?
शिखा - 'बड़ी बहू' को बहुत सारे पुरस्कार मिले किसी फ़िल्म फ़ेस्टिवल में जो शायद शिमला या देहरादून में हुआ था। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिए और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए बलराज साहनी जी को। मुझे याद है मैंने एक फ़ोटो देखा था जिसमें पूरी कास्ट अपने अपने पुरस्कारों के साथ खड़े हैं और ये पुरस्कार अशोक स्तंभ के सिंह की आकृति के थे।
सुजॊय - शिखा जी, क्या आप हमारे पाठकों को आशालता जी की कुछ तस्वीरें दिखा सकती हैं?
शिखा - अफ़सोस की बात है कि ममा की ज़्यादातर तस्वीरें उन्होंने किसी को दिया था जो पूना से आया हुआ था और जिसने वादा किया था उन्हें वापस करने का लेकिन नहीं किया। और बाद में वही तस्वीरें FTII में पायी गई जहाँ से मेरी बेटी ने एक "ख़रीदा" है।
सुजॊय - ओ हो हो! बहुत ही अफ़सोस की बात है! अच्छा शिखा जी, अभी हमने आशालता जी निर्मित जिन फ़िल्मों की चर्चा की, वो सभी अनिल दा के संगीत से सजे हुए थे। लेकिन 'बाज़ूबंद' फ़िल्म में संगीत मोहम्मद शफ़ी का था। ऐसा क्यों?
शिखा - १९५४ में बदक़िस्मती से मेरे ममा और बाबा एक दूसरे से अलग हो गये और अपनी अपनी राह पर चल निकले। और उनके व्यक्तिगत जीवन की यह जुदाई ज़ाहिर है प्रोफ़ेशनल लाइफ़ पर भी अपना असर चला गई। मोहम्मद शफ़ी को, जो पहले नौशाद साहब के सहायक हुआ करते थे, 'बाज़ूबंद' के लिए अनुबंधित कर लिया गया। इस फ़िल्म में उन्होंने कुछ पारम्परिक ठुमरियों को फ़िल्मी रूप में पेश किया, और इनमें इस फ़िल्म का शीर्षक गीत "बाज़ूबंद खुल खुल जाये" भी शामिल था।
सुजॊय - आगे बढ़ने से पहले हम 'बाज़ूबंद' के इस शीर्षक गीत को यहाँ पर सुनना चाहेंगे जिसे लोगों ने शायद एक अरसे से नहीं सुना होगा।
गीत - बाज़ूबंद खुल खुल जाये (बाज़ूबंद)
सुजॊय - और कोई फ़िल्म है जिसे आशालता जी ने प्रोड्युस किया था?
शिखा - उन्होंने 'मेहमान' फ़िल्म प्रोड्युस की थी जिसमें उन्होंने रामानंद सागर को बतौर निर्देशक अपना पहला ब्रेक दिया था। 'बाज़ूबंद' के बाद १९५५ में उन्होंने 'अंधेर नगरी चौपट राजा' फ़िल्म का भी निर्माण किया जिसमें गोप ने मुख्य भूमिका निभाई और चित्रा नायिका थीं। नायक का नाम याद नहीं आ रहा।
सुजॊय - आशालता जी एक अभिनेत्री/निर्मात्री थीं और अनिल दा एक सुप्रसिद्ध संगीतकार। ऐसे वातावरण में क्या आप भाई बहनों में किसी को भी फ़िल्म लाइन में जाने की आकांक्षा नहीं हुई? आपने कभी किसी फ़िल्म में अभिनय या गायन नहीं किया?
शिखा- मोतीलाल जी के अनुसार ६० के दशक की तीन नई नायिकाएँ होनी थी - अंजु महेन्द्रु, ज़हीदा, और शिखा बिस्वास। मुझे बहुत सारे बड़े प्रोडक्शन हाउसेस से ऒफ़र मिले जिनमें 'पड़ोसन' शामिल थी, और 'कश्मीर की कली' भी।'मेरे मेहबूब' के लिए मुझे याद है, एच.एस. रवैल मेरे दाँत कैप करवाना चाहते थे, कुछ दिनों के लिये 'ड्रमर' नामक फ़िल्म की शूटिंग भी की, जो 'वेस्ट-साइड स्टोरी' पर आधारित थी और जिसका निर्माण 'फ़िल्मालय' कर रहे थे देब मुखर्जी को लौंच करने के लिए। 'फिर वही आवाज़' की बात मैं कर चुकी हूँ, और मेरे जीवन की सब से बड़ी भूल कि मैंने 'धूप के साये में' नामक एक फ़िल्म के लिए "ना" कह दी जिसमें मेरे नायक होते संजीव कुमार। बाद में इस फ़िल्म के लिए हेमा मालिनी को ले लिया गया, लेकिन यह फ़िल्म नहीं बनीं या रिलीज़ नहीं हुई। फिर शम्मी कपूर जी एक फ़िल्म बनाना चाहते थे मुझे लेकर, जिसमें जय मुख्रजी नायक बनने वाले थे। इस तरह से और भी कई फ़िल्में थीं जो इस वक़्त मुझे याद नहीं आ रहे। लेकिन आख़िर में मैं कुछ व्यक्तिगत कारणों से फ़िल्म लाइन से बाहर निकल आई। वैसे मेरे दो भाई फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े, एक बतौर संगीतकार और दूसरा भाई जिसने पहली बार मुंबई में डिजिटल रेकॊर्डिंग् स्टुडिओ की स्थापना की।
सुजॊय - आशालता जी को एक माँ के रूप में आपने कैसा पाया? उनसे जुड़ी कुछ बातें बताइए जिनकी यादें आज भी आपके दिल में ताज़ी हैं।
शिखा - मेरी माँ एक सशक्त महिला थीं, एक फ़ेमिनिस्ट जो अपने समय से काफ़ी आगे बढ़ के थीं। और इनके साथ साथ एक बहुत ही ख़ूबसूरत औरत, न केवल बाहरी रूप से दिखने में, बल्कि मन की भी बहुत सुंदर थीं। उनके जैसा इमानदार इंसान मैंने आज तक नहीं पाया। उनका ऐटिट्युड, सीधी बात कहने की उनकी अदा, बहुत ही डाउन-टू-अर्थ और हिपोक्रिसी से कोसों दूर, ये सब उनकी कुछ विशेषताएँ थीं। मुझे उनकी कपड़ों और गहनों में हमेशा दिलचस्पी रही; वो एक राजकुमारी की तरह दिखतीं थीं और जब किसी कमरे में प्रवेश करतीं तो वहाँ की मध्यमणि बन जातीं। हम सब उनसे बहुत ज़्यादा प्रभावित थे। उनके गुस्से और भड़क उठने की बातें मशहूर थीं इंडस्ट्री में, लेकिन किसी भी ग़लती या अन्याय का वो हमेशा पूरा पूरा न्याय करतीं। व्यस्तता की वजह से वो हमें ज़्यादा समय नहीं दे पातीं, लेकिन हमारी ज़रूरतों का पूरा ख़याल रखतीं। उनकी बड़प्पन का एक उदाहरण देना चाहूँगी। एक बार उनका कोई पूर्व ड्राइवर उनके पास गाड़ी ख़रीदने के लिए लोन माँगने आया। लेकिन क्योंकि वह एक शनिवार की शाम थी और अगले दिन भी बैंक बंद होते, इसलिए उन्होंने अपने सोने के कंगन हाथों से निकाल लिए और उस ड्राइवर को दे दिया। लोग शायद उन्हें कुछ भी कहें, लेकिन जिस तरह से बाहर और घर, दोनों को अकेले उन्होंने सम्भाला है, चार चार बच्चों को अकेले बड़ा किया है, उनके लिए हमारा सर इज़्ज़त से झुक जाता है। यही नहीं, ५० वर्ष की उम्र में तैराकी सीखी और लगभग उसी समय खाना बनाने के बहुत से तरीकें खोज निकाली, नये नये रेसिपीज़ इजाद किये, और फिर मेरी बेटियों के लिए भी एक केयरिंग नानी के रूप में अपने आप को साबित किया। बस उनकी जो एक कमज़ोरी थी, वह था जुआ। लेकिन कोई भी इंसान पर्फ़ेक्ट तो नहीं होता न! हर इंसान में बहुत सारी कमज़ोरियाँ और ख़ामियाँ होती हैं, और उनमें बस कुछ ही थे। उनकी एक और कमज़ोरी यह थी कि वो बहुत जल्द किसी की बातों पर यकीन कर लेती थीं, और क्योंकि वो एक दुखभरी कहानी की नरम पात्र थीं, बहुत से लोग इस बात पर उनका फ़ायदा उठाने की कोशिश करते। उनकी जिस याद को मैं सब से ज़्यादा चेरिश करती हूँ, वह यह कि उन्होंने हम सभी बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाई और यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है, यहाँ तक कि मेरे पिता के नाम और शोहरत से भी बहुत बहुत ज़्यादा। मुझे बहुत दुख होता था उन्हें अल्ज़ाइमर्स से तड़पते देख कर; उनकी ख़ूबसूरती और वैभव का वक़्त के साथ साथ गिरते जाना भी कम दुखदायी नहीं था। एक बार, जब उनकी आर्थिक अवस्था बहुत ज़्यादा ख़राब हो चुकी थीं, वो अपना सर्वस्व हार चुकी थीं, मैं दिल्ली से उनके यहाँ आई; उन्होने अपने रुमाल की गांठ खोल कर एक जीर्ण २० रुपय का नोट निकालकर अपनी कामवाली बाई को दिया और उससे मछली ख़रीद लाने को कहा क्योंकि वो जानती थीं कि मुझे 'सी-फ़ूड' बहुत पसंद था। यकीन मानिए, उस वक़्त उनकी जो हालत थी, उसमें पैसा ही एक ऐसा चीज़ था जो वो सब से कम खर्च कर सकती थी। ये थी "आशालता"।
सुजॊय - शिखा जी, जिस तरह से आपने आशालता जी का परिचय आज करवाया है, इन सब बातों को सुन कर मेरी आँखें भी नम हो गईं हैं और मुझे पूरा यकीन है कि जो छवि आज तक लोगों के दिल में आशालता जी की रही हैं, आज ये सब पढ़कर वो दुबारा अपने मन में मंथन करने पर मजबूर हो जाएँगे। और भी कुछ कहना चाहेंगी अपनी माँ के बारे में जो शायद आज तक आप कहना चाह रही होँगी लेकिन कभी मौका नहीं मिला?
शिखा - मैं जिस बात पर सब से ज़्यादा ज़ोर डालना चाहती हूँ, वह यह है कि मेरी जन्मदात्री माँ आशालता के बारे में लोगों को बहुत कम मालूमात है। और बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि वो अनिल बिस्वास की पत्नी थीं। लोग सोचते हैं कि मीना कपूर उनकी पत्नी हैं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि उन्हीं की वजह से मेरे ममा और बाबा अलग हो गये। ये सब बातें अब पुरानी हो चुकी हैं और इन सब का मुझ पर और कोई प्रभाव नहीं होता। जिस बात को मैं सब से ज़्यादा ज़रूरी मानती हूँ, वह यह कि लोग आशालता के बारे में नहीं जानते, उनके उल्लेखनीय जीवन की कहानी नहीं जानते, उनके बलिदान और शक्ति के बारे में नहीं जानते। मैं एक काल्पनिक उपन्यास लिख रही हूँ उनके जीवन के संघर्ष को आधार बनाकर और आशा करती हूँ कि यह उपन्यास किसी दिन पब्लिश होगा और लोगों को असली कहानी का पता चलेगा।
सुजॊय - ज़रूर शिखा जी, हम दिल से यह दुआ करते हैं कि आपको ईश्वर इस राह में आपका हमसफ़र बनें और आपको अपनी मंज़िल जल्द ही दिखाई दे।
शिखा - शुक्रिया! एक और बात जिस पर ध्यान देना आवश्यक है, वह यह कि मेरे बाबा ने अपना सब से मीठा काम तभी किया है जब वो मेरी ममा के साथ थे। १९५४ में मेरी ममा से अलग होने के बाद उनका करीयर ग्राफ़ भी ढलान पर उतरने लगा था।
सुजॊय - वाक़ई सोचने वाली बात है। अच्छा शिखा जी, हमने आशालता जी के बारे में बहुत सारी बातें की। आपके दिल में उनकी क्या जगह है आपने हमें बताया, लेकिन अपने पिता और मशहूर संगीतकार अनिल बिस्वास जी के लिए आपके दिल में किस तरह की फ़ीलिंग्स है, उसके बारे में कुछ बताना चाहेंगी?
शिखा - एक प्रतिभाशाली संगीतकार के रूप में मेरे दिल में अपने पिता के लिए बहुत ज़्यादा सम्मान है। मुझे बहुत गर्व होता है उनकी सांगीतिक खोजों के बारे में जानकर और जिस तरह से उन्होंने एक पायनियरिंग् म्युज़िक डिरेक्टर की भूमिका निभाई और अगली पीढ़ी के संगीतकारों के लिए रास्ता बनाया, यह वाक़ई गर्व करने लायक बात है। उनके कम्पोज़िशन्स बहुत ही मीठे और दिव्य हुआ करते और उनके गीतों को बार बार सुनने पर भी जैसे दिल नहीं भरता। हम दोनों में पिता-पुत्री का रिश्ता भी बहुत प्यारा था। उन्होंने मुझे जीवन के मूल्यों के बारे में सिखाया; ग़ज़ल, काव्य और साहित्य के प्रति जो मेरी रुचि है, वो सब उन्हीं की देन है। उनका अनुशासन, सब से जुनियर म्युज़िशियन या कोरस सिंगर के लिए उनका सम्मान, अड्डेबाज़ी में उनका लगाव, ये सब उनकी बातें मुझे प्रभावित करतीं। उनकी एक मित्र-मण्डली हुआ करती थी जो अगर रविवार को जमा होती और तरह तरह के विषयों पर चर्चा करते। एक बार ऐसी ही एक "राजकीय" गोष्ठी में जमा हुए थे पंडित नरेन्द्र शर्मा, फणी मजुमदार, के.ए. अब्बास, रामानंद सागर, प्रेम धवन, कोल कैविश, महेश कौल, सफ़्दार आह सितापुरी, पंडित चन्द्रशेखर और अभिनेता जयराज जैसे गण्य मान्य व्यक्ति। उन सब ने रामायण पर चर्चा की और शायद यहीं से रामानंद सागर जी के मन में उस महत्वाकांक्षी टीवी धारावाहिक को बनाने की प्रेरणा मिली होगी। और मेरा जो शब्दकोश है, यह भी उन्हीं के साथ स्क्रैबल खेलने की वजह से है। मेरे लिए उनकी जो फ़रमाइश होती, वह थी एक अच्छे हेड-मसाज की!!!
सुजॊय - बहुत ख़ूब!
शिखा - मैं इन दिनों दिल्ली में एक म्युज़िक सोसायटी चलाती हूँ उनकी और सभी बड़े संगेतकारों की स्मृति में, जिसका नाम है 'संगीत स्मृति'। हम गुज़रे ज़माने के फ़िल्म संगीत पर स्टेज शोज़ करते हैं।
सुजॊय - वाह! बहुत अच्छा लगा शिखा जी, अब बारी है एक गीत सुनवाने की। हम एक ऐसा गीत आप से सुनवाना चाहेंगे अपने पाठकों व श्रोताओं को, जो आप अपनी माँ आशालता जी और अपने पिता अनिल दादा को एक साथ डेडिकेट कर सकें। बताइए कौन से गीत से आप इन दोनों को याद करना चाहेंगी?
शिखा - ममा और बाबा को जोड़ने के लिए जो गीत मेरे दिमाग में आता है, वह है तलत महमूद साहब का गाया फ़िल्म 'दोराहा' का "मोहब्बत तर्क की मैंने"। यह ममा का फ़ेवरीट गीत था बाबा की कम्पोज़िशन में। और मेरी ममा ने ही मुझे पहली बार यही गीत सिखाया था।
सुजॊय - आइए सुनते हैं...
गीत - मोहब्बत तर्क की मैंने (दोराहा)
शिखा - साथ ही 'गजरे' का "घर यहाँ बसाने आये थे" भी उन्हीं से मैंने सीखा था। इस गीत की धुन "सीने में सुलगते हैं अरमान" गीत की धुन से बहुत ज़्यादा मिलती-जुलती है, लेकिन बहुत कम लोगों को इसका पता है। क्या इस गीत को भी आप सुनवा सकते हैं?
सुजॊय - ज़रूर! बल्कि हम दोनों गीतों को सुनना व सुनवाना चाहेंगे एक के बाद एक...
गीत - सीने में सुलगते अरमान (तराना)
गीत - घर यहाँ बसाने आये (गजरे)
सुजॊय - शिखा जी, किन शब्दों में मैं आपका शुक्रिया अदा करूँ समझ नहीं आ रहा। जिन लोगों को आशालता जी के बारे में मालूमात नहीं थी या ग़लत धारणा थी, मुझे पूरा विश्वास है कि इस साक्षात्कार के माध्यम से उनकी असली छवि को हमने यहाँ आज प्रस्तुत किया है आपके सहयोग से। मैं अपनी तरफ़ से, अपने तमाम पाठकों की तरफ़ से और 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से आपका शुक्रिया अदा करता हूँ, और भविष्य में फिर से आप से बातचीत करने की उम्मीद रखता हूँ, बहुत बहुत धन्यवाद!
शिखा- बहुत बहुत धन्यवाद! मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई अपनी माँ के बारे में बताते हुए।
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सुजॊय - शिखा जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंदयुग्म' पर, और बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने हमारे इस निमंत्रण को स्वीकारा, और आशालता जी के बारे में विस्तार से हमारे पाठकों को बताने के लिए राज़ी हुईं।
शिखा - आपका बहुत धन्यवाद जो आपने अपने फ़ोरम में मुझे बुलाया। सब से पहले मैं यह कहना चाहूँगी कि बच्चे अपने माता-पिता के काम के बारे में बहुत कम ही बातचीत करते हैं और हम भी दूसरे बच्चों से अलग नहीं थे। हमने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा आ जाएगा कि ये सब बातें इतिहास बन जाएँगी या इन सब बातों को जानने में लोगों की दिलचस्पी होगी। माँ-बाप चाहे बाहर कितने भी लोकप्रिय या पब्लिक फ़िगर हों, बच्चों के लिए तो वो केवल माँ-बाप ही होते हैं। सिनेमा के रसिक उनके बारे में ज़्यादा जानकारी रखते हैं, इसलिए आपके इस मुहिम में शायद मैं बहुत ज़्यादा कारगर न साबित हो सकूँ।
सुजॊय - शिखा जी, आशालता जी उस पीढ़ी की अभिनेत्री थीं जब बोलती फ़िल्मों की बस शुरुआत ही हुई थी। जब मैंने इंटरनेट पर उपलब्ध आशालता जी की फ़िल्मोग्राफ़ी पर नज़र दौड़ाई, तो पाया कि उनकी पहली फ़िल्में थीं 'सजीव मूर्ती', 'आज़ादी' और 'सती तोरल', और ये फ़िल्में आईं थीं सन् १९३५ में। क्या आप बता सकती हैं कि क्या वाक़ई आशालता जी १९३५ में लौंच हुईं थीं?
शिखा - 'आज़ादी' का निर्माण १९३४ में शुरु होकर फ़िल्म १९३५ में रिलीज़ हुई थी, इसलिए यही फ़िल्म शायद उनकी डेब्यु फ़िल्म थी, और इसमें उनके नायक थे विजय कुमार। उस वक़्त आशालता जी की उम थी १८ वर्ष।
सुजॊय- क्या आशालता जी ने कभी आपको बताया कि उनका सिनेमा में पदार्पण किस तरह से हुआ था?
शिखा - न उन्होंने कभी इसके बारे में हमें बताया और न ही हमने कभी उनसे यह पूछा। लेकिन जितना मुझे मालूम है, वो और शोभना समर्थ क्लासमेट्स थीं और बहुत अच्छे दोस्त भी। इसलिए हो सकता है कि वे दोनों एक ही समय पर फ़िल्मी मैदान में उतरी होंगी। शोभना समर्थ जी के अंकल एक फ़ोटो-स्टुडिओ चलाते थे 'देवारे' नाम से।
सुजॊय - मैंने सुना है कि आशालता जी का असली नाम था मेहरुन्निसा। जहाँ तक एक फ़िल्मी नायिका के नाम का सवाल है, इस नाम में कोई ख़ामी नहीं थी। फिर उन्होंने अपना नाम क्यों बदला होगा, क्या इसके बारे में आप कुछ बता सकती हैं?
शिखा - उनका असली नाम था मेहरुन्निसा भगत। शायद उन्होंने या फ़िल्म के निर्माता ने उनका नाम बदल दिया होगा क्योंकि उन दिनों यह एक रवायत थी।
सुजॊय - ये जो तीन फ़िल्मों का ज़िक्र हमने अभी किया, वे सभी 'शक्ति मूवीज़' के बैनर तले निर्मित फ़िल्में थीं। उस ज़माने में फ़िल्मी कलाकार फ़िल्म कंपनी के कर्मचारी हुआ करते थे जिन्हें मासिक तौर पर तनख्वा मिलती थी। तो क्या आशालता जी भी 'शक्ति मूवीज़' में कार्यरत थीं?
शिखा - मुझे नहीं लगता कि उनका किसी स्टुडिओ विशेष से कोई अनुबंधन था, बल्कि फ़िल्म निर्माण के दौरान उन्हें उस कंपनी से मासिक तनख्वा मिला करती होगी।
सुजॊय - शायद आप ठीक कह रही हैं, क्योंकि अगले ही साल, यानी १९३६ से वो कई बैनरों की फ़िल्मों में नज़र आयीं, जैसे कि 'गोल्डन ईगल', 'ईस्टर्ण आर्ट्स', 'सागर मूवीटोन', 'दर्यानी प्रोडक्शन्स' आदि। अच्छा, १९३६ की बात करें तो इस साल 'शेर का पंजा' और 'पिया की जोगन' जैसी फ़िल्में उनकी आयीं, जिनमें संगीत आपके पिता श्री अनिल बिस्वास जी का था। तो यह बताइए कि आशालता जी अनिल दा से कब मिलीं? क्या इन्ही दो फ़िल्मों के निर्माण के दौरान या उससे पहले?
शिखा - अनिल बिस्वास 'मनमोहन' फ़िल्म के संगीतकार के सहायक थे, जिसका निर्माण १९३५ से ही शुरु हो चुका था। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि वे दोनों तभी मिले होंगे और दोनों ने शादी की १९३६ में।
सुजॊय - अच्छा शिखा जी, वह ३० का दशक कुंदन लाल सहगल साहब का दशक था, और १९४० में एक बहुत ही मशहूर फ़िल्म आयी थी 'ज़िंदगी' जिसमें सहगल साहब मुख्य भूमिका में थे। इस फ़िल्म में आशालता जी ने भी अभिनय किया था। क्या उन्होंने आपको इस फ़िल्म के बारे में या सहगल साहब के बारे में कुछ बताया?
शिखा - जी नहीं, उन्होंने कभी ऐसा कुछ ज़िक्र नहीं किया कि इस फ़िल्म में उनका सहगल साहब के साथ कोई सीन था।
सुजॊय - १९३७ में आशालता जी की एक मशहूर फ़िल्म आयी थी 'प्रेमवीर', जिसका निर्माण हिंदी और मराठी, दोनों में हुआ था। यह बताइए कि क्या आशालता जी ने इस फ़िल्म के लिए मराठी सीखा था? उनकी मातृभाषा क्या थी?
शिखा - 'प्रेमवीर', मास्टर विनायक के साथ। नंदा जी के पिता मास्टर विनायक जी के लिए उनके दिल में बहुत सम्मान था। वो ख़ुद बहुत अच्छा मराठी, गुजराती और सिंधी बोल लेती थीं और शादी के बाद बंगला भी सीख गई थीं। वो मूलत: भुज की थीं और उनकी मातृभाषा थी कच्छी।
सुजॊय - फ़िल्मों से संन्यास लेने के एक अरसे बाद वो फिर से नज़र आयीं गुजराती फ़िल्म 'मारे जावुण पेले पार' फ़िल्म में जो १९६८ में बनी थी। इस फ़िल्म के लिए उन्हें न्योता कैसे मिला?
शिखा - दरअसल १९६६ में उन्होंने एक फ़िल्म 'श्रीमान फ़ंटूश' का निर्माण किया था अपने भाई के बैनर तले और जिसमें उन्होंने किशोर कुमार के माँ का किरदार भी निभाया था। उसी दौरान मुझे भी एक फ़िल्म 'फिर वही आवाज़' में नायिका बनने का ऒफ़र आया था जिसमें सुजीत कुमार नायक थे, और उस फ़िल्म के निर्देशक थे शांतिलाल सोनी, जो कि एक गुजराती थे। उन्होंने मेरी मम्मी को रेकमेण्ड किया उस रोल के लिए। वह फ़िल्म बहुत बड़ी हिट साबित हुई और उसका हिंदी में री-मेक हुआ 'खिलौना' शीर्षक से, जिसमें अरुणा इरानी वाला किरदार मुमताज़ ने निभाया।
सुजॊय - एक फ़िल्म निर्मात्री के रूप में आशालता जी के करीयर को देखें तो उन्होंने कुछ यादगार म्युज़िकल फ़िल्मों का निर्माण किया है जैसे कि 'लाडली', 'बड़ी बहू', 'लाजवाब', 'हमदर्द', 'बाज़ूबंद', जो अपने ज़माने के हिट फ़िल्में हैं। इन सब फ़िल्मों के बारे में आप क्या जानती हैं?
शिखा - देखिए वो हमेशा से ही एक ऐक्टिव पर्सन रही हैं अपने प्रोफ़ेशनल लाइफ़ में। वो काम करना चाहती थीं, लेकिन दो बच्चों के जन्म के बाद वो अभिनय से संयास लेना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने अभिनय को छोड़ कर फ़िल्म निर्माण का काम ले लिया और अपने बैनर 'वरायटी पिक्चर्स' की स्थापना की। मैं एक बात ज़रूर कहना चाहूँगी कि उन्होंने फ़िल्म निर्माण के हर पहलु को वो ख़ुद परखती थीं, रोज़ ऒफ़िस जाना, और पूरे शिड्युल को बकायदा मेण्टेन करना। निम्मी, शेखर, सुलोचना चटर्जी जैसे कलाकारों के साथ उनका रिश्ता बहुत ही अच्छा था। मैं अक्सर उनके साथ आउटडोर जाया करती थी जैसे कि पंचगनी और महाबलेश्वर। एक बार किसी डान्स सिक्वेन्स के शूटिंग् के दौरान मैं ग़लती से कैमरे के फ़्रेम में आ गई और जुनियर आर्टिस्ट्स के साथ डान्स करने लग पड़ी। फ़िल्म के निर्देशक 'कट' बोलने ही वाले थे कि उन्होंने कैमरा चलते रहने का इशारा किया। उनकी ज़्यादातर फ़िल्में 'रणजीत' और दादर के 'श्री साउण्ड स्टुडिओ' में शूट हुआ करती थी। मुझे याद है कि फ़िल्म 'बड़ी बहू' के गीत "मेरे दिल की धड़कन में" और "सपने तुझे बुलाये" का डान्स रिहर्सल हमारे घर के बैठकखाने में हुई थी। और रिहर्सल कर रहे थे गोपी कृषन और स्मृति बिस्वास; और बाद में इनका फ़िल्मांकन 'फ़ेमस स्टुडिओ महालक्ष्मी' में हुआ, जहाँ पर मम्मा ने अपना ऒफ़िस बाद में शिफ़्ट कर लिया था।
सुजॊय - बहुत ही हसीन यादें जुड़ी हुई होगी इनके साथ, है न? तो क्यों न यहाँ पर हम फ़िल्म 'बड़ी बहू' का एक गाना सुन लें!
गीत - मीठी मीठी निंदिया आई रे (बड़ी बहू)
सुजॊय - अच्छा शिखा जी, जैसा कि आपने बताया कि आपके घर पर फ़िल्मों के रिहर्सल हुआ करते थे, तो यह बताइए कि किस तरह का माहौल हुआ करता था?
शिखा - बहुत ही मज़ेदार होते थे वो दिन कि जब बाबा खाना बनाते थे सभी के लिए और जैसे घर पर एक पिकनिक का माहौल बन जाता था। उस ज़माने में फ़िल्म से जुड़े सभी लोग आपस में एक दूसरे के बहुत नज़दीक हुआ करते थे और एक परिवार की तरह काम किया करते थे। मुझे याद है बाबा ने 'हमदर्द' में एक गेस्ट अपीयरेन्स दिया था, उन्होंने एक नाई की भूमिका निभाई थी। और जितना मुझे याद है 'मेहमान' में उन्होंने एक पुजारी का रोल निभाया था और उन पर एक गीत भी फ़िल्माया गया था "खोल दे पुजारी द्वार खोल दे"।
सुजॊय - अरे वाह! यह तो वाक़ई दुर्लभ जानकारी है! शिखा जी, हमनें कोशिशें तो बहुत की थी कि इस गीत का विडिओ कहीं से ढूंढ सकें, लेकिन अफ़सोस कि कहीं पर हम इसे खोज नहीं पाये। भविष्य में कभी अगर हमारे हाथ लगा तो आप के साथ भी और अपने श्रोता-पाठकों के साथ भी ज़रूर बाँटेंगे। लेकिन फ़िल्हाल यहाँ पर हम अपने पाठकों को फ़िल्म 'मेहमान' का पोस्टर ज़रूर दिखा सकते हैं जिसे आपके सौजन्य से ही हमें प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम आपके आभारी हैं।
शिखा - पता है 'वरायटी पिक्चर्स' का जो लोगो था, उसे भी बाबा ने ही डिज़ाइन किया था, एक ढोलक के उपर विराजमान माँ सरस्वती, जिसके दोनों तरफ़ तानपुरे से सहारा दिया गया है। इस लोगो का एक रेप्लिका हमारे बैठकखाने की दीवार पर टंगा होता था।
सुजॊय - 'लाजवाब' फ़िल्म के बारे में कुछ बताइए।
शिखा - फ़िल्म 'लाजवाब' का निर्माण रेस-कोर्स में हुई जीत के पैसे से हुआ था। 'लाजवाब' नाम से एक घोड़ा था जिस पर ममा ने बाज़ी रखी थी। यह घोड़ा अभिनेता मोतीलाल जी का था। और इस तरह से फ़िल्म का नाम भी 'लाजवाब' रख लिया गया।
सुजॊय - यह तो वाक़ई दिलचस्प बात है। 'हमदर्द' फ़िल्म भी एक यादगार फ़िल्म थी अनिल दा के करीयर की। इस फ़िल्म से जुड़ी क्या यादें हैं आपकी?
शिखा - 'हमदर्द' की रचनात्मक रागमाला "ऋतु आये ऋतु जाये", जो बाबा की जीवनी का भी शीर्षक बना, हमारे घर में लगभग तीन हफ़्तों तक इसकी रिहर्सल चलती रही और तब जाकर बाबा आश्वस्त हुए रेकॊर्डिंग के लिए। वो बहुत ज़्यादा एक्साइटेड थे जब रेकॊर्डिंग के बाद गीत को बजाया जा रहा था। मन्ना दा के शब्दों में बाबा नृत्य करने लगे थे। मन्ना दा हम बच्चों को अंग्रेज़ी के शरारत भरे गीत सिखाया करते थे।
सुजॊय - जब 'हमदर्द' और मन्ना दा की बात चल ही पड़ी है तो क्यों ना यहाँ पर "ऋतु आये ऋतु जाये" का भी आनंद हम उठा ही लें!
शिखा - ज़रूर!
गीत - ऋतु आये ऋतु जाये (हमदर्द)
सुजॊय - फ़िल्म 'बड़ी बहू' के बारे में कुछ कहना चाहेंगी?
शिखा - 'बड़ी बहू' को बहुत सारे पुरस्कार मिले किसी फ़िल्म फ़ेस्टिवल में जो शायद शिमला या देहरादून में हुआ था। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिए और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए बलराज साहनी जी को। मुझे याद है मैंने एक फ़ोटो देखा था जिसमें पूरी कास्ट अपने अपने पुरस्कारों के साथ खड़े हैं और ये पुरस्कार अशोक स्तंभ के सिंह की आकृति के थे।
सुजॊय - शिखा जी, क्या आप हमारे पाठकों को आशालता जी की कुछ तस्वीरें दिखा सकती हैं?
शिखा - अफ़सोस की बात है कि ममा की ज़्यादातर तस्वीरें उन्होंने किसी को दिया था जो पूना से आया हुआ था और जिसने वादा किया था उन्हें वापस करने का लेकिन नहीं किया। और बाद में वही तस्वीरें FTII में पायी गई जहाँ से मेरी बेटी ने एक "ख़रीदा" है।
सुजॊय - ओ हो हो! बहुत ही अफ़सोस की बात है! अच्छा शिखा जी, अभी हमने आशालता जी निर्मित जिन फ़िल्मों की चर्चा की, वो सभी अनिल दा के संगीत से सजे हुए थे। लेकिन 'बाज़ूबंद' फ़िल्म में संगीत मोहम्मद शफ़ी का था। ऐसा क्यों?
शिखा - १९५४ में बदक़िस्मती से मेरे ममा और बाबा एक दूसरे से अलग हो गये और अपनी अपनी राह पर चल निकले। और उनके व्यक्तिगत जीवन की यह जुदाई ज़ाहिर है प्रोफ़ेशनल लाइफ़ पर भी अपना असर चला गई। मोहम्मद शफ़ी को, जो पहले नौशाद साहब के सहायक हुआ करते थे, 'बाज़ूबंद' के लिए अनुबंधित कर लिया गया। इस फ़िल्म में उन्होंने कुछ पारम्परिक ठुमरियों को फ़िल्मी रूप में पेश किया, और इनमें इस फ़िल्म का शीर्षक गीत "बाज़ूबंद खुल खुल जाये" भी शामिल था।
सुजॊय - आगे बढ़ने से पहले हम 'बाज़ूबंद' के इस शीर्षक गीत को यहाँ पर सुनना चाहेंगे जिसे लोगों ने शायद एक अरसे से नहीं सुना होगा।
गीत - बाज़ूबंद खुल खुल जाये (बाज़ूबंद)
सुजॊय - और कोई फ़िल्म है जिसे आशालता जी ने प्रोड्युस किया था?
शिखा - उन्होंने 'मेहमान' फ़िल्म प्रोड्युस की थी जिसमें उन्होंने रामानंद सागर को बतौर निर्देशक अपना पहला ब्रेक दिया था। 'बाज़ूबंद' के बाद १९५५ में उन्होंने 'अंधेर नगरी चौपट राजा' फ़िल्म का भी निर्माण किया जिसमें गोप ने मुख्य भूमिका निभाई और चित्रा नायिका थीं। नायक का नाम याद नहीं आ रहा।
सुजॊय - आशालता जी एक अभिनेत्री/निर्मात्री थीं और अनिल दा एक सुप्रसिद्ध संगीतकार। ऐसे वातावरण में क्या आप भाई बहनों में किसी को भी फ़िल्म लाइन में जाने की आकांक्षा नहीं हुई? आपने कभी किसी फ़िल्म में अभिनय या गायन नहीं किया?
शिखा- मोतीलाल जी के अनुसार ६० के दशक की तीन नई नायिकाएँ होनी थी - अंजु महेन्द्रु, ज़हीदा, और शिखा बिस्वास। मुझे बहुत सारे बड़े प्रोडक्शन हाउसेस से ऒफ़र मिले जिनमें 'पड़ोसन' शामिल थी, और 'कश्मीर की कली' भी।'मेरे मेहबूब' के लिए मुझे याद है, एच.एस. रवैल मेरे दाँत कैप करवाना चाहते थे, कुछ दिनों के लिये 'ड्रमर' नामक फ़िल्म की शूटिंग भी की, जो 'वेस्ट-साइड स्टोरी' पर आधारित थी और जिसका निर्माण 'फ़िल्मालय' कर रहे थे देब मुखर्जी को लौंच करने के लिए। 'फिर वही आवाज़' की बात मैं कर चुकी हूँ, और मेरे जीवन की सब से बड़ी भूल कि मैंने 'धूप के साये में' नामक एक फ़िल्म के लिए "ना" कह दी जिसमें मेरे नायक होते संजीव कुमार। बाद में इस फ़िल्म के लिए हेमा मालिनी को ले लिया गया, लेकिन यह फ़िल्म नहीं बनीं या रिलीज़ नहीं हुई। फिर शम्मी कपूर जी एक फ़िल्म बनाना चाहते थे मुझे लेकर, जिसमें जय मुख्रजी नायक बनने वाले थे। इस तरह से और भी कई फ़िल्में थीं जो इस वक़्त मुझे याद नहीं आ रहे। लेकिन आख़िर में मैं कुछ व्यक्तिगत कारणों से फ़िल्म लाइन से बाहर निकल आई। वैसे मेरे दो भाई फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े, एक बतौर संगीतकार और दूसरा भाई जिसने पहली बार मुंबई में डिजिटल रेकॊर्डिंग् स्टुडिओ की स्थापना की।
सुजॊय - आशालता जी को एक माँ के रूप में आपने कैसा पाया? उनसे जुड़ी कुछ बातें बताइए जिनकी यादें आज भी आपके दिल में ताज़ी हैं।
शिखा - मेरी माँ एक सशक्त महिला थीं, एक फ़ेमिनिस्ट जो अपने समय से काफ़ी आगे बढ़ के थीं। और इनके साथ साथ एक बहुत ही ख़ूबसूरत औरत, न केवल बाहरी रूप से दिखने में, बल्कि मन की भी बहुत सुंदर थीं। उनके जैसा इमानदार इंसान मैंने आज तक नहीं पाया। उनका ऐटिट्युड, सीधी बात कहने की उनकी अदा, बहुत ही डाउन-टू-अर्थ और हिपोक्रिसी से कोसों दूर, ये सब उनकी कुछ विशेषताएँ थीं। मुझे उनकी कपड़ों और गहनों में हमेशा दिलचस्पी रही; वो एक राजकुमारी की तरह दिखतीं थीं और जब किसी कमरे में प्रवेश करतीं तो वहाँ की मध्यमणि बन जातीं। हम सब उनसे बहुत ज़्यादा प्रभावित थे। उनके गुस्से और भड़क उठने की बातें मशहूर थीं इंडस्ट्री में, लेकिन किसी भी ग़लती या अन्याय का वो हमेशा पूरा पूरा न्याय करतीं। व्यस्तता की वजह से वो हमें ज़्यादा समय नहीं दे पातीं, लेकिन हमारी ज़रूरतों का पूरा ख़याल रखतीं। उनकी बड़प्पन का एक उदाहरण देना चाहूँगी। एक बार उनका कोई पूर्व ड्राइवर उनके पास गाड़ी ख़रीदने के लिए लोन माँगने आया। लेकिन क्योंकि वह एक शनिवार की शाम थी और अगले दिन भी बैंक बंद होते, इसलिए उन्होंने अपने सोने के कंगन हाथों से निकाल लिए और उस ड्राइवर को दे दिया। लोग शायद उन्हें कुछ भी कहें, लेकिन जिस तरह से बाहर और घर, दोनों को अकेले उन्होंने सम्भाला है, चार चार बच्चों को अकेले बड़ा किया है, उनके लिए हमारा सर इज़्ज़त से झुक जाता है। यही नहीं, ५० वर्ष की उम्र में तैराकी सीखी और लगभग उसी समय खाना बनाने के बहुत से तरीकें खोज निकाली, नये नये रेसिपीज़ इजाद किये, और फिर मेरी बेटियों के लिए भी एक केयरिंग नानी के रूप में अपने आप को साबित किया। बस उनकी जो एक कमज़ोरी थी, वह था जुआ। लेकिन कोई भी इंसान पर्फ़ेक्ट तो नहीं होता न! हर इंसान में बहुत सारी कमज़ोरियाँ और ख़ामियाँ होती हैं, और उनमें बस कुछ ही थे। उनकी एक और कमज़ोरी यह थी कि वो बहुत जल्द किसी की बातों पर यकीन कर लेती थीं, और क्योंकि वो एक दुखभरी कहानी की नरम पात्र थीं, बहुत से लोग इस बात पर उनका फ़ायदा उठाने की कोशिश करते। उनकी जिस याद को मैं सब से ज़्यादा चेरिश करती हूँ, वह यह कि उन्होंने हम सभी बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाई और यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है, यहाँ तक कि मेरे पिता के नाम और शोहरत से भी बहुत बहुत ज़्यादा। मुझे बहुत दुख होता था उन्हें अल्ज़ाइमर्स से तड़पते देख कर; उनकी ख़ूबसूरती और वैभव का वक़्त के साथ साथ गिरते जाना भी कम दुखदायी नहीं था। एक बार, जब उनकी आर्थिक अवस्था बहुत ज़्यादा ख़राब हो चुकी थीं, वो अपना सर्वस्व हार चुकी थीं, मैं दिल्ली से उनके यहाँ आई; उन्होने अपने रुमाल की गांठ खोल कर एक जीर्ण २० रुपय का नोट निकालकर अपनी कामवाली बाई को दिया और उससे मछली ख़रीद लाने को कहा क्योंकि वो जानती थीं कि मुझे 'सी-फ़ूड' बहुत पसंद था। यकीन मानिए, उस वक़्त उनकी जो हालत थी, उसमें पैसा ही एक ऐसा चीज़ था जो वो सब से कम खर्च कर सकती थी। ये थी "आशालता"।
सुजॊय - शिखा जी, जिस तरह से आपने आशालता जी का परिचय आज करवाया है, इन सब बातों को सुन कर मेरी आँखें भी नम हो गईं हैं और मुझे पूरा यकीन है कि जो छवि आज तक लोगों के दिल में आशालता जी की रही हैं, आज ये सब पढ़कर वो दुबारा अपने मन में मंथन करने पर मजबूर हो जाएँगे। और भी कुछ कहना चाहेंगी अपनी माँ के बारे में जो शायद आज तक आप कहना चाह रही होँगी लेकिन कभी मौका नहीं मिला?
शिखा - मैं जिस बात पर सब से ज़्यादा ज़ोर डालना चाहती हूँ, वह यह है कि मेरी जन्मदात्री माँ आशालता के बारे में लोगों को बहुत कम मालूमात है। और बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि वो अनिल बिस्वास की पत्नी थीं। लोग सोचते हैं कि मीना कपूर उनकी पत्नी हैं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि उन्हीं की वजह से मेरे ममा और बाबा अलग हो गये। ये सब बातें अब पुरानी हो चुकी हैं और इन सब का मुझ पर और कोई प्रभाव नहीं होता। जिस बात को मैं सब से ज़्यादा ज़रूरी मानती हूँ, वह यह कि लोग आशालता के बारे में नहीं जानते, उनके उल्लेखनीय जीवन की कहानी नहीं जानते, उनके बलिदान और शक्ति के बारे में नहीं जानते। मैं एक काल्पनिक उपन्यास लिख रही हूँ उनके जीवन के संघर्ष को आधार बनाकर और आशा करती हूँ कि यह उपन्यास किसी दिन पब्लिश होगा और लोगों को असली कहानी का पता चलेगा।
सुजॊय - ज़रूर शिखा जी, हम दिल से यह दुआ करते हैं कि आपको ईश्वर इस राह में आपका हमसफ़र बनें और आपको अपनी मंज़िल जल्द ही दिखाई दे।
शिखा - शुक्रिया! एक और बात जिस पर ध्यान देना आवश्यक है, वह यह कि मेरे बाबा ने अपना सब से मीठा काम तभी किया है जब वो मेरी ममा के साथ थे। १९५४ में मेरी ममा से अलग होने के बाद उनका करीयर ग्राफ़ भी ढलान पर उतरने लगा था।
सुजॊय - वाक़ई सोचने वाली बात है। अच्छा शिखा जी, हमने आशालता जी के बारे में बहुत सारी बातें की। आपके दिल में उनकी क्या जगह है आपने हमें बताया, लेकिन अपने पिता और मशहूर संगीतकार अनिल बिस्वास जी के लिए आपके दिल में किस तरह की फ़ीलिंग्स है, उसके बारे में कुछ बताना चाहेंगी?
शिखा - एक प्रतिभाशाली संगीतकार के रूप में मेरे दिल में अपने पिता के लिए बहुत ज़्यादा सम्मान है। मुझे बहुत गर्व होता है उनकी सांगीतिक खोजों के बारे में जानकर और जिस तरह से उन्होंने एक पायनियरिंग् म्युज़िक डिरेक्टर की भूमिका निभाई और अगली पीढ़ी के संगीतकारों के लिए रास्ता बनाया, यह वाक़ई गर्व करने लायक बात है। उनके कम्पोज़िशन्स बहुत ही मीठे और दिव्य हुआ करते और उनके गीतों को बार बार सुनने पर भी जैसे दिल नहीं भरता। हम दोनों में पिता-पुत्री का रिश्ता भी बहुत प्यारा था। उन्होंने मुझे जीवन के मूल्यों के बारे में सिखाया; ग़ज़ल, काव्य और साहित्य के प्रति जो मेरी रुचि है, वो सब उन्हीं की देन है। उनका अनुशासन, सब से जुनियर म्युज़िशियन या कोरस सिंगर के लिए उनका सम्मान, अड्डेबाज़ी में उनका लगाव, ये सब उनकी बातें मुझे प्रभावित करतीं। उनकी एक मित्र-मण्डली हुआ करती थी जो अगर रविवार को जमा होती और तरह तरह के विषयों पर चर्चा करते। एक बार ऐसी ही एक "राजकीय" गोष्ठी में जमा हुए थे पंडित नरेन्द्र शर्मा, फणी मजुमदार, के.ए. अब्बास, रामानंद सागर, प्रेम धवन, कोल कैविश, महेश कौल, सफ़्दार आह सितापुरी, पंडित चन्द्रशेखर और अभिनेता जयराज जैसे गण्य मान्य व्यक्ति। उन सब ने रामायण पर चर्चा की और शायद यहीं से रामानंद सागर जी के मन में उस महत्वाकांक्षी टीवी धारावाहिक को बनाने की प्रेरणा मिली होगी। और मेरा जो शब्दकोश है, यह भी उन्हीं के साथ स्क्रैबल खेलने की वजह से है। मेरे लिए उनकी जो फ़रमाइश होती, वह थी एक अच्छे हेड-मसाज की!!!
सुजॊय - बहुत ख़ूब!
शिखा - मैं इन दिनों दिल्ली में एक म्युज़िक सोसायटी चलाती हूँ उनकी और सभी बड़े संगेतकारों की स्मृति में, जिसका नाम है 'संगीत स्मृति'। हम गुज़रे ज़माने के फ़िल्म संगीत पर स्टेज शोज़ करते हैं।
सुजॊय - वाह! बहुत अच्छा लगा शिखा जी, अब बारी है एक गीत सुनवाने की। हम एक ऐसा गीत आप से सुनवाना चाहेंगे अपने पाठकों व श्रोताओं को, जो आप अपनी माँ आशालता जी और अपने पिता अनिल दादा को एक साथ डेडिकेट कर सकें। बताइए कौन से गीत से आप इन दोनों को याद करना चाहेंगी?
शिखा - ममा और बाबा को जोड़ने के लिए जो गीत मेरे दिमाग में आता है, वह है तलत महमूद साहब का गाया फ़िल्म 'दोराहा' का "मोहब्बत तर्क की मैंने"। यह ममा का फ़ेवरीट गीत था बाबा की कम्पोज़िशन में। और मेरी ममा ने ही मुझे पहली बार यही गीत सिखाया था।
सुजॊय - आइए सुनते हैं...
गीत - मोहब्बत तर्क की मैंने (दोराहा)
शिखा - साथ ही 'गजरे' का "घर यहाँ बसाने आये थे" भी उन्हीं से मैंने सीखा था। इस गीत की धुन "सीने में सुलगते हैं अरमान" गीत की धुन से बहुत ज़्यादा मिलती-जुलती है, लेकिन बहुत कम लोगों को इसका पता है। क्या इस गीत को भी आप सुनवा सकते हैं?
सुजॊय - ज़रूर! बल्कि हम दोनों गीतों को सुनना व सुनवाना चाहेंगे एक के बाद एक...
गीत - सीने में सुलगते अरमान (तराना)
गीत - घर यहाँ बसाने आये (गजरे)
सुजॊय - शिखा जी, किन शब्दों में मैं आपका शुक्रिया अदा करूँ समझ नहीं आ रहा। जिन लोगों को आशालता जी के बारे में मालूमात नहीं थी या ग़लत धारणा थी, मुझे पूरा विश्वास है कि इस साक्षात्कार के माध्यम से उनकी असली छवि को हमने यहाँ आज प्रस्तुत किया है आपके सहयोग से। मैं अपनी तरफ़ से, अपने तमाम पाठकों की तरफ़ से और 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से आपका शुक्रिया अदा करता हूँ, और भविष्य में फिर से आप से बातचीत करने की उम्मीद रखता हूँ, बहुत बहुत धन्यवाद!
शिखा- बहुत बहुत धन्यवाद! मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई अपनी माँ के बारे में बताते हुए।
Comments
आपने शिखा विश्वास के माध्यम से फिल्म जगत के दो व्यक्तित्व- आशालता और अनिल विश्वास, दोनों के कुछ अनूठे कृतित्व से परिचित कराया |
प्रस्तुतियों में भैरवी ठुमरी- 'बाजूबन्द खुल खुल जाय---' सुन कर मैं हतप्रभ रह गया | लगभग 40-45 वर्ष पहले रेडिओ पर लता मंगेशकर की आवाज़ में सुनी इस ठुमरी के स्थाई के बोल परम्परागत ठुमरी भैरवी के अनुरूप होने से स्मृतियों में यह सुरक्षित रहा | बहुत-बहुत धन्यवाद, इस दुर्लभ ठुमरी सुनवाने के लिए |
इसी कड़ी में आपने अनिल विश्वास द्वारा स्वरबद्ध 'रागमालिका' गीत 'ऋतु आए ऋतु जाए.....' भी लाजवाब है | मन्ना डे और लता मंगेशकर के स्वरों में फिल्म 'हमदर्द' के इस गीत में राग- गौड़ सारंग, गौड़ मल्हार, जोगिया और बहार का परिवेश एक सुन्दर पेंटिंग कि तरह साकार हो जाता है | ऐसे ही दुर्लभ और अनमोल खजाने से समृद्ध है भारतीय फिल्म संगीत जगत | एक बार फिर आपकी टीम को धन्यवाद |
I'm in tears as i read your heart wrenching narration of your childhood as you look through the eyes of a child at your home and at respected ( Legendry Anilda ) Anil Uncle & Auntyji ..
My memories are of beautiful Ashalata auntyji as she & my amma Smt. Susheela Narendra Sharma chatted at our home at 594 ....i also remember, one day she old my amma
" look at lavanya..how pretty she looks ..."
& I stared at them because in my eyes, both of them were the REAL beauties ...You also, i remember were full of Mastee & so vibrant ...remember you drumming a wooden Table & humming some song ...at your Maahim home ...aah !
as i wrote once ,
" वह याद रहा,यह याद रहा, कुछ भी तो ना भूला मन!
मेघ मल्हार गाते झरनोँ से जीत गया बैरी सावन!
हर याद सँजोँ कर रख लीँ हैँ मन मेँ,
याद रह गईँ, दूर चला मन! ये कैसा प्यारा बँधन! "
Reading about your parents and siblings waa very touching and filled the gaps that I was missing all these years; but I was somewhat disappointed because I did not see a picture of your mother, Ashalataji, identifying her. Your brother, Pradeep Vishwas, a close friend of ours, often used to mention your parents in conversation while he was a cadet in the Indian Air Force in Jodhpur.
We remember Pradeep as a very personable young man and so would like to see some photographs of him as well.
Good wishes and God Bless.
The late Air Cdr. S.P.Verma's family.