ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 474/2010/174
'मज़लिस-ए-क़व्वाली' की तीसरी कड़ी में आज हम पहुँचे हैं साल १९५९-६० में। और इसी दौरान रिलीज़ हुई थी के. आसिफ़ की महत्वाकांक्षी फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म'। इस फ़िल्म की और क्या नई बात कहूँ आप से, इस फ़िल्म का हर एक पहलु ख़ास था, इस फ़िल्म की हर एक चीज़ बड़ी थी। आसिफ़ साहब ने पानी की तरह पैसे बहाए, अपने फ़ायनेन्सर्स से झगड़ा मोल लिया, लेकिन फ़िल्म के निर्माण के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं किया। नतीजा हम सब के सामने है। जब भी कभी पिरीयड फ़िल्मों का ज़िक्र चलता है, 'मुग़ल-ए-आज़म' फ़िल्म का नाम सब से उपर आता है। जहाँ तक इस फ़िल्म के संगीत का सवाल है, तो पहले पण्डित गोबिंदराम, उसके बाद अनिल बिस्वास, और आख़िरकार नौशाद साहब पर जाकर इसके संगीत का ज़िम्मा ठहराया गया। इस फ़िल्म के तमाम गानें सुपर डुपर हिट हुए, और इसकी शान में इतना ही हम कह सकते हैं कि जब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ने १०० एपिसोड पूरे किए थे, उस दिन हमने यह महफ़िल इसी फ़िल्म के "प्यार किया तो डरना क्या" से रोशन किया था। आज 'मुग़ल-ए-आज़म' ५० साल पूरे कर चुकी है, लेकिन इसकी रौनक और लोकप्रियता में ज़रा सी भी कमी नहीं आई है। ऐसे में जब इस फ़िल्म में दो बेहतरीन क़व्वालियाँ भी शामिल हैं, तो इनमें से एक को सुनाए बग़ैर हमारी ये शृंखला अधूरी ही मानी जायेगी! याद है न आपको ये दो क़व्वालियाँ कौन सी थीं? "जब रात है ऐसी मतवाली तो सुबह का आलम क्या होगा" और "तेरी महफ़िल में क़िस्मत आज़मा कर हम भी देखेंगे"। और यही दूसरी क़व्वाली से रोशन है आज की यह मजलिस। लता मंगेशकर, शम्शाद बेग़म और साथियों की आवाज़ों में यह शक़ील-नौशाद की जोड़ी का एक और मास्टरपीस है।
आज क़व्वालियों के जिस पहलु पर हम थोड़ी चर्चा करेंगे, वह है इसके प्रकार। 'हम्द' एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है वह गीत जो अल्लाह की शान में गाया जाता है। पारम्परिक तौर पर किसी भी क़व्वाली की महफ़िल हम्द से शुरु होती है। उसके बाद आता है 'नात' जो प्रोफ़ेट मुहम्मद की शान में गाया जाता है और जिसे नातिया क़व्वाली भी कहते हैं। नात हम्द के बाद गाया जाता है। 'मन्क़बत' फिर एक बार अरबी शब्द है जिसका अर्थ है वह गीत जो इमाम अली या किसी सूफ़ी संत की शान में गायी जाती है। उल्लेखनीय बात यह है कि मन्क़बत सुन्नी और शिआ, दोनों की मजलिसों में गायी जाती है। अगर मन्कबत गाई जाती है तो उसका नंबर नात के बाद आता है। क़व्वाली का एक और प्रकार है 'मरसिया' जो किसी की मौत पर दर्द भरे अंदाज़ में गाई जाती है। इसकी शुरुआत हुई थी उस वक़्त जब इमाम हुसैन का परिवार करबला के युद्ध में शहीद हो गया था। यह किसी शिआ के मजलिस में ही गाई जाती है। क़व्वाली का एक प्रकार 'ग़ज़ल' भी है। यह वह ग़ज़ल नहीं जिसे भारत और पाक़िस्तान में हम आज सुना करते हैं, बल्कि इसका अंदाज़ क़व्वालीनुमा होता है। इसके दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं - शराब पीने का मज़ा और अपनी महबूबा से जुदाई का दर्द। लेकिन इनमें भी अल्लाह के तरफ़ ही इशारा होता है। 'शराब' का मतलब होता है 'दैवीय ज्ञान' और साक़ी यानी अल्लाह या मसीहा। 'काफ़ी' क़व्वाली का वह प्रकार है जो पंजाबी, सेरैकी या सिंधी में लिखा जाता है और जिसका अंदाज़-ए-बयाँ शाह हुसैन, बुल्ले शाह और सचल सरमस्त जैसे कवियों के शैली का होता है। "नि मैं जाना जोगी दे नाल" और "मेरा पिया घर आया" दो सब से लोकप्रिय काफ़ी हैं। और अंत में 'मुनदजात' वह रात्री कालीन संवाद है जिसमें गायक अल्लाह का शुक्रिया अदा करता है विविध काव्यात्मक तरीकों से। फ़ारसी भाषा में गाए जाने वाले क़व्वाली के इस रूप के जन्मदाता मौलाना जलालुद्दीन रुमी को माना जाता है। तो दोस्तों, यह थी जानकारी क़व्वालियों के विविध रूपों की और यह जानकारी हमने बटोरी विकिपीडिया से। और आइए अब सुनते हैं आज की क़व्वाली और हम आपसे भी यही कहेंगे कि हमारी इस महफ़िल के पहेली प्रतियोगिता में आप भी अपनी क़िस्मत आज़माकर देखिए!
क्या आप जानते हैं...
कि 'मुग़ल-ए-आज़म' के रंगीन संस्करण ने साल २००६ में पाक़िस्तान में भारतीय फ़िल्मों के प्रदर्शन पर लगी पाबंदी को ख़्तम कर दिया, जो पाबंदी सन् १९५६ से चल रही थी।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इस कव्वाली में कहीं श्रीकृष्ण का भी जिक्र है, किस मशहूर फिल्म से है ये लाजवाब कव्वाली - १ अंक.
२. गायक गायिकाओं की पूरी फ़ौज है इसमें, संगीतकार बताएं - २ अंक.
३. किस शायर की कलम से निकली है ये कव्वाली - ३ अंक.
४ फिल्म के नायक बताएं - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
कनाडा टीम (प्रतिभा जी, नवीन जी, और किशोर जी के लिए सामूहिक संबोधन) बहुत बढ़िया कर रही है. अवध जी, इंदु जी, जरा जोश दिखाईये.
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
'मज़लिस-ए-क़व्वाली' की तीसरी कड़ी में आज हम पहुँचे हैं साल १९५९-६० में। और इसी दौरान रिलीज़ हुई थी के. आसिफ़ की महत्वाकांक्षी फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म'। इस फ़िल्म की और क्या नई बात कहूँ आप से, इस फ़िल्म का हर एक पहलु ख़ास था, इस फ़िल्म की हर एक चीज़ बड़ी थी। आसिफ़ साहब ने पानी की तरह पैसे बहाए, अपने फ़ायनेन्सर्स से झगड़ा मोल लिया, लेकिन फ़िल्म के निर्माण के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं किया। नतीजा हम सब के सामने है। जब भी कभी पिरीयड फ़िल्मों का ज़िक्र चलता है, 'मुग़ल-ए-आज़म' फ़िल्म का नाम सब से उपर आता है। जहाँ तक इस फ़िल्म के संगीत का सवाल है, तो पहले पण्डित गोबिंदराम, उसके बाद अनिल बिस्वास, और आख़िरकार नौशाद साहब पर जाकर इसके संगीत का ज़िम्मा ठहराया गया। इस फ़िल्म के तमाम गानें सुपर डुपर हिट हुए, और इसकी शान में इतना ही हम कह सकते हैं कि जब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ने १०० एपिसोड पूरे किए थे, उस दिन हमने यह महफ़िल इसी फ़िल्म के "प्यार किया तो डरना क्या" से रोशन किया था। आज 'मुग़ल-ए-आज़म' ५० साल पूरे कर चुकी है, लेकिन इसकी रौनक और लोकप्रियता में ज़रा सी भी कमी नहीं आई है। ऐसे में जब इस फ़िल्म में दो बेहतरीन क़व्वालियाँ भी शामिल हैं, तो इनमें से एक को सुनाए बग़ैर हमारी ये शृंखला अधूरी ही मानी जायेगी! याद है न आपको ये दो क़व्वालियाँ कौन सी थीं? "जब रात है ऐसी मतवाली तो सुबह का आलम क्या होगा" और "तेरी महफ़िल में क़िस्मत आज़मा कर हम भी देखेंगे"। और यही दूसरी क़व्वाली से रोशन है आज की यह मजलिस। लता मंगेशकर, शम्शाद बेग़म और साथियों की आवाज़ों में यह शक़ील-नौशाद की जोड़ी का एक और मास्टरपीस है।
आज क़व्वालियों के जिस पहलु पर हम थोड़ी चर्चा करेंगे, वह है इसके प्रकार। 'हम्द' एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है वह गीत जो अल्लाह की शान में गाया जाता है। पारम्परिक तौर पर किसी भी क़व्वाली की महफ़िल हम्द से शुरु होती है। उसके बाद आता है 'नात' जो प्रोफ़ेट मुहम्मद की शान में गाया जाता है और जिसे नातिया क़व्वाली भी कहते हैं। नात हम्द के बाद गाया जाता है। 'मन्क़बत' फिर एक बार अरबी शब्द है जिसका अर्थ है वह गीत जो इमाम अली या किसी सूफ़ी संत की शान में गायी जाती है। उल्लेखनीय बात यह है कि मन्क़बत सुन्नी और शिआ, दोनों की मजलिसों में गायी जाती है। अगर मन्कबत गाई जाती है तो उसका नंबर नात के बाद आता है। क़व्वाली का एक और प्रकार है 'मरसिया' जो किसी की मौत पर दर्द भरे अंदाज़ में गाई जाती है। इसकी शुरुआत हुई थी उस वक़्त जब इमाम हुसैन का परिवार करबला के युद्ध में शहीद हो गया था। यह किसी शिआ के मजलिस में ही गाई जाती है। क़व्वाली का एक प्रकार 'ग़ज़ल' भी है। यह वह ग़ज़ल नहीं जिसे भारत और पाक़िस्तान में हम आज सुना करते हैं, बल्कि इसका अंदाज़ क़व्वालीनुमा होता है। इसके दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं - शराब पीने का मज़ा और अपनी महबूबा से जुदाई का दर्द। लेकिन इनमें भी अल्लाह के तरफ़ ही इशारा होता है। 'शराब' का मतलब होता है 'दैवीय ज्ञान' और साक़ी यानी अल्लाह या मसीहा। 'काफ़ी' क़व्वाली का वह प्रकार है जो पंजाबी, सेरैकी या सिंधी में लिखा जाता है और जिसका अंदाज़-ए-बयाँ शाह हुसैन, बुल्ले शाह और सचल सरमस्त जैसे कवियों के शैली का होता है। "नि मैं जाना जोगी दे नाल" और "मेरा पिया घर आया" दो सब से लोकप्रिय काफ़ी हैं। और अंत में 'मुनदजात' वह रात्री कालीन संवाद है जिसमें गायक अल्लाह का शुक्रिया अदा करता है विविध काव्यात्मक तरीकों से। फ़ारसी भाषा में गाए जाने वाले क़व्वाली के इस रूप के जन्मदाता मौलाना जलालुद्दीन रुमी को माना जाता है। तो दोस्तों, यह थी जानकारी क़व्वालियों के विविध रूपों की और यह जानकारी हमने बटोरी विकिपीडिया से। और आइए अब सुनते हैं आज की क़व्वाली और हम आपसे भी यही कहेंगे कि हमारी इस महफ़िल के पहेली प्रतियोगिता में आप भी अपनी क़िस्मत आज़माकर देखिए!
क्या आप जानते हैं...
कि 'मुग़ल-ए-आज़म' के रंगीन संस्करण ने साल २००६ में पाक़िस्तान में भारतीय फ़िल्मों के प्रदर्शन पर लगी पाबंदी को ख़्तम कर दिया, जो पाबंदी सन् १९५६ से चल रही थी।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इस कव्वाली में कहीं श्रीकृष्ण का भी जिक्र है, किस मशहूर फिल्म से है ये लाजवाब कव्वाली - १ अंक.
२. गायक गायिकाओं की पूरी फ़ौज है इसमें, संगीतकार बताएं - २ अंक.
३. किस शायर की कलम से निकली है ये कव्वाली - ३ अंक.
४ फिल्म के नायक बताएं - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
कनाडा टीम (प्रतिभा जी, नवीन जी, और किशोर जी के लिए सामूहिक संबोधन) बहुत बढ़िया कर रही है. अवध जी, इंदु जी, जरा जोश दिखाईये.
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
शायर मेरे ख्याल से हैं: साहिर लुधियानवी
अवध लाल
itne singers 'barsaaat ki raat' me mile aur bole 'ye ishq ishq hai ishq
aur ye bhii ki krishn se milne nikli radha jogan bn ke '
pr...........kyon kuchh btaaun?
nhi bataaungi,meri marji.
aisich hun main to
*****
pAwAN KuMAR
अभी सारे प्रश्नों के उत्तर दे दूँ?
अरे क्यों पंगा लेते हो हम जैसों के करण तो आपकी महफिल रोशन है,पूरे भारत मै हम जैसा आभूषण एक नही .गहना है गहना इस 'आवाज़' का.
अवध सर है ना?मैं हमेशा सच ही कहती हूं .
ऐसिच हूं मैं सच्ची
और बता दे हमे ना तो कारवां की तलाश है ना .....
आशीर्वाद
इस ओल्ड गोल्ड के गीत सुन कर नर्क से निकल स्वर्ग की दुनियाँ में आ जाते हैं
धन्यवाद
--
योगीराज श्री कृष्ण जी के जन्म दिवस की बहुत-बहुत बधाई!
बात तो आपकी सच है.
अगर आवाज़ एक संगीत का घर है तो घर की शोभा बहिन से ही होती है. इसलिए गहना तो आप ही हुईं ना?
(चाहे बहिन अपने आपको ४२० बताये, तब भी अंतर नहीं पड़ने वाला.)
अवध लाल