ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 477/2010/177
'ओल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है रमज़ान के मौके पर कुछ शानदार फ़िल्मी क़व्वालियों की ख़ास शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली'। क़व्वाली का जो मूल उद्देश्य है, उसे लोगों तक पहुँचाना क़व्वालों का काम है। अब जहाँ पर फ़ारसी भाषा का इस्तेमाल लोग आम बोलचाल में नहीं करते हैं, वहाँ पर क़व्वाली का अर्थ लोगों तक पहुँचाने के लिए संगीत और रीदम का सहारा लिया जाने लगा और उस रूप को, उस शैली को इतना ज़्यादा प्रभावशाली बनाया कि क़व्वाली सुनते हुए लोग ट्रान्स में चले जाने लगे। लोगों को सारे अल्फ़ाज़ भले ही समझ में ना आते हों, लेकिन संगीत और रीदम कुछ ऐसे सर चढ़ के बोलता है क़व्वालियों में कि सुनने वाला उसके साथ बह निकलता है और क़व्वाली के ख़त्म होने के बाद ही होश में वापस आता है। और इसी तरह से क़व्वाली का विकास हुआ और धीरे धीरे संगीत की एक महत्वपूर्ण धारा बन गई। पिछले पाँच दशकों में पाक़िस्तान में क़व्वालियों की शैलियों में बदलाव लाने वाले क़व्वाल गोष्ठियों में ६ नाम प्रमुख हैं और ये नाम हैं - उस्ताद फ़तेह अली व मुबारक अली ख़ान, उस्ताद करम दीन टोपई वाले, उस्ताद छज्जु ख़ान, उस्ताद मोहम्मद अली फ़रीदी, उस्ताद संतु ख़ान, उस्ताद बख़्शी सलामत, तथा उस्ताद मेहर अली ख़ान व उस्ताद शेर अली ख़ान। किसी भी क़व्वाली का मुख्य गायक, जिसे मोहरी कहते हैं, स्टेज के दाहिने तरफ़ बैठते हैं। अवाज़िआ उनके बाएँ तरफ़ और एक और अच्छा गायक अवाज़िआ के बाएँ तरफ़ बैठा करते हैं। इस दूसरे "बैक-अप" गायक का काम है मुख्य गायक को सहारा देना और आपातकाल में स्थिति को संभाल लेना। तबले को मध्य भाग में रखा जाता है। इस बैक-अप सिंगर का कॊनसेप्ट शायद जोड़ियों की वजह से जन्मा होगा, जैसे कि दो भाइयों की जोड़ी या पिता-पुत्र की जोड़ी। लेकिन दोस्तों, आज हम आपको जिस क़व्वाली से आपका मनोरंजन करने जा रहे हैं उसमें कोई बैक-अप सिंगर नहीं है। जी हाँ, लता जी ने अकेले ही शुरु से आख़िर तक इस क़व्वाली को सुरीला अंजाम दिया है। आज हम आपको सुनवा रहे हैं लता मंगेशकर और साथियों की गाई फ़िल्म 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' की क़व्वाली "अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में, रूठे पल में न माने महीनों में"।
'मेरे हमदम मेरे दोस्त' १९६८ की फ़िल्म थी। फ़िल्म के निर्माता थे केवल कुमार और निर्देशक थे अमर कुमार। कहानी निर्मल कुमारी की, स्क्रीनप्ले अमर कुमार का, और संवाद राजिन्दर सिंह बेदी के। धर्मेन्द्र, शर्मिला टैगोर, मुमताज़, रहमान, ओम प्रकाश, अचला सचदेव और निगार सुल्ताना अभिनीत इस फ़िल्म के गानें लिखे मजरूह सुल्तानपुरी ने और संगीत था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का। लक्ष्मी-प्यारे के संगीत में अगर क़व्वाली की बात करें तो 'अमर अक़बर ऐन्थनी' की क़व्वाली "पर्दा है पर्दा" ही सब से लोकप्रिय मानी जाएगी, लेकिन 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' की यह क़व्वाली भी बहुत ही प्यारी क़व्वाली है। बोल जितने प्यारे हैं, लक्ष्मी-प्यारे ने रीदम सेक्शन में ढोलक और तबले के ठेकों का इस ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है कि दिल मचल उठता है इसे सुनते हुए। वैसे भी लक्ष्मी-प्यारे के गीत उनके ख़ास रीदम और ठेकों के लिए जाने जाते रहे हैं। फ़ास्ट और स्लो रीदम का जो ट्रान्ज़िशन इस क़व्वाली में होता है, वह कमाल का है और शायद इस क़व्वाली की खासियत भी। आपको यह बताते हुए कि यह क़व्वाली फ़िल्मायी गई है धर्मेन्द्र और शर्मिला टैगोर की एक पार्टी में जिसे गाती हैं मुमताज़, सुनते हैं यह क़व्वाली, जो मुझे बेहद पसंद है, और शायद आपको भी। है न!
क्या आप जानते हैं...
कि लता मंगेशकर का फ़ेवरीट आशा नंबर है फ़िल्म 'दिल ही तो है' की क़व्वाली "निगाहें मिलाने को जी चाहता है", ऐसा लता जी ने हाल ही में अपने ट्विटर पेज पर लिखा है।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. एस एम् सागर निर्देशित इस फिल्म का नाम बताएं - १ अंक.
२. मुखड़े में शब्द है "राज़" संगीतकार बताएं - २ अंक.
३. गीतकार बताएं - ३ अंक.
४ प्रमुख आवाज़ है रफ़ी साहब की, किस अभिनेता पर फिल्माया गया है इसे - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
केवल ३ ही सही जबाव आये, इंदु जी, रोमेंद्र जी और दूसरी कोशिश में पवन जी, सभी को बधाई...मेहन्द्र जी और अनीता जी का आभार, अनीता जी कहाँ थे इतने दिन बहुत दिनों में इस महफ़िल की याद आई. अनाम जी अपना नाम तो बताईये, एक तरीका हम बता सकते हैं आपकी "उनको" मानाने का, एक अच्छा सा गीत सोचिये, और कुछ उनकी तारीफ़ में लिख कर हमें भेज दीजिए. शनिवार शाम जब वो गीत बजेगा तो वो यक़ीनन मान जायेंगीं, आजमा के देखिये
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
'ओल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है रमज़ान के मौके पर कुछ शानदार फ़िल्मी क़व्वालियों की ख़ास शृंखला 'मजलिस-ए-क़व्वाली'। क़व्वाली का जो मूल उद्देश्य है, उसे लोगों तक पहुँचाना क़व्वालों का काम है। अब जहाँ पर फ़ारसी भाषा का इस्तेमाल लोग आम बोलचाल में नहीं करते हैं, वहाँ पर क़व्वाली का अर्थ लोगों तक पहुँचाने के लिए संगीत और रीदम का सहारा लिया जाने लगा और उस रूप को, उस शैली को इतना ज़्यादा प्रभावशाली बनाया कि क़व्वाली सुनते हुए लोग ट्रान्स में चले जाने लगे। लोगों को सारे अल्फ़ाज़ भले ही समझ में ना आते हों, लेकिन संगीत और रीदम कुछ ऐसे सर चढ़ के बोलता है क़व्वालियों में कि सुनने वाला उसके साथ बह निकलता है और क़व्वाली के ख़त्म होने के बाद ही होश में वापस आता है। और इसी तरह से क़व्वाली का विकास हुआ और धीरे धीरे संगीत की एक महत्वपूर्ण धारा बन गई। पिछले पाँच दशकों में पाक़िस्तान में क़व्वालियों की शैलियों में बदलाव लाने वाले क़व्वाल गोष्ठियों में ६ नाम प्रमुख हैं और ये नाम हैं - उस्ताद फ़तेह अली व मुबारक अली ख़ान, उस्ताद करम दीन टोपई वाले, उस्ताद छज्जु ख़ान, उस्ताद मोहम्मद अली फ़रीदी, उस्ताद संतु ख़ान, उस्ताद बख़्शी सलामत, तथा उस्ताद मेहर अली ख़ान व उस्ताद शेर अली ख़ान। किसी भी क़व्वाली का मुख्य गायक, जिसे मोहरी कहते हैं, स्टेज के दाहिने तरफ़ बैठते हैं। अवाज़िआ उनके बाएँ तरफ़ और एक और अच्छा गायक अवाज़िआ के बाएँ तरफ़ बैठा करते हैं। इस दूसरे "बैक-अप" गायक का काम है मुख्य गायक को सहारा देना और आपातकाल में स्थिति को संभाल लेना। तबले को मध्य भाग में रखा जाता है। इस बैक-अप सिंगर का कॊनसेप्ट शायद जोड़ियों की वजह से जन्मा होगा, जैसे कि दो भाइयों की जोड़ी या पिता-पुत्र की जोड़ी। लेकिन दोस्तों, आज हम आपको जिस क़व्वाली से आपका मनोरंजन करने जा रहे हैं उसमें कोई बैक-अप सिंगर नहीं है। जी हाँ, लता जी ने अकेले ही शुरु से आख़िर तक इस क़व्वाली को सुरीला अंजाम दिया है। आज हम आपको सुनवा रहे हैं लता मंगेशकर और साथियों की गाई फ़िल्म 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' की क़व्वाली "अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में, रूठे पल में न माने महीनों में"।
'मेरे हमदम मेरे दोस्त' १९६८ की फ़िल्म थी। फ़िल्म के निर्माता थे केवल कुमार और निर्देशक थे अमर कुमार। कहानी निर्मल कुमारी की, स्क्रीनप्ले अमर कुमार का, और संवाद राजिन्दर सिंह बेदी के। धर्मेन्द्र, शर्मिला टैगोर, मुमताज़, रहमान, ओम प्रकाश, अचला सचदेव और निगार सुल्ताना अभिनीत इस फ़िल्म के गानें लिखे मजरूह सुल्तानपुरी ने और संगीत था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का। लक्ष्मी-प्यारे के संगीत में अगर क़व्वाली की बात करें तो 'अमर अक़बर ऐन्थनी' की क़व्वाली "पर्दा है पर्दा" ही सब से लोकप्रिय मानी जाएगी, लेकिन 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' की यह क़व्वाली भी बहुत ही प्यारी क़व्वाली है। बोल जितने प्यारे हैं, लक्ष्मी-प्यारे ने रीदम सेक्शन में ढोलक और तबले के ठेकों का इस ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है कि दिल मचल उठता है इसे सुनते हुए। वैसे भी लक्ष्मी-प्यारे के गीत उनके ख़ास रीदम और ठेकों के लिए जाने जाते रहे हैं। फ़ास्ट और स्लो रीदम का जो ट्रान्ज़िशन इस क़व्वाली में होता है, वह कमाल का है और शायद इस क़व्वाली की खासियत भी। आपको यह बताते हुए कि यह क़व्वाली फ़िल्मायी गई है धर्मेन्द्र और शर्मिला टैगोर की एक पार्टी में जिसे गाती हैं मुमताज़, सुनते हैं यह क़व्वाली, जो मुझे बेहद पसंद है, और शायद आपको भी। है न!
क्या आप जानते हैं...
कि लता मंगेशकर का फ़ेवरीट आशा नंबर है फ़िल्म 'दिल ही तो है' की क़व्वाली "निगाहें मिलाने को जी चाहता है", ऐसा लता जी ने हाल ही में अपने ट्विटर पेज पर लिखा है।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. एस एम् सागर निर्देशित इस फिल्म का नाम बताएं - १ अंक.
२. मुखड़े में शब्द है "राज़" संगीतकार बताएं - २ अंक.
३. गीतकार बताएं - ३ अंक.
४ प्रमुख आवाज़ है रफ़ी साहब की, किस अभिनेता पर फिल्माया गया है इसे - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
केवल ३ ही सही जबाव आये, इंदु जी, रोमेंद्र जी और दूसरी कोशिश में पवन जी, सभी को बधाई...मेहन्द्र जी और अनीता जी का आभार, अनीता जी कहाँ थे इतने दिन बहुत दिनों में इस महफ़िल की याद आई. अनाम जी अपना नाम तो बताईये, एक तरीका हम बता सकते हैं आपकी "उनको" मानाने का, एक अच्छा सा गीत सोचिये, और कुछ उनकी तारीफ़ में लिख कर हमें भेज दीजिए. शनिवार शाम जब वो गीत बजेगा तो वो यक़ीनन मान जायेंगीं, आजमा के देखिये
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
रमेश पन्त जी
*****
PAWAN KUMAR
Avadh Lal
कोई शिकायत नहीं बस ध्यान दिलाना है कि फिल्म 'मेरे हमदम मेरे दोस्त' के केवल कुमार निर्माता थे.जबकि पहेली के प्रश्न में पूछा गया था केवल कुमार द्वारा निर्देशित फिल्म की कव्वाली के बारे में.
अवध लाल