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कैसे छुपाऊँ राज़-ए-ग़म...आज की महफ़िल में पेश हैं "मौलाना" के लफ़्ज़ और दर्द-ए-"अज़ीज़"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३५

पिछली महफ़िल में किए गए एक वादे के कारण शरद जी की पसंद की तीसरी गज़ल लेकर हम हाज़िर न हो सके। आपको याद होगा कि पिछली महफ़िल में हमने दिशा जी की पसंद की गज़लों का ज़िक्र किया था और कहा था कि अगली गज़ल दिशा जी की फ़ेहरिश्त से चुनी हुई होगी। लेकिन शायद समय का यह तकाज़ा न था और कुछ मजबूरियों के कारण हम उन गज़लों/नज़्मों का इंतजाम न कर सके। अब चूँकि हम वादाखिलाफ़ी कर नहीं सकते थे, इसलिए अंततोगत्वा हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि क्यों न आज अपने संग्रहालय में मौजूद एक गज़ल हीं आप सबके सामने पेश कर दी जाए। हमें पूरा यकीन है कि अगली महफ़िल में हम दिशा जी को निराश नहीं करेंगे। और वैसे भी हमारी आज़ की गज़ल सुनकर उनकी नाराज़गी पल में छू हो जाएगी, इसका हमें पूरा विश्वास है। तो चलिए हम रूख करते हैं आज़ की गज़ल की ओर जिसे मेहदी हसन साहब की आवाज़ में हम सबने न जाने कितनी बार सुना है लेकिन आज़ हम जिन फ़नकार की आवाज़ में इसे आप सबके सामने पेश करने जा रहे हैं, उनकी बात हीं कुछ अलग है। आप सबने इनकी मखमली आवाज़ जिसमें दर्द का कुछ ज्यादा हीं पुट है, को फिल्म डैडी के "आईना मुझसे मेरी पहली-सी सूरत माँगे" में ज़रूर हीं सुना होगा। उसी दौरान की "वफ़ा जो तुमसे कभी मैने निभाई होती", "फिर छिड़ी बात रात फूलों की", "ज़िंदगी जब भी तेरी बज़्म में" या फिर "ना किसी की आँख का" जैसी नज़्मों में इनकी आवाज़ खुलकर सामने आई है। मेहदी हसन साहब के शागिर्द इन महाशय का नाम पंकज़ उधास और अनूप जलोटा की तिकड़ी में सबसे ऊपर लिया जाता है। ९० के दशक में जब गज़लें अपने उत्तरार्द्ध पर थी, तब भी इन फ़नकारों के कारण गज़ल के चाहने वालों को हर महीने कम से कम एक अच्छी एलबम सुनने को ज़रूर हीं नसीब हो जाया करती थीं।

जन्म से "तलत अब्दुल अज़ीज़ खान" और फ़न से "तलत अज़ीज़" का जन्म १४ मई १९५५ को हैदराबाद में हुआ था। इनकी माँ साजिदा आबिद उर्दू की जानीमानी कवयित्री और लेखिका थीं, इसलिए उर्दू अदब और अदीबों से इनका रिश्ता बचपन में हीं बंध गया था। इन्होंने संगीत की पहली तालीम "किराना घराना" से ली थी, जिसकी स्थापना "अब्दुल करीम खान साहब" के कर-कलमों से हुई थी। उस्ताद समाद खान और उस्ताद फ़याज़ अहमद से शिक्षा लेने के बाद इन्होंने मेहदी हसन की शागिर्दगी करने का फ़ैसला लिया और उनके साथ महफ़िलों में गाने लगे। शायद यही कारण है कि मेहदी साहब द्वारा गाई हुई अमूमन सारी गज़लों के साथ इन्होंने अपने गले का इम्तिहान लिया हुआ है। हैदराबाद के "किंग कोठी" में इन्होंने सबसे पहला बड़ा प्रदर्शन किया था। लगभग ५००० श्रोताओं के सामने इन्होंने जब "कैसे सुकूं पाऊँ" गज़ल को अपनी आवाज़ से सराबोर किया तो मेहदी हसन साहब को अपने शागिर्द की फ़नकारी पर यकीन हो गया। स्नातक करने के बाद ये मुंबई चले आए जहाँ जगजीत सिंह से इनकी पहचान हुई। कुछ हीं दिनों में जगजीत सिंह भी इनकी आवाज़ के कायल हो गए और न सिर्फ़ इनके संघर्ष के साथी हुए बल्कि इनकी पहली गज़ल के लिए अपना नाम देने के लिए भी राज़ी हो गए। "जगजीत सिंह प्रजेंट्स तलत अज़ीज़" नाम से इनकी गज़लों की पहली एलबम रीलिज हुई। इसके बाद तो जैसे गज़लों का तांता लग गया। तलत अज़ीज़ यूँ तो जगजीत सिंह के जमाने के गायक हैं, लेकिन इनकी गायकी का अंदाज़ मेहदी हसन जैसे क्लासिकल गज़ल-गायकी के पुरोधाओं से मिलता-जुलता है। आज की गज़ल इस बात का साक्षात प्रमाण है। लगभग १२ मिनट की इस गज़ल में बस तीन हीं शेर हैं, लेकिन कहीं भी कोई रूकावट महसूस नहीं होती, हरेक लफ़्ज़ सुर और ताल में इस कदर लिपटा हुआ है कि क्षण भर के लिए भी श्रवणेन्द्रियाँ टस से मस नहीं होतीं। आज तो हम एक हीं गज़ल सुनवा रहे हैं लेकिन आपकी सहायता के लिए इनकी कुछ नोटेबल एलबमों की फ़ेहरिश्त यहाँ दिए देते हैं: "तलत अज़ीज़ लाईव" , "इमेजेज़", "बेस्ट आफ़ तलत अज़ीज़", "लहरें", "एहसास", "सुरूर", "सौगात", "तसव्वुर", "मंज़िल", "धड़कन", "शाहकार", "महबूब", "इरशाद", "खूबसूरत" और "खुशनुमा"। मौका मिले तो इन गज़लों का लुत्फ़ ज़रूर उठाईयेगा... नहीं तो हम हैं हीं।

चलिए अब गुलूकार के बाद शायर की तरफ़ रूख करते हैं। इन शायर को अमूमन लोग प्रेम का शायर समझते हैं, लेकिन प्रोफ़ेसर शैलेश ज़ैदी ने इनका वह रूप हम सबके सामने रखा है, जिससे लगभग सभी हीं अपरिचित थे। ये लिखते हैं: भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में हसरत मोहानी (१८७५-१९५१) का नाम भले ही उपेक्षित रह गया हो, उनके संकल्पों, उनकी मान्यताओं, उनकी शायरी में व्यक्त इन्क़लाबी विचारों और उनके संघर्षमय जीवन की खुरदरी लयात्मक आवाजों की गूंज से पूर्ण आज़ादी की भावना को वह ऊर्जा प्राप्त हुई जिसकी अभिव्यक्ति का साहस पंडित जवाहर लाल नेहरू नौ वर्ष बाद १९२९ में जुटा पाये. प्रेमचंद ने १९३० में उनके सम्बन्ध में ठीक ही लिखा था "वे अपने गुरु (बाल गंगाधर तिलक) से भी चार क़दम और आगे बढ़ गए और उस समय पूर्ण आज़ादी का डंका बजाया, जब कांग्रेस का गर्म-से-गर्म नेता भी पूर्ण स्वराज का नाम लेते काँपता था. मुसलमानों में गालिबन हसरत ही वो बुजुर्ग हैं जिन्होंने आज से पन्द्रह साल क़ब्ल, हिन्दोस्तान की मुकम्मल आज़ादी का तसव्वुर किया था और आजतक उसी पर क़ायम हैं. नर्म सियासत में उनकी गर्म तबीअत के लिए कोई कशिश और दिलचस्पी न थी" हसरत मोहानी ने अपने प्रारंभिक राजनीतिक दौर में ही स्पष्ट घोषणा कर दी थी "जिनके पास आँखें हैं और विवेक है उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि फिरंगी सरकार का मानव विरोधी शासन हमेशा के लिए भारत में क़ायम नहीं रह सकता. और वर्त्तमान स्थिति में तो उसका चन्द साल रहना भी दुशवार है." स्वराज के १२ जनवरी १९२२ के अंक में हसरत मोहनी का एक अध्यक्षीय भाषण दिया गया है. यह भाषण हसरत ने ३० दिसम्बर १९२१ को मुस्लिम लीग के मंच से दिया था- "भारत के लिए ज़रूरी है कि यहाँ प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली अपनाई जाय. पहली जनवरी १९२२ से भारत की पूर्ण आज़ादी की घोषणा कर दी जाय और भारत का नाम 'यूनाईटेड स्टेट्स ऑफ़ इंडिया' रखा जाय." ध्यान देने की बात ये है कि इस सभा में महात्मा गाँधी, हाकिम अजमल खां और सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे दिग्गज नेता उपस्थित थे. सच्चाई यह है कि हसरत मोहानी राजनीतिकों के मस्लेहत पूर्ण रवैये से तंग आ चुके थे. एक शेर में उन्होंने अपनी इस प्रतिक्रिया को व्यक्त भी किया है-

लगा दो आग उज़रे-मस्लेहत को
के है बेज़ार अब इस से मेरा दिल

हसरत मोहानी का मूल्यांकन भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में अभी नहीं हुआ है. किंतु मेरा विश्वास है कि एक दिन उन्हें निश्चित रूप से सही ढंग से परखा जाएगा.
जनाब हसरत मोहानी का दिल जहाँ देश के लिए धड़कता था, वहीं माशुका के लिए भी दिल का एक कोना उन्होंने बुक कर रखा था तभी तो वे कहते हैं कि:

चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है,
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है।


उन्नाव के पास मोहान में जन्मे "सैयद फ़ज़ल उल हसन" यानि कि मौलाना हसरत मोहानी ने बँटवारे के बाद भी हिन्दुस्तान को हीं चुना और मई १९५१ में लखनऊ में अपनी अंतिम साँसें लीं। ऐसे देशभक्त को समर्पित है हमारी आज़ की महफ़िल-ए-गज़ल। मुलाहज़ा फ़रमाईयेगा:

कैसे छुपाऊं राजे-ग़म, दीदए-तर को क्या करूं
दिल की तपिश को क्या करूं, सोज़े-जिगर को क्या करूं

शोरिशे-आशिकी कहाँ, और मेरी सादगी कहाँ
हुस्न को तेरे क्या कहूँ, अपनी नज़र को क्या करूं

ग़म का न दिल में हो गुज़र, वस्ल की शब हो यूं बसर
सब ये कुबूल है मगर, खौफे-सेहर को क्या करूं

हां मेरा दिल था जब बतर, तब न हुई तुम्हें ख़बर
बाद मेरे हुआ असर अब मैं असर को क्या करूं




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

अपनी तबाहियों का मुझे कोई __ नहीं,
तुमने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी...


आपके विकल्प हैं -
a) दुःख, b) रंज, c) गम, d) मलाल

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "रूह" और शेर कुछ यूं था -

रुह को दर्द मिला, दर्द को ऑंखें न मिली,
तुझको महसूस किया है तुझे देखा तो नहीं।

इस शब्द पर सबसे पहले मुहर लगाई दिशा जी ने, लेकिन सबसे पहले शेर लेकर हाज़िर हुए सुजाय जी। सुजाय जी आपका हमारी महफ़िल में स्वागत है, लेकिन यह क्या रोमन में शेर...देवनागरी में लिखिए तो हमें भी आनंद आएगा और आपको भी।

अगले प्रयास में दिशा जी ने यह शेर पेश किया:

काँप उठती है रुह मेरी याद कर वो मंजर
जब घोंपा था अपनों ने ही पीठ में खंजर

शरद जी का शेर कुछ यूँ था:

हरेक रूह में इक ग़म छुपा लगे है मुझे,
ए ज़िन्दगी तू कोई बददुआ लगे है मुझे।

हर बार की तरह इस बार भी शामिख जी ने हमें शायर के नाम से अवगत कराया। इसके साथ-साथ मुजफ़्फ़र वारसी साहब की वह गज़ल भी प्रस्तुत की जिससे यह शेर लिया गया है:

मेरी तस्वीर में रंग और किसी का तो नहीं
घेर लें मुझको सब आ के मैं तमाशा तो नहीं

ज़िन्दगी तुझसे हर इक साँस पे समझौता करूँ
शौक़ जीने का है मुझको मगर इतना तो नहीं

रूह को दर्द मिला, दर्द को आँखें न मिली
तुझको महसूस किया है तुझे देखा तो नहीं

सोचते सोचते दिल डूबने लगता है मेरा
ज़हन की तह में 'मुज़फ़्फ़र' कोई दरिया तो नही.

शामिख साहब, आपका किन लफ़्ज़ों में शुक्रिया अदा करूँ! गज़ल के साथ-साथ आपने ’रूह’ शब्द पर यह शेर भी हम सबके सामने रखा:

हम दिल तो क्या रूह में उतरे होते
तुमने चाहा ही नहीं चाहने वालों की तरह

’अदा’ जी वारसी साहब के रंग में इस कदर रंग गईं कि उन्हें ’रूह’ लफ़्ज़ का ध्यान हीं नहीं रहा। खैर कोई बात नहीं, आपने इसी बहाने वारसी साहब की एक गज़ल पढी जिससे हमारी महफ़िल में चार चाँद लग गए। उस गज़ल से एक शेर जो मुझे बेहद पसंद है:

सोचता हूँ अब अंजाम-ए-सफ़र क्या होगा
लोग भी कांच के हैं राह भी पथरीली है

रचना जी, मंजु जी और सुमित जी का भी तह-ए-दिल से शुक्रिया। आप लोग जिस प्यार से हमारी महफ़िल में आते है, देखकर दिल को बड़ा हीं सुकूं मिलता है। आप तीनों के शेर एक हीं साँस में पढ गया:

नाम तेरा रूह पर लिखा है मैने
कहते हैं मरता है जिस्म रूह मरती नहीं।
रूह काँप जाती है देखकर बेरुखी उनकी
अरे! कब आबाद होगी दिल लगी उनकी।
रूह को शाद करे,दिल को जो पुरनूर करे,
हर नज़ारे में ये तन्जीर कहाँ होती है।

मनु जी, आप तो गज़लों के उस्ताद हैं। शेर कहने का आपका अंदाज़ औरों से बेहद अलहदा होता है। मसलन:

हर इक किताब के आख़िर सफे के पिछली तरफ़
मुझी को रूह, मुझी को बदन लिखा होगा

कुलदीप जी ने जहाँ वारसी साहब की एक और गज़ल महफ़िल-ए-गज़ल के हवाले की, वहीं जॉन आलिया साहब का एक शेर पेश किया, जिसमें रूह आता है:

रूह प्यासी कहां से आती है
ये उदासी कहां से आती है।

शामिख साहब के बाद कुलदीप जी धीरे-धीरे हमारी नज़रों में चढते जा रहे हैं। आप दोनों का यह हौसला देखकर कभी-कभी दिल में ख्याल आता है कि क्यों न महफ़िल-ए-गज़ल की एक-दो कड़ियाँ आपके हवाले कर दी जाएँ। क्या कहते हैं आप। कभी इस विषय पर आप दोनों से अलग से बात करेंगे।

चलिए इतनी सारी बातों के बाद आप लोगों को अलविदा कहने का वक्त आ गया है। अगली महफ़िल तक के लिए खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

सही शब्द है ’ग़म’
शे’र अर्ज़ है :
आप तो जब अपने ही ग़म देखते है
किसलिए फ़िर मुझमें हमदम देखते हैं
(स्वरचित}
दिल गया तुमने लिया हम क्या करें
जाने वाली चीज़ का ग़म क्या करें ।
(दाग़}
आहा ! आज तो जल्दी आ गए लेकिन
शरद जी फिर अब्बल रहे
सही शब्द तो गम ही लग रहा है ...............
पहला शेर महान शायर जनाब खुमार बाराबंकवी की तरफ से ..........

गमे दुनिया बहुत इजारशान है
कहा है कहाँ है गमे जाना कहा है ?
नहीं है गम अब किसी अरमान के टूटने का अन्जुम
की अरमानो की खुदकुशी की आदत हो गयी है मुझे

- कुलदीप अन्जुम
अब तो हटा दो मेरे सर से गमो की चादर को
आज हर दर्द मुझपे इतना निगेहबान सा क्यूँ है

- कुलदीप अन्जुम
अब तो आदत हो गयी है मुझको मेरे ग़मों की
रहमत ना चाहिए किसी की और ना भलाई कोई

- कुलदीप अन्जुम
हो गयी है इन्तिहाँ अब मेरे सब की भी अन्जुम
की गम का हर सैलाब अब रोके मेरे रुकता नहीं

- कुलदीप अन्जुम
हो गयी है इन्तिहाँ अब मेरे सब की भी अन्जुम
की गम का हर सैलाब अब रोके मेरे रुकता नहीं

- कुलदीप अन्जुम
ये मेरा प्रिय शब्द है
अब मैं की करता ?
हा हा हा
दूरी के गम कुछ और सिवा हो के रह गए
हम उन से क्या मिले के जुदा हो के रह गए

- जनाब खुमार बाराबंकवी
गम है ना अब खुशी है ना उम्मीद है ना आस
सब से नजात पाए ज़माने गुज़र गए

क्या लायक ऐ सितम भी नहीं अब मैं दोस्तों
पत्थर भी घर में आये ज़माने गुज़र गए

-जनाब खुमार बाराबंकवी साहब
हाले गम उन को सुनते जाइये
शर्त ये है के मुस्कुराते जाईये

आप को जाते ना देखा जाएगा
शम्मा को पहले बुझाते जाइये

- जनाब खुमार बाराबंकवी
हम उन्हें वो हमें भुला बैठे
दो गुनाहगार ज़हर खा बैठे

हाले-गम कह कह के गम बढा बैठे
तीर मारे थे तीर खा बैठे
------------------------------
उठ के इक बेवफा ने दे दी जान
रह गए सारे बावफा बैठे

हश्र का दिन है अभी दूर 'खुमार'
आप क्यों जाहिदों में जा बैठे

- जनाब खुमार बाराबंकवी
हिज्र की शब् है और उजाला है
क्या तसव्वुर भी लुटने वाला है

गम तो है ऐ जिंदगी लेकिन
गमगुसारों ने मार डाला है
--------------------------------------
इश्क मजबूर ओ नामुराद सही
फिर भी जालिम का बोलबाला है

देख कर बर्क की परेशानी
आशियाँ खुद ही फूंक डाला है

कितने अश्कों को कितनी आहों को
इक तबस्सुम में उसने ढाला है

तेरी बातों को मैंने ऐ वाइज़
अहतारामा हँसी में टाला है

मौत आये तो दिन फिरे शायद
जिंदगी ने तो मार डाला है

शेर नज्में शगुफ्तगी मस्ती
गम का जो रूप है निराला है

- जनाब खुमार बाराबंकवी
दिल यूं तो मेरा ग़म से परेशां बहुत है ,
समझाए ना समझेगा कि नादान बहुत है ,

नेमत है ग़मे इश्क मगर "आरजू " सुन लो,
इस काम में रुसवाई का इमकान बहुत है..!!

-आरजू जी
ग़म के मारों कि अंधेरों में बसर होती है,
शामे ग़म कि भी कहीं कोई सहर होती है ,

उसको भी ग़म कि तरह दिल में ही दफनाते हैं ,
कुछ शिकायत हमें अपनों से अगर होती है,

-आरजू दी
कभी जो मैं ने मसर्रत का एहतमाम किया
बड़े तपाक से गम ने मुझे सलाम किया

कभी हँसे कभी आहें भरीं कभी रोये
बक़द्र-ऐ-मर्तबा हर गम का एहतराम किया

दुआ ये है के ना हूँ गुमराह हमसफ़र मेरे
'खुमार' मैं ने तो अपना सफ़र तमाम किया
ना हारा है इश्क ना दुनिया थकी है
दिया जल रहा है हवा चल रही है

सुकून ही सुकून है खुशी ही खुशी है
तेरा गम सलामत मूझे क्या कमी है

- जनाब खुमार बाराबंकवी
वो सवा याद आये भुलाने के बाद
जिंदगी बढ़ गई ज़हर खाने के बाद

दिल सुलगता रहा आशियाने के बाद
आग ठंडी हुई इक ज़माने के बाद

रौशनी के लिए घर जलाना पडा
कैसीज़ुल्मत बढी तेरे जाने के बाद

[b]जब ना कुछ बन पड़ा अर्जे गम का जबाब
वो खफा हो गए मुस्कुराने के बाद[/b]

दुश्मनों से पशेमान होना पडा है
दोस्तों का खुलूस आज़माने के बाद

बख्श दे या रब अहले हवस को बहिश्त
मुझ को क्या चाहिए तुम को पाने के बाद

कैसे कैसे गिले याद आये 'खुमार
उन के आने से क़ब्ल उन के जाने के बाद

- जनाब खुमार बाराबंकवी साहब
Manju Gupta said…
जवाब -गम स्वरचित शेर है -

उनका आना है ऐसा जैसे हो हसीन रात ,
उनका जाना है ऐसे जैसे गम की हो बरसात .
अंजुम जी को १७ बार लिखने के लिए बधाई .
'अदा' said…
This post has been removed by the author.
'अदा' said…
गम है या ख़ुशी है तू
मेरी ज़िन्दगी है तू
मेरी रात का चिराग
मेरी नींद भी है तू
मैं खिजां की शाम हूँ
रुत बहार की है तू
मेरी सारी उम्र में
एक ही कमी है तू
माफ़ी चाहती हूँ, मुझे ये ग़ज़ल इतनी पसंद है कि पूरा लिख कर ही दम लिया हैं मैंने ....
हा हा हा हा हा
manu said…
हनम..
सही शब्द गम ही है...
अब गम के सिवा और लिखा ही क्या है...
मिला जो दर्द तेरा और लाजवाब हुई
मेरी तड़प थी जो खींचकर गम-ए-शराब हुई..

अभी तो सुबह ने छेडा था इक नगमा सुहाना सा
अभी बादल घनेरे गम के लहराते नजर आये..


ये गम हमारा तेरी जुबां से न हो सके जो बयाँ तो कुछ हो
हो खोयी खोयी नजर से तेरी जो हाल अपना अयाँ तो कुछ हो
फिर कभी..
अभी कहीं निकलना है...
:)
rachana said…
शब्द है गम
गम आके सुकून देता है
क्यों की ख़ुशी का ये दूतं होता है

गम में जल के कुंदन सी निखरती हूँ
कभी बिखरती हूँ कभी खुद ही सवरती हूँ

मेरी सोच का कोई किनारा न होता
ग़म न होता तो कोई हमारा न होता
आप की बात सही है मनु जी के शेर उनकी सोच सब से अलग होती है
सादर
रचना
लगता है कुलदीप जी ने ग़म के ऊपर पीएचडी कर रखी है । पहेली के नियम के अनुसार उस शब्द को शामिल करके शे’र लिखना है सब लोग पूरी ग़ज़ल या कविता भेज देते है ।
manu said…
unhone bas kitaabe padh rakhi hai,aur kuchh nahi kar rakha/
neelam said…
gam is kaqdar badhe ki mai ghabra ke pee gaya .......................................................

grudatt ji par pictrijed ,ek baar phir se sunte hain ,

hm gumjada hain laayen kahaan se khusi ke geet
sumit said…
शायर का नाम याद नहीं कभी अखबार में पढ़ा था ये शेर
sumit said…
गम मेरे साथ साथ बहुत दूर तक गए
मुझमे थकान न पाई तो खुद थक गए
manu ji aap kya kehne chahte hain aur kis bhao se kehna chahte hain
samajhne mein thodi dikkat ho rahi hai
kripya madad kerien
agar mujhse koi dikkat ho to kripya kehein
shanno said…
सुमीत जी,
मुझे बहुत अच्छा लगा यह शेर.

गम मेरे साथ साथ बहुत दूर तक गए
मुझमे थकान न पाई तो खुद थक गए.

क्या हुआ जो आप शायर का नाम भूल गए
मेरे ख्याल से इस शेर से और शेर हार गए.
manu said…
कुलदीप जी..
आप भी क्या कह रहे हैं...?
मुझे दिक्कत...?
गम पे इतने सारे शे'र देखे...और साथ में कमेन्ट देखा की आपने गम पे पी.एच.डी. कर राखी है .

बस दिल में आया के ऐसा कैसे हो सकता है...?
हाय...किसी को इतने भी गम कैसे हो सकते हैं.....:)

बस ये ही दिल में आया और छाप दिया....
अब आपका ये कमेन्ट पढ़ के लगा के मुझे ये कहने से पहले और सोचना चाहिए था...

खुदा आप को कभी भी "गम की पी. एच. डी. " ना कराये...
:)
manu ji shukria
bhao spast kerne ke liye
mafi chahunga
Ashish said…
गम कविता और शायरी में एक परम्परा की तरह है जिस पर हर शायर हर कवि ने अपनी बात कही है

गम रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत गम रहा

----मीर

तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई!

--जिगर मुरादाबादी

महल कहां बस, हमें सहारा
केवल फ़ूस-फ़ास, तॄणदल का;
अन्न नहीं, अवल्म्ब प्राण का
गम, आंसू या गंगाजल का

-----दिनकर

कोई लश्कर है कि बढ़ते हुए ग़म आते हैं
शाम के साए बहुत तेज़ क़दम आते हैं

---बशीर बद्र

मुझे गम है कि मैने जिन्‍दगी में कुछ नहीं पाया
ये गम दिल से निकल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ।

--- जावेद अख्तर



जब दर्द की प्याली रातों में गम आंसू के संग होते हैं,
जब पिछवाड़े के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं,

----कुमार विश्वास



और भी बहुत कुछ पर फिर कभी .....


---आशीष
Shamikh Faraz said…
सही लफ्ज़ गम है.
अपनी तबाहियों का मुझे कोई गम नहीं,
तुमने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी...
Shamikh Faraz said…
गम की बारिश ने भी तेरे नक्श को धोया नहीं
तूने मुझको खो दिया, मैंने तुझे खोया नहीं
muneer niyazi

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सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट