Skip to main content

ये दूरियाँ ....मिटा रहा है कमियाबी से मोहित चौहान की दूरियाँ

ताजा सुर ताल (13)

ताजा सुर ताल की इस नयी कड़ी में आप सब का स्वागत है. आज से हम इस श्रृंखला के रूप रंग में में थोडा सा बदलाव कर रहे हैं. आज से मुझे यानी सजीव सारथी के साथ होंगें आपके प्रिय होस्ट सुजॉय चट्टर्जी भी. हम दोनों एक दिन पहले प्रस्तुत होने वाले गीत पर दूरभाष से चर्चा करेंगें और फिर उसी चर्चा को यहाँ गीत की भूमिका के रूप में प्रस्तुत करेंगें. उम्मीद है आप इस आयोजन अब और अधिक लुफ्त उठा पायेंगें. तो सुजोय स्वागत है आपका....

सुजॉय- नमस्कार सजीव और नमस्कार सभी दोस्तों को...तो सजीव आज हम कौन सा नया गीत सुनवाने जा रहे हैं ये बताएं...

सजीव - सुजॉय दरअसल योजना है कि श्रोताओं की एक के बाद एक दो गीत आज के बेहद तेजी से लोकप्रिय होते गायक मोहित चौहान के सुनवाये जाएँ...

सुजॉय - अरे वाह सजीव, हाँ आपने सही कहा....इन दिनों फ़िल्म सगीत जगत में नये नये पार्श्वगायकों की जो पौध उगी है, उसमें कई नाम ऐसे हैं जो धीरे धीरे कामयाबी की सीढ़ी पर पायदान दर पायदान उपर चढ़ते जा रहे हैं। वैसा ही एक ज़रूरी नाम है मोहित चौहान। अपनी आवाज़ और ख़ास अदायगी से मोहित चौहान आज एक व्यस्त पार्श्वगायक बन गये हैं जिनके गाने इन दिनों ख़ूब बज भी रहे हैं और लोग पसंद भी कर रहे हैं। जवाँ दिलों पर एक तरह से वो राज़ कर रहे हैं इन दिनों। हिमाचल की पहाड़ियों से उतर कर मोहित चौहान पहले दिल्ली आये जहाँ वे दस साल रहे। लेकिन सगीत की बीज उन सुरीले पहाड़ों में भी बोयी जा चुकी थी और कुछ उन्हे पारिवारिक तौर पे मिला। यह संयोग की बात ही कहिए कि दिल्ली के उन दस सालों को समर्पित करने का उन्हे मौका भी मिल गया। मेरा मतलब है 'दिल्ली ६' का वह मशहूर गीत "मसक्कली", जो कुछ दिन पहले हर 'काउंट-डाउन' पर नंबर-१ पर था।

सजीव - हाँ बिलकुल, दरअसल मैं भी समझता था कि मोहित केवल धीमे रोमांटिक गीतों में ही अच्छा कर सकते हैं, पर मसकली ने मुझे चौंका दिया. वाकई बहुत बढ़िया गाया है इसे मोहित ने, आप कुछ बता रहे थे उनके बारे में...

सुजॉय - ग़ैर फ़िल्म संगीत और पॉप अल्बम्स की जो लोग जानकारी रखते हैं, उन्हे पता होगा कि मोहित चौहान मशहूर बैंड 'सिल्क रूट' के 'लीड वोकलिस्ट' हुआ करते थे। याद है न वह हिट गीत "डूबा डूबा रहता है आँखों में तेरी", जो आयी थी 'बूँदें' अल्बम के तहत। यह अल्बम 'सिल्क रूट' की पहली अल्बम थी। यह अल्बम बेहद कामयाब रही और नयी पीढ़ी ने खुले दिल से इसे ग्रहण किया। इस बैंड का दूसरा अल्बम आया था 'पहचान', जिसे उतनी कामयाबी नहीं मिली। और दुर्भाग्यवश इसके बाद यह बैंड भी टूट गया। कहते हैं कि जो होता है अच्छे के लिए ही होता है, शायद मोहित चौहान के लिए ज़िंदगी ने कुछ और ही सोच रखा था! कुछ और भी बेहतर! अब तक के उनके म्युज़िकोग्राफ़ी को देख कर तो कुछ ऐसा ही लगता है दोस्तों कि मोहित भाई सही राह पर ही चल रहे हैं।

सजीव - उस मशहूर गीत "डूबा डूबा" को लिखा था प्रसून ने, वो भी आज एक बड़े गीतकार का दर्जा रखते हैं, पर आज हम श्रोताओं के लिए लाये हैं मोहित का गाया वो गीत जिसे एक और अच्छे गीतकार इरषद कामिल ने लिखा है. आप समझ गए होंगें मैं किस गीत की बात कर रहा हूँ...

सुजॉय- हाँ सजीव बिलकुल....ये गीत है फिल्म "लव आजकल" का ये दूरियां....

सजीव - गीत शुरू होता है, एक सीटी की धुन से जो पूरे गीत में बजता ही रहता है. मोहित की आवाज़ शुरू होते ही गीत एक सम्मोहन से बांध देता है सुनने वालों को...प्रीतम का संगीत संयोजन उत्कृष्ट है....सीटी वाली धुन कई रूपों में बीच बीच में बजाने का प्रयोग तो कमाल ही है. पहले अंतरे से पहले संगीत का रुकना और फिर बोलों से शुरू करना भी गीत के स्तर को ऊंचा करता है. गीटार का तो बहुत ही सुंदर इस्तेमाल हुआ है गीत में. पर गीत के मुख्य आकर्षण तो मोहित के स्वर ही हैं. दरअसल इस तरह के धीमे रोंन्टिक गीतों में तो अब मोहित महारत ही हासिल कर चुके हैं. इरषद ने बोलों से बहुत बढ़िया निखारा है गीत को. सुजॉय मैं आपको बताऊँ कि कल ही मैंने ये फिल्म देखी है. और जिस तरह के रुझान मैंने देखे दर्शकों के उससे कह सकता हूँ कि ये फिल्म इस साल की बड़ी हिट साबित होने वाली है, और चूँकि फिल्म का संगीत फिल्म की जान है, तो अब फिल्म प्रदर्शन के बाद तो उसके गीत और अधिक मशहूर होंगे, खासकर ये गीत तो फिल्म की रीढ़ है, कई बार कई रूपों में ये गीत बजता है....और गीतकार ने शब्दों से हर सिचुअशन के साथ न्याय किया है. फिल्म में नायक नायिका जिस उहा पोह से गुजर रहे हैं, जिस समझदारी भरी नासमझी में उलझे हैं उनका बयां है ये गीत. कहते हैं फिल्म का शूट इसी गीत से आरंभ हुआ था और ख़तम भी इसी गीत पर...

सुजॉय- अच्छा यानी कुल मिलकार ये गीत भी मोहित के संगीत सफ़र में एक नया अध्याय बन कर जुड़ने वाला है...तो ये बताएं कि आवाज़ की टीम ने इस गीत को कितने अंक दिए हैं ५ में से.

सजीव - आवाज़ की टीम ने दिए ४ अंक ५ में से....पिछली बार स्वप्न जी ने एक सवाल किया था कि फिल्म कमीने के गीत को ४ अंक क्यों दिए क्या इसलिए कि इसे गुलज़ार साहब ने लिखा है ? मैं कहना चाहूँगा कि ऐसा बिलकुल नहीं है, आवाज़ की टीम के लिए सबसे जरूरी घटक है गीत की ओरिजनालिटी. नयापन जिस गीत में अधिक होगा उसे अच्छे अंक मिलेंगें पर हमारी रेटिंग तो बस एक पक्ष है, असल निर्णय तो आप सब के वोटिंग से ही होगा....सालाना संगीत चार्ट में हम आपकी रेटिंग को ही प्राथमिकता देंगें. निश्चिंत रहें...तो चलिए अब आप रेटिंग दीजिये आज के गीत को. शब्द कुछ यूं है -

ये दूरियां....ये दूरियां...
इन राहों की दूरियां,
निगाहों की दूरियां
हम राहों की दूरियां,
फ़ना हो सभी दूरियां,
क्यों कोई पास है,
दूर है क्यों कोई
जाने न कोई यहाँ पे...
आ रहा पास या,
दूर मैं जा रहा
जानूँ न मैं हूँ कहाँ पे......(वाह... कशमकश हो तो ऐसी)
ये दूरियां.....

कभी हुआ ये भी,
खाली राहों मैं भी,
तू था मेरे साथ,
कभी तुझे मिलके,
लौटा मेरा दिल ये,
खाली खाली हाथ...
ये भी हुआ कभी,
जैसे हुआ अभी,
तुझको सभी में पा लिया....
हैराँ मुझे कर जाती है दूरियां,
सताती है दूरियां,
तरसाती है दूरियां,
फ़ना हो सभी दूरियां...

कहा भी न मैंने,
नहीं जीना मैंने
तू जो न मिला
तुझे भूले से भी,
बोला न मैं ये भी
चाहूं फासला...
बस फासला रहे,
बन के कसक जो कहे,
हो और चाहत ये जवाँ
तेरी मेरी मिट जानी है दूरियां,
बेगानी है दूरियां,
हट जानी है दूरियां,
फ़ना हो सभी दूरियां...

ये दूरियां.....


तो सुजॉय सुन लिया जाए ये गीत

सुजॉय - हाँ तो लीजिये श्रोताओं सुनिए..."ये दूरियां..." फिल्म लव आजकल से ....



आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत को 4 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.

क्या आप जानते हैं ?
आप नए संगीत को कितना समझते हैं चलिए इसे ज़रा यूं परखते हैं. मोहित का गाया सबसे पहला फ़िल्मी गीत कौन सा था ? बताईये और हाँ जवाब के साथ साथ प्रस्तुत गीत को अपनी रेटिंग भी अवश्य दीजियेगा.

पिछले सवाल का सही जवाब था गीत "ओ साथी रे" फिल्म ओमकारा का और सबसे पहले सही जवाब दिया दिशा जी ने...बधाई....और सबसे अच्छी बात कि आप सब ने जम कर रेटिंग दी. वाह मोगेम्बो खुश हुआ...:) उम्मीद है आज भी ये सिलसिला जारी रहेगा...


अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.

Comments

दर असल आजकल जो भी गीत आ रहे है उनके गायक गायिकाओं के नाम इसलिए मालूम नहीं हो पाते क्योंकिं सब एक से ही लगते हैं । पिछले ५० सालों से जो फ़िल्म संगीत हमने सुना है उसका असर दिमाग से हटना संभव नहीं है । मैनें तो पहली बार ही मोहित चौहान का नाम सुना है । अब रेटिंग क्या दूँ 5 में से 2 .
एक टिप्पणी जो मैने पिछली पोस्ट में की थी:

'अदा’ जी!
मेरे कहने का यह अर्थ न था कि मैं गालियों का समर्थन करता हूँ। लेकिन आपने यह मुहावरा सुना हीं होगा कि फ़िल्में समाज का दर्पण होती हैं। अब अगर किसी को अंडरवर्ल्ड की बात बतानी हो तो उसे रामायण-युगीन शब्दों के इस्तेमाल से तो नहीं हीं बता सकते। उसके लिए आपको थोड़ा-सा तो बुरा होना हीं पड़ेगा। जहाँ तक ’कमीने’ और ’कुत्ते’ की बात है तो मैने बस विशाल भारद्वाज की कही बातों को हीं दुहराया था। इससे आपको बुरा लगा तो क्षमा कीजिएगा। लेकिन बस ’गालियों’ के कारण हीं किसी चीज से नाक-भौं सिकोड़ना अच्छी बात नहीं है और यह मेरा मत है, आप भी मेरी हाँ में हाँ मिलाएँ यह जरूरी नहीं।

जानकारी के लिए बता दूँ कि ’कमीने’ नाम भी गुलज़ार साहब ने हीं सुझाया था। गुलज़ार एक ऐसे शख्स हैं जो अपनी मर्जी से काम करते हैं और अगर इस नाम या इस गाने में उन्हें कुछ भी बुरा लगता तो निस्संदेह वे इस फ़िल्म के लिए हामी नहीं भरते। कुछ हीं दिनों पहले ’बिल्लु’ आई थी, जिसमें गुलज़ार साहब के तीन गाने थे। वे चाहते तो सारे गाने उन्हीं के होते, लेकिन शाहरूख खान की इस जिद्द पर कि वे एक गाना ’लव मेरा हिट हिट’ शब्दों का इस्तेमाल करके लिखें, उन्होंने फिल्म से बाहर होना स्वीकार किया। मुझे नहीं पता कि मैं इतना क्यों लिख रहा हूँ, लेकिन चूँकि आपने मुझे संबोधित कर लिखा है, इसलिए क्लैरिफ़िकेशन देना मेरा फ़र्ज़ बनता था।

मुझे आपकी यह बात अच्छी लगी कि आपने रेटिंग के साथ-साथ रेटिंग का कारण भी दिया है।

धन्यवाद,
विश्व दीपक
शरद जी,
मैं आग्रह करूँगा कि आप रेटिंग के साथ-साथ अपनी रेटिंग का कारण भी दें।

धन्यवाद,
विश्व दीपक
Disha said…
मोहित ने रंग दे बसंती फिल्‍म के 'खून चला' गाने से पार्श्‍व गायकी की शुरूआत की थी। इसके बाद फिल्‍म जब वी मेट के गाने 'तुमसे ही' से उनकी प्रसिद्धि और बढ गई।
Manju Gupta said…
मोहित जी का मस्क कली गाना प्रसिद्ध हुआ था .उनके गाने को ५ में से २ अंक दूंगी .
'अदा' said…
This post has been removed by the author.
'अदा' said…
तन्हा जी,
सबसे पहली बात, मुझे नाक-भौं सिकोड़ने की आदत नहीं है, जो कहती हूँ साफ़ कहती हूँ, और यह मंच आपकी बातों पर हाँ में हाँ मिलाने का भी नहीं है, मैंने अपनी राय रखी और मैंने स्पष्ट भी किया है कि क्यों नहीं पसंद है.
और एक बात मैं गुलज़ार साहब के लेखन को सलाम करती हूँ लेकिन ज़रूरी नहीं कि मुझे उनकी हर रचना अच्छी लगे. मुझे ये नहीं पसंद आई... और हाँ फिल्मों में बहुत कुछ होता है क्या आप सबकुछ आत्मसात कर लेते हैं, दिखाना, देखना और पसंद करना ये अलग अलग बातें हैं... आपने पूछा कि आपको पसंद आया या नहीं... मुझे नहीं पसंद आया...साथ ही आपका ये लॉजिक भी नहीं पसंद आया कि यह शब्द इतनी मधुरता से गाया गया है कि गाली ही नहीं लगती....विशाल जी इसे बुरा भी क्यों कहेंगे उन्हें तो अपना गीत बेचना है.... गाली, गाली है मैं नहीं चाहूंगी मेरा बच्चा मेरे सामने ऐसे गीत गाये...
और मुझे ये भी जानने का हक है कि आखीर आवाज़ ने इसे इतनी ऊँची रेटिंग क्यों दी ? सुर ताल , कविता का ज्ञान हम भी रखते हैं, फिल्मों से पिछले २० सालों से नाता रहा है....फिल्में हमारी रोजी-रोटी हैं....इसलिए फिल्म के ग्राम्मर पर प्रश्न करने का मुझे पूरा अधिकार हैं और आपत्ति जताने का भी..

हर रचना कि अपनी एक गरिमा होती है और उस गरिमा के अन्दर ही उसकी शोभा होती है... मैंने ये भी कहा है कि अब लोग 'कमीने' शब्द को अपना ले रहे हैं और इतना अपना रहे हैं कि कल अगर बेटा अपने बाप को कमीना कहे तो बुरा नहीं लगना चाहिए, शायद आप इस के पक्ष में हों मैं नहीं हूँ, क्योंकि गुलज़ार साहब कह रहे हैं इसलिए ये सही है, मैं नहीं मानती..अगर वो अपने मन कि करते हैं तो हम भी तो अपने ही मन कि करते हैं ....
'अदा' said…
इस गीत का संगीत भरा-पूरा है, एक बार सुनने में अच्छा भी लगा है, गायक कि आवाज़ की क्वालिटी बहुत अच्छी है, कविता, देख कर इतना लगा कि धुन पहले बनी है और शब्द उस धुन पर बैठाये गए हैं... कुल मिला कर अवसत लगा मुझे यह गीत....मैं इसे २.५ / ५ दूँगी... जहाँ तक नयापन का प्रश्न है, ऐसा कुछ नया नहीं लगा...
नये गायकों में मुझे मोहित नें काफ़ी इम्प्रेस किया है. उनका पहला गज़ल्नुमा गीत जो मुझे चौंका गया वह है -(याद नही आ रहा- राजपाल यादव की एक फ़िल्म में था.)

उसकी आवाज़ में एक अलग कसक है, जो दीगर गायकों से हट कर है.

पुराने गाने गोल्ड भी हैं और कोहिनूर भी. नये गानों में ज़्यादहतर गानें अच्छे नहीं होते हैं, क्योंकि उनका मकसद मात्र इन्स्टेंट पोप्युलिरिटी लेना और किक देने के लिये होता है.

इसी की वजह से अच्छे गानों को भी उतनी लाईफ़ नहीं मिल पाती जिननी के वे हकदार होते हैं.अब देखिये ना. इतना अच्छा गीत था , मगर याद नहीं आ पा रहा है,जबकि पुराने गाने ज़ेहेन में बस गये है.

वैसे भी नये गानों के लिये उतने मेहनत नही होती जितनी पुराने गानों के लिये की जाती थी.क्वालिटी के साथ कम्प्रोमाईज़ से ही तो शुरुआत है.अज के गीत रिदम को ज्यादाह महत्व देतें है, बनिस्बत धुन और बोलों के(अधिकतर)

वैसे पुराने गाने भी सभी अच्छे नही होते थे. रफ़ी जी के गाये हुए कितने गाने आप हम को याद है?मगर अनुपात आज से कई गुना बेहतर था.
मगर
इस गानें में नया कुछ भी नहीं है, जिसे सराहा जा सके. शायद बार बार सुनने के बाद अच्छा लगने लगे.

तन्हा जी की बात से मैं सहमत नहीं हूं कि गुलज़ार हिन्दी फ़िल्मों के अंतिम वली हैं. मगर ये बात सही है, कि जिस तरह से आज परोसा जा रहा है, उसमें तडके के लिये बोल भी ऐसे ही होंगे.स्वाद बदलता जा रहा है, मूल्य बदल रहें हैं, मान्यता बदल रहीं हैं, जिसे नहीं खाना वह ना खाये, जैसे कि मैं... दूर से ही सलाम.
'अदा' said…
दिलीप जी,
जितने भी गाने हमारे दिलों में राज कर रहे हैं उनमें कई खासियत है, अच्छी आवाज़, अच्छी धुन, अच्छा संगीत और अच्छी शायरी...
आज के गानों में अच्छी शायरी की बहुत ज्यादा कमी हैं, कोई भी बात अगर ऐसी कही जाए जो सीधी दिल तक पहुंचे तो उसका असर क्यूँ नहीं होगा लेकिन आज के गीतों के बोल इतने हलके हैं की बस चन्द घंटे ही अपना असर दिखा पाते हैं, गाना ख़तम हुआ और आप उसे भू गए.....
अभी फ़िर से सुना और सच कहूं , इसमें वाद्य संयोजन अच्छा बन पडा है, खास कर सिम्फनी और छोटा सा कोरस. सुर तो मधुर ज़रूर है< मगर विविदहता की कमी है. इसलिये ५ में से ३.

ओल्ड इज़ गोल्ड कितने बजे आता है? आज की कडी?
manu said…
हनम...
जितने बेकार नए गीत होते हैं...उतना तो नहीं लगा ये....
पहले पढा ...पढने में सही लगा....
आवाज़ भी सही लगी....
पर....
सुनने में बेहद साधारण गीत लगा ये...
मुझे हालांकि ज्यादा पता नहीं है..पर लगा के ....
बस ..पता नहीं..पर जो पढ़ के लगा था वैसा मजा सुन के बिलकुल नहीं आया.......
यहाँ पे दिलीप जी...अदा जी जैसे गायक हैं...ये लोग बेहतर समीक्षा कर सकते हैं.....

अब बात गुलजार की .....
मुझे बहुत पसंद है गुलज़ार...
उनका लिखा सभी कुछ पसंद नहीं ...ये भी एक आम बात है...और हर किसी के साथ होती है ...किसी का भी सब कुछ लिखा पसंद आना मुश्किल होता है.... ( शायद बड़े वाले अंकल का भी.....!!!!!........ये लिखते हुए भी दुःख हो रहा है.....:::::(((((..............)

मगर हम ''कमीने'' को नया पन कहते हुए ऊंची रेटिंग देते हैं...बढावा देते हैं...शायद हजम हो जाए...( गुलज़ार के नाम पर..)

मगर ये काहे भूल जाते हैं हम के इस '' कमीने '' के आगे और भी तरह-तरह के '' नयेपन '' हैं...
कहाँ ले जायेंगे ऐसे प्रयोग......?????
अगर मैं कोई गीत लिख के ले जाऊं...इन्ही म्यूजिक -डायरेक्टर के पास... ..थोडा और नयापन लिए...
तो मुझे विश्वास है के मुझे धक्के मार के निकाल दिया जाएगा....
:(
haan..
dilip ji ka comment dekh ke old is gold hi yaad aa gayaa apnaa...
कुछ न कहूँ तो शायद वही बेहतर होगा।

बड़े-बड़े लोग जहाँ किसी विषय पर बातचीत कर रहे हों,वहाँ मुझ जैसे नाचीज़ को कुछ भी नहीं कहना चाहिए।

अदा जी को मेरी बात चुभी....मेरी ऐसा मंशा नहीं थी...लेकिन जब चुभ हीं गई, तो मैं शत-कोटि बार नतमस्तक होकर उनसे माफ़ी माँगता हूँ।

दिलीप जी ने कहा कि गुलज़ार अंतिम वली नहीं है। मैं भी साफ़ किए दूँ कि इस दुनिया में कोई भी मुकम्मल नही है, वो खुदा भी नहीं। मैने अपनी टिप्पणी में बस इतना हीं कहा था कि गुलज़ार अपनी मर्जी से काम करते हैं। इसमें बुराई क्या है, हम भी करते हैं , आप भी करते हैं।

मैंने इस मंच (आवाज़) का प्रयोग कभी भी अपने लिए किया हो या अपनी बात थोपने की लिए किया हो तो मुझे खुलेआम बताएँ। एक भी ऐसा उदाहरण मिला तो मैं "महफ़िल-ए-गज़ल" के पोस्ट के अलावा कहीं भी टिप्पणी करना बंद कर दूँगा।

मनु जी, आप तो प्रयास करने से पहले हीं धक्का खाने का डर पाल बैठे हैं। कोशिश तो कीजिए, फिल्म-जगत इतना भी बुरा नहीं है। आज के तमाम संगीतकार बस हव्वा पर ज़िंदा नहीं हैं, कुछ तो है उनमें कि लोग उन्हें सुनना चाहते हैं।

मैं मानता हूँ कि आज अच्छे गाने कम हीं बनते हैं, लेकिन आज विविधता बहुत है और लोग प्रयोग करने से नहीं कतराते। पुराने गानों का मैं भी फ़ैन हूँ, लेकिन किसी चीज़ को प्रेम करने का यह अर्थ नहीं होता कि किसी दूसरे से नफ़रत की जाए।

दिलीप जी, आप राजपाल यादव पर फ़िल्माए गए जिस गाने की बात कर रहे हैं, वह फिल्म "मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूँ" से लिया गया है और उसके बोल हैं "रूमी साहब" । उसके बाद राजपाल यादव की एक और फिल्म आई थी "मैं मेरी पत्नी और वो" और उसमें एक गाना था "गुंचा कोई" । लेकिन मेरे हिसाब से मोहित चौहान का पहला गाना आया था फिल्म "रोड" में जिसके बोल थे " पहली नज़र में डरी थी, दूसरी में भी डर गई रे"।

-विश्व दीपक
'अदा' said…
तन्हा जी,
लगता है आप मेरी बात नहीं समझ पाए हैं... मैंने कभी नहीं कहा है कि मुझे नए गानों से नफरत है, न ही मैंने ऐसा कोई impression आपको या किसी को दिया है... अलबत्ता हम इतने भी बुड्ढे भी नहीं हैं कि हम नए प्रयोग और नए गानों का लुत्फ़ नहीं उठा सकें, उठाते हैं, जी भर कर गाते भी हैं, हम खुद नए प्रयोग करते हैं...मुझे एतराज़ है सिर्फ भाषा से, और मैं बार-बार कह रही हूँ, मैं असभ्य शब्द का विरोध कर रही हूँ और कुछ नहीं....
तन्हा जी,

अरे ये क्या? आप तो विचलित हो गये.

अपना अपना खयाल है, और आप भी रख सकते हैं, क्या गलत है?

आपको टिप्पणी करने से अपने आपको नही रोकना चाहिये. हम यहां स्वस्थ बहस के पक्षधर है. अपने अपने नज़रिये के अलग होने के बावजूद हममें एक बात तो है, कि हम सभी संगीत के दिवाने है, और एक ही परिवार के है.
manu said…
taanhaa ji.

आज के तमाम संगीतकार बस हव्वा पर ज़िंदा नहीं हैं

...????
:)
:)
अरे महाराज,
आप भी कमाल करते हैं। अब "हव्वा" भी समझाऊँ :)
आपकी अदा सचमुच निराली है। हव्वा मतलब किसी बात को तूल देना.....मतलब जो चीज जितनी प्रसिद्ध न हो, उसे उससे भी ज्यादा प्रसिद्ध कहना।
Shamikh Faraz said…
गाना बढ़िया है ५ में से ४ अंक.

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

कल्याण थाट के राग : SWARGOSHTHI – 214 : KALYAN THAAT

स्वरगोष्ठी – 214 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 1 : कल्याण थाट राग यमन की बन्दिश- ‘ऐसो सुघर सुघरवा बालम...’  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ एक नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के प्रथम अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत आने वाले रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था है। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की