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दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई..... महफ़िल-ए-बेइख्तियार और "गुलज़ार"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३६

दिशा जी की नाराज़गी को दूर करने के लिए लीजिए हम लेकर हाज़िर हैं उनकी पसंद की पहली गज़ल। इस गज़ल की खासियत यह है कि जहाँ एक तरह इसे आवाज़ दिया है गज़लों के उस्ताद "गज़लजीत" जगजीत सिंह जी ने तो वहीं इसे लिखा है कोमल भावनाओं को अपने कोमल लफ़्जों में लपेटने वाले शायर "गुलज़ार" ने। जगजीत सिंह जी की गज़लों और नज़्मों को लेकर न जाने कितनी बार हम इस महफ़िल में हाज़िर हो चुके हैं और यकीन है कि इसी तरह आगे भी उनकी आवाज़ से हमारी यह बज़्म रौशन होती रहेगी। अब चूँकि जगजीत सिंह जी हमारी इस महफ़िल के नियमित फ़नकार हैं इसलिए हर बार उनका परिचय देना गैर-ज़रूरी मालूम होता है। वैसे भी जगजीत सिंह और गुलज़ार ऐसे दो शख्स हैं जिनकी ज़िंदगी के पन्ने अकेले हीं खुलने चाहिए, उस दौरान किसी और की आमद बने बनाए माहौल को बिगाड़ सकती है। इसलिए हमने यह फ़ैसला किया है कि आज की महफ़िल को "गुलज़ार" की शायरी की पुरकशिश अदाओं के हवाले करते हैं। जगजीत सिंह जी तो हमारे साथ हीं हैं, उनकी बातें अगली बार कभी कर लेंगे। "गुलज़ार" की बात अगर शुरू करनी हो तो इस काम के लिए अमृता प्रीतम से अच्छा कौन हो सकता है। अमृता प्रीतम कहती हैं: गुलज़ार एक बहुत प्यारे शायर हैं- जो अक्षरों के अंतराल में बसी हुई ख़ामोशी की अज़मत को जानते हैं, उनकी एक नज़्म सामने रखती हूँ-

रात भर सर्द हवा चलती रही...
...रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने

इन अक्षरों से गुजरते हुए- एक जलते और बुझते हुए रिश्ते का कंपन हमारी रगों में उतरने लगता है, इतना कि आँखें उस कागज़ की ओर देखने लगती हैं जो इन अक्षरों के आगे खाली हैं और लगता है- एक कंपन है, जो उस खाली कागज़ पर बिछा हुआ है। गुलज़ार ने उस रिश्ते के शक्ति-कण भी पहचाने हैं, जो कुछ एक बरसों में लिपटा हुआ है और उस रिश्ते के शक्ति-कण भी झेले हैं, जो जाने कितनी सदियों की छाती में बसा है...कह सकती हूँ कि आज के हालात पर गुलज़ार ने जो लिखा है, हालात के दर्द को अपने सीने में पनाह देते हुए, और अपने खून के कतरे उसके बदन में उतारते हुए-वह उस शायरी की दस्तावेज है, जो बहुत सूक्ष्म तरंगों से बुनी जाती है। ताज्जुब नहीं होता, जब अपने खाकी बदन को लिए, उफ़क़ से भी परे, इन सूक्ष्म तरंगों में उतर जाने वाला गुलज़ार कहता है-

वह जो शायर था चुप-सा रहता था,
बहकी-बहकी-सी बातें करता था....

फ़ना के मुकाम का दीदार जिसने पाया हो, उसके लिए बहुत मुश्किल है उन तल्ख घटनाओं को पकड़ पाना, जिनमें किसी रिश्ते के धागे बिखर-बिखर जाते हैं। गुलज़ार ने सूक्ष्म तरंगों का रहस्य पाया है, इसलिए मानना मुश्किल है कि ये धागे जुड़ नहीं सकते। इस अवस्था में लिखी हुई गुलज़ार की एक बहुत प्यारी नज़्म है, जिसमें वह कबीर जैसे जुलाहे को पुकारता है-

मैने तो इक बार बुना था एक हीं रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे..

लगता है- गुलज़ार और कबीर ने एक साथ कई नज़्मों में प्रवेश किया है- और ख़ाकी बदन को पानी का बुलबुला मानते हुए- यह रहस्य पाया है कि वक्त की हथेली पर बहता यह वह बुलबुला है, जिसे कभी न तो समंदर निगल सका, न कोई इतिहास तोड़ पाया!


गुलज़ार ने अपने जिस मित्र "मंसूरा अहमद" के लिए ये पंक्तियाँ लिखीं थी:

आज तेरी एक नज़्म पढी थी,
पढते-पढते लफ़्ज़ों के कुछ रंग लबों पर छूट गए...
....सारा दिन पेशानी पर,
अफ़शाँ के ज़र्रे झिलमिल-झिलमिल करते रहे।

उन्होंने गुलज़ार का परिचय कुछ यूँ दिया है:

कहीं पहले मिले हैं हम
धनक के सात रंगों से बने पुल पर मिले होंगे
जहाँ परियाँ तुम्हारे सुर के कोमल तेवरों पर रक़्स
करती थीं
परिन्दे और नीला आसमां
झुक झुक के उनको देखते थे
कभी ऐसा भी होता है हमारी ज़िंदगी में
कि सब सुर हार जाते हैं
फ़्रक़त एक चीख़ बचती है
तुम ऐसे में बशारत बन के आते हो
और अपनी लय के जादू से
हमारी टूटती साँसों से इक नग़मा बनाते हो
कि जैसे रात की बंजर स्याही से सहर फूटे
तुम्हारे लफ़्ज़ छू कर तो हमारे ज़ख़्म लौ देने लगे हैं...!


अब चलिए जनाब विनोद खेतान से रूबरु हो लेते हैं जो गुलज़ार साहब के बारे में ये विचार रखते हैं: ज़िन्दगी के अनगिन आयामों की तरह उनकी कविता में एक ही उपादान, एक ही बिम्ब कहीं उदासी का प्रतीक होता है और कहीं उल्लास का। गुलज़ार की कविता बिम्बों की इन तहों को खोलती है। कभी भिखारिन रात चाँद कटोरा लिये आती है और कभी शाम को चाँद का चिराग़ जलता है; कभी चाँद की तरह टपकी ज़िन्दगी होती है और कभी रातों में चाँदनी उगाई जाती है। कभी फुटपाथ से चाँद रात-भर रोटी नजर आता है और कभी ख़ाली कासे में रात चाँद की कौड़ी डाल जाती है। शायद चाँद को भी नहीं पता होगा कि ज़मीन पर एक गुलज़ार नाम का शख़्स है, जो उसे इतनी तरह से देखता है। कभी डोरियों से बाँध-बाँध के चाँद तोड़ता है और कभी चौक से चाँद पर किसी का नाम लिखता है, कभी उसे गोरा-चिट्टा-सा चाँद का पलंग नज़र आता है जहाँ कोई मुग्ध होकर सो सकता है और कभी चाँद से कूदकर डूबने की कोशिश करता है। गुलज़ार के गीतों में ये अद्भुत प्रयोग बार-बार दीखते हैं और हर बार आकर्षित करते हैं। कभी आँखों से खुलते हैं सबेरों के उफ़ुक़ और कभी आँखों से बन्द होती है सीप की रात; और यदि नींद नहीं आती तो फिर होता है आँखोंमें करवट लेना। कभी उनकी ख़ामोशी का हासिल एक लम्बी ख़ामोशी होता है और कभी दिन में शाम के अंदाज होते हैं या फिर जब कोई हँसता नहीं तो मौसम फीके लगते हैं। जब गुलज़ार की कविता में आँखें चाँद की ओर दिल से मुख़ातिब होती हैं तो लगता है इस शायर का ज़मीन से कोई वास्ता नहीं। पर यथार्थ की ज़मीन पर गुलज़ार का वक्त रुकता नहीं कहीं टिककर (क्योंकि) इसकी आदत भी आदमी-सी है, या फिर घिसते-घिसटते फट जाते हैं जूते जैसे लोग बिचारे। शायर ज़िन्दगी के फ़लसफ़े को मुक़म्मल देखना चाहता है और आगाह करता है कि वक़्त की शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते; या फिर वक़्त की विडंबना पर हँसता है कि वो उम्र कम कर रहा था मेरी, मैं साल अपने बढ़ा रहा था। कभी वह ख़्वाबों की दुनिया में सोए रहना चाहता है क्योंकि उसे लगता है कि जाग जाएगा ख़्वाब तो मर जाएगा और कभी वह बिल्कुल चौकन्ना हो जाता है क्योंकि उसे पता है कि समय बराबर कर देता है समय के हाथ में आरी है, वक्त से पंजा मत लेना वक्त का पंजा भारी है। पर फिर भी उम्मीद इतनी कि उसने तिनके उठाए हुए हैं परों पर।

गुलज़ार साहब के बारे में कहने को और भी कई सारी बाते हैं, लेकिन आज बस इतना हीं। अब चलिए हम "मरासिम" से आज की गज़ल का लुत्फ़ उठाते हैं। जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ के बीच गुलज़ार जब "तुम्हारे ग़म की..." लेकर आते हैं तो मानो वक्त भी बगले झांकने लगता है। यकीन न हो तो खुद हीं देख लीजिए:

दिन कुछ ऐसे ग़ुज़ारता है कोई
जैसे एहसाँ उतारता है कोई

आईना देख कर तसल्ली हुई
हमको इस घर मे जानता है कोई

पक गया है शजर पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई

तुम्हारे ग़म की डली उठाकर
जबां पर रख ली देखो मैने,
ये कतरा-कतरा पिघल रही है,
मैं कतरा-कतरा हीं जी रहा हूँ।

देर से गूँजते हैं सन्नाटे
जैसे हमको पुकारता है कोई




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

___ लाजिम है मगर दुःख है क़यामत का फ़राज़,
जालिम अब के भी न रोयेगा तू तो मर जायेगा...


आपके विकल्प हैं -
a) सब्र, b) जब्त, c) दर्द, d) शेखी

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "ग़म" और शेर कुछ यूं था -

अपनी तबाहियों का मुझे कोई ग़म नहीं,
तुमने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी।

इस शब्द के साथ सबसे पहला जवाब आया शरद जी का। शरद जी ने दो शेर भी पेश किए:

आप तो जब अपने ही ग़म देखते है
किसलिए फ़िर मुझमें हमदम देखते हैं (स्वरचित)

दिल गया तुमने लिया हम क्या करें
जाने वाली चीज़ का ग़म क्या करें । (दाग़ देहलवी)

शरद जी के बाद कुलदीप जी हाज़िर हुए और उन्होंने तो जैसे शेरों की बाढ हीं ला दी। एक के बाद १७-१८ टिप्पणियाँ करना इतना आसान भी नहीं है। मुझे लगता है कि कुलदीप जी शामिख साहब को पीछे करने पर तुले हैं और यह देखिए आज शामिख साहब हमारी महफ़िल में आए हीं नहीं। कुलदीप जी ने घोषणा हीं कर दी कि चूँकि "ग़म" उनका प्रिय शब्द है, इसलिए आज उन्हें कोई नहीं रोक सकता :) अब उनके सारे शेरों को तो पेश नहीं किया जा सकता। इसलिए उन शेरों का यहाँ ज़िक्र किए देता हूँ जिनमें ग़म शब्द आता है:

अब तो हटा दो मेरे सर से गमो की चादर को
आज हर दर्द मुझपे इतना निगेहबान सा क्यूँ है

नीचे पेश हैं खुमार साहब के शेर, जिन्हें कुलदीप जी ने कई सारी गज़लों के माध्यम से हमारे बीच रखा:

हाले गम उन को सुनते जाइये
शर्त ये है के मुस्कुराते जाईये

हाले-गम कह कह के गम बढा बैठे
तीर मारे थे तीर खा बैठे

कभी जो मैं ने मसर्रत का एहतमाम किया
बड़े तपाक से गम ने मुझे सलाम किया

सुकून ही सुकून है खुशी ही खुशी है
तेरा गम सलामत मुझे क्या कमी है

कुलदीप जी के बाद मंजु जी का हमारी महफ़िल में आना हुआ। यह रहा उनका स्वरचित शेर:

उनका आना है ऐसा जैसे हो हसीन रात ,
उनका जाना है ऐसे जैसे गम की हो बरसात

अदा जी भी अपने आप को एक पूरी गज़ल पेश करने से रोक नहीं पाईं। यह रहा वह शेर जिसमें ’ग़म’ शब्द की आमद है:

गम है या ख़ुशी है तू
मेरी ज़िन्दगी है तू

मनु जी ने अपना वह शेर पेश किया जिसे कुछ दिनों पहले ’हिन्द-युग्म’ पर पोस्ट किया गया था:

मिला जो दर्द तेरा और लाजवाब हुई
मेरी तड़प थी जो खींचकर गम-ए-शराब हुई

रचना जी की प्रस्तुति भी काबिल-ए-तारीफ़ रही। यह रहा उनका शेर:

मेरी सोच का कोई किनारा न होता
ग़म न होता तो कोई हमारा न होता

शरद जी की बात से एक हद तक मैं भी इत्तेफ़ाक रखता हूँ। हमारी पहेली का नियम यह है कि जो शब्द सही हो उसे लेकर या तो अपना कोई शेर डालें या फिर किसी जानीमानी हस्ती का, लेकिन बस शेर हीं। पूरी गज़ल डालने से मज़ा चला जाता है। लेकिन अगर पूरी गज़ल डालने का आपने मन बना हीं लिया है तो इस बात का यकीन कर लें कि उस गज़ल में वह शब्द ज़रूर आता है, रवानी में इस कदर भी न बह जाएँ कि किसी शायर की सारी गज़लें डालने लगें।

चलिए इतनी सारी बातों के बाद आप लोगों को अलविदा कहने का वक्त आ गया है। अगली महफ़िल तक के लिए खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

दिशा जी ये ग़ज़ल मुझे भी बहुत पसदं है. जब ये एल्बम आई थी तो मैं और मेरा दोस्त इससे सुनते थे, जब भी ये ग़ज़ल आती वो ट्रैक को आगे बढा देता ये कहकर कि इसे सुनकर मैं बहुत उदास हो जाता हूँ, इसलिए नहीं सुनना चाहता :)
तनहा जी सही शब्द
ज़ब्त है
अब ये कहें कि बात नहीं कि ये शेर महान शायर अहमद फराज़ा साहब का है और ग़ज़ल है


आँख से दूर ना हो दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा

इतना मानूस ना हो खिलवत-ऐ-गम से अपनी
तू कभी खुद को भी देखेगा तो डर जाएगा

मैंने ये ग़ज़ल चित्रा सिंह जी कि आवाज़ में सुनी है
मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था सरे बज्म ये क्या हुआ
मेरी आंख कैसे छलक गयी मुझे रंज है ये बुरा हुआ
-अज्ञात
जनून को ज़ब्त सीखा लूं तो फिर चले जाना
में अपनेआप को संभाल लूं तो फिर चले जाना
-अज्ञात
दिशा जी इतनी बेहतरीन ग़ज़ल और फनकार चुनने के लिए शुक्रिया
ग़म शब्द को लेकर मैनें जो दो शे’र भेजे थे उसमें सिर्फ़ एक ही शे’र मेरा लिखा हुआ है दूसरा शे’र ’दिल गया तुमने लिया हम क्या करें’ प्रसिद्ध शायर ’दाग़’ देहलवी का है ।
आंखे पथराई , जुबान लाचार, धड़कने जब्त हुयीं तेरी बेवफाई में ,
हिचकियों में निकली जान मेरी, और मेरा कातिल खडा रहा कतारे तमाशाई में

-अज्ञात
वह्ह्ह लेकिन बड़ा ही अच्छा शेर है
कमाल-ऐ-ज़ब्त को खुद भी तो आज़माऊंगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊंगी

- मोहतरमा परवीन शाकिर
हूक उठती है अगर ज़ब्त-ऐ-फुगाँ करता हूँ
सांस रुकती है तो बरछी की अनी होती है

-जनाब हफीज जौनपुरी साहब

फुगाँ =cry of pain; बरछी =spear; अनी =tip
वो मुझ से बढ़ के ज़ब्त का आदी था जी गया
वरना हर एक सांस क़यामत उसे भी थी

-जनाब मोहसिन नकवी साहब
अब ख़याल-ऐ-तर्क-ऐ-रब्त ज़ब्त ही से है
खुद बा खुद शर्मा रही है उन की याद

- जनाब शकील बदायूंनी साहब

ख़याल-ऐ-तर्क=Thought of giving up; रब्त=affinity
हिम्मत-ऐ-इल्तिजा नहीं बाकी
ज़ब्त का हौसला नहीं बाकी

- महान शायर फैज़ अहमद फैज़ साहब
मूझे गुस्सा दिखाया जा रहा है
तबस्सुमको चबाया जा रहा है


वहीं तक आबरू में ज़ब्त ऐ-गम है
जहां तक मुस्कुराया जा रहा है

- जनाब शेरो भोपाली साहब

जगजीत सिंह ने गायी है ये खूब सूरत ग़ज़ल
'शहजाद' दिल को ज़ब्त का यारा नहीं रहा
निकला जो माहताब समंदर उछल पड़े

-शहजाद अहमद साहब
ना करता ज़ब्त मैं गिरिया तो ऐ "जौक" इक घडी भर में
कटोरे की तरह घड़ियाल के गर्क आसमान होता

-इब्राहीम जौक साहब
शरद जी,
मैं आवश्यक परिवर्त्तन किए देता हूँ।

धन्यवाद,
विश्व दीपक
तुमने ये क्या सितम किया ज़ब्त से काम ले लिया
तर्क-ऐ-वफ़ा के बाद भी मेरा सलाम ले लिया

-शकील बदायूनी साहब

वाह क्या शेर है
Shamikh Faraz said…
तनहा जी मुआफी चाहूँगा कि मैं आपकी पिछली महफ़िल में नहीं आ पाया. दरअसल मैं शहर में नहीं था बाहर गया हुआ था. इसलिए शिरकत न कर सका.
Shamikh Faraz said…
अब पूरी ग़ज़ल.

आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा
इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जायेगा
तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जायेगा
ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा
डूबते डूबते कश्ती तो ओछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जायेगा
ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा
Shamikh Faraz said…
सही शब्द ज़ब्त है
नाम से ही ज़ाहिर है कि यह अहमद फ़राज़ साहब का शे'र है.

ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा
Manju Gupta said…
जवाब है -जब्त
दिल की बज्म में तेरी वफा का राज था .
जब्त कर लिया राज तूने
दिया बेवफा का साथ था
rachana said…
शब्द जब्त है
बड़े बड़े शायरों की महफ़िल है ये जब भी आती हूँ संकोच होता है
सभी को पढ़ के बहुत अच्छा लगता है
सारे गम जब्त करलूं एक सहारा तो दिया होता
चल पड़ता तेरी रह में एक इशारा तो दिया होता
सादर
रचना
lovvvvvvvvvvve gulzaar..........

love gulzaar....

ek challenge:
koi aisi kavita, ghazal treveni ya kahani le ke aao gulzaar ki jo maine na padhi ho aur inaam le jao.....//kabhi ek parody bhi likhi thi...


Comment कुछ ऐसे डालता है कोई,

जैसे एहसान उतारता है कोई ।



Followers देख के तसल्ली हुई ,

हमको bloging में जानता है कोई ।


तुम्हारे blogs से widget अपने में लगा लिए है मैंने देखो , ये बेज़ा ही सज रहे है और मैं बेज़ा ही लिख रहा हूँ .

फिर ब्लॉग में traffic के छींटे हैं ,

तुमको शायद मुघालता है कोई ।


पक गया है blog में post शायद ,

फिर से comment उछालता है कोई ।
manu said…
hahahaha...
mujhe bhi ye padhte hi darpan ki yaad aayee thi..

aakhiri comment dekhaa to...
::)
Shamikh Faraz said…
और यह मनु जी के बड़े अंकल की एक ग़ज़ल याद आ रही है "ज़ब्त" लफ्ज़ लेकर.


आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त
दूद-ए-शम-ए-कुश्ता था शायद ख़त-ए-रुख़्सार-ए-दोस्त
ऐ दिले-ना-आकिबतअंदेश ज़ब्त-ए-शौक़ कर
कौन ला सकता है ताबे-जल्वा-ए-दीदार-ए-दोस्त
ख़ाना वीराँसाज़ी-ए-हैरत तमाशा कीजिये
सूरत-ए-नक़्शे-क़दम हूँ रफ़्ता-ए-रफ़्तार-ए-दोस्त
इश्क़ में बेदाद-ए-रश्क़-ए-ग़ैर ने मारा मुझे
कुश्ता-ए-दुश्मन हूँ आख़िर गर्चे था बीमार-ए-दोस्त
चश्म-ए-मय रौशन कि उस बेदर्द का दिल शाद है
दीदा-ए-पुर-ख़ूँ हमारा सागर-ए-सर-शार-ए-दोस्त
Shamikh Faraz said…
फिराक साहब की एक ग़ज़ल पेश है.


सितारों से उलझता जा रहा हूँ
शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूँ
तेरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ
जहाँ को भी समझा रहा हूँ
यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमाँ ये है कि धोखे खा रहा हूँ
अगर मुम्किन हो ले ले अपनी आहट
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ
हदें हुस्न-ओ-इश्क़ की मिलाकर
क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ

ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मुहब्बत
तेरे हाथों में लुटता जा रहा हूँ

असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे कायल भी करता जा रहा हूँ
भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ
तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ
मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ
ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप
"फ़िराक़" अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ
Shamikh Faraz said…
क़तील शिफाई साहब की एक ग़ज़ल

तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है
इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है
जीत ले जाये कोई मुझको नसीबों वाला
ज़िन्दगी ने मुझे दाँव पे लगा रखा है
जाने कब आये कोई दिल में झाँकने वाला
इस लिये मैंने ग़िरेबाँ को खुला रखा है
इम्तेहाँ और मेरी ज़ब्त का तुम क्या लोगे
मैं ने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है
sumit said…
सही शब्द जब्त लग रहा है
शेर - कमाल ऐ जब्त ऐ mohabbat इसी को कहते है,
tamam umer jubaan पर न unka नाम आये
sumit said…
aadhi हिंदी इंग्लिश के लिए maafi चाहता हूँ पर हिंदी type ठीक से नहीं हो रही
sumit said…
शायद गूगल mei कोई problem है
Prem said…
गुलज़ार सा'ब! .... क्या कहूँ...?

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