न तो कारवाँ की तलाश है न तो हमसफ़र की क्योंकि ये इश्क इश्क है....कहा रोशन और मजरूह के साथ गायक गायिकाओं की एक पूरी टीम ने
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 475/2010/175
आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है। इस पवित्र पर्व पर हम अपने सभी श्रोताओं व पाठकों को अपनी शुभकामनाएँ देते हैं। दोस्तों, आप समझ रहे होंगे कि क्योंकि क़व्वालियों की शृंखला चल रही है, तो जन्माष्टमी पर श्री कृष्ण का कोई गीत तो हम सुनवा नहीं पाएँगे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में, है न? लेकिन ज़रा ठहरिए, कम से कम एक क़व्वाली ऐसी ज़रूर है जिसमें श्री कृष्ण का भी ज़िक्र है, और साथ ही राधा और मीरा का भी। क्यों चौंक गए न? जी हाँ, यह सच है, इस राज़ पर से अभी पर्दा उठने वाला है। फ़िल्म संगीत में क़व्वालियों को लोकप्रिय बनाने में संगीतकार रोशन का योगदान बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसा नहीं कि उनसे पहले किसी ने मशहूर क़व्वाली फ़िल्मों के लिए नहीं बनाई, लेकिन रोशन साहब ने पारम्परिक क़व्वालियों का जिस तरह से फ़िल्मीकरण किया और जन जन में लोकप्रिय बनाया, ऐसा करने का श्रेय उन्हें ही दिया जाता रहा है। आज 'मजलिस-ए-क़व्वाली' में रोशन साहब की बनाई हुई सब से लोकप्रिय क़व्वाली की बारी, और बहुत लोगों के अनुसार यह हिंदी फ़िल्म संगीत की सब से यादगार क़व्वाली है। दरअसल ये दो क़व्वालियाँ हैं जो ग्रामोफ़ोन रेकॊर पर अलग अलग आती है, लेकिन फ़िल्म के पर्दे पर एक के बाद एक आपस में जुड़ी हुई है। इसलिए हम भी यहाँ आपको ये दोनों क़व्वालियाँ इकट्ठे सुनवा रहे हैं। फ़िल्म 'बरसात की रात' की यह क़व्वाली जोड़ी है "न तो कारवाँ की तलाश है" और "ये इश्क़ इश्क़ है"। मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, सुधा मल्होत्रा, बातिश और साथियों की आवाज़ें, तथा साहिर लुधियानवी के कलम की जादूगरी है यह क़व्वाली। दरअसल रोशन साहब ने पाक़िस्तान में एक बार एक क़व्वाली सुनी "ये इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़" जो उन्हें इतनी पसंद आई कि अनुमति लेकर उन्होंने उस क़व्वाली को ऐसा फ़िल्मी जामा पहनाया कि ना केवल यह क़व्वाली सुपर डुपर हिट साबित हुई, बल्कि अगली फ़िल्म 'दिल ही तो है' में निर्माता ने उनसे एक और क़व्वाली ("निगाहें मिलाने को जी चाहता है") की माँग कर बैठे। पंकज राग अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में लिखते हैं - "'बरसात की रात' का संगीत व्यावसायिक दृष्टि से रोशन का सफलतम संगीत था। "ना तो कारवाँ की तलाश है" का अंजाम हुअ "ये इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़" में और फ़तेह अली ख़ाँ से अनुमति उपरान्त ली गई उनकी धुन पर रोशन ने फ़िल्म संगीत के इतिहास की सब से हिट क़व्वाली बना डाली। यह एक तरह का समझौता तो अवश्य था जिसके लिए ख़य्याम तैय्यार नहीं हुए थे, पर ऐसे समझौते रोशन ने भी कम ही किए। इस क़व्वाली का तरन्नुम, बहाव, बिलकुल अभिभूत कर देने वाला है। इसकी रेकॊर्डिंग् २९ घंटे में सम्पन्न हुई औत तब जाकर वह ऐतिहासिक प्रभाव उत्पन्न हुआ, जैसा रोशन चाहते थे। भले ही धुन की प्रेरणा कहीं और से मिली हो, पर उसका विस्तार इस क़व्वाली की सुंदर विशेषताएँ बनकर आज तक लोगों के ज़हन में ताज़ा है। 'बरसात' में क़व्वालियों की धूम रही। "निगाहें नाज़ के मारों का" और "जी चाहता है चूम लूँ" जैसी क़व्वालियाँ भी अच्छी चली।"
सन् १९९८ में गायक मन्ना डे विविध भारती पर तशरीफ़ लाए थे और कई संगीतकारों की चर्चा हुई थी, जिनमें एक नाम रोशन साहब का भी उन्होंने लिया था, और ख़ास तौर से इस क़व्वाली का ज़िक्र छिड़ा था उद्घोषक कमल शर्मा द्वारा ली गई उस इंटरव्यु में। रोशन साहब को याद करते हुए मन्ना दा ने कहा था "रोशन साहब, he was a strict student of good music, यानी वो ख़याल, ठुमरी, ग़ज़लें, फ़ोक, ये सब मिलाके जो एक चीज़ वो लाते थे न, वो अनोखे ढंग से नोट्स का कॊम्बिनेशन करते थे। हम तो पागल थे उनके गानों के लिए। उस्ताद आदमी थे वो और बहुत मेहनती आदमी थे। "ना तो कारवाँ की तलाश है" के लिए मुझे याद है, रामपुर के तरफ़ से क़व्वाल लोगों को बुलाये थे। उनके प्रोग्राम सुना करते थे, नोट कर कर के कर कर के फिर उन्होंने बनाना शुरु किया। और साहिर साहब ने लिखा, और उन्होंने बनाया। और वो जो तकरारें जो हैं ना बीच में, कितने मेहनत किए वो, ओ हो हो, माइ गॊड, और फिर जब हम लोगों को सुनाते थे, बोलते थे 'देखो मज़ा आना चाहिए', वो जैसे क़व्वाल लोग करते थे। वो सब तो हमें मालूम नहीं था, रफ़ी को भी मालूम नहीं था, आशा को भी मालूम नहीं था, लेकिन उन्होंने सब करवाया हमसे। और एक एक कर के ८-१० दिन रिहर्सल करके करवाया।" दोस्तों, ऐसे ऐसे ही वह फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर नहीं हुआ। सुनहरा उसे बनाया उस दौर के फ़नकारों की लगन ने, उनके अथक परिश्रम ने, उनके डेडिकेशन ने। साहिर साहब ने इस क़व्वाली में ऐसे अल्फ़ाज़ लिखे हैं कि इसे सुनते हुए हम ट्रान्स में चले जाते हैं और जैसे उस परम शक्ति के साथ एक कनेक्शन बनने लगता है। बड़ी धर्म निरपेक्ष क़व्वाली है जिसमें साहिर साहब लिखते हैं कि "इश्क़ आज़ाद है, हिंदु ना मुसलमान है इश्क़, आप ही धर्म है और आप ही इमान है इश्क़"। इश्क़ को केन्द्रबिंदु बनाकर चलने वाली इस क़व्वाली में बहुत से विषय शामिल किए गए हैं। यहाँ तक कि श्री कृष्ण, राधा, मीरा, सीता, भगवान बुद्ध, मसीह का भी उल्लेख है, भजन और श्री कृष्ण लीला के साथ साथ लोक-संगीत का भी अंग है। "जब जब कृष्ण की बंसी बाजी, निकली राधा सज के, जान अजान का ध्यान भुला के, लोक लाज को तज के, है बन बन डोली जनक दुलारी, पहन के प्रेम की माला, दर्शन जल की प्यासी मीरा पी गई विष का प्याला"। तो दोस्तों, अब आपको अहसास हो गया ना कि क्यों हमने यह क़व्वाली आज के लिए चुनी है! तो आइए सुना जाए कुल १२ मिनट की यह क़व्वाली। श्री कृष्ण जन्माष्टमी और रमज़ान के मुबारक़ मौक़े पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का एक और सुरीला नज़राना क़बूल कीजिए।
क्या आप जानते हैं...
कि साल १९६० के अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत बिनाका गीत माला के वार्षिक कार्यक्रम में 'मुग़ल-ए-आज़म', 'चौदहवीं का चांद', 'दिल अपना और प्रीत पराई', 'धूल का फूल', 'छलिया' और 'काला बाज़ार' जैसे फ़िल्मों को पछाड़ते हुए 'बरसात की रात' फ़िल्म का शीर्षक गीत ही बना था उस वर्ष का सरताज गीत।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. एक मल्टी स्टारर फिल्म की है ये कव्वाली, फिल्म बताएं - १ अंक.
२. किस अदाकार पर फिलमाया गयी है ये कव्वाली - २ अंक.
३. गायक बताएं - २ अंक.
४ रवि का है संगीत, फिल्म के निर्देशक बताएं - ३ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
लगता है हमारे प्रोत्साहन का नतीजा निकल, अवध जी ३ अंक चुरा गए. इंदु जी, आपको नाराज़ कर मरना है क्या?, पर ये बात समझ नहीं आती कि आप एक अंक वाले सवालों का ही जवाब क्यों देती हैं. पवन जी सही जवाब के साथ वापसी की बधाई. कनाडा टीम कहाँ गायब रही...खैर अब तक के स्कोर जान लेते हैं - अवध जी ७४, इंदु जी ४०, प्रतिभा जी २८, किशोर जी २६, पवन जी २४, और नवीन जी २२ पर हैं.
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है। इस पवित्र पर्व पर हम अपने सभी श्रोताओं व पाठकों को अपनी शुभकामनाएँ देते हैं। दोस्तों, आप समझ रहे होंगे कि क्योंकि क़व्वालियों की शृंखला चल रही है, तो जन्माष्टमी पर श्री कृष्ण का कोई गीत तो हम सुनवा नहीं पाएँगे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में, है न? लेकिन ज़रा ठहरिए, कम से कम एक क़व्वाली ऐसी ज़रूर है जिसमें श्री कृष्ण का भी ज़िक्र है, और साथ ही राधा और मीरा का भी। क्यों चौंक गए न? जी हाँ, यह सच है, इस राज़ पर से अभी पर्दा उठने वाला है। फ़िल्म संगीत में क़व्वालियों को लोकप्रिय बनाने में संगीतकार रोशन का योगदान बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसा नहीं कि उनसे पहले किसी ने मशहूर क़व्वाली फ़िल्मों के लिए नहीं बनाई, लेकिन रोशन साहब ने पारम्परिक क़व्वालियों का जिस तरह से फ़िल्मीकरण किया और जन जन में लोकप्रिय बनाया, ऐसा करने का श्रेय उन्हें ही दिया जाता रहा है। आज 'मजलिस-ए-क़व्वाली' में रोशन साहब की बनाई हुई सब से लोकप्रिय क़व्वाली की बारी, और बहुत लोगों के अनुसार यह हिंदी फ़िल्म संगीत की सब से यादगार क़व्वाली है। दरअसल ये दो क़व्वालियाँ हैं जो ग्रामोफ़ोन रेकॊर पर अलग अलग आती है, लेकिन फ़िल्म के पर्दे पर एक के बाद एक आपस में जुड़ी हुई है। इसलिए हम भी यहाँ आपको ये दोनों क़व्वालियाँ इकट्ठे सुनवा रहे हैं। फ़िल्म 'बरसात की रात' की यह क़व्वाली जोड़ी है "न तो कारवाँ की तलाश है" और "ये इश्क़ इश्क़ है"। मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, सुधा मल्होत्रा, बातिश और साथियों की आवाज़ें, तथा साहिर लुधियानवी के कलम की जादूगरी है यह क़व्वाली। दरअसल रोशन साहब ने पाक़िस्तान में एक बार एक क़व्वाली सुनी "ये इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़" जो उन्हें इतनी पसंद आई कि अनुमति लेकर उन्होंने उस क़व्वाली को ऐसा फ़िल्मी जामा पहनाया कि ना केवल यह क़व्वाली सुपर डुपर हिट साबित हुई, बल्कि अगली फ़िल्म 'दिल ही तो है' में निर्माता ने उनसे एक और क़व्वाली ("निगाहें मिलाने को जी चाहता है") की माँग कर बैठे। पंकज राग अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में लिखते हैं - "'बरसात की रात' का संगीत व्यावसायिक दृष्टि से रोशन का सफलतम संगीत था। "ना तो कारवाँ की तलाश है" का अंजाम हुअ "ये इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़" में और फ़तेह अली ख़ाँ से अनुमति उपरान्त ली गई उनकी धुन पर रोशन ने फ़िल्म संगीत के इतिहास की सब से हिट क़व्वाली बना डाली। यह एक तरह का समझौता तो अवश्य था जिसके लिए ख़य्याम तैय्यार नहीं हुए थे, पर ऐसे समझौते रोशन ने भी कम ही किए। इस क़व्वाली का तरन्नुम, बहाव, बिलकुल अभिभूत कर देने वाला है। इसकी रेकॊर्डिंग् २९ घंटे में सम्पन्न हुई औत तब जाकर वह ऐतिहासिक प्रभाव उत्पन्न हुआ, जैसा रोशन चाहते थे। भले ही धुन की प्रेरणा कहीं और से मिली हो, पर उसका विस्तार इस क़व्वाली की सुंदर विशेषताएँ बनकर आज तक लोगों के ज़हन में ताज़ा है। 'बरसात' में क़व्वालियों की धूम रही। "निगाहें नाज़ के मारों का" और "जी चाहता है चूम लूँ" जैसी क़व्वालियाँ भी अच्छी चली।"
सन् १९९८ में गायक मन्ना डे विविध भारती पर तशरीफ़ लाए थे और कई संगीतकारों की चर्चा हुई थी, जिनमें एक नाम रोशन साहब का भी उन्होंने लिया था, और ख़ास तौर से इस क़व्वाली का ज़िक्र छिड़ा था उद्घोषक कमल शर्मा द्वारा ली गई उस इंटरव्यु में। रोशन साहब को याद करते हुए मन्ना दा ने कहा था "रोशन साहब, he was a strict student of good music, यानी वो ख़याल, ठुमरी, ग़ज़लें, फ़ोक, ये सब मिलाके जो एक चीज़ वो लाते थे न, वो अनोखे ढंग से नोट्स का कॊम्बिनेशन करते थे। हम तो पागल थे उनके गानों के लिए। उस्ताद आदमी थे वो और बहुत मेहनती आदमी थे। "ना तो कारवाँ की तलाश है" के लिए मुझे याद है, रामपुर के तरफ़ से क़व्वाल लोगों को बुलाये थे। उनके प्रोग्राम सुना करते थे, नोट कर कर के कर कर के फिर उन्होंने बनाना शुरु किया। और साहिर साहब ने लिखा, और उन्होंने बनाया। और वो जो तकरारें जो हैं ना बीच में, कितने मेहनत किए वो, ओ हो हो, माइ गॊड, और फिर जब हम लोगों को सुनाते थे, बोलते थे 'देखो मज़ा आना चाहिए', वो जैसे क़व्वाल लोग करते थे। वो सब तो हमें मालूम नहीं था, रफ़ी को भी मालूम नहीं था, आशा को भी मालूम नहीं था, लेकिन उन्होंने सब करवाया हमसे। और एक एक कर के ८-१० दिन रिहर्सल करके करवाया।" दोस्तों, ऐसे ऐसे ही वह फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर नहीं हुआ। सुनहरा उसे बनाया उस दौर के फ़नकारों की लगन ने, उनके अथक परिश्रम ने, उनके डेडिकेशन ने। साहिर साहब ने इस क़व्वाली में ऐसे अल्फ़ाज़ लिखे हैं कि इसे सुनते हुए हम ट्रान्स में चले जाते हैं और जैसे उस परम शक्ति के साथ एक कनेक्शन बनने लगता है। बड़ी धर्म निरपेक्ष क़व्वाली है जिसमें साहिर साहब लिखते हैं कि "इश्क़ आज़ाद है, हिंदु ना मुसलमान है इश्क़, आप ही धर्म है और आप ही इमान है इश्क़"। इश्क़ को केन्द्रबिंदु बनाकर चलने वाली इस क़व्वाली में बहुत से विषय शामिल किए गए हैं। यहाँ तक कि श्री कृष्ण, राधा, मीरा, सीता, भगवान बुद्ध, मसीह का भी उल्लेख है, भजन और श्री कृष्ण लीला के साथ साथ लोक-संगीत का भी अंग है। "जब जब कृष्ण की बंसी बाजी, निकली राधा सज के, जान अजान का ध्यान भुला के, लोक लाज को तज के, है बन बन डोली जनक दुलारी, पहन के प्रेम की माला, दर्शन जल की प्यासी मीरा पी गई विष का प्याला"। तो दोस्तों, अब आपको अहसास हो गया ना कि क्यों हमने यह क़व्वाली आज के लिए चुनी है! तो आइए सुना जाए कुल १२ मिनट की यह क़व्वाली। श्री कृष्ण जन्माष्टमी और रमज़ान के मुबारक़ मौक़े पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का एक और सुरीला नज़राना क़बूल कीजिए।
क्या आप जानते हैं...
कि साल १९६० के अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत बिनाका गीत माला के वार्षिक कार्यक्रम में 'मुग़ल-ए-आज़म', 'चौदहवीं का चांद', 'दिल अपना और प्रीत पराई', 'धूल का फूल', 'छलिया' और 'काला बाज़ार' जैसे फ़िल्मों को पछाड़ते हुए 'बरसात की रात' फ़िल्म का शीर्षक गीत ही बना था उस वर्ष का सरताज गीत।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. एक मल्टी स्टारर फिल्म की है ये कव्वाली, फिल्म बताएं - १ अंक.
२. किस अदाकार पर फिलमाया गयी है ये कव्वाली - २ अंक.
३. गायक बताएं - २ अंक.
४ रवि का है संगीत, फिल्म के निर्देशक बताएं - ३ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
लगता है हमारे प्रोत्साहन का नतीजा निकल, अवध जी ३ अंक चुरा गए. इंदु जी, आपको नाराज़ कर मरना है क्या?, पर ये बात समझ नहीं आती कि आप एक अंक वाले सवालों का ही जवाब क्यों देती हैं. पवन जी सही जवाब के साथ वापसी की बधाई. कनाडा टीम कहाँ गायब रही...खैर अब तक के स्कोर जान लेते हैं - अवध जी ७४, इंदु जी ४०, प्रतिभा जी २८, किशोर जी २६, पवन जी २४, और नवीन जी २२ पर हैं.
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
*****
PAWAN KUMAR
जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये....आभार
Pratibha
Canada
जीवन के प्रति आपका रुख निश्चित करता है जीवन का आपके प्रति रुख.
-जॉन एन. मिशेल
आजकल लेट हो जाती हूं बेचारा एक नम्बर का प्रश्न ही बचा इंतज़ार करता रहता है मेरा.
Kishore
Ottawa,Canada
Actor- Balraj Sahani
Singer -MannaDey
Director - Yash Chopra
Apart from lilting music by Ravi, the film had some unforgettable dialogues: ज़रा मुलाहिज़ा फरमाएं राज कुमार की ज़ोरदार आवाज़ में, "चिनॉय सेठ! जिनके अपने घर शीशे के हों वोह दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंकते." या फिर," यह बच्चों के खेलने की चीज़ नहीं,चाकू है. हाथ लग जाये तो खून निकल आता है."
अवध लाल
Who could forget Raajkumar and his dialogues...
"Yeh bachon ke khelne ki cheez nahin! Haath kat jaaye toh khoon nikal aata hai"
"Jinke ghar sheeshe ke hon, woh dusron par pathar nahi phenka karte"
Cheers,
Kishore....
इस फिल्म में एक से बढकर एक गाने थे
१दिन है बहार के तेरे मेरे इकरार के.
२.हम जब सिमट के आपकी
३वक्त के दिन और रात
४ आगे भी जाने ना तू
५ कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठि.
और इसमें कोई शक नही कि हर अभिनेता वहाँ अपने पात्र को जी गया फिर भी ....कमाल की फिल्म .
राजकुमार इस फिल्म में अद्वितीय लगे,रोबीला व्यक्तित्व,चेहरे से छलकती भावुकता. रहमान जैसे किसी नवाब खंडन का शहजादा ही पर्दे पर आ गया हो. एक अनोखा ' रोयल ग्रेस' था उनके व्यक्तित्व में.
कहने को ,लिखने को बहुत कुछ है इस फिल्म के बारे में.एक फोर्मुला फिल्म जो आज भी आपको बाँधने की क्षमता रखती है.
किन्तु.......आज तक नही जान पाई क्लब में स्टेज पर धीमे धीमे थिरकती हुई 'आगे भी जाने ना तू'गाती वो एक्स्ट्रा आर्टिस्ट कौन थी जिसने पूरे कपड़े पहने हुए भी बता दिया कि .....आँखों को स्थिर कर देने के लिए,बांध देने के लिए क्लब-गर्ल को कम कपड़े में होना जरूरी नही.
इस लड़की को मैंने'नीले आसमानी आँखों के....' गाने में भी देखा था बिना शरीर को झटके इस लड़की ने चेहरे और सौम्य हाव भाव से सब कह दिया था. अवध सर ! आपको मालूम हो तो बताइयेगा.