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शीशा-ए-मय में ढले सुबह के आग़ाज़ का रंग ....... फ़ैज़ के हर्फ़ों को आवाज़ के शीशे में उतारा आशा ताई ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४०

हफ़िल-ए-गज़ल की ३८वीं कड़ी में हुई अपनी गलती को सुधारने के लिए लीजिए हम हाज़िर हैं शरद जी की पसंद की आखिरी गज़ल लेकर। इस गज़ल के बारे में क्या कहें....सुनते हीं दिल में आशा ताई की मीठी आवाज़ उतर जाती है। आशा ताई हमारी महफ़िल में एक बार पहले भी आ चुकी हैं। उस समय आशा ताई के साथ थे सुर सम्राट ख़य्याम और गज़ल थी "चाहा था एक शख्स को जाने किधर चला गया।" उस वक्त हमें उस गज़ल के गज़लगो का नाम मालूम न था, लेकिन इस बार ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। आज की गज़ल के गज़लगो का ज़िक्र करना खुद में एक गर्व की बात है और हमारी यह खुशकिस्मती है कि आशा ताई की तरह हीं ये साहब भी हमारी महफ़िल में दूसरी बार तशरीफ़ ला रहे हैं। इससे पहले हमने इनकी लिखी एक नज़्म "गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम" सुनी थी, जिसे अपनी आवाज़ से सजाया था बेग़म आबिदा परवीन ने। उस कड़ी को हमने पूरी तरह से इन्हीं मोहतरम के हवाले कर दिया था और इनके बारे में ढेर सारी बातें की थीं। उसी अंदाज़ और उसी जोश-औ-जुनूं के साथ हम आज की कड़ी को भी इन्हीं के हवाले करते हैं। तो चलिए हम शुरू करते हैं चर्चाओं का सिलसिला बीसवीं सदी के "ग़ालिब" जनाब फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़" के साथ। फ़ैज़ को याद करते हुए मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली कहते हैं: फ़ैज़ को वर्तमान से अतीत बने वक़्त का एक बड़ा हिस्सा गुज़र चुका है. इस दौरान केवल आलमी रियासत ही तब्दील नहीं हुई है बल्कि इंसान की सोच भी काफ़ी तब्दील हो चुकी है. कोई 2600 बरस पहले महात्मा बुद्ध ने कहा था कि तब्दीली एक बड़ी हक़ीक़त है लेकिन इससे बड़ी एक हक़ीकत है और वह यह है कि तब्दीली भी तब्दील होती है. वक़्त के साथ बुलबुले भी बदलती हैं और उनके तराने भी. लेकिन इस बनने-बिगड़ने के बावजूद फ़ैज़ के कलाम और उसके एहतिराम में कोई कमी नहीं आई. अपनी ज़िंदगी में जैसे वह पढ़े और सुने जाते थे आज भी उसी तरह दोहराए जाते है, सुनाए जाते हैं और गाए जाते हैं. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने वही लिखा जो उनका अनुभव था. इस अनुभव की रौशनी ने न उनकी आवाज़ को नारा बनाया और न ही उन्होंने अपने दृष्टिकोण का शोर मचाया था. उन्होंने समाज के ग़मो-खुशी को पहले अपना बनाया और फिर उन्हें दूसरों को सुनाया.

मुंबई की एक महफ़िल में फ़ैज़ शरीक थे. फ़ैज़ के लिए सजाई गई उस महफ़िल में अमिताभ बच्चन, रामानंद सागर और दूसरी फ़िल्मी हस्तियों के साथ, सरदार जाफ़री, जज़्बी, जांनिसार अख़्तर, मजरूह सुल्तानपुरी वगैरह शरीक थे. ये सब फ़ैज़ की शोहरत, अजमत और शेरी-ज़हानत (काव्यदृष्टि) के कॉम्पलेक्स से पीड़ित थे. सब अलग-अलग टुकड़ियों में बँटे फ़ैज़ को चर्चा का विषय बनाए हुए थे. कोई कह रहा था कि फ़ैज़ ग़लत ज़ुबान लिखते हैं तो कोई बोल रहा था कि उन्हें यासर अराफ़ात की पत्रिका 'लोटस' ने शोहरत दी है. फ़ैज़ इन सब बातों को दूर-दूर से सुन रहे थे और जाम पर जाम चढ़ा रहे थे और सिगरेट पर सिगरेट सुलगा रहे थे. जब पढ़ने के लिए बुलाया गया तो उन्होंने फ़रमाया कि भाई दुकानें तो सबने एक साथ लगाई थीं. अब इसको क्या कहा जाए. कोई चल गई तो यह उसकी देन है जिसे परवरदिगार दे.


साहित्य-कुंज पर शीशों का मसीहा फ़ैज़ शीर्षक से लिखे अपने आलेख में चंद्र मौलेश्वर प्रसाद "फ़ैज़" का जीवन-वृतांत कुछ यूँ पेश करते हैं: अपने साम्यवादी विचारों के कारण ‘फ़ैज़’ को जेल की हवा भी खानी पडी़ थी। हुआ य़ूं कि १९५१ में, जब चौधरी लियाकत अली खां पाकिस्तान के प्रधान मंत्री थे, तब कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता और साहित्यकार सैय्यद सज्जाद ज़हीर को ‘फ़ैज़’ के साथ उस समय पाया गया जब ये दोनों अपने दो फ़ौजी मित्रों के साथ देखे गये। उन पर मुकदमा चलाया गया जो अब ‘रावलपिंडी कांस्पिरेसी केस’ के नाम से प्रसिद्ध है।‘फ़ैज़’ को चार वर्ष तक कैद में रखा गया था जिसमें तीन माह की कैदे-तन्हाई भी शामिल है। तब उन्होंने कहा था-

मता-ए-लौहो-कलम छिन गई तो क्या गम है
कि खूने-दिल में डुबो ली है उंगलियां मैंने
जबां पे मुहर लगी है तो क्या रख दी है
हर एक हल्का-ए-ज़ंजीर में ज़ुबां मैंने॥..
कोई पुकारो कि उम्र होने आई है
फ़लक को का़फ़िला-ए-रोज़ो शाम ठहराए
सबा ने फिर दरे-ज़िंदां पे आके दी दस्तक
सहर करीब है दिल से कहो न घबराए॥

इसी कैद के दौरान ‘फ़ैज़’ ने कई रचनाएं लिखी जिन्हें ‘दस्ते-सबा’ के नाम से प्रकाशित किया गया है। इस दौरान इतनी राजनैतिक उथल-पुथल होती रही कि सरकारें तेज़ी से बदलीं। नतीजा यह हुआ कि मुकदमा पूरा हुए बगैर ही २० अप्रेल १९५५ के दिन ‘फ़ैज़’ को रिहाई दे दी गई। अपने साम्यवादी विचारों के कारण ‘फ़ैज़’ को १९५८ में फिर एक बार ‘सुरक्षा एक्ट’ के तहत गिरफ़्तार किया गया परंतु अप्रैल १९५९ में रिहा कर दिया गया। इस राजनैतिक उहापोह से तंग आकर ‘फ़ैज़’ लंदन चले गए। जब ग़म की शाम गुज़र गई और उम्मीद की सुबह नज़र आई तो ‘फ़ैज़’ फिर अपनी मातृभूमि को लौट आए। अपने बुढा़पे के दिनों में ‘फ़ैज़’ को दमे का रोग इस कदर सताने लगा कि वे वापिस लाहौर लौट आए। रोग हद से ज़्यादा बढ़ गया और सांस लेने में दिक्कत होने लगी। ‘फ़ैज़’ को लाहौर के मेयो अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां उन्होंने २० नवम्बर १९८५ के दिन इस संसार को अलविदा कहा।
फ़ैज़ हमेशा से हीं एक संवेदनशील कवि रहे हैं। तभी तो जब उनके मित्र हैदराबाद के सुप्रसिद्ध जनकवि मख़दूम मुहीउद्दीन, जिन्होंने तेलंगाना आंदोलन मे भाग लिया था, की मौत हो गई तो फ़ैज़ ने उनको समर्पित करते हुए यह कहा था:

आप की याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर


शायद आपको याद होगा कि महफ़िल-ए-गज़ल के एक अंक में हमने छाया गांगुली की गाई हुई एक गज़ल का जिक्र किया था, जिसे फिल्म "गमन" से लिया गया था। उस गज़ल के शुरूआती बोल थे:

आप की याद आती रही रात भर
चांदनी जगमगाती रही रात भर


तो इन दो शेरों में साम्य इसलिए दिख रहा है, क्योंकि उपरोक्त शेर जनाब मख़दूम मुहीउद्दीन द्वारा रचित है। जहाँ मखदूम साहब ने चाँदनी को रात भर जगमगाता पाया है, वहीं उनकी मौत के बाद "फ़ैज़" ने उसी चाँदनी को शरारों-सा जलता हुआ महसूस किया है। दर्द की पराकाष्ठा है ये। यह तो हुई दर्द की बात...अब बारी है खुशियों की। तो पेश है मदहोशी से भरी आज की गज़ल। मुलाहजा फ़रमाईयेगा:

यूँ सजा चाँद कि छलका तेरे अंदाज का रंग,
यूँ फ़ज़ा महकी कि बदला मेरे हमराज़ का रंग

साया-ए-चश्म में हैराँ रुख़-ए-रौशन का जमाल
सुर्ख़ी-ए-लब पे परेशाँ तेरी आवाज़ का रंग

बेपिये हों कि अगर लुत्फ़ करो आख़िर-ए-शब
शीशा-ए-मय में ढले सुबह के आग़ाज़ का रंग

चंगो-नय रंग पे थे अपने लहू के दम से
दिल ने लय बदली तो मद्धम हुआ हर साज़ का रंग

इक सुख़न और कि फिर रंग-ए-तकल्लुम तेरा
हर्फ़-ए-सादा को इनायत करे एजाज़ का रंग




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

___ ऐसे भी होंगें ये कभी सोचा न था,
सामने भी था मेरे और वो मेरा न था...


आपके विकल्प हैं -
a) फासले, b) दूरियां, c) अजनबी, d) बेगाने

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "तजुर्बा" और शेर कुछ यूं था -

क्यों डरें ज़िंदगी में क्या होगा,
कुछ न होगा तो तजुर्बा होगा....

इस शब्द को सबसे पहले सही पहचाना नीरज जी ने और उन्होंने इस शब्द पर क़तील शिफ़ाई साहब का एक भी पेश किया:

ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रकीब,
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं...

खुबसूरत हैं आँखें तेरी...गज़ल से जुड़ी अपनी यादें शेयर करने के लिए नीरज जी का आभार!

इनके बाद महफ़िल में नज़र आए शामिख साहब। उनके साथ थी जावेद अख्तर साहब की लिखी वह गज़ल जिससे यह शेर लिया गया है। इसके बाद उन्होंने कुछ "फ़िराक़ गोरखपुरी" के तो कुछ अनाम के शेर महफ़िल के सुपूर्द किए। बानगी देखिएगा:

हमारा ये तजुर्बा कि खुश होना मोहब्बत में
कभी मुश्किल नहीं होता, कभी आसान नहीं होता

मेरा अपना तजुर्बा है इसे सबको बता देना
हिदायत से तो अच्छा है किसी को मशवरा देना।

शरद जी शर्मिंदा होने की कोई जरूरत नहीं है...एक गलती आपने की और एक गलती हमने...लेकिन गलती का फल तो अच्छा हीं हुआ..इसी बहाने हमें एक बेहद खुबसूरत गज़ल सुनने को मिल गई। वैसे "तर्जुबा" पर आपके शेर कहाँ है? अहा..मिल गए, थोड़े अंतराल के बाद थे:

इस तरह सौदा किया है आदमी से वक़्त ने
तज़ुर्बे दे कर वो कुछ उसकी जवानी ले गया ।

शन्नो जी ...सदियों बाद आपका स्वागत है :) कहाँ थीं आप...महफ़िल अधुरी थी आपके बिना...खैर अब आ गई हैं तो मत जाईयेगा....आपने तो महफ़िल में आपके तजुर्बे पर हीं दो शेर कह डाले। अच्छा लगा पढकर:

लिखने की तमन्ना है मुझे मगर तजुर्बा ही नहीं
मेरे शेर सुनते ही लोग महफ़िल से भाग जाते हैं.

अगर फरमाइश कहीं से होती मेरी शायरी के लिए
तो शायद सुनने वालों का भी अपना ही तजुर्बा होता.

एक यह भी:
तजुर्बा रहा है हिचकियों से की किसी ने मुझे याद किया
क्या आवाज़ पर भी किसी ने दस्तक दी है आज मुझे.

मंजु जी हर बार की तरह इस बार भी स्वरचित शेर के साथ महफ़िल में नज़र आईं:

तजुर्बा जिन्दगी का कहानियों में बोलता .
दोस्तों ! कोई हंसता तो कोई रोता ,

और अंत में रचना जी के दो शेर:

तजुर्बा अपनों का कुछ इस कदर हुआ मुझे
काटों ने ही नहीं फूलों ने भी दगा दिया मुझे

क्या है माँ की दुआ दोस्तों
मौत टली तो तजुर्बा हुआ दोस्तों

सुमित जी..आप आए अच्छा लगा...बस कोई नया शेर डाल देते तो मज़ा आ जाता... :)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

बढ़िया प्रस्तुति.....पहेली का सही जवाब है 'फासले'....मुझे एक शेर याद आ रहा है....

कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से...
ये नए मिज़ाज का शहर है, ज़रा फासले से मिला करो.....
Shamikh Faraz said…
सही लफ्ज़ फासले है.

फासले ऐसे भी होंगें ये कभी सोचा न था,
सामने भी था मेरे और वो मेरा न था..
Shamikh Faraz said…
वो कल था साथ तो फिर आज ख्वाब सा क्यों है
बगैर उसके ये जीना अज़ाब सा क्यों है

ये राह्बर हैं तो क्यों फासले से मिलते हैं
रुखों पे इनके नुमायाँ नकाब सा क्यों है

जैदी ज़फर रज़ा.
Shamikh Faraz said…
देखा इक ख्वाब तो यह सिलसिले हुए
दूर तक हैं निगाह में गुल खिले हुए.
यह गिला है आपकी निगाहों से
फूल भी हो दरमियाँ तो यह फासले हुए.

सिलसिले फिल्म का गीत
pooja said…
तन्हा जी ,
बहुत बढ़िया जानकारी दी है आपने जनाब "फैज़" के बारे में और हमेशा की तरह बेहद उम्दा लिखा है. शुक्रिया.
seema gupta said…
फासले ऐसे भी होंगें ये कभी सोचा न था,
सामने भी था मेरे और वो मेरा न था..

regards
seema gupta said…
जिस मोड़ पर किए थे हम इन्तेजार बरसों,
उससे लिपट के रोये दीवाना-वार बरसों,

तुम गुलसितां से आए ज़िक्र खिज़ां हिलाए,
हमने कफ़स में देखी फासले बहार बरसों,

होती रही है यूं तो बरसात आसुओं की,
उठते रहे हैं फिर भी दिल से गुबार बरसों,

वो संग-ऐ-दिल था कोई बेगाना-ऐ-वफ़ा था,
करते रहें है जिसका हम इंतजार बरसों,

regards
seema gupta said…
जब से मै और तुम हम न रहे
तब से दोस्ती मे वो दम ना रह

जीते रहे ज़िन्दगी को जाना नहीं
टेढे थे रस्ते, जमे कदम ना रहे

तकरार से फासले नहीं मिटते
जब भी शिकवे हुये हम हम ना रहे

रातें सहम गयी दिन बहक गये हैं
पलकें सूनी हैं आँसू भी नम ना रहे

फिरते हैं सजा के होठों पे हंसी
तन्हाई मे अश्क भी कम ना रहे

इक जिस्म दो जान हुआ करते थे
वो दोस्त अब हमदम ना रहे

regards
seema gupta said…
कहता है तू शायर है
मशहूर, काबिल, मशरूफ भी
गर ताकत है कलम में तेरी
मेरी तनहाईयों का मंजर लिख दे !

लिख दे पता, मेरी मंजिल का
जो दिल से गुजरे, वो डगर लिख दे !

लिख मैंने कैसे, तय किये ये फासले
है कैसे गुजरा, मेर ये सफर लिख दे !

लिख दे दास्ताँ गुमनामी की
किसने बरपाई है कहर लिख दे !

लिखते हुए ‘गर थक जाये
बदहाली की कहानी
रुककर थोड़ी खुशहाली की,
कोई अच्छी खबर लिख दे..

regards
pooja said…
जगजीत सिंह के गाये और कैफी आज़मी के लिखे एक गीत से कुछ पंक्तियाँ पेश -ए नज़र है....

इक ज़रा हाथ बढाये तो पकड़ ले दामन,
उसके सीने में समा जाए हमारी धड़कन,
इतनी कुरबत है तो फिर फासला इतना क्यों है???
सही शब्द ’फासले’

शे’र पेश है (स्वरचित)
मेरे बच्चे जब अधिक पढ़ते गए
फासले तब और भी बढ़ते गए ।

मेरी पसन्द की आशा जी की ग़ज़ल के लिए शुक्रिया ।
Manju Gupta said…
रात-दिन के फासलें की तरह है वो, कभी अमावस्या है तो कभी पूर्णिमा की तरह है वो !
स्वरचित शेर
जवाब है - फासलें
फेज के बारे में व्यापक जानकारी दी धन्यवाद्
sumit said…
सही शब्द फाँसले है

शे'र -फाँसला इस कदर नसीब ना हो,
पास रहकर भी तू करीब ना हो।

दिल को दीवानगी खुदा दे दे
ईश्क मे भी कभी अदीब ना हो

अदीब शब्द का क्या अर्थ होता है
sumit said…
सही शब्द फाँसले है

शे'र -फाँसला इस कदर नसीब ना हो,
पास रहकर भी तू करीब ना हो।

दिल को दीवानगी खुदा दे दे
ईश्क मे भी कभी अदीब ना हो

अदीब शब्द का क्या अर्थ होता है
shanno said…
तनहा जी,

शक्रिया आपका. यहाँ सभी लोग कितने नामी शायरों के शेर लेकर आते हैं आपकी महफ़िल में. लेकिन अपने पास तो किसी शायरी की कोई किताब ही नहीं है सो मजबूरी है. अपने ही शेर लिख-लिख कर आप सब पर आजमाती रहती हूँ. वही आज भी आप सबकी खिदमत में करने का इरादा है.

अच्छा लगा यह आपका अंदाज़ शायराना
फासले थे कुछ ऐसे न महफ़िल में हुआ आना.

बहके कदम उठें तो कोई फासले न रहते
ताने ज़माने भर के दामन में लिए सहते.

तो आप शायद समझ गए होंगे की मेरा जबाब क्या है.......नहीं मैं पहेली के बदले पहेली नहीं बूझ रही हूँ.......मेरा मतलब है की आपकी पहेली का जबाब है......'फासले'.


aur.... gazal aur uski dhun dono bahut achchi hain.

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