Skip to main content

अफसाना लिख रही हूँ....उमा देवी की आवाज़ में एक खनकता नगमा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 332/2010/32

मारी याद आएगी' शृंखला की दूसरी कड़ी में आपका स्वागत है। दोस्तों, यह शृंखला समर्पित है उन कमचर्चित पार्श्वगायिकाओं के नाम जिन्होने फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर में कुछ बेहद सुरीले और मशहूर गीत गाए हैं, लेकिन उनका बहुत ज़्यादा नाम न हो सका। आज एक ऐसी गायिका का ज़िक्र जिन्होने दो दो पारियाँ खेली हैं इस फ़िल्म जगत में। जी हाँ, पार्श्व गायिका के रूप में अपना करीयर शुरु करने के बाद जब उन्हे लगा कि इस क्षेत्र में वो बहुत ज़्यादा कामयाब नहीं हो पाएँगी, तो उन्होने अपनी प्रतिभा को अभिनय के क्षेत्र में आज़माया। और एक ऐसी हास्य अभिनेत्री बनीं कि वो जिस किसी फ़िल्म में भी आतीं लोगों को हँसा हँसा कर लोट पोट कर देतीं। गायन के क्षेत्र में तो उनका बहुत ज़्यादा नाम नहीं हुआ लेकिन उनके हास्य अभिनय से सजे अनगिनत फ़िल्में और फ़िल्म जगत की बेहतरीन कॊमेडियन के रूप में उनका नाम आज भी सम्मान से लिया जाता है। आप समझ ही चुके होंगे कि आज हम बात कर रहे हैं गायिका उमा देवी, यानी कि हम सब की चहेती टुनटुन की। उत्तर प्रदेश के एक खत्री परिवार में जन्मे उमा देवी को अभिनय से ज़्यादा गायकी का शौक था। लेकिन एक रूढ़ीवादी पंजाबी परिवार में होने की वजह से उनको अपने परिवार से कोई बढ़ावा ना मिल सका। उन्होने अपनी मेहनत से हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी में शिक्षा प्रात की और महज़ १३ वर्ष की उम्र में ही बम्बई आ पहुँचीं। सन्‍ १९४७ में उमा देवी को अपना पहला एकल गीत गाने का मौका मिला जिसके लिए उन्हे २०० रुपय की मेहनताना मिली। उन्हे नौशाद आहब का संगीत इतना पसंद था कि उनके बार बार अनुरोध करने पर आख़िरकार नौशाद साहब ऒडिशन के लिए तैयार हो गए। और उनकी गायन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। और फ़िल्म 'दर्द' में पहली बार उमा देवी ने गानें गाए और पहला गीत ही सुपर डुपर हिट। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इसी गीत की बारी।

नौशाद साहब उन दिनों जिन जिन फ़िल्मों में संगीत दे रहे थे, उन सब में उन्होने उमा देवी को कम से कम एक गीत गाने का मौका ज़रूर दिया। पर यह सिलसिला बहुत ज़्यादा दिनों तक नहीं चली। धीरे धीरे उन्हे गानें मिलने बंद हो गए। इसका एक कारण था दूसरी गायिकाओं का और ज़्यादा प्रतिभाशाली होना जो ऊँची आवाज़ में गा सकते थे। उमा देवी को अपनी सीमाओं का पूरा अहसास था। दूसरे, उनका मोटापा भी उन्हे चुभ रही थी जो उनकी गायकी पर असर डाल रहा था। ऐसे उनके राखी भाई नौशाद साहब ने उन्हे फ़िल्मों में हास्य चरित्रों के रूप में काम करने का सुझाव दिया, और इस प्रकार आरंभ हुई उमा देवी की दूसरी पारी, जिन्हे हम टुनटुन के नाम से जानते हैं। उनकी यह दूसरी पारी सब को इतनी पसंद आई कि उमा देवी सब के दिल में आज तक टुनटुन के नाम से ही बसी हुईं हैं और हमेशा रहेंगी। दोस्तों, आज उमा जी को श्रद्धांजली अर्पित करते हुए हमने उनका गाया सब से हिट गीत चुना है, १९४७ की फ़िल्म 'दर्द' का - "अफ़साना लिख रही हूँ दिल-ए-बेक़रार का, आँखो में रंग भर के तेरे इंतज़ार का"। दोस्तों, फ़िल्म 'दर्द' का यह गीत एक और दृष्टि से भी बेहद ख़ास है कि इस गेत से ही शुरु हुआ था गीतकार शक़ील बदायूनी और संगीतकार नौशाद का साथ, जिस जोड़ी ने इतिहास कायम किया सदाबहार नगमों की दुनिया में। शक़ील बदायूनी पर केन्द्रित विविध भारती के एक कार्यक्रम में यूनुस ख़ास कहते हैं कि "दिलचस्प बात यह है कि शायरी की दुनिया से आने के बावजूद शक़ील ने फ़िल्मी गीतों के व्याकरण को फ़ौरन समझ लिया था। उनकी पहली ही फ़िल्म के गाने एक तरफ़ सरल और सीधे सादे हैं तो दूसरी तरफ़ उनमें शायरी की ऊँचाई भी है। इसी गाने में शक़ील साहब ने लिखा है कि "आजा के अब तो आँख में आँसू भी आ गए, सागर छलक उठा है मेरे सब्र-ओ-क़रार का, अफ़साना लिख रही हूँ दिल-ए-बेक़रार का"। किसी के इंतज़ार को जितने शिद्दत भरे अलफ़ाज़ शक़ील ने दिए, शायद किसी और गीतकार ने नहीं दिए।" तो आइए दोस्तों, उमा देवी की शिद्दत भरी आवाज़ में सुनते हैं फ़िल्म 'दर्द' का यह नग़मा।



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

लोक लाज तज दिया मैंने,
मन को तुझ संग बाँध के,
जागते हैं बस याद में तेरी,
रात रात हम संग चाँद के

अतिरिक्त सूत्र- एक मशहूर संगीतकार की पत्नी भी हैं ये कम्चार्चित सुरीली गायिका

पिछली पहेली का परिणाम-
अवध जी बधाई एकदम सही है जवाब
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Comments

गायिका : मीना कपूर
रसिया रे मन बसिया रे, तेरे बिन जिया मोरा लागे ना
फ़िल्म : परदेसी
इस पूरे गाने में याद शब्द कहीं नहीं आ रहा है जिसे आपने सूत्र में बोल्ड कर रखा है अन्य सूत्र तो मिल रहे हैं :-
संग संग चलूं तोरे मन तो ये चाहे रे
लोक लाज रोके पिया का करूं हाय रे
राम करे हाय किसी के मन में बैरी प्रीत जागे ना
तेरे बिन जिया मोरा लागे ना \
AVADH said…
शरद जी का कहना बिलकुल उचित लग रहा है.
ऐसा नहीं लगता कि कोई और गीत इन सब सूत्रों के अनुसार हो.
शायद 'हाय' की जगह 'याद' लिखा गया हो.
अवध लाल

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे...

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु...

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन...