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दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है.. ग़ालिब के दिल से पूछ रही हैं शाहिदा परवीन

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७२

पूछते हैं वो कि "ग़ालिब" कौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या

अब जबकि ग़ालिब खुद हीं इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं कि ग़ालिब को जानना और समझना इतना आसान नहीं तभी तो वो कहते हैं कि "हम क्या बताएँ कि ग़ालिब कौन है", तो फिर हमारी इतनी समझ कहाँ कि ग़ालिब को महफ़िल-ए-गज़ल में समेट सकें.. फिर भी हमारी कोशिश यही रहेगी कि इन दस कड़ियों में हम ग़ालिब और ग़ालिब की शायरी को एक हद तक जान पाएँ। पिछली कड़ी में हमने ग़ालिब को जानने की शुरूआत कर दी थी। आज हम उसी क्रम को आगे बढाते हुए ग़ालिब से जुड़े कुछ अनछुए किस्सों और ग़ालिब पर मीर तक़ी मीर के प्रभाव की चर्चा करेंगे। तो चलिए पहले मीर से हीं रूबरू हो लेते हैं। सौजन्य: कविता-कोष

मोहम्मद मीर उर्फ मीर तकी "मीर" (१७२३ - १८१०) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। मीर का जन्म आगरा मे हुआ था। उनका बचपन अपने पिता की देख रेख मे बीता। पिता के मरणोपरांत ११ की वय मे वो आगरा छोड़ कर दिल्ली आ गये। दिल्ली आ कर उन्होने अपनी पढाई पूरी की और शाही शायर बन गये। अहमद शाह अब्दाली के दिल्ली पर हमले के बाद वह अशफ-उद-दुलाह के दरबार मे लखनऊ चले गये। अपनी ज़िन्दगी के बाकी दिन उन्होने लखनऊ मे ही गुजारे।

अहमद शाह अब्दाली और नादिरशाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को मीर तक़ी मीर ने अपनी आँखों से देखा था। इस त्रासदी की व्यथा उनके कलामो मे दिखती है, अपनी ग़ज़लों के बारे में एक जगह उन्होने कहा था-

हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने
दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया

मीर का ग़ालिब पर इस कदर असर था कि ग़ालिब ने इस बात की घोषणा कर दी थी कि:

’ग़ालिब’ अपना ये अक़ीदा है बकौल-ए-’नासिख’,
आप बे-बहरा हैं जो मो’तक़िद-ए-मीर नहीं।

यानि कि नासिख (लखनऊ के बहुत बड़े शायर शेख इमाम बख्श ’नासिख’) के इन बातों पर मुझे यकीन है कि जो कोई भी मीर को शायरी का सबसे बड़ा उस्ताद नहीं मानता उसे शायरी का "अलिफ़" भी नहीं मालूम।

ग़ालिब मीर के शेरों की कहानी इस तरह बयां करते हैं:

मीर के शेर का अह्‌वाल कहूं क्या ’ग़ालिब’
जिस का दीवान कम अज़-गुलशन-ए कश्मीर नही

ग़ालिब को जब कभी खुद पर और खुद के लिखे शेरों पर गुमां हो जाता था, तो खुद को आईना दिखाने के लिए वो यह शेर गुनगुना लिया करते थे:

रेख्ते के तुम हीं उस्ताद नहीं हो ’ग़ालिब’
कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था

और इसी ग़ालिब के बारे में मीर का मानना था कि:

अगर इस लड़के को कोई कामिल उस्ताद मिल गया और उसने इसे सीधे रास्ते पर डाल दिया, तो लाजवाब शायर बनेगा, वरना मोहमल (अर्थहीन) बकने लगेगा।

वैसे शायद हीं आपको यह पता हो कि भले हीं मीर लखनऊ के और ग़ालिब दिल्ली के बाशिंदे माने जाते हैं लेकिन दोनों का जन्म अकबराबाद (आगरा) में हुआ था। हो सकता है कि यही वज़ह हो जिस कारण से ग़ालिब मीर के सबसे बड़े भक्त साबित हुए। ग़ालिब और मीर की सोच किस हद तक मिलती-जुलती थी इस बात का नमूना इन शेरों को देखने से मिल जाता है:

मीर:

होता है याँ जहाँ मैं हर रोज़ोशब तमाशा,
देखो जो ख़ूब तो है दुनिया अजब तमाशा ।

ग़ालिब :

बाज़ीचए इत्फाल है दुनिया मेरे आगे,
होता है शबोरोज़ तमाशा मेरे आगे ।

मीर :

बेखुदी ले गयी कहाँ हमको,
देर से इंतज़ार है अपना ।

ग़ालिब :

हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी,
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती ।

मीर :

इश्क उनको है जो यार को अपने दमे-रफ्तन,
करते नहीं ग़ैरत से ख़ुदा के भी हवाले ।

ग़ालिब :

क़यामत है कि होवे मुद्दई का हमसफ़र 'ग़ालिब',
वह क़ाफिर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाय है मुझसे ।

उर्दू-साहित्य को मीर और ग़ालिब से क्या हासिल हुआ, इस बारे में अपनी पुस्तक "ग़ालिब" में रामनाथ सुमन कहते हैं:जिन कवियों के कारण उर्दू अमर हुई और उसमें ‘ब़हारे बेख़िज़ाँ’ आई उनमें मीर और ग़ालिब सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। मीरने उसे घुलावट, मृदुता, सरलता, प्रेम की तल्लीनता और अनुभूति दी तो ग़ालिब ने उसे गहराई, बात को रहस्य बनाकर कहने का ढंग, ख़मोपेच, नवीनता और अलंकरण दिये।

मीर के बारे में इतना कुछ जान लेने के बाद यह बात तो ज़ाहिर हीं है कि ग़ालिब पर मीर ने जबरदस्त असर किया था। लेकिन मीर से पहले भी कोई एक शायर थे जिन्होंने ग़ालिब को शायरी के रास्ते पर चलना सिखाया था.. वह शायर कौन थे और वह रास्ता ग़ालिब के लिए गलत क्यों साबित हुआ, इस बात का ज़िक्र प्रकाश पंडित अपनी पुस्तक "ग़ालिब और उनकी शायरी" में इस तरह करते हैं:अपने फ़ारसी भाषा तथा साहित्य के विशाल अध्ययन और ज्ञान के कारण ग़ालिब को शब्दावली और शे’र कहने की कला में ऐसी अनगनत त्रुटियाँ नज़र आईं, मस्तिष्क एक टेढ़ी रेखा और एक-प्रश्न बन गया और उन्होंने उस्तादों पर टीका-टिप्पणी शुरू कर दी। उनका मत था कि हर पुरानी लकीर सिराते-मुस्तकीम सीधा-मार्ग) नहीं है और अगले जो कुछ कह गए हैं, वह पूरी तरह सनद (प्रमाणित बात) नहीं हो सकती। अंदाजे-बयां (वर्णन शैली) से नज़र हटाकर और अपना अलग हीं अंदाज़े-बयां अपनाकर जब विषय वस्तु की ओर देखा तो वहाँ भी वही जीर्णता नज़र आई। कहीं आश्रय मिला तो ‘बेदिल’ (एक प्रसिद्ध शायर) की शायरी में जिसने यथार्थता की कहीं दीवारों की बजाय कल्पना के रंगों से अपने चारों ओर एक दीवार खड़ी कर रखी थी। ‘ग़ालिब’ ने उस दीवार की ओर हाथ बढ़ाया तो उसके रंग छूटने लगे और आँखों के सामने ऐसा धुँधलका छा गया कि परछाइयाँ भी धुँधली पड़ने लगीं, जिनमें यदि वास्तविक शरीर नहीं तो शरीर के चिह्न अवश्य मिल जाते थे। अतएव बड़े वेगपूर्ण परन्तु उलझे हुए ढंग से पच्चीस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्होंने लगभग २००० शे’र ‘बेदिल’ के रंग में कह डाले। मीर के यह कहने पर कि अगर सही उस्ताद न मिला तो यह अर्थहीन शायर बन जाएगा, ग़ालिब ने खुद में हीं वह उस्ताद ढूँढ निकाला। ग़ालिब की आलोचनात्मक दृष्टि ने न केवल उस काल के २००० शे’रों को बड़ी निर्दयता से काट फेंकने की प्रेरणा दी बल्कि आज जो छोटा-सा ‘दीवाने-ग़ालिब’ हमें मिलता है और जिसे मौलाना मोहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ (प्रसिद्ध आलोचक) के कथनानुसार हम ऐनक की तरह आँखों से लगाए फिरते हैं, उसका संकलन करते समय ‘ग़ालिब’ ने हृदय-रक्त से लिखे हुए अपने सैकड़ों शे’र नज़र-अंदाज़ कर दिए थे। तो यह था ग़ालिब के समर्पण का एक उदाहरण.. ग़ालिब की नज़रों में बुरे शेरों का कोई स्थान नहीं था, इसीलिए तो उन्होंने कत्ल करते वक्त अपने शेरों को भी नहीं बख्शा..

ग़ालिब किस कदर स्वाभिमानी थे, इसकी मिसाल पेश करने के लिए इस घटना का ज़िक्र लाजिमी हो जाता है:

१८५२ में जब उन्हें दिल्ली कॉलेज में फ़ारसी के मुख्य अध्यापक का पद पेश किया गया और अपनी दुरवस्था सुधारने के विचार से वे टामसन साहब (सेक्रेट्री, गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया) के बुलावे पर उनके यहाँ पहुँचे, तो यह देखकर कि उनके स्वागत को टामसन साहब बाहर नहीं आए, उन्होंने कहारों को पालकी वापस ले चलने के लिए कह दिया(ग़ालिब जहाँ कहीं जाते थे चार कहारों की पालकी में बैठकर जाते थे।) टामसन साहब को सूचना मिली तो बाहर आए और कहा कि चूँकि आप मुलाक़ात के लिए नहीं नौकरी के लिए आए हैं इसलिए कोई स्वागत को कैसे हाज़िर हो सकता है ? इसका उत्तर मिर्ज़ा ने यह दिया कि मैं नौकरी इसलिए करना चाहता हूँ कि उससे मेरी इज़्ज़त में इज़ाफा हो, न कि जो पहले से है, उसमें भी कमी आ जाए। अगर नौकरी के माने इज़्ज़त में कमी आने के हैं, तो ऐसी नौकरी को मेरा दूर ही से सलाम ! और सलाम करके लौट आए।

ग़ालिब के बारे में बातें तो होती हीं रहेंगी। क्यों न हम आगे बढने से पहले इन शेरों पर नज़र दौड़ा लें:

इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दिल की दवा करे कोई (सीधे-सीधे खुदा पर सवाल दागा है ग़ालिब ने)

जब तवक़्क़ो ही उठ गयी "ग़ालिब"
क्यों किसी का गिला करे कोई


और अब पेश है आज की वह गज़ल जिसके लिए हमने महफ़िल सजाई है। इस गज़ल में अपनी आवाज़ से चार चाँद लगाया है जानीमानी फ़नकारा शाहिदा परवीन ने। शाहिदा जी के बारे में हमने इस कड़ी में बहुत सारी बातें की थीं। मौका हो तो जरा उधर से भी घुमकर आ जाईये। तब तक हम दिल-ए-नादाँ को दर्द से लड़ने की तरकीब बताए देते हैं। ओहो.. आ भी गए आप.... तो तैयार हो जाईये दर्द से भरी इस गज़ल को महसूस करने के लिए। इस गज़ल में जिस चोट का ज़िक्र हुआ है, उसे समझने के लिए दिल चाहिए.... और महफ़िल-ए-गज़ल में आए मुसाफ़िर बे-दिल तो नहीं!!:

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है

हम हैं मुश्ताक़ और वो ___
या इलाही ये माजरा क्या है

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है

हाँ भला कर तेरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है

मैंने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आये तो बुरा क्या है




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "ख़लिश" और शेर कुछ यूँ था:

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

ग़ालिब के दिल की खलिश को सबसे पहले ढूँढ निकाला सीमा जी ने। आपने इस शब्द पर ये सारे शेर पेश किए:

ये किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया
फिर आज किस ने सुख़न हम से ग़ायेबाना किया (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ )

ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये
खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता (परवीन शाकिर )

गिला लिखूँ मैं अगर तेरी बेवफ़ाई का
लहू में ग़र्क़ सफ़ीना हो आशनाई का
ज़बाँ है शुक्र में क़ासिर शिकस्ता-बाली के
कि जिनने दिल से मिटाया ख़लिश रिहाई का (सौदा )

शरद जी, अगर ग़ालिब आज ज़िंदा होते और उनकी नज़र आपके इस शेर पर जाती तो यकीनन उनके मुँह से वाह निकल जाता। चलिए ग़ालिब की कमी हम पूरा कर देते हैं... वाह! क्या खूब कहा है आपने...

जाने रह रह के मेरे दिल में खलिश सी क्यूं है
आज क्या बे-वफ़ा ने फिर से मुझे याद किया ?

जैन साहब.. बड़ी हीं दिलचस्प और काबिल-ए-गौर बात कह डाली आपने। वैसे भी इश्क में इलाज वही करता है जो रोग दे जाता है..फिर उस चारागर से हीं खलिश छुपा जाना तो खुद के हीं पाँव पर कुल्हाड़ी मारने के बराबर होगा। है ना? यह रहा आपका शेर:

वाकिफ नहीं थे हम तो तौर-ए-इश्क से
चारागर से भी खलिश-ए-जिगर छुपा बैठे

सुमित जी... शायर से वाकिफ़ कराने का शुक्रिया। आपकी यह बात अच्छी है कि आप अगर महफ़िल से जाते हैं तो फिर शेर लेकर लौटते जरूर हैं। लेकिन यह क्या इस बार भी शायर का नाम गायब.. अगर आपने खुद लिखा है तो स्वरचित का मोहर हीं लगा देते:

वो ना आये तो सताती है खलिश सी दिल को,
वो जो आ जाए तो खलिश और जवां होती है

शन्नो जी, शेर कहना बड़ी बात है.. शेर कैसा है और किस अंदाज़-ओ-लहजे में लिखा है इस बारे में फिक्र करने का क्या फ़ायदा। जो भी मन में आए लिखते जाईये.. यह रही आपकी पेशकश:

मेरे दोस्त के दिल में आज कोई खलिश सी है
लगता है कोई खता हो गयी मुझसे अनजाने में

नीलम जी, चलिए शन्नो जी के कहने पर आपको अपनी महफ़िल याद तो आई। अब आ गई हैं तो लौटने का ज़िक्र भी मत कीजिएगा। एक बात और... अगली बार आने पर कुछ शेर भी समेट लाईयेगा।

अवनींद्र साहब.. महफ़िल आपकी हीं है। इसमें इज़्ज़त देने और न देने का सवाल हीं नहीं उठता। ये रहे आपके लिखे कुछ शेर:

तेरी खलिश सीने मैं इस तरह समायी है
सांस ली जब भी हमने आंख भर आई है !!

चश्मे - नम औ मेरी तन्हाई की धूप तले
खिल रहे हैं तेरी खलिश के सफ़ेद गुलाब

मंजु जी, आपने खुद का लिखा शेर पेशकर महफ़िल की शमा बुझाई। इसके लिए आपका तहे-दिल से शुक्रिया। यह रहा वह शेर:

एक शाम आती है तेरे मिलन का इन्तजार लिए ,
वही रात जाती है विरह की खलिश दिए

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

shanno said…
तन्हा जी,
ग़ालिब के बारे में आपका प्रस्तुतीकरण पढ़ा. और उनकी एक इतनी बेहतरीन ग़ज़ल पेश करने और शाहिदा परवीन की लाजबाब आवाज़ में सुनवाने का बहुत शुक्रिया. और ग़ज़ल का गायब हुआ शब्द है ''बेजार''...चलती हूँ अब...यदि कोई शे'र लिख पाया तो एक बार फिर आऊँगी यहाँ.
िस बेहतरीन गज़ल के लिये धन्यवाद
seema gupta said…
हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार \-२
या इलाही ये माजरा क्या है
दिल\-ए\-नादाँ तुझे हुआ क्या है

regards
seema gupta said…
जो तू ही सनम हम से बेज़ार होगा
तो जीना हमें अपना दुशवार होगा
(मीर तक़ी 'मीर' )
अब है टूटा सा दिल ख़ुद से बेज़ार सा
इस हवेली में लगता था दरबार सा
(: बशीर बद्र )
थी यारों की बहुतायत तो हम अग़यार से भी बेज़ार न थे
जब मिल बैठे तो दुश्मन का भी साथ गवारा गुज़रे था

( अहमद फ़ैज़ )
कल यूँ था कि ये क़ैदे-ज़्मानी से थे बेज़ार

फ़ुर्सत जिन्हें अब सैरे-मकानी से नहीं है।
(शहरयार »)
हम जान से बेज़ार रहा करते हैं 'अकबर'
जब से दिले-बेताब है दीवाना किसी का
(अकबर इलाहाबादी)
regards
sumit said…
हाँ जी शन्नो जी मै वो ही सुमित हूँ जो बाल उघान मे आता था..

नही तन्हा जी वो शे'र मैने नही लिखा

शायर का नाम शायद साहिल है क्योकि गजल का मकता था

जिन्दगी एक सुलगती सी चिता है साहिल
शोला बनती है ना ये बुझ के धुआँ होती है..
sumit said…
आज की महफिल का शब्द बेजार

शे'र -समझ मे ना आये कि हर एक खुशी से ये दिल आज बेजार क्यो हो रहा है
तेरे गम मे बहते हुए आँसुऔ से नाजाने हमे प्यार क्यो हो रहा है

शायर का नाम याद नही
मुश्ताक़ शब्द का क्या अर्थ होता है?
sumit said…
aur बेजार shabd ka kya arth hota hai?
avenindra said…
तनहा जी
बेहतरीन ग़ज़ल के लिए धन्यवाद !
सुमीत जी, आपका शेर मुकेश साहब की गाई एक उम्दा ग़ज़ल से था
तेरे प्यार को इस तरह से भुलाना ना दिल चाहता है ना हम चाहते हैं
शब्द था बेज़ार
शेर अर्ज़ है
सिरहाने पे रखकर तेरी बेवफाई को
बरसों तलक मैं अपनी नींद से बेज़ार था (स्वरचित )
shanno said…
Hello everyone, in the mehfil....अरे सुमीत जी भी आ गये वाह! कैसे हैं आप? अब मुझे डर नहीं लग रहा है यहाँ...और नीलम जी कहाँ हैं? हाँ, वो तो हमेशा लेट लतीफ़ ही रहती हैं. पता नहीं कहाँ अटकी या लटकी होंगी....और इस बार बार उनका यहाँ टपकने का इरादा है की नहीं......कहीं सुन तो नहीं रहीं हैं कहीं से मुझे और मेरी परेशानी बढ़ जायेगी, क्यों सुमीत जी? या फिर मुझे अपनी ड्यूटी पूरी करने जाने होगा....मतलब अपनी नाक रगड़ कर उन्हें कहीं से घसीट कर लाना होगा फिर से. सुमीत जी, क्या कहते हैं आप? क्या आप ढूंढ सकते हैं नीलम जी को कहीं से? चलो अब और बातें करके आप सभी की दिमागी हालत ना खराब करूँ और अपने दो शे'र अर्ज़ करके चलती बनूँ. तो फिर लीजिये:
1.
जब तक इंतज़ार था मन गुनहगार हुआ
अब जब तवक्को नहीं तो मन बेजार हुआ.
-शन्नो
2.
वह बड़े ही बेजार रहे किसी के इंतज़ार पे
अब बैठे आँसू बहा रहे हैं उसी की मज़ार पे.
-शन्नो
तन्हा जी, आप कभी भी कोई गलतियाँ नहीं निकालते मेरे शे'रो में और ना ही निकालेंगे कभी लेकिन...मैं जानना चाहती हूँ की मैंने कुछ ढंग का लिखा है की नहीं. पर आप कुछ कहते ही नहीं. तो फिर मैं कैसे जानूँ की मेरे शे'रो में कोई दम भी होता है की नहीं...क्यों सुमीत जी, ठीक कहा ना मैंने? और मैं झूठी तारीफ़ भी नहीं चाहती...अब अगर आपको कुछ भी बताने में डर या परेशानी हो तो यह तो कम से कम बता दें...तो फिर यह पूछने वाला मुद्दा ही नहीं उठाऊँगी....शुक्रिया और अलविदा.
shanno said…
अरे हाँ, सुमीत जी, क्या मैं आपकी जरा सी हेल्प कर सकती हूँ? वो यह की उर्दू की अकल तो मुझे उतनी भी नहीं है जितनी आपको फिर भी आपने जो पूछा है वह शायद मुझे पता है..मतलब की...
मुश्ताक= चाहने वाला
बेजार (जैसा की मैंने इसका कुछ अर्थ निकाला है)= गुस्सा
अगर मैं गलत हूँ ...तो मेरे दोनों शे'र भी खतरे में है. अब आप भी अपने शे'र लिख कर देखो. चलूँ अब फिर? Bye..bye
sumit said…
shanno jee,

neelam jee jaise he milengi main unse kahonga aap unhe dhoondh rahe ho mehfil mein..

aapke likhe dono he sher acche hai, doosra wala sher bahut he accha lga..jhooti taarif nahi kar raha agar koi kami lagti to jaroor bataa

halaki mujhe pehle sher mei तवक्को ka arth nahi pta...

aur dono shabdo ka arth batane k liye dhanyavaad..
sumit said…
shanno jee,

neelam jee jaise he milengi main unse kahonga aap unhe dhoondh rahe ho mehfil mein..

aapke likhe dono he sher acche hai, doosra wala sher bahut he accha lga..jhooti taarif nahi kar raha agar koi kami lagti to jaroor bataa

halaki mujhe pehle sher mei तवक्को ka arth nahi pta...

aur dono shabdo ka arth batane k liye dhanyavaad..
shanno said…
सुमीत जी,
इसमें धन्यबाद करने की क्या बात है. आप की बदौलत ही तो मैं यहाँ इस महफ़िल में वापस आई हूँ. वर्ना किसी और ने तो इस बात पर कोई तवज्जो ही नहीं दी थी. खैर छोड़िये भी इन बातों को :) मैंने कहा था ना की हम दोनों एक दूसरे की हेल्प किया करेंगे....तो वही हो रहा है. अब देखिये की तन्हा जी के कान पे कोई जूँ ही नहीं रेंग रही है....की यहाँ क्या होता है उनकी गैरहाजिरी में. वो तो बस हफ्ते में एक बार हाजिरी लगाकर रफूचक्कर हो जाते हैं. फिर यहाँ किसी की कुछ समझ में आये या ना आये, कोई रोये-धोये...उनकी बला से. क्यों सुमीत जी, सही कहा न मैंने? :) यहाँ अगर कोई सवाल पूछ रहा है तो अपना माथा ठोंक कर रह जाता है. और फिर मजबूरी में क्या होना चाहिये? अरे भाई, किसी न किसी ने तो हेल्प करनी ही होगी अपनी अकल के हिसाब से...तो बस वही मैंने भी किया आपके लिये. इसमें न मेरी अकल कुछ बढ़ी न घटी. जब कुछ पता था तो मैंने अपना फ़र्ज़ समझा हेल्प करने का. अगर कुछ पता हो तो दूसरे की मदद जरूर करनी चाहिये...इसमें कोई बड़ी बात नहीं होती...अरे हाँ, कुछ याद आया...तवक्को का मतलब भी जान लीजिये. तवक्को= Hope, उम्मीद. और फिर देखिये आपने एक और भी मेरी हेल्प की वह यह की मुझे अपने पर इत्मीनान नहीं था पर आपने फटाफट मेरे दोनों शे'रो को तन्हा जी के मुँह खोलने के पहले ही पास कर दिया...अरे और क्या चाहिये मुझे. अगर आपने इन्हें सही बताया तो फिर सही ही होंगे...वर्ना अब तक मेरा मन दुबिधा में पड़ा था. तो आपका भी बहुत शुक्रिया. लगता है की यहाँ हम दोनों ही एक दूजे की मजबूरी में मदद करते रहेंगे. चलो कोई बात नहीं अगर आपको तकलीफ नहीं है, तो मुझे भी नहीं. अच्छा तो फिर चलती फिर चलती हूँ
shanno ji,
lijiye mere kaano pe joon reng gayi :)

chooki agle hafte main ghar jaa raha hoo isliye saare kaam mujhe isi hafte karne pad rahe hain... Agle hafte ka mehfil-e-ghazal abhi-abhi taiyaar kiya hai... Ab itna kaam hai to idhar dhyaan dene ka mauka hi nahi milta.

ek baat aur agle hafte "pichhali mehfil ke saathi" waala portion Sajeev ji likhenge to unki adaa kuchh alag hi hogi.... Aap log dekh lijiyega :)

Aur doosri baat: jab bhi aapko kisi shabd ka matlab nahi pataa ho bagle jhaankne ya phir mehfil mein sher na pesh karne ka bahanaa dene ki jaroorat nahi... ek site hai jahaan se aap har urdu shabd ka maltab jaan sakte hain .... yah rahi wo site:

http://www.ebazm.com/dictionary.htm

main bhi yahin par arth dhoondha karta hoo.

dhanyawaad,
vishwa Deepak
shanno said…
तन्हा जी,

आज अचानक आप यहाँ तशरीफ़ लाये और हम सब पर मेहरबानी की उसका शुक्रिया. और साथ में रोज़-रोज़ के सरदर्द से बचने के लिये आपने हमें खजाने (dictionary) का भी रास्ता बता दिया जानकर हम बहुत खश है....हम जैसे अंधों के हाथ बटेर लग गयी....उसके लिये भी तहेदिल से शुक्रिया आपको. तो मेरी और सुमीत जी की तरफ से दुआयें क़ुबूल करिये.
और आपको व महफ़िल के सभी साथिओं को मेरी तरफ से होली की मुबारकबाद. खुदा हाफ़िज़.
manu said…
सही है..
ग़ालिब का उस्ताद खुद ग़ालिब ही था..

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‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट