चंदा रे जा रे जा रे....मुस्लिम समाज में महिलाओं की निर्भीक आवाज़ बनकर उभरी इस्मत चुगताई को आज आवाज़ सलाम
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 617/2010/317
हिंदी सिनेमा के कुछ सशक्त महिला कलाकारों को सलाम करती 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'कोमल है कमज़ोर नहीं' की सातवीं कड़ी में आप सभी का फिर एक बार स्वागत है। आज हम जिस प्रतिभा से आपका परिचय करवा रहे हैं, वो एक उर्दू की जानीमानी लेखिका तो हैं ही, साथ ही फ़िल्म जगत को एक कहानीकार, पटकथा व संवाद लेखिका, निर्मात्री व निर्देशिका के रूप में अपना परिचय देनेवाली इस फनकारा का नाम है इस्मत चुगताई। १५ अगस्त १९१५ को उत्तर प्रदेश के बदायूं में जन्मीं और जोधपुर राजस्थान में पलीं इस्मत जी के पिता एक सिविल सर्वैण्ट थे। ६ भाई और ४ बहनों के विशाल परिवार में इस्मत नौवीं संतान थीं। इस्मत की बड़ी बहनों का उनकी बचपन में ही शादी हो जाने की वजह से इस्मत का बचपन अपने भाइयों के साथ गुज़रा। और शायद यही वजह थी इस्मत के अंदर पनपने वाले खुलेपन की और इसी ने उनके लेखन में बहुत ज़्यादा प्रभाव डाला। इस्मत के युवावस्था में ही उनका भाई मिर्ज़ा अज़ीम बेग चुगताई एक स्थापित लेखक बन चुके थे, और वो ही उनके पहले गुरु बनें। १९३६ में स्नातक की पढ़ाई करते हुए इस्मत चुगताई लखनऊ में आयोजित 'प्रोग्रेसिव राइटर्स ऐसोसिएशन' की पहली सभा मे शरीक हुईं। बी.ए. करने के बाद इस्मत ने बी.टी की पढ़ाई की, और बी.ए और बी.टी, दोनों डिग्रियाँ अर्जित करने वाली भारत की पहली मुस्लिम महिला बन गईं। और इसी दौरान वो छुपा छुपा कर लिखने लगीं, क्योंकि उनके इस लेखन का उनकी रूढ़ीवादी मुस्लिम परिवार ने घोर विरोध किया। तमाम मुसीबतों और कठिनाइयों का सामना करते हुए इस्मत चुगताई नें अपना लेखन कार्य जारी रखा और इस देश की आनेवाली लेखिकाओं के लिए राह आसान बनाई। और इसीलिए 'कोमल है कमज़ोर नहीं' शृंखला सलाम करती है इस्मत चुगताई जैसी सशक्त लेखिका को।
जैसा कि हमनें कहा कि इस्मत चुगताई को बड़ी मुसीबतों का सामना करना पड़ा है, आइए इस ओर थोड़ा नज़र डालें। उनकी बहुत सारी लेखों का दक्षिण एशिया में घोर विरोध किया क्योंकि उन सब में मुस्लिम समाज में लाये जाने वाली ज़रूरी बदलावों की बात की गई थी, यहाँ तक कि इस्लामिक उग्रवाद पर भी वार किया था उन्होंने। मुस्लिम महिलाओं की नक़ाबपोशी (परदा) के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाकर उन्होंने मुस्लिम समाज में तूफ़ान उठा दिया था। वर्तमान में मुस्लिम देशों में इस्मत चुगताई की बहुत सी किताबों पर प्रतिबंध है। इस्मत चुगताई के हिंदी सिनेमा में योगदान की अगर बात करें तो उन्होंने इस राह में पदार्पण किया था १९४८ की फ़िल्म 'ज़िद्दी' में, जिसकी उन्होंने कहानी लिखी थी। उसके बाद १९५० में 'फ़रेब' का उन्होंने निर्देशन किया। १९५८ की फ़िल्म 'सोने की चिड़िया' का न केवल उन्होंने निर्माण किया, बल्कि पटकथा भी ख़ुद लिखीं। १९६८ की फ़िल्म 'जवाब आयेगा' को निर्देशित कर १९७३ की मशहूर कलात्मक फ़िल्म 'गरम हवा' की कहानी लिखीं। १९७५ की वृत्तचित्र 'माइ ड्रीम्स' का उन्होंने निर्देशन किया और १९७८ की फ़िल्म 'जुनून' में संवाद लिखे और अभिनय भी किया। २४ अक्तुबर १९९१ को इस्मत चुगताई का बम्बई में निधन हो गया। मुस्लिम होते हुए भी उन्हें कब्र में समाधि नहीं दी गई, बल्कि उनके ख़्वाहिशानुसार उनका अंतिम संस्कार चंदनवाड़ी क्रिमेटोरियम में किया गया। इस छोटे से लेख में इस्मत चुगताई जैसी विशाल प्रतिभा को पूरी तरह से हम समेट नहीं सकते, फिर कभी मौका मिला तो उनके शख्सियत की कुछ और बातें आपको बताएँगे। फ़िल्हाल आइए सुनते हैं फ़िल्म 'ज़िद्दी' से लता मंगेशकर का गाया "चंदा रे, जा रे जा रे"। खेमचंद प्रकाश का संगीत था इस फ़िल्म में और गीतकार थे प्रेम धवन, जिनकी यह पहली पहली फ़िल्म थी। दरअसल निर्देशक शाहीद लतीफ़ और इस्मत चुगताई ही प्रेम धवन साहब को ले गये थे अशोक कुमार और देविका रानी के पास और गीतकार के लिए उनका नाम सुझाया। प्रेम धवन साहब के लिए आज का प्रस्तुत गीत बहुत मायने रखता था, तभी तो विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में कुछ इस तरह से उन्होंने इसके बारे में कहा था - "मैं अपनी ग्रैजुएशन पूरी कर इप्टा से जुड़ गया, कम्युनिस्ट के ख़यालात थे मुझमें। पंजाब में मैं इसका फ़ाउण्डर मेम्बर था। मैंने एक ट्रूप बनाया पंडित रविशंकर और सचिन शंकर के साथ मिल कर और हम पंजाबी में कार्यक्रम पेश करने लगे पूरे देश में घूम घूम कर, और अपनी संस्था इप्टा के लिए चंदा इकट्ठा करते ज़रूरतमंद लोगों की सेवा के लिए। पर १९४७ में दंगे शुरु हो गए और हमारे टूर भी बंद हो गए। चंदा कलेक्ट करना भी बंद हो गया। हमनें फ़ैसला किया कि थिएटर को बंद कर दिया जाए। थिएटर बंद होने के बाद फ़िल्मवालों ने बुलाया। मेरी पहली फ़िल्म थी 'बॊम्बे टाकीज़' की 'ज़िद्दी'। उसमें एक गीत था "चंदा रे, जा रे जा रे", जिसे लता ने गाया था। उस समय लता भी नई नई थी। यह 'महल' के पहले की बात है। यह गीत मेरे करीयर का एक लैण्डमार्क गीत था और लता का भी। इस कॊण्ट्रैक्ट के ख़त्म होने के बाद मैंने अनिल बिस्वास के लिए कई फ़िल्मों में गानें लिखे जैसे 'लाजवाब', 'तरना' वगेरह।" तो आइए दोस्तों, इस्मत चुगताई को सलाम करते हुए सुनें उनकी लिखी कहानी पर बनी फ़िल्म 'ज़िद्दी' का यह गीत।
क्या आप जानते हैं...
कि इस्मत चुगताई के जीवन पर लिखे किताबों में उल्लेखनीय दो किताबें हैं सुक्रीता पाल कुमार लिखित 'Ismat: Her Life, Her Times' तथा मंजुला नेगी लिखित 'Ismat Chughtai, A Fearless Voice'
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 08/शृंखला 12
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - एक आवाज़ है येसुदास की.
सवाल १ - हम चर्चा करेंगें इस गीत की फिल्म की निर्देशिका की, कौन हैं ये - २ अंक
सवाल २ - गीतकार भी एक जानी मानी लेखिका हैं, नाम बताएं - ३ अंक
सवाल ३ - कौन हैं सहगायिका - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर अंजाना जी बाज़ी मार गए....कमाल हैं आप दोनों...वाकई :)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
हिंदी सिनेमा के कुछ सशक्त महिला कलाकारों को सलाम करती 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'कोमल है कमज़ोर नहीं' की सातवीं कड़ी में आप सभी का फिर एक बार स्वागत है। आज हम जिस प्रतिभा से आपका परिचय करवा रहे हैं, वो एक उर्दू की जानीमानी लेखिका तो हैं ही, साथ ही फ़िल्म जगत को एक कहानीकार, पटकथा व संवाद लेखिका, निर्मात्री व निर्देशिका के रूप में अपना परिचय देनेवाली इस फनकारा का नाम है इस्मत चुगताई। १५ अगस्त १९१५ को उत्तर प्रदेश के बदायूं में जन्मीं और जोधपुर राजस्थान में पलीं इस्मत जी के पिता एक सिविल सर्वैण्ट थे। ६ भाई और ४ बहनों के विशाल परिवार में इस्मत नौवीं संतान थीं। इस्मत की बड़ी बहनों का उनकी बचपन में ही शादी हो जाने की वजह से इस्मत का बचपन अपने भाइयों के साथ गुज़रा। और शायद यही वजह थी इस्मत के अंदर पनपने वाले खुलेपन की और इसी ने उनके लेखन में बहुत ज़्यादा प्रभाव डाला। इस्मत के युवावस्था में ही उनका भाई मिर्ज़ा अज़ीम बेग चुगताई एक स्थापित लेखक बन चुके थे, और वो ही उनके पहले गुरु बनें। १९३६ में स्नातक की पढ़ाई करते हुए इस्मत चुगताई लखनऊ में आयोजित 'प्रोग्रेसिव राइटर्स ऐसोसिएशन' की पहली सभा मे शरीक हुईं। बी.ए. करने के बाद इस्मत ने बी.टी की पढ़ाई की, और बी.ए और बी.टी, दोनों डिग्रियाँ अर्जित करने वाली भारत की पहली मुस्लिम महिला बन गईं। और इसी दौरान वो छुपा छुपा कर लिखने लगीं, क्योंकि उनके इस लेखन का उनकी रूढ़ीवादी मुस्लिम परिवार ने घोर विरोध किया। तमाम मुसीबतों और कठिनाइयों का सामना करते हुए इस्मत चुगताई नें अपना लेखन कार्य जारी रखा और इस देश की आनेवाली लेखिकाओं के लिए राह आसान बनाई। और इसीलिए 'कोमल है कमज़ोर नहीं' शृंखला सलाम करती है इस्मत चुगताई जैसी सशक्त लेखिका को।
जैसा कि हमनें कहा कि इस्मत चुगताई को बड़ी मुसीबतों का सामना करना पड़ा है, आइए इस ओर थोड़ा नज़र डालें। उनकी बहुत सारी लेखों का दक्षिण एशिया में घोर विरोध किया क्योंकि उन सब में मुस्लिम समाज में लाये जाने वाली ज़रूरी बदलावों की बात की गई थी, यहाँ तक कि इस्लामिक उग्रवाद पर भी वार किया था उन्होंने। मुस्लिम महिलाओं की नक़ाबपोशी (परदा) के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाकर उन्होंने मुस्लिम समाज में तूफ़ान उठा दिया था। वर्तमान में मुस्लिम देशों में इस्मत चुगताई की बहुत सी किताबों पर प्रतिबंध है। इस्मत चुगताई के हिंदी सिनेमा में योगदान की अगर बात करें तो उन्होंने इस राह में पदार्पण किया था १९४८ की फ़िल्म 'ज़िद्दी' में, जिसकी उन्होंने कहानी लिखी थी। उसके बाद १९५० में 'फ़रेब' का उन्होंने निर्देशन किया। १९५८ की फ़िल्म 'सोने की चिड़िया' का न केवल उन्होंने निर्माण किया, बल्कि पटकथा भी ख़ुद लिखीं। १९६८ की फ़िल्म 'जवाब आयेगा' को निर्देशित कर १९७३ की मशहूर कलात्मक फ़िल्म 'गरम हवा' की कहानी लिखीं। १९७५ की वृत्तचित्र 'माइ ड्रीम्स' का उन्होंने निर्देशन किया और १९७८ की फ़िल्म 'जुनून' में संवाद लिखे और अभिनय भी किया। २४ अक्तुबर १९९१ को इस्मत चुगताई का बम्बई में निधन हो गया। मुस्लिम होते हुए भी उन्हें कब्र में समाधि नहीं दी गई, बल्कि उनके ख़्वाहिशानुसार उनका अंतिम संस्कार चंदनवाड़ी क्रिमेटोरियम में किया गया। इस छोटे से लेख में इस्मत चुगताई जैसी विशाल प्रतिभा को पूरी तरह से हम समेट नहीं सकते, फिर कभी मौका मिला तो उनके शख्सियत की कुछ और बातें आपको बताएँगे। फ़िल्हाल आइए सुनते हैं फ़िल्म 'ज़िद्दी' से लता मंगेशकर का गाया "चंदा रे, जा रे जा रे"। खेमचंद प्रकाश का संगीत था इस फ़िल्म में और गीतकार थे प्रेम धवन, जिनकी यह पहली पहली फ़िल्म थी। दरअसल निर्देशक शाहीद लतीफ़ और इस्मत चुगताई ही प्रेम धवन साहब को ले गये थे अशोक कुमार और देविका रानी के पास और गीतकार के लिए उनका नाम सुझाया। प्रेम धवन साहब के लिए आज का प्रस्तुत गीत बहुत मायने रखता था, तभी तो विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में कुछ इस तरह से उन्होंने इसके बारे में कहा था - "मैं अपनी ग्रैजुएशन पूरी कर इप्टा से जुड़ गया, कम्युनिस्ट के ख़यालात थे मुझमें। पंजाब में मैं इसका फ़ाउण्डर मेम्बर था। मैंने एक ट्रूप बनाया पंडित रविशंकर और सचिन शंकर के साथ मिल कर और हम पंजाबी में कार्यक्रम पेश करने लगे पूरे देश में घूम घूम कर, और अपनी संस्था इप्टा के लिए चंदा इकट्ठा करते ज़रूरतमंद लोगों की सेवा के लिए। पर १९४७ में दंगे शुरु हो गए और हमारे टूर भी बंद हो गए। चंदा कलेक्ट करना भी बंद हो गया। हमनें फ़ैसला किया कि थिएटर को बंद कर दिया जाए। थिएटर बंद होने के बाद फ़िल्मवालों ने बुलाया। मेरी पहली फ़िल्म थी 'बॊम्बे टाकीज़' की 'ज़िद्दी'। उसमें एक गीत था "चंदा रे, जा रे जा रे", जिसे लता ने गाया था। उस समय लता भी नई नई थी। यह 'महल' के पहले की बात है। यह गीत मेरे करीयर का एक लैण्डमार्क गीत था और लता का भी। इस कॊण्ट्रैक्ट के ख़त्म होने के बाद मैंने अनिल बिस्वास के लिए कई फ़िल्मों में गानें लिखे जैसे 'लाजवाब', 'तरना' वगेरह।" तो आइए दोस्तों, इस्मत चुगताई को सलाम करते हुए सुनें उनकी लिखी कहानी पर बनी फ़िल्म 'ज़िद्दी' का यह गीत।
क्या आप जानते हैं...
कि इस्मत चुगताई के जीवन पर लिखे किताबों में उल्लेखनीय दो किताबें हैं सुक्रीता पाल कुमार लिखित 'Ismat: Her Life, Her Times' तथा मंजुला नेगी लिखित 'Ismat Chughtai, A Fearless Voice'
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 08/शृंखला 12
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - एक आवाज़ है येसुदास की.
सवाल १ - हम चर्चा करेंगें इस गीत की फिल्म की निर्देशिका की, कौन हैं ये - २ अंक
सवाल २ - गीतकार भी एक जानी मानी लेखिका हैं, नाम बताएं - ३ अंक
सवाल ३ - कौन हैं सहगायिका - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर अंजाना जी बाज़ी मार गए....कमाल हैं आप दोनों...वाकई :)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
Comments
अवध लाल
इस फिल्म से हिंदी फिल्म जगत में कई नए कलाकारों का पदार्पण हुआ था.
देव आनंद साहेब की भी यह पहली फिल्म थी शायद.
और हर दिल-अज़ीज़ गायक किशोर दा का संभवतः पहला प्ले बैक गीत भी इसी फिल्म का था - मरने की दुआएं क्यूँ मांगे, जीने की तमन्ना कौन करे" जिसके शायर थे 'जज़्बी'.
अवध लाल