ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 481/2010/181
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! लता मंगेशकर एक ऐसा नाम है जो किसी तारीफ़ की मोहताज नहीं। ये वो नाम है जो हम सब की ज़िंदगियों में कुछ इस तरह से घुलमिल गया है कि इसे हम अपने जीवन से अलग नहीं कर सकते। और अगर अलग कर भी दें तो जीवन बड़ा ही नीरस हो जाएगा, कड़वाहट घुल जाएगी। लता जी की आवाज़ इस सदी की आवाज़ है और इस बात में ज़रा सी भी अतिशयोक्ति नहीं। फ़िल्म संगीत के लिए वरदान है उनकी आवाज़ क्योंकि उन जैसी आवाज़ हज़ारों सालों में एक ही बार जन्म लेती है। लता जी के गाए हुए लोकप्रिय गानों की फ़ेहरिस्त बनाने बैठें तो शायद जनवरी से दिसंबर का महीना आ जाएग। युं तो उनके असंख्य लोकप्रिय और हिट गीत हम रोज़ाना सुनते ही रहते हैं, लेकिन उनके गाए बहुत से ऐसे गानें भी हैं जो बेहद दुर्लभ हैं, जो कहीं से भी आज सुनाई नहीं देते, और शायद वक़्त ने भी उन अनमोल गीतों को भुला दिया है। लेकिन जो लता जी के सच्चे भक्त हैं, वो अपनी मेहनत से, अपनी लगन से, और लता जी के प्रति अपने प्यार की वजह से इन भूले बिसरे दुर्लभ गीतों को खोज निकालते रहते हैं। ऐसे ही एक लता भक्त हैं नागपुर के श्री अजय देशपाण्डेय। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के पुराने दोस्तों को याद होगा कि पिछले साल करीब करीब इसी समय हमने लता जी के दुर्लभ गीतों पर एक शृंखला आयोजित की थी 'मेरी आवाज़ ही पहचान है', जिसके लिए १० दुर्लभ गानें चुन कर हमें भेजे थे अजय जी ने। तो हमने सोचा कि इस साल भी लता जी के जनमदिन के आसपास क्यों ना फिर एक बार कुछ और बेहद दुर्लभ गीतों के ज़रिए लता जी को हैप्पी बर्थडे कहा जाए! इसलिए हम एक बार फिर से अजय जी के शरण में गए और उन्होंने बड़ी ख़ुशी ख़ुशी हमें सहयोग दिया और हमें भेजे लता जी के गाए १० दुर्लभतम गीत। तो लीजिए आज से अगले १० अंकों में सुनिए स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर के गाए १० भूले बिसरे और बेहद दुर्लभ गीत 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'लता के दुर्लभ दस' में। दोस्तों, इस शृंखला में हम लता जी की तारीफ़ नहीं करेंगे, क्योंकि यह केवल वक़्त की बरबादी ही होगी। हम बात करेंगे इन भूले बिसरे गीतों की, उन गीतों के फ़िल्मों से जुड़े अन्य कलाकारों की, और कुछ रोचक तथ्यों की। हमने इस शृंखला के लिए जो शोधकार्य किया है अलग अलग सूत्रों से, उम्मीद है ये जानकारियाँ आप के लिए नई होंगी और आप इसका भरपूर आनंद उठाएँगे।
'लता के दुर्लभ दस' शृंखला की पहली कड़ी के लिए हमने जो गीत चुना है, या युं कहें कि अजय देशपाण्डेय जी ने चुना है, वह है सन् १९४८ की फ़िल्म 'हीर रांझा' का। इस फ़िल्म का निर्माण किया था पंजाब फ़िल्म कार्पोरेशन ने और इसका निर्देशन किया था वली साहब ने। ग़ुलाम मोहम्मद, मुमताज़ शांति, अज़ीज़, रूप कमल और मंजु अभिनीत इस फ़िल्म में संगीतकार थे अज़ीज़ ख़ान और शर्माजी-वर्माजी। पंकज राग की किताब 'धुनों की यात्रा' के अनुसार शर्माजी-वर्माजी की जोड़ी के शर्माजी और कोई नहीं बल्कि ख़य्याम ही हैं। अज़ीज़ ख़ान ४० के दशक के कमचर्चित संगीतकारों में से एक थे। १९४६ में बसंत पिक्चर्स की स्टण्ट फ़िल्म 'फ़्लाइंग् प्रिन्स' में उन्होंने संगीत दिया था, पर फ़िल्म नहीं चली। इसी साल रुख़साना पिक्चर्स की फ़िल्म 'पण्डितजी' में भी उनका संगीत था लेकिन एक बार फिर फ़िल्म पिट गई और संगीत भी अनसुना रह गया। अगले साल, यानी १९४७ में अज़ीज़ ख़ान ने 'इंतज़ार के बाद' में संगीत दिया जिसमें उन्होंने ज़ीनत बेग़म से कुछ लोकप्रिय गानें गवाए थे। १९४८ में 'हीर रांझा' में शर्माजी-वर्माजी के साथ उनका संगीत सही मायनों में उत्कृष्ट था। इस फ़िल्म में लता मंगेशकर और जी. एम. दुर्रानी के गाए युगल गीत थे, गीता रॊय और दुर्रानी के भी युगल गीत थे। पर सब से उल्लेखनीय गीत इस फ़िल्म का शायद लता और साथियों की आवाज़ों में ख़ुसरो की पारम्परिक रचना "काहे को ब्याही बिदेस रे सुन बाबुल मोरे" था जिसे आज आप इस महफ़िल में सुनने जा रहे हैं। यह वाक़ई ताज्जुब की बात है कि लता के गाए ४० के दशक के लोकप्रिय गानों में इस गीत का शुमार कभी नहीं हुआ, इस गीत को क्यों नज़रंदाज़ कर दिया गया यह सचमुच आलोचना का विषय है। और मज़े की बात तो यह है कि यही शर्माजी, जो बाद में ख़य्याम के नाम से जाने गए, उन्होंने इसी गीत को तीन दशक बाद अपनी महत्वाकांक्षी फ़िल्म 'उमरावजान' में अपनी पत्नी जगजीत कौर से गवाकर कालजयी कर दिया। लेकिन लता के गाए इस गीत की तरफ़ किसी का भी ध्यान नहीं गया। वैसे इस गीत की जो धुन है, वह उस पारम्परिक उत्तर प्रदेश के लोक धुन से बिलकुल अलग है जिस धुन में आमतौर पर इस विदाई गीत को गाया जाता है। ख़ैर, अज़ीज़ ख़ान की बात करें तो फिर उन्होंने गुलशन सूफ़ी, ज़ेड शरमन और ख़ान मस्ताना के साथ मिल कर १९५२ की फ़िल्म 'ज़माने की हवा' में संगीत तो दिया था, लेकिन फिर एक बार उन्हें नाकामयाबी ही हासिल हुई। तो लीजिए अब सुनते हैं लता जी और साथियों की आवाज़ों में फ़िल्म 'हीर रांझा' का यह विदाई गीत। अगर आज से पहले आप ने इस गीत को एक बार भी सुना हुआ है तो टिप्पणी में ज़रूर लिखिएगा। यह लता जी के दुर्लभतम गीतों में से एक है!
क्या आप जानते हैं...
कि सन् १९३२ में 'हीर रांझा' नाम से एक फ़िल्म बनी थी जो ए. आर. कारदार की पहली निर्देशित बोलती फ़िल्म थी।
विशेष सूचना:
लता जी के जनमदिन के उपलक्ष पर इस शृंखला के अलावा २५ सितंबर शनिवार को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में होगा लता मंगेशकर विशेष। इस लता विशेषांक में आप लता जी को दे सकते हैं जनमदिन की शुभकामनाएँ बस एक ईमेल के बहाने। लता जी के प्रति अपने उदगार, या उनके गाए आपके पसंदीदा १० गीत, या फिर उनके गाए किसी गीत से जुड़ी आपकी कोई ख़ास याद, या उनके लिए आपकी शुभकामनाएँ, इनमें से जो भी आप चाहें एक ईमेल में लिख कर हमें २० सितंबर से पहले oig@hindyugm.com के पते पर भेज दें। हमें आपके ईमेल का इंतज़ार रहेगा।
अजय देशपांडे जी ने लता जी के दुर्लभ गीतों को संगृहीत करने के उद्देश्य से एक वेब साईट का निर्माण किया है, जरूर देखिये यहाँ.
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. यह उसी गीतकार का लिखा हुआ गीत है जिनके एक अन्य गीत को गा कर १९४९ में लता ने अपनी पहली ज़बरदस्त कामयाबी हासिल की थीं। गीतकार पहचानिए। २ अंक।
२. यह उसी संगीतकार की रचना है जिन्होंने लता से उनका पहला एकल प्लेबैक्ड गीत गवाया था। फ़िल्म का नाम बताएँ। ३ अंक।
३. इस फ़िल्म में सुरेन्द्र और गीता रॊय के ही अधिकतर गानें हैं। १९४८ की इस फ़िल्म के निर्देशक का नाम बताएँ। २ अंक।
४. गीत के मुखड़े में उस शब्द का ज़िक्र है जिस शब्द से लता का १९४९ की एक बेहद मशहूर फ़िल्म का एक गीत शुरु होता है जिसे हसरत जयपुरी ने लिखा था। गीत का मुखड़ा पहचानिए। ४ अंक।
पिछली पहेली का परिणाम -
प्रतिभा जी अवध जी और पवन जी को खास बधाई, सही जवाब के लिए, इंदु जी चूक गयी न आप :)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! लता मंगेशकर एक ऐसा नाम है जो किसी तारीफ़ की मोहताज नहीं। ये वो नाम है जो हम सब की ज़िंदगियों में कुछ इस तरह से घुलमिल गया है कि इसे हम अपने जीवन से अलग नहीं कर सकते। और अगर अलग कर भी दें तो जीवन बड़ा ही नीरस हो जाएगा, कड़वाहट घुल जाएगी। लता जी की आवाज़ इस सदी की आवाज़ है और इस बात में ज़रा सी भी अतिशयोक्ति नहीं। फ़िल्म संगीत के लिए वरदान है उनकी आवाज़ क्योंकि उन जैसी आवाज़ हज़ारों सालों में एक ही बार जन्म लेती है। लता जी के गाए हुए लोकप्रिय गानों की फ़ेहरिस्त बनाने बैठें तो शायद जनवरी से दिसंबर का महीना आ जाएग। युं तो उनके असंख्य लोकप्रिय और हिट गीत हम रोज़ाना सुनते ही रहते हैं, लेकिन उनके गाए बहुत से ऐसे गानें भी हैं जो बेहद दुर्लभ हैं, जो कहीं से भी आज सुनाई नहीं देते, और शायद वक़्त ने भी उन अनमोल गीतों को भुला दिया है। लेकिन जो लता जी के सच्चे भक्त हैं, वो अपनी मेहनत से, अपनी लगन से, और लता जी के प्रति अपने प्यार की वजह से इन भूले बिसरे दुर्लभ गीतों को खोज निकालते रहते हैं। ऐसे ही एक लता भक्त हैं नागपुर के श्री अजय देशपाण्डेय। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के पुराने दोस्तों को याद होगा कि पिछले साल करीब करीब इसी समय हमने लता जी के दुर्लभ गीतों पर एक शृंखला आयोजित की थी 'मेरी आवाज़ ही पहचान है', जिसके लिए १० दुर्लभ गानें चुन कर हमें भेजे थे अजय जी ने। तो हमने सोचा कि इस साल भी लता जी के जनमदिन के आसपास क्यों ना फिर एक बार कुछ और बेहद दुर्लभ गीतों के ज़रिए लता जी को हैप्पी बर्थडे कहा जाए! इसलिए हम एक बार फिर से अजय जी के शरण में गए और उन्होंने बड़ी ख़ुशी ख़ुशी हमें सहयोग दिया और हमें भेजे लता जी के गाए १० दुर्लभतम गीत। तो लीजिए आज से अगले १० अंकों में सुनिए स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर के गाए १० भूले बिसरे और बेहद दुर्लभ गीत 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'लता के दुर्लभ दस' में। दोस्तों, इस शृंखला में हम लता जी की तारीफ़ नहीं करेंगे, क्योंकि यह केवल वक़्त की बरबादी ही होगी। हम बात करेंगे इन भूले बिसरे गीतों की, उन गीतों के फ़िल्मों से जुड़े अन्य कलाकारों की, और कुछ रोचक तथ्यों की। हमने इस शृंखला के लिए जो शोधकार्य किया है अलग अलग सूत्रों से, उम्मीद है ये जानकारियाँ आप के लिए नई होंगी और आप इसका भरपूर आनंद उठाएँगे।
'लता के दुर्लभ दस' शृंखला की पहली कड़ी के लिए हमने जो गीत चुना है, या युं कहें कि अजय देशपाण्डेय जी ने चुना है, वह है सन् १९४८ की फ़िल्म 'हीर रांझा' का। इस फ़िल्म का निर्माण किया था पंजाब फ़िल्म कार्पोरेशन ने और इसका निर्देशन किया था वली साहब ने। ग़ुलाम मोहम्मद, मुमताज़ शांति, अज़ीज़, रूप कमल और मंजु अभिनीत इस फ़िल्म में संगीतकार थे अज़ीज़ ख़ान और शर्माजी-वर्माजी। पंकज राग की किताब 'धुनों की यात्रा' के अनुसार शर्माजी-वर्माजी की जोड़ी के शर्माजी और कोई नहीं बल्कि ख़य्याम ही हैं। अज़ीज़ ख़ान ४० के दशक के कमचर्चित संगीतकारों में से एक थे। १९४६ में बसंत पिक्चर्स की स्टण्ट फ़िल्म 'फ़्लाइंग् प्रिन्स' में उन्होंने संगीत दिया था, पर फ़िल्म नहीं चली। इसी साल रुख़साना पिक्चर्स की फ़िल्म 'पण्डितजी' में भी उनका संगीत था लेकिन एक बार फिर फ़िल्म पिट गई और संगीत भी अनसुना रह गया। अगले साल, यानी १९४७ में अज़ीज़ ख़ान ने 'इंतज़ार के बाद' में संगीत दिया जिसमें उन्होंने ज़ीनत बेग़म से कुछ लोकप्रिय गानें गवाए थे। १९४८ में 'हीर रांझा' में शर्माजी-वर्माजी के साथ उनका संगीत सही मायनों में उत्कृष्ट था। इस फ़िल्म में लता मंगेशकर और जी. एम. दुर्रानी के गाए युगल गीत थे, गीता रॊय और दुर्रानी के भी युगल गीत थे। पर सब से उल्लेखनीय गीत इस फ़िल्म का शायद लता और साथियों की आवाज़ों में ख़ुसरो की पारम्परिक रचना "काहे को ब्याही बिदेस रे सुन बाबुल मोरे" था जिसे आज आप इस महफ़िल में सुनने जा रहे हैं। यह वाक़ई ताज्जुब की बात है कि लता के गाए ४० के दशक के लोकप्रिय गानों में इस गीत का शुमार कभी नहीं हुआ, इस गीत को क्यों नज़रंदाज़ कर दिया गया यह सचमुच आलोचना का विषय है। और मज़े की बात तो यह है कि यही शर्माजी, जो बाद में ख़य्याम के नाम से जाने गए, उन्होंने इसी गीत को तीन दशक बाद अपनी महत्वाकांक्षी फ़िल्म 'उमरावजान' में अपनी पत्नी जगजीत कौर से गवाकर कालजयी कर दिया। लेकिन लता के गाए इस गीत की तरफ़ किसी का भी ध्यान नहीं गया। वैसे इस गीत की जो धुन है, वह उस पारम्परिक उत्तर प्रदेश के लोक धुन से बिलकुल अलग है जिस धुन में आमतौर पर इस विदाई गीत को गाया जाता है। ख़ैर, अज़ीज़ ख़ान की बात करें तो फिर उन्होंने गुलशन सूफ़ी, ज़ेड शरमन और ख़ान मस्ताना के साथ मिल कर १९५२ की फ़िल्म 'ज़माने की हवा' में संगीत तो दिया था, लेकिन फिर एक बार उन्हें नाकामयाबी ही हासिल हुई। तो लीजिए अब सुनते हैं लता जी और साथियों की आवाज़ों में फ़िल्म 'हीर रांझा' का यह विदाई गीत। अगर आज से पहले आप ने इस गीत को एक बार भी सुना हुआ है तो टिप्पणी में ज़रूर लिखिएगा। यह लता जी के दुर्लभतम गीतों में से एक है!
क्या आप जानते हैं...
कि सन् १९३२ में 'हीर रांझा' नाम से एक फ़िल्म बनी थी जो ए. आर. कारदार की पहली निर्देशित बोलती फ़िल्म थी।
विशेष सूचना:
लता जी के जनमदिन के उपलक्ष पर इस शृंखला के अलावा २५ सितंबर शनिवार को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में होगा लता मंगेशकर विशेष। इस लता विशेषांक में आप लता जी को दे सकते हैं जनमदिन की शुभकामनाएँ बस एक ईमेल के बहाने। लता जी के प्रति अपने उदगार, या उनके गाए आपके पसंदीदा १० गीत, या फिर उनके गाए किसी गीत से जुड़ी आपकी कोई ख़ास याद, या उनके लिए आपकी शुभकामनाएँ, इनमें से जो भी आप चाहें एक ईमेल में लिख कर हमें २० सितंबर से पहले oig@hindyugm.com के पते पर भेज दें। हमें आपके ईमेल का इंतज़ार रहेगा।
अजय देशपांडे जी ने लता जी के दुर्लभ गीतों को संगृहीत करने के उद्देश्य से एक वेब साईट का निर्माण किया है, जरूर देखिये यहाँ.
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. यह उसी गीतकार का लिखा हुआ गीत है जिनके एक अन्य गीत को गा कर १९४९ में लता ने अपनी पहली ज़बरदस्त कामयाबी हासिल की थीं। गीतकार पहचानिए। २ अंक।
२. यह उसी संगीतकार की रचना है जिन्होंने लता से उनका पहला एकल प्लेबैक्ड गीत गवाया था। फ़िल्म का नाम बताएँ। ३ अंक।
३. इस फ़िल्म में सुरेन्द्र और गीता रॊय के ही अधिकतर गानें हैं। १९४८ की इस फ़िल्म के निर्देशक का नाम बताएँ। २ अंक।
४. गीत के मुखड़े में उस शब्द का ज़िक्र है जिस शब्द से लता का १९४९ की एक बेहद मशहूर फ़िल्म का एक गीत शुरु होता है जिसे हसरत जयपुरी ने लिखा था। गीत का मुखड़ा पहचानिए। ४ अंक।
पिछली पहेली का परिणाम -
प्रतिभा जी अवध जी और पवन जी को खास बधाई, सही जवाब के लिए, इंदु जी चूक गयी न आप :)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
अवध लाल
Ghulam Haidaer
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PAWAN KUMAR