महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१११
सूफ़ियों का कलाम गाते-गाते आबिदा परवीन खुद सूफ़ी हो गईं। इनकी आवाज़ अब इबादत की आवाज़ लगती है। मौला को पुकारती हैं तो लगता है कि हाँ इनकी आवाज़ ज़रूर उस तक पहुँचती होगी। वो सुनता होगा.. सिदक़ सदाक़त की आवाज़।
माला कहे है काठ की तू क्यों फेरे मोहे,
मन का मणका फेर दे, तुरत मिला दूँ तोहे।
आबिदा कबीर की मार्फ़त पुकारती हैं उसे, हम आबिदा की मार्फ़त उसे बुला लेते हैं।
मन लागो यार फ़क़ीरी में...
एक तो करैला उस पर से नीम चढा... इसी तर्ज़ पर अगर कहा जाए "एक तो शहद ऊपर से गुड़ चढा" तो यह विशेषण, यह मुहावरा आज के गीत पर सटीक बैठेगा। सच कहूँ तो सटीक नहीं बैठेगा बल्कि थोड़ा पीछे रह जाएगा, क्योंकि यहाँ गुड़ चढे शहद के ऊपर शक्कर के कुछ टुकड़े भी हैं। कबीर की साखियाँ अपने आप में हीं इस दुनिया से दूर किसी और शय्यारे से आई हुई सी लगती है, फिर अगर उन साखियों पर आबिदा की आवाज़ के गहने चढ जाएँ तो हर साखी में कही गई दुनिया को सही से समझने और सही से समझकर जीने का सीख देने वाली बातों का असर कई गुणा बढ जाएगा। वही हुआ है यहाँ... लेकिन यह जादू यही तक नहीं थमा। इससे पहले की आबिदा अपनी आवाज़ का सम्मोहन डालना शुरू करतीं, उस सम्मोहन को और पुख्ता बनाने के लिए गुलज़ार साहब अपनी पुरकशिश शख्सियत के साथ आबिदा की अगुवाई करने आ पहुँचते हैं। "रांझा-रांझा करदी नी" कहते हुए जब गुलज़ार की आवाज़ हमारे कानों तक पहुँचती है तो पहले हीं मालूम हो जाता है कि अगले १०-१५ मिनट तक हमें कुछ और नहीं सूझने वाला। यकीन मानिए, मेरी तो यही हालत थी और मैं पक्के दावे के साथ कह सकता हूँ कि "गुलज़ार प्रजेन्ट्स कबीर बाई आबिदा" के गानों/साखियों/दोहों को सुनते वक़्त आप एक ट्रान्स में चले जाएँगे.. डूब जाएँगे भक्ति के इस दरिया में।
कबीर दास... एक ऐसा इंसान जो जितना जाना-पहचाना है, उतना हीं अनजाना भी है। उसे आप जितना समझते हैं, उससे ज्यादा वह अनबुझा है। उसे बूझने की कईयों ने कोशिश की, कई पहुँचे भी उसके आस-पास, लेकिन कभी वह रेगिस्तान की मरीचिका की तरह दूर निकल गया तो कभी खुर्शीद की तरह इतना चमका कि झुलसने के डर से लोग पीछे की ओर खिसक गए। वह क्या था? हिन्दू.. मुसलमान.. ब्राह्मण.. शूद्र... सूफ़ी.. साधु... कोई सही से नहीं कह सकता। असल में वह सब कुछ था और कुछ भी नहीं। वह किसी भी पंथ के खिलाफ़ था और इस बात के भी खिलाफ़ था कि उसकी कही बातें कहीं कोई पंथ न बन जाए। वह फ़क्कड़ था.. मस्तमौला.. इसलिए बनी बनाई हर चीज़ को बिगड़ने का एक साधन मानता था। वह अस्वीकार करना जानता था.. बस अस्वीकार..
"हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास" पुस्तक में "बच्चन सिंह" कहते हैं:
कबीरदास आज भी कितने प्रासंगिक हैं, इसे समझना हो तो गुलज़ार की "मेरे यार जुलाहे" से बड़ा कोई उदाहरण नहीं होगा। टूटते रिश्ते की कसक और उसे जोड़ने में अपनी मजबूरी को दर्शाने के लिए गुलज़ार सीधे-सीधे कबीर को याद करते हैं और कहते हैं कि "मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे".. भला कौन होगा जो कबीर से यह तरकीब न जानना चाहेगा.. आखिर अलादीन का कौन-सा वह चिराग था जो कबीरदास के हाथ लग गया था, जिससे वह सीधे-सीधे ऊपरवाले से जुड़ जाते थे.. जिससे वह सीधे-सीधे धरती के इंसानों से जुड़ जाते थे, जुड़ जाते हैं।
हम आगे की कड़ियों में कबीरदास से इसी तरकीब को जानने की कोशिश जारी रखेंगे। तबतक संगीत की शरण में चलते हैं और डूब जाते हैं बेग़म आबिदा परवीन की स्वरलहरियों में। चलिए.. चलिए.. बढिए भी.. देखिए तो गुलज़ार साहब किस शिद्दत से हम सबको बुला रहे हैं। झूमकर कहिए "मन लागो यार फ़क़ीरी में"
मन लागो यार फ़क़ीरी में!
कबीरा रेख सिन्दूर, उर काजर दिया न जाय ।
नैनन प्रीतम रम रहा, दूजा कहां समाय ॥
प्रीत जो लागी भुल गयि, पीठ गयि मन मांहि ।
रोम रोम पियु पियु कहे, मुख की सिरधा नांहि ॥
मन लागो यार फ़क़ीरी में,
बुरा भला सबको सुन लीजो, कर गुजरान गरीबी में ।
सती बिचारी सत किया, काँटों सेज बिछाय ।
ले सूती _____ आपना, चहुं दिस अगन लगाय ॥
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय ।
बलिहारी गुरू आपणे, गोविन्द दियो बताय ॥
मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा ।
तेरा तुझ को सौंप दे, क्या लागे है मेरा ॥
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नांहि ।
जब अन्धियारा मिट गया, दीपक देर कमांहि ॥
रूखा सूखा खाय के, ठन्डा पानी पियो ।
देख परायी चोपड़ी मत ललचावे जियो ॥
साधू कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खुजूर ।
चढे तो चाखे प्रेम रस, गिरे तो चकना-चूर ॥
मन लागो यार फ़क़ीरी में,
आखिर ये तन खाक़ मिलेगा, क्यूं फ़िरता मगरूरी में ॥
लिखा लिखी की है नहीं, देखा देखी बात ।
दुल्हा-दुल्हन मिल गये, फ़ीकी पड़ी बारात ॥
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावे सोय ॥
हद हद जाये हर कोइ, अन-हद जाये न कोय ।
हद अन-हद के बीच में, रहा कबीरा सोय ॥
माला कहे है काठ की तू क्यूं फेरे मोहे ।
मन का मणका फेर दे, सो तुरत मिला दूं तोहे ॥
जागन में सोतिन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डार लागी रहे, तार टूट नहीं जाये ॥
पाहन पूजे हरि/अल्लाह मिले, तो मैं पूजूं पहाड़ ।
ताते या चक्की भली, पीस खाये संसार ॥
कबीरा सो धन संचिये, जो आगे को होइ ।
सीस चढाये गांठड़ी, जात न देखा कोइ ॥
हरि से ते हरि-जन बड़े, समझ देख मन मांहि ।
कहे कबीर जब हरि दिखे, सो हरि हरि-जन मांहि ॥
मन लागो यार फ़क़ीरी में,
कहे कबीर सुनो भई साधू, साहिब मिले सुबूरी में ।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "आँगन" और मिसरे कुछ यूँ थे-
थोड़ी ख़लिश होगी, थोड़ा सा ग़म होगा,
तन्हाई तो होगी, अहसास कम होगा
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:
या मेरे जहन से यादो के दिये गुल कर दो,
मेरे एहसास की दुनिया को मिटा दो हमदम.
रात तारे नही अँगारे लिये आती है,
इन बरसते हुए शोलो को बुझा दो हमदम...
जिस कलम से जिंदगी को लिखा,
उस अहसास की रोशनाई भी तेरी - मंजु जी
मर मर के जी रहा हूँ और क्या करूँ
ज़ख्मों को सी रहा हूँ और क्या करू
तेरा एहसास जो पड़ा है खाली जाम की तरह
अश्क भर भर के पी रहा हूँ और क्या करूँ - अवनींद्र जी
तेरे होने का एहसास शेष रहा,
"मैं" का न तनिक अवशेष रहा. - पूजा जी
पिछली महफ़िल की शुरूआत सुजॉय जी की टिप्पणी से हुई। सातों बार बोले बंसी सुनकर मज़ा तो आना हीं था क्योंकि हमें यह गाना और इसके पीछे की कहानी आपकी वज़ह से हीं मयस्सर हो पाई थी। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। सुमित जी, आपने सही शब्द की पहचान की और उसपर शेर कहे, इसलिए आपको "शान-ए-महफ़िल" घोषित किया जाता है। शायर का नाम तो मुझे भी नहीं मालूम। पता करने की कोशिश कर रहा हूँ। सजीव जी, ज़रूर कभी हम भी ऐसा कुछ करेंगे। अभी तो अपनी बस शुरुआत है। कुहू जी, मुझसे ज्यादा शुक्रिया के हक़दार सुजॉय जी और सजीव जी हैं, लेकिन मैं अपनी मेहनत को भी कम नहीं आंकता। इसलिए आपका धन्यवाद स्वीकार करता हूँ। ऐसे हीं आते रहिएगा महफ़िल में। मंजु जी एवं पूजा जी, आप दोनों के स्वरचित शेर काफ़ी उम्दा हैं। बधाई स्वीकारें! इंदु जी, मैं आपके भावनाओं और पसंद की कद्र करता हूँ। मुझे संगीत की कोई खासी समझ नहीं, मैं तो बस गीत के बोलों से प्रभावित होकर गीत की तरफ़ आकर्षित होता हूँ। इसलिए अगर किसी गाने से गुलज़ार साब का नाम जुड़ा है तो वह गाना ऐसे हीं मेरे लिए मास्टरपीस बन जाता है। अवनींद जी, महफ़िलें कद्रदानों से सजती हैं और जब तक हमारी महफ़िल के पास आप जैसा कद्रदान है, मुझे नहीं लगता हमें चिंता करने की ज़रूरत है। बाकी हाँ, टिप्पणियाँ कम तो हुई हैं और इसका कारण यह हो सकता है कि महफ़िल भी इन दिनों नियमित नहीं हो पाई। मैं आगे से कोशिश करूँगा कि गायब कम हीं होऊँ :)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
सूफ़ियों का कलाम गाते-गाते आबिदा परवीन खुद सूफ़ी हो गईं। इनकी आवाज़ अब इबादत की आवाज़ लगती है। मौला को पुकारती हैं तो लगता है कि हाँ इनकी आवाज़ ज़रूर उस तक पहुँचती होगी। वो सुनता होगा.. सिदक़ सदाक़त की आवाज़।
माला कहे है काठ की तू क्यों फेरे मोहे,
मन का मणका फेर दे, तुरत मिला दूँ तोहे।
आबिदा कबीर की मार्फ़त पुकारती हैं उसे, हम आबिदा की मार्फ़त उसे बुला लेते हैं।
मन लागो यार फ़क़ीरी में...
एक तो करैला उस पर से नीम चढा... इसी तर्ज़ पर अगर कहा जाए "एक तो शहद ऊपर से गुड़ चढा" तो यह विशेषण, यह मुहावरा आज के गीत पर सटीक बैठेगा। सच कहूँ तो सटीक नहीं बैठेगा बल्कि थोड़ा पीछे रह जाएगा, क्योंकि यहाँ गुड़ चढे शहद के ऊपर शक्कर के कुछ टुकड़े भी हैं। कबीर की साखियाँ अपने आप में हीं इस दुनिया से दूर किसी और शय्यारे से आई हुई सी लगती है, फिर अगर उन साखियों पर आबिदा की आवाज़ के गहने चढ जाएँ तो हर साखी में कही गई दुनिया को सही से समझने और सही से समझकर जीने का सीख देने वाली बातों का असर कई गुणा बढ जाएगा। वही हुआ है यहाँ... लेकिन यह जादू यही तक नहीं थमा। इससे पहले की आबिदा अपनी आवाज़ का सम्मोहन डालना शुरू करतीं, उस सम्मोहन को और पुख्ता बनाने के लिए गुलज़ार साहब अपनी पुरकशिश शख्सियत के साथ आबिदा की अगुवाई करने आ पहुँचते हैं। "रांझा-रांझा करदी नी" कहते हुए जब गुलज़ार की आवाज़ हमारे कानों तक पहुँचती है तो पहले हीं मालूम हो जाता है कि अगले १०-१५ मिनट तक हमें कुछ और नहीं सूझने वाला। यकीन मानिए, मेरी तो यही हालत थी और मैं पक्के दावे के साथ कह सकता हूँ कि "गुलज़ार प्रजेन्ट्स कबीर बाई आबिदा" के गानों/साखियों/दोहों को सुनते वक़्त आप एक ट्रान्स में चले जाएँगे.. डूब जाएँगे भक्ति के इस दरिया में।
कबीर दास... एक ऐसा इंसान जो जितना जाना-पहचाना है, उतना हीं अनजाना भी है। उसे आप जितना समझते हैं, उससे ज्यादा वह अनबुझा है। उसे बूझने की कईयों ने कोशिश की, कई पहुँचे भी उसके आस-पास, लेकिन कभी वह रेगिस्तान की मरीचिका की तरह दूर निकल गया तो कभी खुर्शीद की तरह इतना चमका कि झुलसने के डर से लोग पीछे की ओर खिसक गए। वह क्या था? हिन्दू.. मुसलमान.. ब्राह्मण.. शूद्र... सूफ़ी.. साधु... कोई सही से नहीं कह सकता। असल में वह सब कुछ था और कुछ भी नहीं। वह किसी भी पंथ के खिलाफ़ था और इस बात के भी खिलाफ़ था कि उसकी कही बातें कहीं कोई पंथ न बन जाए। वह फ़क्कड़ था.. मस्तमौला.. इसलिए बनी बनाई हर चीज़ को बिगड़ने का एक साधन मानता था। वह अस्वीकार करना जानता था.. बस अस्वीकार..
"हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास" पुस्तक में "बच्चन सिंह" कहते हैं:
कबीर दास को कोई भी मत स्वीकार्य नहीं है जो मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद उत्पन्न करता है। उन्हें कोई भी अनुष्ठान या साधना मंजूर नहीं है जो बुद्धि-विरूद्ध है। उन्हें कोई भी शास्त्र मान्य नहीं है जो आत्मज्ञान को कुंठित करता है। वेद-कितेब भ्रमोत्पादक हैं अत: अस्वीकार्य हैं। तीर्थ, व्रत, पूजा, नमाज, रोजा गुमराह करते हैं इसलिए अग्राह्य हैं। पंडित-पांडे, काजी-मुल्ला उन धर्मों के ठेकेदार हैं जो धर्म नहं हैं। अत: घृणास्पद हैं।
वे वैष्णवों को अपना संगी मानते हैं, किंतु विष्णु को चौदह भुवनों का चौधरी कहकर मजाक उड़ाते हैं। शाक्तों से उन्हें घृणा है - "साकत काली कामरी"। हिन्दू-तुर्क दोनों झूठे हैं। वे अकरदी, सकरदी सूफी पर हँसते हुए उसे अपना वचन मानने का उपदेश देते हैं। गोरखनाथ उनके श्रद्धेय हैं पर गोरखपंथी उपहास्य। "चुंडित-मुंडित" श्रावकों और श्रमणों के लिए उनके यहाँ जगह नहीं है। तात्पर्य यह कि वे अपने समय के समस्त मतों को खारिज कर देते हैं। उनसे बड़ा मूर्ति-भंजक (आइकनोक्लास्ट) इतिहास में दूसरा नहीं है।
यह कहना कि वे समाज-सुधारक थे, गलत है। यह कहना कि वे धर्म-सुधारक थे, और भी गलत है। यदि सुधारक थे तो रैडिकल-सुधारक। वे धर्म के माध्यम से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहते थे। वे कोई भी पंथ खड़ा करने के पक्षपाती नहीं थे। वे ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें न कोई हिन्दू हो न मुसलमान, न पूजा हो न नमाज, न पंडित हो न मुल्ला, सिर्फ़ इंसान हो।
वे निर्गुण धारा के प्रवर्तक थे। पर उनका निर्गुणपंथ सूफ़ियों के निर्गुणवाद से किंचित भिन्न था। कबीर का ब्रह्म न वेद-वर्णित ईश्वर है, न कुरान-वर्णित ख़ुदा। वह इन दोनों से न्यारा है। वह निर्गुण की लीकबद्धता से अलग है। निर्गुण सम्बन्धी सारी शास्त्रोक्त शब्दावली ग्रहण करते हुए भी वह शास्त्रेतर हो जाता है। यदि उनका निर्गुण शास्त्रोक्त निर्गुण हीं होता तो उससे निम्न वर्ग का कैसे काम चलता?
सामंती समाज की जड़ता को तोड़ने का जितना काम अकेले कबीर ने किया उतना अन्य संतों और सगुणमार्गियों ने मिलकर भी नहीं किया। उनकी चोटों की मार से, जातिवाद के संरक्षक पंडित और मौलवी समान रूप से दु:खी हैं। वे सबसे अधिक आधुनिक और सबसे अधिक प्रासंगिक हैं।
कबीरदास आज भी कितने प्रासंगिक हैं, इसे समझना हो तो गुलज़ार की "मेरे यार जुलाहे" से बड़ा कोई उदाहरण नहीं होगा। टूटते रिश्ते की कसक और उसे जोड़ने में अपनी मजबूरी को दर्शाने के लिए गुलज़ार सीधे-सीधे कबीर को याद करते हैं और कहते हैं कि "मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे".. भला कौन होगा जो कबीर से यह तरकीब न जानना चाहेगा.. आखिर अलादीन का कौन-सा वह चिराग था जो कबीरदास के हाथ लग गया था, जिससे वह सीधे-सीधे ऊपरवाले से जुड़ जाते थे.. जिससे वह सीधे-सीधे धरती के इंसानों से जुड़ जाते थे, जुड़ जाते हैं।
हम आगे की कड़ियों में कबीरदास से इसी तरकीब को जानने की कोशिश जारी रखेंगे। तबतक संगीत की शरण में चलते हैं और डूब जाते हैं बेग़म आबिदा परवीन की स्वरलहरियों में। चलिए.. चलिए.. बढिए भी.. देखिए तो गुलज़ार साहब किस शिद्दत से हम सबको बुला रहे हैं। झूमकर कहिए "मन लागो यार फ़क़ीरी में"
मन लागो यार फ़क़ीरी में!
कबीरा रेख सिन्दूर, उर काजर दिया न जाय ।
नैनन प्रीतम रम रहा, दूजा कहां समाय ॥
प्रीत जो लागी भुल गयि, पीठ गयि मन मांहि ।
रोम रोम पियु पियु कहे, मुख की सिरधा नांहि ॥
मन लागो यार फ़क़ीरी में,
बुरा भला सबको सुन लीजो, कर गुजरान गरीबी में ।
सती बिचारी सत किया, काँटों सेज बिछाय ।
ले सूती _____ आपना, चहुं दिस अगन लगाय ॥
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय ।
बलिहारी गुरू आपणे, गोविन्द दियो बताय ॥
मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा ।
तेरा तुझ को सौंप दे, क्या लागे है मेरा ॥
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नांहि ।
जब अन्धियारा मिट गया, दीपक देर कमांहि ॥
रूखा सूखा खाय के, ठन्डा पानी पियो ।
देख परायी चोपड़ी मत ललचावे जियो ॥
साधू कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खुजूर ।
चढे तो चाखे प्रेम रस, गिरे तो चकना-चूर ॥
मन लागो यार फ़क़ीरी में,
आखिर ये तन खाक़ मिलेगा, क्यूं फ़िरता मगरूरी में ॥
लिखा लिखी की है नहीं, देखा देखी बात ।
दुल्हा-दुल्हन मिल गये, फ़ीकी पड़ी बारात ॥
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावे सोय ॥
हद हद जाये हर कोइ, अन-हद जाये न कोय ।
हद अन-हद के बीच में, रहा कबीरा सोय ॥
माला कहे है काठ की तू क्यूं फेरे मोहे ।
मन का मणका फेर दे, सो तुरत मिला दूं तोहे ॥
जागन में सोतिन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डार लागी रहे, तार टूट नहीं जाये ॥
पाहन पूजे हरि/अल्लाह मिले, तो मैं पूजूं पहाड़ ।
ताते या चक्की भली, पीस खाये संसार ॥
कबीरा सो धन संचिये, जो आगे को होइ ।
सीस चढाये गांठड़ी, जात न देखा कोइ ॥
हरि से ते हरि-जन बड़े, समझ देख मन मांहि ।
कहे कबीर जब हरि दिखे, सो हरि हरि-जन मांहि ॥
मन लागो यार फ़क़ीरी में,
कहे कबीर सुनो भई साधू, साहिब मिले सुबूरी में ।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "आँगन" और मिसरे कुछ यूँ थे-
थोड़ी ख़लिश होगी, थोड़ा सा ग़म होगा,
तन्हाई तो होगी, अहसास कम होगा
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:
या मेरे जहन से यादो के दिये गुल कर दो,
मेरे एहसास की दुनिया को मिटा दो हमदम.
रात तारे नही अँगारे लिये आती है,
इन बरसते हुए शोलो को बुझा दो हमदम...
जिस कलम से जिंदगी को लिखा,
उस अहसास की रोशनाई भी तेरी - मंजु जी
मर मर के जी रहा हूँ और क्या करूँ
ज़ख्मों को सी रहा हूँ और क्या करू
तेरा एहसास जो पड़ा है खाली जाम की तरह
अश्क भर भर के पी रहा हूँ और क्या करूँ - अवनींद्र जी
तेरे होने का एहसास शेष रहा,
"मैं" का न तनिक अवशेष रहा. - पूजा जी
पिछली महफ़िल की शुरूआत सुजॉय जी की टिप्पणी से हुई। सातों बार बोले बंसी सुनकर मज़ा तो आना हीं था क्योंकि हमें यह गाना और इसके पीछे की कहानी आपकी वज़ह से हीं मयस्सर हो पाई थी। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। सुमित जी, आपने सही शब्द की पहचान की और उसपर शेर कहे, इसलिए आपको "शान-ए-महफ़िल" घोषित किया जाता है। शायर का नाम तो मुझे भी नहीं मालूम। पता करने की कोशिश कर रहा हूँ। सजीव जी, ज़रूर कभी हम भी ऐसा कुछ करेंगे। अभी तो अपनी बस शुरुआत है। कुहू जी, मुझसे ज्यादा शुक्रिया के हक़दार सुजॉय जी और सजीव जी हैं, लेकिन मैं अपनी मेहनत को भी कम नहीं आंकता। इसलिए आपका धन्यवाद स्वीकार करता हूँ। ऐसे हीं आते रहिएगा महफ़िल में। मंजु जी एवं पूजा जी, आप दोनों के स्वरचित शेर काफ़ी उम्दा हैं। बधाई स्वीकारें! इंदु जी, मैं आपके भावनाओं और पसंद की कद्र करता हूँ। मुझे संगीत की कोई खासी समझ नहीं, मैं तो बस गीत के बोलों से प्रभावित होकर गीत की तरफ़ आकर्षित होता हूँ। इसलिए अगर किसी गाने से गुलज़ार साब का नाम जुड़ा है तो वह गाना ऐसे हीं मेरे लिए मास्टरपीस बन जाता है। अवनींद जी, महफ़िलें कद्रदानों से सजती हैं और जब तक हमारी महफ़िल के पास आप जैसा कद्रदान है, मुझे नहीं लगता हमें चिंता करने की ज़रूरत है। बाकी हाँ, टिप्पणियाँ कम तो हुई हैं और इसका कारण यह हो सकता है कि महफ़िल भी इन दिनों नियमित नहीं हो पाई। मैं आगे से कोशिश करूँगा कि गायब कम हीं होऊँ :)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
पिया रे, पिया रे , पिया रे, पिया रे,
तेरे बिन लागे नहीँ मोरा जिया रे ।
एक बार पुन: स्मरण - यह ग़ज़ल या नज़्म नहीँ है ये कबीर के दोहे हैँ ।
हाँ अपने सही कहा। लेकिन मैं थोड़ा पशोपेश में हूँ। एक-एक दोहा अलग-अलग तो समझ आता है, लेकिन अगर कई सारे दोहे एक साथ आएँ (जैसे कि शेरों के जमावड़े को ग़ज़ल कहते हैं, वैसे हीं इसे भी तो कुछ कहते होंगे) तो फिर उसे क्या कहा जाएगा? बस इसी संदेह में मैं नज़्म/ग़ज़ल वाली पंक्तियाँ बदल नहीं पाया।
थोड़ी सहायता कर देंगे।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
'दोहा गजरा'?
अवध लाल
नमस्ते .
ईद के चाँद की तरह महफिल में चांदनी छिटक जाती है .दीदार हो ही जाता है .
इस से पहली वाली महफिल का शब्द ' अहसास ' है .आप ने 'आँगन'बताया .जब की सारे रचनाकारों ने ' अहसास 'शब्द पर रचना की है .
आलेख ज्ञानवर्धक लगा .
कबीर की साखियों में दोहों के कई प्रकार हैं .
जवाब - चादर
राम नाम की चादर ओढ़ ली ,
जग लगता अब बेगाना री .
बहुत अच्छा लगा कबीर के दोहे आविदा परवीन की आवाज़ में सुनकर !
बहुत बहुत शुक्रिया विश्व दीपक जी