ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 488/2010/188
गुज़रे ज़माने के अनमोल नग़मों के शैदाईयों और क़द्रदानों, इन दिनों आपकी ख़िदमत में हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पेश कर रहे हैं लता मंगेशकर के गाए कुछ बेहद दुर्लभ गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'लता के दुर्लभ दस'। अब तक आपने इस शृंखला में जितने भी गानें सुनें, उनकी फ़िल्में भी कमचर्चित रही, यानी कि बॊक्स ऒफ़िस पर असफल। लेकिन आज हम जिस फ़िल्म का गीत सुनने जा रहे हैं, वह एक मशहूर फ़िल्म है और इसके कुछ गानें तो बहुत लोकप्रिय भी हुए थे। १९५० की यह फ़िल्म थी 'आरज़ू'। जी हाँ, वही 'आरज़ू' जिसमें तलत महमूद साहब ने पहली पहली बार "ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल" गीत गा कर एक धमाकेदार पदार्पण किया था हिंदी फ़िल्म संगीत संसार में। लेखिका इस्मत चुगताई के पति शाहीद लतीफ़ ने इस फ़िल्म का निर्माण किया था जिसमें मुख्य भूमिकाओं में थे दिलीप कुमार और कामिनी कौशल। इस जोड़ी की यह अंतिम फ़िल्म थी। इस जोड़ी ने ४० के दशक में 'शहीद' और 'नदिया के पार' जैसी फ़िल्मों में कामयाब अभिनय किया था। 'आरज़ू' में संगीत अनिल बिस्वास का था, जिन्होंने इस फ़िल्म में ना केवल तलत महमूद को लौंच किया, बल्कि गायिका सुधा मल्होत्रा से भी उनका पहला पहला फ़िल्मी गीत गवाया था जिसके बोल थे "मिला गए नैन"। इस फ़िल्म में अनिल दा ने अपनी दूसरी फ़िल्मों की तरह ही लता मंगेशकर से बहुत से एकल गीत गवाए। इनमें शामिल हैं लोक धुनों पर आधारित "आई बहार जिया डोले मोरा जिया डोले रे" और "मेरा नरम करेजवा डोल गया"; इन हल्के फुल्के गीतों के अलावा कुछ संजीदे गानें भी थे जैसे "उन्हें हम तो दिल से भुलाने लगे, वो कुछ और भी याद आने लगे", "जाना ना दिल से दूर आँखों से दूर जाके" और "कहाँ तक हम उठाएँ ग़म, जिए अब या कि मर जाएँ"। इनमें से आज के लिए हमने चुना है "कहाँ तक हम उठाएँ ग़म"। क्या दर्द-ए-मौसिक़ी है, क्या अदायगी है, क्या पुर-असर बोल हैं! इस गीत की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। अब तक जितने भी गीत हमने सुनवाए हैं, हो सकता है कि उन्हें आपने पहले कभी नहीं सुना हो, लेकिन कम से कम इस गीत को तो आप में से बहुतों ने सुना होगा। हाँ, यह बात ज़रूर है कि आज यह गीत कहीं से सुनाई नहीं देता।
प्रेम धवन और मजरूह सुल्तानपुरी ने इस फ़िल्म के गानें लिखे थे, प्रस्तुत गीत मजरूह साहब का लिखा हुआ है। मजरूह साहब की यह तीसरी फ़िल्म थी। इस गीत की चर्चा में यह याद दिलाना ज़रूरी है कि साल १९४९ में, यानी इस 'आरज़ू' के ठीक एक साल पहले एक फ़िल्म 'अंदाज़' आई थी, उसमें लता जी के गाए कई गानें मशहूर हुए थे, और उनमें एक गीत था "उठाए जा उनके सितम और जिये जा"। और 'आरज़ू' के इस गीत में भी ग़म उठाने की ही बात की गई है। और इन दोनों गीतों के गीतकार मजरूह साहब ही थे। इसका मतलब यह है कि "उठाए जा उनके सितम" की अपार कामयाबी की वजह से ही हो सकता है कि फ़िल्म के निर्माता ने कुछ इसी तरह के एक और गीत की माँग की होगी मजरूह साहब और अनिल दा से। क्योंकि आज का गीत मजरूह साहब ने १९५० के आसपास लिखा होगा, इसलिए यहाँ पर हम आपको उनके विविध भारती पर कहे हुए वो बातें पेश कर रहे हैं जिसका नाता १९४५ से १९५२ के समय से है। आप ख़ुद ही पढ़िए मजरूह साहब के शब्दों में। "१९४५ से १९५२ के दरमियाँ की बात है। उस समय मैंने तरक्की पसंद अशार की शुरुआत की थी। मेरे उम्र के जानकार लोगों को यह मालूम होगा कि आज ऐसे अशार जो किसी और के नाम से लोग जानते हैं, वो तरक्की पसंद शायरी मैंने ही शुरुआत की थी। मैं एक बार अमेरिका और कनाडा गया था। वहाँ के कई युनिवर्सिटीज़ में मैं गया, मुझे इस बात की हैरानी हुई कि वहाँ के शायरी पसंद लोगों को मेरे अशार तो याद हैं, पर कोई फ़ैज़ के नाम से, तो कोई फ़रहाद के नाम से, मजरूह के नाम से नहीं।" तो लीजिए दोस्तों, सुनिए लता जी की आवाज़ में यह दर्द भरा गीत और महसूस कीजिए उनकी आवाज़ की मिठास को। वैसे भी दर्दीले गीत ज़्यादा मीठे लगते हैं!
क्या आप जानते हैं...
कि मजरूह सुल्तानपुरी को सन १९९४ में 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।
विशेष सूचना:
लता जी के जनमदिन के उपलक्ष्य पर इस शृंखला के अलावा २५ सितंबर शनिवार को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में होगा लता मंगेशकर विशेष। इस लता विशेषांक में आप लता जी को दे सकते हैं जनमदिन की शुभकामनाएँ बस एक ईमेल के बहाने। लता जी के प्रति अपने उदगार, या उनके गाए आपके पसंदीदा १० गीत, या फिर उनके गाए किसी गीत से जुड़ी आपकी कोई ख़ास याद, या उनके लिए आपकी शुभकामनाएँ, इनमें से जो भी आप चाहें एक ईमेल में लिख कर हमें २० सितंबर से पहले oig@hindyugm.com के पते पर भेज दें। हमें आपके ईमेल का इंतज़ार रहेगा।
अजय देशपांडे जी ने लता जी के दुर्लभ गीतों को संगृहीत करने के उद्देश्य से एक वेब साईट का निर्माण किया है, जरूर देखिये यहाँ.
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. फ़िल्म के नाम में दो शब्द हैं जिनमें से एक शब्द एक राग का नाम भी है और दूसरा शब्द एक मशहूर पार्श्व गायक का नाम। तो इन दोनों शब्दों को जोड़िए और बताइए फ़िल्म का नाम। ३ अंक।
२. यह एक कृष्ण भजन है। गीतकार बताएँ। ३ अंक।
३. संगीतकार वो हैं जिनके संगीत में एक गीत अभी हाल ही में आपने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुना है 'गीत अपना धुन पराई' शृंखला के अंतर्गत। कौन हैं ये संगीतकार? २ अंक।
४. गीत के मुखड़े का पहला शब्द है "श्याम"। फ़िल्म की नायिका का नाम बताएँ। २ अंक।
पिछली पहेली का परिणाम -
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
गुज़रे ज़माने के अनमोल नग़मों के शैदाईयों और क़द्रदानों, इन दिनों आपकी ख़िदमत में हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पेश कर रहे हैं लता मंगेशकर के गाए कुछ बेहद दुर्लभ गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'लता के दुर्लभ दस'। अब तक आपने इस शृंखला में जितने भी गानें सुनें, उनकी फ़िल्में भी कमचर्चित रही, यानी कि बॊक्स ऒफ़िस पर असफल। लेकिन आज हम जिस फ़िल्म का गीत सुनने जा रहे हैं, वह एक मशहूर फ़िल्म है और इसके कुछ गानें तो बहुत लोकप्रिय भी हुए थे। १९५० की यह फ़िल्म थी 'आरज़ू'। जी हाँ, वही 'आरज़ू' जिसमें तलत महमूद साहब ने पहली पहली बार "ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल" गीत गा कर एक धमाकेदार पदार्पण किया था हिंदी फ़िल्म संगीत संसार में। लेखिका इस्मत चुगताई के पति शाहीद लतीफ़ ने इस फ़िल्म का निर्माण किया था जिसमें मुख्य भूमिकाओं में थे दिलीप कुमार और कामिनी कौशल। इस जोड़ी की यह अंतिम फ़िल्म थी। इस जोड़ी ने ४० के दशक में 'शहीद' और 'नदिया के पार' जैसी फ़िल्मों में कामयाब अभिनय किया था। 'आरज़ू' में संगीत अनिल बिस्वास का था, जिन्होंने इस फ़िल्म में ना केवल तलत महमूद को लौंच किया, बल्कि गायिका सुधा मल्होत्रा से भी उनका पहला पहला फ़िल्मी गीत गवाया था जिसके बोल थे "मिला गए नैन"। इस फ़िल्म में अनिल दा ने अपनी दूसरी फ़िल्मों की तरह ही लता मंगेशकर से बहुत से एकल गीत गवाए। इनमें शामिल हैं लोक धुनों पर आधारित "आई बहार जिया डोले मोरा जिया डोले रे" और "मेरा नरम करेजवा डोल गया"; इन हल्के फुल्के गीतों के अलावा कुछ संजीदे गानें भी थे जैसे "उन्हें हम तो दिल से भुलाने लगे, वो कुछ और भी याद आने लगे", "जाना ना दिल से दूर आँखों से दूर जाके" और "कहाँ तक हम उठाएँ ग़म, जिए अब या कि मर जाएँ"। इनमें से आज के लिए हमने चुना है "कहाँ तक हम उठाएँ ग़म"। क्या दर्द-ए-मौसिक़ी है, क्या अदायगी है, क्या पुर-असर बोल हैं! इस गीत की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। अब तक जितने भी गीत हमने सुनवाए हैं, हो सकता है कि उन्हें आपने पहले कभी नहीं सुना हो, लेकिन कम से कम इस गीत को तो आप में से बहुतों ने सुना होगा। हाँ, यह बात ज़रूर है कि आज यह गीत कहीं से सुनाई नहीं देता।
प्रेम धवन और मजरूह सुल्तानपुरी ने इस फ़िल्म के गानें लिखे थे, प्रस्तुत गीत मजरूह साहब का लिखा हुआ है। मजरूह साहब की यह तीसरी फ़िल्म थी। इस गीत की चर्चा में यह याद दिलाना ज़रूरी है कि साल १९४९ में, यानी इस 'आरज़ू' के ठीक एक साल पहले एक फ़िल्म 'अंदाज़' आई थी, उसमें लता जी के गाए कई गानें मशहूर हुए थे, और उनमें एक गीत था "उठाए जा उनके सितम और जिये जा"। और 'आरज़ू' के इस गीत में भी ग़म उठाने की ही बात की गई है। और इन दोनों गीतों के गीतकार मजरूह साहब ही थे। इसका मतलब यह है कि "उठाए जा उनके सितम" की अपार कामयाबी की वजह से ही हो सकता है कि फ़िल्म के निर्माता ने कुछ इसी तरह के एक और गीत की माँग की होगी मजरूह साहब और अनिल दा से। क्योंकि आज का गीत मजरूह साहब ने १९५० के आसपास लिखा होगा, इसलिए यहाँ पर हम आपको उनके विविध भारती पर कहे हुए वो बातें पेश कर रहे हैं जिसका नाता १९४५ से १९५२ के समय से है। आप ख़ुद ही पढ़िए मजरूह साहब के शब्दों में। "१९४५ से १९५२ के दरमियाँ की बात है। उस समय मैंने तरक्की पसंद अशार की शुरुआत की थी। मेरे उम्र के जानकार लोगों को यह मालूम होगा कि आज ऐसे अशार जो किसी और के नाम से लोग जानते हैं, वो तरक्की पसंद शायरी मैंने ही शुरुआत की थी। मैं एक बार अमेरिका और कनाडा गया था। वहाँ के कई युनिवर्सिटीज़ में मैं गया, मुझे इस बात की हैरानी हुई कि वहाँ के शायरी पसंद लोगों को मेरे अशार तो याद हैं, पर कोई फ़ैज़ के नाम से, तो कोई फ़रहाद के नाम से, मजरूह के नाम से नहीं।" तो लीजिए दोस्तों, सुनिए लता जी की आवाज़ में यह दर्द भरा गीत और महसूस कीजिए उनकी आवाज़ की मिठास को। वैसे भी दर्दीले गीत ज़्यादा मीठे लगते हैं!
क्या आप जानते हैं...
कि मजरूह सुल्तानपुरी को सन १९९४ में 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।
विशेष सूचना:
लता जी के जनमदिन के उपलक्ष्य पर इस शृंखला के अलावा २५ सितंबर शनिवार को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में होगा लता मंगेशकर विशेष। इस लता विशेषांक में आप लता जी को दे सकते हैं जनमदिन की शुभकामनाएँ बस एक ईमेल के बहाने। लता जी के प्रति अपने उदगार, या उनके गाए आपके पसंदीदा १० गीत, या फिर उनके गाए किसी गीत से जुड़ी आपकी कोई ख़ास याद, या उनके लिए आपकी शुभकामनाएँ, इनमें से जो भी आप चाहें एक ईमेल में लिख कर हमें २० सितंबर से पहले oig@hindyugm.com के पते पर भेज दें। हमें आपके ईमेल का इंतज़ार रहेगा।
अजय देशपांडे जी ने लता जी के दुर्लभ गीतों को संगृहीत करने के उद्देश्य से एक वेब साईट का निर्माण किया है, जरूर देखिये यहाँ.
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. फ़िल्म के नाम में दो शब्द हैं जिनमें से एक शब्द एक राग का नाम भी है और दूसरा शब्द एक मशहूर पार्श्व गायक का नाम। तो इन दोनों शब्दों को जोड़िए और बताइए फ़िल्म का नाम। ३ अंक।
२. यह एक कृष्ण भजन है। गीतकार बताएँ। ३ अंक।
३. संगीतकार वो हैं जिनके संगीत में एक गीत अभी हाल ही में आपने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुना है 'गीत अपना धुन पराई' शृंखला के अंतर्गत। कौन हैं ये संगीतकार? २ अंक।
४. गीत के मुखड़े का पहला शब्द है "श्याम"। फ़िल्म की नायिका का नाम बताएँ। २ अंक।
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खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
अवध लाल
Pratibha K-S
Ottawa, Canada
उत्कृष्टता की सिद्धि तब नहीं होती जब कुछ और जोड़ना या लगाना बाकी नहीं रह जाए, बल्कि तब होती है जब कुछ हटाने के लिये नहीं बचे
-एंटोइन दे सेंट एक्जूपरि
"Kishore" Sampat
Canada
Naveen Prasad
(I'm back)
Uttranchal - now working/living in Canada
Naveen Prasad
(I'm back)
Uttranchal - now working/living in Canada
पर.......सबको याद करती हूं सच्ची.