ऐ मेरी ज़ोहरा-जबीं, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं...बिलकुल वैसे ही जैसे सुनहरे दौर का लगभग हर एक गीत है
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 476/2010/176
रमज़ान का मुबारक़ महीना चल रहा है और इस पाक़ मौक़े पर आपके इफ़्तार की शामों को और भी रंगीन और सुरीला बनाने के लिए इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम पेश कर रहे हैं कुछ शानदार फ़िल्मी क़व्वालियों से सजी लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली'। अब तक आपने इसमें पाँच क़व्वालियाँ सुनी। ४० के दशक के मध्य भाग से शुरू कर हम आ पहुँचे थे १९६० में और उस साल बनी दो बेहद मशहूर क़व्वालियाँ आपको हमने सुनवाई फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' और 'बरसात की रात' से। अब थोड़ा और आगे बढ़ते हैं और आ जाते है साल १९६५ में। इस साल बनी थी हिंदी फ़िल्म इतिहास की पहली मल्टिस्टरर फ़िल्म 'वक़्त'। सुनिल दत्त, साधना, राज कुमार, शशि कपूर, शर्मिला टैगोर, बलराज साहनी, निरुपा रॊय, मोतीलाल और रहमान जैसे मंझे हुए कलाकारों के पुर-असर अभिनय से सजा थी 'वक़्त'। पहले बी. आर. चोपड़ा इस फ़िल्म को पृथ्वीराज कपूर और उनके तीन बेटे राज, शम्मी और शशि को लेकर बनाना चाहते थे, लेकिन हक़ीक़त में केवल शशि कपूर को ही फ़िल्म में 'कास्ट' कर पाए। और पिता के किरदार में पृथ्वीराज जी के बदले लिया गया बलराज साहनी को। 'वक़्त' ने १९६६ में बहुत सारे फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते, जैसे कि धरम चोपड़ा (सर्वश्रेष्ठ सिनेमाटोग्राफ़र), अख़्तर-उल-इमान (सर्वश्रेष्ठ संवाद), यश चोपड़ा (सर्वश्रेष्ठ निर्देशक), अख़्तर मिर्ज़ा (सर्वश्रेष्ठ कहानी), राज कुमार (सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता), और बी. आर. चोपड़ा (सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म)। भले ही इस फ़िल्म के गीत संगीत के लिए किसी को कोई पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन असली पुरस्कार तो जनता का प्यार है जो इस फ़िल्म के गीतों को भरपूर मिला और आज भी मिल रहा है। युं तो आशा भोसले और महेन्द्र कपूर ने नई पीढ़ी के अभिनेताओं का प्लेबैक किया, एक क़व्वाली पिछली पीढ़ी, यानी बलराज साहनी और निरुपा रॊय पर भी फ़िल्मायी गयी थी। और यही क़व्वाली सब से मशहूर साबित हुई। मन्ना डे की आवाज़ में बलराज साहब पर्दे पर अपनी पत्नी (अचला सचदेव) की तरफ़ इशारा करते हुए गाते हैं "ऐ मेरी ज़ोहरा-जबीं, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं और मैं जवाँ, तुझपे क़ुर्बान मेरी जान मेरी जान"। साहिर लुधियानवी के बोल और रवि का संगीत। फ़िल्म में इस क़व्वाली के ख़त्म होते ही प्रलयंकारी भूकम्प आता है और बलराज साहनी का पूरा परिवार बिखरकर रह जाता है।
दोस्तों, बरसों पहले संगीतकार रवि को विविध भारती पर साहिर लुधियानवी पर चर्चा करने हेतु आमंत्रित किया गया था। उस चर्चा में शामिल थे शायर और उद्घोषक अहमद वसी, रज़िया रागिनी और कमल शर्मा। पेश है उसी बातचीत से एक अंश जिसमें रवि जी साहिर साहब के बारे में बता रहे हैं और इस क़व्वाली का भी ज़िक्र है उस अंश में।
रवि जी, अब आप साहिर साहब की शख़्सीयत के बारे में कुछ बताइए।
रवि: साहिर साहब बड़े ही सिम्पल क़िस्म के थे। वो गम्भीर से गम्भीर बात को भी बड़े आसानी से कह डालते थे। एक क़िस्सा आपको सुनाता हूँ। उन दिनों हम ज़्यादातर बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्मों के लिए काम करते थे। तो शाम के वक़्त हम मिलते थे, बातें करते थे। तो एक दिन साहिर साहब ने अचानक कहा 'देश में इतने झंडे क्यों है? और अगर है भी तो उनमें डंडे क्यों है?' (इस बात पर वहाँ मौजूद सभी ज़ोर से हँस पड़ते हैं)।
रवि साहब, हमने सुना है कि साहिर साहब अपने गीतों में हेर-फेर पसंद नहीं करते थे, इस बारे में आपका क्या ख़याल है?
रवि: साहिर साहब के गानें ऐसे होते थे कि उनमें किसी तरह का हेर-फेर करना पॊसिबल ही नहीं होता था। अब फ़िल्म 'वक़्त' के "ऐ मेरी ज़ोहरा-जबीं" को ही ले लीजिए। जब उन्होंने यह गीत लिखा तो सभी ने कहा कि आम आदमी "ज़ोहरा-जबीं" को नहीं समझ पाएँगे। पर साहिर साहब ने कहा कि क्यों नहीं समझ पाएँगे, इससे अच्छा शब्द और क्या हो सकता है! और जब यह फ़िल्म रिलीज़ हुई तो यही गीत सब से पॊपुलर साबित हुई। साहिर हर तरह के गानें लिखते थे और बहुत ही कामयाबी के साथ लिखते थे, चाहे भजन हो, क़व्वाली हो, कुछ भी।
क्या आप जानते हैं...
कि रवि की पहली फ़िल्म 'वचन' के गीत "चंदा मामा दूर के पुए पकाए गुड़ के" के मुखड़े और अंतरे के बीच के इंटरल्युड में रवि ने गणेश चतुर्थी पर बजनेवाली एक धुन को पिरोया था, और वर्षों बाद इसी धुन पर लक्ष्मी-प्यारे ने 'तेज़ाब' का सुपरहिट गीत "एक दो तीन" बनाकर माधुरी दीक्षित को रातोंरात सुपरस्टार बना दिया। (सौजन्य: 'धुनों की यात्रा', पंकज राग)
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. कव्वाली में हसीनों का जिक्र है गायिकाओं की आवाज़ में, फिल्म बताएं - १ अंक.
२. केवल कुमार निर्देशित फिल्म के नायक कौन थे - २ अंक.
३. संगीतकार बताएं - २ अंक.
४ मूल गायिका हैं लता मंगेशकर, गीतकार बताएं - ३ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
पवन जी, इंदु जी, क्रिश जी और प्रतिभा जी को बहुत बधाई. अवध जी, पाबला जी और बाकी सब साथियों ने मिलकर जिस प्रकार पूरी फिल्म की कहानी लिख डाली उसमें हमें बहुत मज़ा आया
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
रमज़ान का मुबारक़ महीना चल रहा है और इस पाक़ मौक़े पर आपके इफ़्तार की शामों को और भी रंगीन और सुरीला बनाने के लिए इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हम पेश कर रहे हैं कुछ शानदार फ़िल्मी क़व्वालियों से सजी लघु शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली'। अब तक आपने इसमें पाँच क़व्वालियाँ सुनी। ४० के दशक के मध्य भाग से शुरू कर हम आ पहुँचे थे १९६० में और उस साल बनी दो बेहद मशहूर क़व्वालियाँ आपको हमने सुनवाई फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' और 'बरसात की रात' से। अब थोड़ा और आगे बढ़ते हैं और आ जाते है साल १९६५ में। इस साल बनी थी हिंदी फ़िल्म इतिहास की पहली मल्टिस्टरर फ़िल्म 'वक़्त'। सुनिल दत्त, साधना, राज कुमार, शशि कपूर, शर्मिला टैगोर, बलराज साहनी, निरुपा रॊय, मोतीलाल और रहमान जैसे मंझे हुए कलाकारों के पुर-असर अभिनय से सजा थी 'वक़्त'। पहले बी. आर. चोपड़ा इस फ़िल्म को पृथ्वीराज कपूर और उनके तीन बेटे राज, शम्मी और शशि को लेकर बनाना चाहते थे, लेकिन हक़ीक़त में केवल शशि कपूर को ही फ़िल्म में 'कास्ट' कर पाए। और पिता के किरदार में पृथ्वीराज जी के बदले लिया गया बलराज साहनी को। 'वक़्त' ने १९६६ में बहुत सारे फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते, जैसे कि धरम चोपड़ा (सर्वश्रेष्ठ सिनेमाटोग्राफ़र), अख़्तर-उल-इमान (सर्वश्रेष्ठ संवाद), यश चोपड़ा (सर्वश्रेष्ठ निर्देशक), अख़्तर मिर्ज़ा (सर्वश्रेष्ठ कहानी), राज कुमार (सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता), और बी. आर. चोपड़ा (सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म)। भले ही इस फ़िल्म के गीत संगीत के लिए किसी को कोई पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन असली पुरस्कार तो जनता का प्यार है जो इस फ़िल्म के गीतों को भरपूर मिला और आज भी मिल रहा है। युं तो आशा भोसले और महेन्द्र कपूर ने नई पीढ़ी के अभिनेताओं का प्लेबैक किया, एक क़व्वाली पिछली पीढ़ी, यानी बलराज साहनी और निरुपा रॊय पर भी फ़िल्मायी गयी थी। और यही क़व्वाली सब से मशहूर साबित हुई। मन्ना डे की आवाज़ में बलराज साहब पर्दे पर अपनी पत्नी (अचला सचदेव) की तरफ़ इशारा करते हुए गाते हैं "ऐ मेरी ज़ोहरा-जबीं, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं और मैं जवाँ, तुझपे क़ुर्बान मेरी जान मेरी जान"। साहिर लुधियानवी के बोल और रवि का संगीत। फ़िल्म में इस क़व्वाली के ख़त्म होते ही प्रलयंकारी भूकम्प आता है और बलराज साहनी का पूरा परिवार बिखरकर रह जाता है।
दोस्तों, बरसों पहले संगीतकार रवि को विविध भारती पर साहिर लुधियानवी पर चर्चा करने हेतु आमंत्रित किया गया था। उस चर्चा में शामिल थे शायर और उद्घोषक अहमद वसी, रज़िया रागिनी और कमल शर्मा। पेश है उसी बातचीत से एक अंश जिसमें रवि जी साहिर साहब के बारे में बता रहे हैं और इस क़व्वाली का भी ज़िक्र है उस अंश में।
रवि जी, अब आप साहिर साहब की शख़्सीयत के बारे में कुछ बताइए।
रवि: साहिर साहब बड़े ही सिम्पल क़िस्म के थे। वो गम्भीर से गम्भीर बात को भी बड़े आसानी से कह डालते थे। एक क़िस्सा आपको सुनाता हूँ। उन दिनों हम ज़्यादातर बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्मों के लिए काम करते थे। तो शाम के वक़्त हम मिलते थे, बातें करते थे। तो एक दिन साहिर साहब ने अचानक कहा 'देश में इतने झंडे क्यों है? और अगर है भी तो उनमें डंडे क्यों है?' (इस बात पर वहाँ मौजूद सभी ज़ोर से हँस पड़ते हैं)।
रवि साहब, हमने सुना है कि साहिर साहब अपने गीतों में हेर-फेर पसंद नहीं करते थे, इस बारे में आपका क्या ख़याल है?
रवि: साहिर साहब के गानें ऐसे होते थे कि उनमें किसी तरह का हेर-फेर करना पॊसिबल ही नहीं होता था। अब फ़िल्म 'वक़्त' के "ऐ मेरी ज़ोहरा-जबीं" को ही ले लीजिए। जब उन्होंने यह गीत लिखा तो सभी ने कहा कि आम आदमी "ज़ोहरा-जबीं" को नहीं समझ पाएँगे। पर साहिर साहब ने कहा कि क्यों नहीं समझ पाएँगे, इससे अच्छा शब्द और क्या हो सकता है! और जब यह फ़िल्म रिलीज़ हुई तो यही गीत सब से पॊपुलर साबित हुई। साहिर हर तरह के गानें लिखते थे और बहुत ही कामयाबी के साथ लिखते थे, चाहे भजन हो, क़व्वाली हो, कुछ भी।
क्या आप जानते हैं...
कि रवि की पहली फ़िल्म 'वचन' के गीत "चंदा मामा दूर के पुए पकाए गुड़ के" के मुखड़े और अंतरे के बीच के इंटरल्युड में रवि ने गणेश चतुर्थी पर बजनेवाली एक धुन को पिरोया था, और वर्षों बाद इसी धुन पर लक्ष्मी-प्यारे ने 'तेज़ाब' का सुपरहिट गीत "एक दो तीन" बनाकर माधुरी दीक्षित को रातोंरात सुपरस्टार बना दिया। (सौजन्य: 'धुनों की यात्रा', पंकज राग)
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. कव्वाली में हसीनों का जिक्र है गायिकाओं की आवाज़ में, फिल्म बताएं - १ अंक.
२. केवल कुमार निर्देशित फिल्म के नायक कौन थे - २ अंक.
३. संगीतकार बताएं - २ अंक.
४ मूल गायिका हैं लता मंगेशकर, गीतकार बताएं - ३ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
पवन जी, इंदु जी, क्रिश जी और प्रतिभा जी को बहुत बधाई. अवध जी, पाबला जी और बाकी सब साथियों ने मिलकर जिस प्रकार पूरी फिल्म की कहानी लिख डाली उसमें हमें बहुत मज़ा आया
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
Lyricists: Majrooh Sultanpuri
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pAwAN KuMAR
dharmendra
बिंदास प्रस्तुति.....पुराना गीत सुनकर रगों में खून दौड़ने लगा है ..... आनंद आ गया ...
न तो कारवाँ की तलाश है, न हम सफ़र की तलाश है ("बरसात की एक रात"
२) ये इश्क इश्क है ("बरसात की एक रात", संगीत निर्देशक: "रोशन")
३) वाकिफ़ हूँ खूब इश्क के तर्जे बयाँ से मैं ("बहू बेगम", संगीत निर्देशक: "रोशन")
चाँदी का बदन सोने की नजर ("ताज महल", संगीत निर्देशक: "रोशन")
४) जी चाहता है चूम लूँ अपनी नजर को मैं ("बरसात की एक रात", संगीत निर्देशक: "रोशन")
५) निगाहे नाज के मारों को हाल क्या होगा ("बरसात की एक रात", संगीत निर्देशक: "रोशन")
६.निगाहें मिलाने को जी चाहता है
७.हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों नें
८.तेरी महफ़िल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगे
९) ये माना मेरी जाँ मोहब्बत सजा है मजा इसमें इतना मगर किसलिये है
१०.) हाल क्या है दिलों का न पूछो सनम
११.) आज क्यों हमसे पर्दा है
१२.उनसे नजरे मिली और हिजाब आ गया
१३.सखी बाली उमरिया थी मोरी,
मोरे चिश्ती बलम चोरी चोरी,
लूटी रे मोरे मन की नगरिया
और पाकिस्तानी नायब,लाजवाब,बेहतरीन क़व्वाल अजीज़ मियाँ को सुनिए -उनकी आंखों से मस्ती बरसती रहे.
और नही बताउंगी,सजीव और सुजॉय मुझे मारेंगे, कहेंगे...
ऐसिच हैं आप सचमुच...हा हा हा
होश उडता रहे दौर चलता रहे ।
ब्ल्र्राज साहनी जी ने तो मना लिया अचला को पर हमारी अभी तक रूठी हुई है
आग हृदय की सुलग गई आपका गीत सुनकर