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ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं.. ताहिरा सैय्यद ने कुछ यूँ आवाज़ दी दाग़ की दीवानगी और मस्तानगी को

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९८

कोई नामो-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना,
तख़ल्लुस 'दाग़' है और आशिकों के दिल में रहते हैं।

"कौन ऐसी तवाएफ़ थी जो ‘दाग़’ की ग़ज़ल बग़ैर महफिल में रंग जमा सके? क्या मुशाअरे, क्या अदबी मजलिसें, क्या आपसी सुहबतें, क्या महफ़िले-रक्स, क्या गली-कूचें, सर्वत्र ‘दाग़’ का हीं रंग ग़ालिब था।" अपनी पुस्तक "शेर-ओ-सुखन: भाग ४" में अयोध्या प्रसाद गोयलीय ने उपरोक्त कथन के द्वारा दाग़ की मक़बूलियत का बेजोड़ नज़ारा पेश किया है। ये आगे लिखते हैं:

मिर्ज़ा ‘दाग़’ को अपने जीवनकाल में जो ख्याति, प्रतिष्ठा और शानो-शौकत प्राप्त हुई, वह किसी बड़े-से-बड़े शाइर को अपनी ज़िन्दगी में मयस्सर न हुई। स्वयं उनके उस्ताद इब्राहिम ‘ज़ौक़’ शाही क़फ़समें पड़े हुए ‘तूतिये-हिन्द’ कहलाते रहे, मगर १०० रू० माहवारी से ज़्यादा का आबो-दाना कभी नहीं पा सके। ख़ुदा-ए-सुख़न ‘मीर’, ‘अमर-शाइर’ ‘गा़लिब’ और ‘आतिश’-जैसे आग्नेय शाइरों को अर्थ-चिन्ता जीवनभर घुनके कीड़े की तरह खाती रही। हकीम ‘मोमिन शैख़’, ‘नासिख़’ अलबत्ता अर्थाभाव से किसी क़द्र निश्चन्त रहे, मगर ‘दाग़’ जैसी फ़राग़त उन्हें भी कहाँ नसीब हुई? जागीर मिलने और उच्च पदवियोंसे विभूषित होनेके अतिरिक्त १५०० रू० मासिक वेतन, राजसी ठाट-बाट और नवाब हैदराबाद के उस्ताद होने का महान् गौरव मिर्जा़ ‘दाग़’ को प्राप्त था। सच मानिए तो १९वीं शताब्दीका अन्तिम युग ‘दाग़’ युग था।

दाग़ की ख्याति का यह आलम था कि उनकी शिष्य मण्डली में सम्मलित होना बहुत बड़ा सौभाग्य एवं गौरव समझा जाता था। हैदराबाद-जैसे सुदूर प्रान्तमें ‘दाग़’ के समीप जो शाइर नहीं रह सकते थे, वे लगभग शिष्य संशोधनार्थ ग़ज़लें भेजते थे। ‘दाग़’ का शिष्य कहलाना ही उन दिनों शाइर होने का बहुत बड़ा प्रमाणपत्र समझा जाता था। मिर्जा दाग़के जन्नत-नशीं होने के बाद एक दर्जन से अधिक शिष्य अपने को ‘जा-नशीने-दाग़’ (गुरुका उत्तराधिकारी शिष्य) लिखने लगे। नवाब ‘साइल’ मिर्जा ‘दाग़’ के दामाद भी थे और शिष्य भी। अतः बहुत बड़ी संख्या उन्हीं को ‘जानशीने-दाग़’ समझती थी। ‘बेखुद’ देहलवी, ‘बेखुद’ बेख़ुद’ बदायूनी, ‘आगा’ शाइर क़िज़िलबाश, ‘अहसन’ मारहरवी’, ‘नूह’ नारवी, भी अपने को ‘जानशीने-दाग़’ लिखने में बहुत अधिक गर्व का अनुभव करते हैं; और किसी कि मजाल नहीं जो उन्हें इस गौरवास्पद शब्द से वंचित कर सके। वास्तविक उत्ताधिकारी कौन है, इस प्रश्न को सुलझाने के लिए वर्षों वाद-विवाद चले है।

कहा जाता है कि दाग़ के २००० से अधिक शागिर्द थे। इन शागिर्दों में दो ऐसे भी शागिर्द रहे हैं, जिन्हें उत्तराधिकारी कहे जाने का कोई शौक़ या कोई जिद्द नहीं थी, लेकिन इन्हीं दोनों ने दाग़ का नाम सबसे ज्यादा रौशन किया है। उनमें से एक थे जिगर मुरादाबादी, जिनके बारे में हम पिछली एक महफ़िल में ज़िक्र कर चुके हैं और दूसरे थे मोहम्मद अल्लामा इक़बाल। इक़बाल अपनी कविताएँ डाक द्वारा ‘दाग़’ देहलवी को संशोधनार्थ भेजा करते थे। महज २२ वर्ष की आयु में हीं इक़बाल ऐसी दुरूस्त गज़लें लिखने लगे थे कि मिर्ज़ा दाग़ को भी उनकी काबिलियत का लोहा मानना पड़ा था। दाग़ ने उनकी रचनाएँ इस टिप्पणी के साथ वापस करनी शुरू कर दीं कि रचनाएँ संशोधन की मोहताज नहीं हैं।

अभी ऊपर हमने दाग़ के सुपूर्द-ए-खाक होने की बातें कीं, लेकिन इससे पहले जो चार दिन की ज़िंदगी होती है या फिर जन्म होता है, उसका ज़िक्र भी तो लाजिमी है। तो दाग़ का जन्म नवाब मिर्ज़ा खान के रूप में २५ मई १८३१ को हुआ था। इन्होंने बस दस वर्ष की अवस्था से ही ग़ज़ल पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था। १८६५ में वे रामपूर चले गए। रामपुर में इनकी मक़बूलियत का हवाला देते हुए हजरत ‘नूह’ नारवी लिखते हैं कि -"मुझसे रामपुर के एक सिन-रसीदा (वयोवृद्ध) साहब ने जिक्र किया कि नवाब कल्ब अली खाँ साहब का मामूल था कि मुशाअरे के वक़्त कुछ लोगों को मुशाअरे के बाहर महज़ इस ख्याल बैठा देते थे कि बाद में ख़त्म मुशाअरा लोग किसका शेर पढ़ते हुए मुशाइरे से बाहर निकलते हैं। चुनाव हमेशा यही होता था कि ‘दाग़’ साहबका शेर पढ़ते हुए लोग अपने-अपने घरोंको जाते थे।" २४ साल रामपुर में व्यतीत करने के बाद दाग़ १८९१ के आस-पास हैदराबाद चले गए। यहीं पर १७ फरवरी १९०५ को इन्होंने अंतिम साँसें लीं।

दाग़ के बारे में और जानने के लिए चलिए अब हम निदा फ़ाज़ली साहब की शरण में चलते हैं:

दाग़ के पिता नवाब शम्सुद्दीन ने अपनी बंदूक से देश प्रेम में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी को उड़ा दिया था. नवाब साहब को फाँसी दी गई और उनकी पत्नी अपने पाँच साल के बेटे को रामपुर में अपनी बहन के हवाले करके, जान बचाने के लिए इधर-उधर भागती रहीं. जहाँ उन्हें मदद मिली वहाँ-वहाँ इसकी क़ीमत उन्हें अपने शरीर से चुकानी पड़ी. जिसके नतीजे में दाग़ के एक भाई और बहन अंग्रेज़ नस्ल से भी हुए. यह अभागिन महिला आख़िर में, आख़िरी मुगल सम्राट के होने वाले जानशीन मिर्ज़ा फखरू के निकाह में आई. यह १८५७ से पहले का इतिहास है. महल में आने के बाद माँ को रामपुर में छोड़े हुए बेटे की याद आई और किस्मत, बदकिस्मत बेटे को रामपुर से लालकिले में ले आई. १८५७ से एक साल पहले मिर्जा फखरू का देहांत हुआ और उसके बाद माँ और बेटा दोनों फिर से बेघर हो गए. दाग़ उस वक़्त शायर बन चुके थे. मशहूर हो चुके थे. शायरी ने उस समय के रामपुर नबाव को उन पर मेहरबान बनाया और उन्होंने फिर से घर-बार बसाया.

रामपुर में हर साल एक मेला लगता था. जिसमें देश की मशहूर तवायफ़ें अपने गायन और नृत्य का प्रदर्शन करती थीं. उन तवायफों में एक नवाब साहब के भाई की प्रेमिका थी. दाग़ का दिल उसी पर आ गया. उनका नाम था मुन्नी बाई हिजाब. मुहब्बत की दीवानगी में पत्नी के मना करने के बावजूद नवाब साहब के नाम दाग़ ने खत लिख डाला: "नवाब साहब आपको ख़ुदा ने हर ख़ुशी से नवाज़ा है, मगर मेरे लिए सिर्फ़ एक ही ख़ुशी है और वह है मुन्नी बाई."

नवाब तो दाग़ की शायरी के प्रशंसक थे. उन्होंने मुन्नी बाई के ज़रिए ही उत्तर भेजा. लिखा था - "दाग़ साहब हमें आपकी ग़ज़ल से ज़्यादा मुन्नी बाई अजीज़ नहीं है." मुन्नी बाई दाग़ साहब की प्रेमिका के रूप में उनके साथ रहने लगीं. लेकिन जब मन में धन का प्रवेश हुआ तो मन बेचारा बंजारा बन गया और मुन्नी बाई उन्हें छोड़ के चली गईं. इसी बेवफ़ाई पर शायद दाग़ ने यह शेर कहा था:

तू जो हरजाई है अपना भी यही तौर सही
तू नहीं और सही और नहीं, और सही

लखनवी और देहलवी अंदाज़ की शायरी का सम्मिश्रण दाग की शायरी में बखूबी नज़र आता है। अब आप सोच रहे होंगे कि ये दो अंदाज़ हैं क्या और इनमें अंतर क्या है। इसी प्रश्न का जवाब देवी नागरानी आर०पी०शर्मा "महर्षि" से पूछ रही हैं: (साभार: साहित्य कुंज) "देहलवी शायरी में प्रेमी का उसके सच्चे प्रेम तथा दुख-दर्द का स्वाभाविक वर्णन होता है, जब कि लखनवी शायरी अवध की उस समय विलासता से प्रभावित रही। अतः उसमें प्रेम को वासना का रूप दे दिया गया तथा शायरी प्रेमिका के इर्द -गिर्द ही घूमती रही। वर्णन में कृत्रिमता एवं उच्छृंखलता से काम लिया गया। अब लखनवी शायरी में सुधार आ गया है।" ये तो हुई अंतर की बात, लेकिन अगर इनमें मेल-मिलाप जानना हो तो दाग़ के इन शेरों से बढकर और मिसाल नहीं मिल सकते:

ग़म से कहीं निजात मिले चैन पाएं हम,
दिल खुं में नहाए तो गंगा नहाएं हम

ख़ूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं,
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा
सब ने जाना, जो पता एक ने जाना तेरा


दाग़ के बारे में आज हमने बहुत कुछ जाना। महफ़िल तभी सफ़ल मानी जाती है जब शेरों के साथ-साथ शायर की भी दिल खोलकर बातें हों। आज की महफ़िल भी कुछ वैसी हीं थी। इसलिए मैं मुतमुईन होकर ग़ज़ल की और बढने को बेकाबू हूँ। चलिए तो अब आज की ग़ज़ल से रूबरू हुआ जाए। इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ से सजाया है मल्लिका पुखराज की सुपुत्री ताहिर सैय्यद ने, जो खुद हीं बेमिसाल आवाज़ की मालकिन रही हैं। तो लीजिए पेश-ए-खिदमत है आज की ग़ज़ल, जिसमें दाग़ ज़ाहिद से यह दरख्वास्त कर रहे हैं कि ये प्यार में पागल मस्ताने और दीवाने आदमी हैं, इसलिए इन्हें बुरा न कहा जाए:

ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं
तुझ से लिपट पड़ेंगे, दीवाने आदमी हैं

गै़रों की दोस्ती पर क्यों ऐतबार कीजे
ये दुश्मनी करेंगे, ____ आदमी हैं

तुम ने हमारे दिल में घर कर लिया तो क्या है
आबाद करते. आख़िर वीराने आदमी हैं

क्या चोर हैं जो हम को दरबाँ तुम्हारा टोके
कह दो कि ये तो जाने-पहचाने आदमी हैं




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "बला" और शेर कुछ यूँ था-

जा कि हवा-ए-शौक़ में हैं इस चमन से 'ज़ौक़'
अपनी बला से बादे-सबा अब कहीं चले

इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:

वो जब चाहे छीन ले मुझको ही मुझसे
उनकी बला से फिर में भले तड़पता ही रहूँ (अवनींद्र जी)

जल गया दिल मगर ऐसी जो बला निकले है
जैसे लू चलती मेरे मुँह से हवा निकले है। (मीर तक़ी ’मीर’)

उनकी बला से जीउँ या मरूँ मैं ,
उनकी आदत रिवाज बन गई रे ! (मंजु जी)

आईने में वो अपनी अदा देख रहे है
मर जाये की मिट जाये कोई उनकी बला से (सोहेल राना)

ये दुनिया भर के झगड़े, घर के किस्‍से, काम की बातें
बला हर एक टल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ (जावेद अख्तर)

रुतबा है जिनका ना आपे में वो हैं
सरे आम मुल्क में तबाही मची है
न है परवाह उनको उनकी बला से
इज्ज़त लुटी या किसी की बची है. (शन्नो जी)

पूरे दो घंटे बैठकर लिखी गई महफ़िल पोस्ट करते वक़्त डिलीट (गायब) हो गई। मैं पूरी तरह से हतोत्साहित हो चुका था। लेकिन फिर हिम्मत जुटाकर महज़ २५ मिनट में मैंने इसे याद से तैयार किया है।

पिछली महफ़िल की शान बने अवनींद्र जी। इस मुकाम के लिए आप बधाई के पात्र हैं। आपके बाद महफ़िल में शरद जी की आमद हुई। उस्ताद ज़ौक़ को समर्पित महफ़िल में उस्तादों के उस्ताद मीर तक़ी मीर का शेर पेश करके आपने सोने पर सुहागा जड़ दिया। इसके लिए किन लफ़्ज़ों में आपका शुक्रिया अदा करूँ! शन्नो जी और मंजु जी, आप दोनों के स्वरचित शेर कमाल के हैं। इन्हें पढकर मज़ा आ गया। आशीष जी, दाग़ का शेर "खूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं... " आप पर फिट बैठता है। आप की यह लुकाछिपी, किसी एक महफ़िल में आना, किसी से नदारद रहना कोई अदा है क्या? नहीं ना? तो फिर नियमित हो जाईये। :) चलिए आप सब आए तो कम से कम, न जाने हमारे बाकी मित्र किधर गायब हैं। सीमा जी, नीलम जी, आप दोनों तो नियमित हुआ करती थीं। भई.. जिधर भी हैं आप, तुरत लाईन-हाज़िर होईये, आपको तलब किया जाता है। :) उम्मीद है कि हमारे वे सारे भूले-भटके दोस्त आज भटकते हुए महफ़िल की ओर रूख कर लेंगे। दिल पर हाथ रखकर कह रहा हूँ, हमारा यह दिल मत तोड़िएगा। अरे हाँ, बातों-बातों में पिछले बुधवार की अपनी गैर-मौजूदगी की तो मुआफ़ी माँगना हीं भूल गया। दर-असल मैं अपने गृह-नगर (गाँव हीं कह लीजिए) गया हुआ था, वहाँ न तो बिज़ली सही थी और न हीं इंटरनेट, इसलिए लाख कोशिशों के बावजूद महफ़िल पोस्ट न कर सका। आप हमारी मजबूरी समझ रहे हैं ना? बढिया है।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

Neeraj Rohilla said…
उफ़...
इस अशआर के क्या कहने...

ख़ूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं,
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

अगर पूरा आलेख न पढा होता तो "भी नहीं" और एक जैसे भावों के चलते इसे फ़िराक साहब की गजल:
"सर में सौदा भी नहीं, दिल में तमन्ना भी नहीं।
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं"

का हिस्सा मान लेते।

इस पूरे आलेख के लिये बहुत शुक्रिया।
AVADH said…
शायद लफ़्ज़ है - बेगाने.
चलो अच्छा है अपनों में कोई गैर तो निकला.
अगर होते सभी अपने तो बेगाने कहाँ जाते.
शायर - राजेंद्र कृष्ण.
अवध लाल
avenindra said…
महफ़िल मैं सभी को मेरा नमस्कार
हर एक मिटटी शज़र-ऐ-वफ़ा के काबिल नहीं होती
तो कभी वफ़ा वफादारी से भी हासिल नहीं होती
अगर पाना है सुकून तो कुछ बेगाने तलाश कर
अपनों के यहाँ तो आजकल महफ़िल नहीं होती (स्वरचित)
Manju Gupta said…
जवाब -बेगाने

स्वरचित शेर -
जब से वे दिल की महफ़िल से रुखसत हुए ,
सारे मोसम अपने अब बेगाने हो गए .
विश्व जी,
नमस्ते .

सभी को जन्माष्टमी की शुभकामनाएं .
सूरज - चाँद भी कभी कर लेते हैं छुट्टी ,
बिजली के बहाने आप- हमको भी मिली छुट्टी .

शेर पसंद आने के लिए शुक्रिया .
welcome back vd aur kya mehfil sajaayi hai...itna kuch ek post men...great
shanno said…
क्या अपने और क्या अनजाने सब लगते बेगाने
मिल जाते हैं लोग यहाँ कुछ पल को दिल बहलाने.

( स्वरचित )
shanno said…
तन्हा जी,

इतनी मेहनत से लिखे हुये अच्छे आलेख को पेश करने व बढ़िया गजल सुनवाने के लिये बहुत शुक्रिया...और जन्माष्टमी की आपको व महफ़िल के सभी साथियों को ढेर सारी शुभकामनायें !

एक और गजल लिखकर पेश कर रही हूँ :

अनजानी राहों में बेगाने चेहरे हैं
ना जाने इनमे से कितने लुटेरे हैं.

( स्वरचित )
neelam said…
अपनों- बेगानों का फ़रक न रहा होता ,
कभी वो नजरें यूं चुरा के न गया होता
जाना ही था तो बता के जाता ,
रास्ता हमने खुद ही दिखा दिया होता .........(.khud ne hi likh liya hai)

deepak ji jab tyohaar me aap mashroof ho sakte hain to ,hum bhi ek adad ghar parivaar rakhte hain to phirshikwa kaisa waise post to poori padhi thi par aapka shukriya ada karna bhool gaye the uske liye muuuuuuuuuaaaaaaf kijiye
Ashish said…
दिल की बात लबों पर लाकर, अब तक हम दुख सहते हैं|
हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं|

जिस की ख़ातिर शहर भी छोड़ा जिस के लिये बदनाम हुए,
आज वही हम से बेगाने-बेगाने से रहते हैं|

-----हबीब जालिब


---------------आशीष
shanno said…
ये शेर भी आना चाहता था इस महफ़िल में तो इस मुये को भी यहाँ लाने के लिए घसीटना ( टाइप करना ) पड़ा :)

ख्वाबों पे कोई जोर नहीं उनकी मनमानी होती है
बेगाने दिल में बसने की उनसे नादानी होती है.

( स्वरचित )

खुदा haafizzzzzzzzz

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