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रविवार सुबह की कॉफी और आपकी पसंद के गीत (12)

जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं वह हृदय नहीं है पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं

साहित्य, कला और संगीत ऐसे तीन स्तम्भ हैं जो हमारे देश की आन, बान और शान का प्रतीक हैं. इन तीनों ही के योगदान ने देश को सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचाया है. इतिहास गवाह है कि साहित्य और संगीत के द्वारा हमारे साहित्यकारों ने देश के लोगों को जागरूक करने का काम किया है. चाहें गुलामी की जंजीरों से आजाद होने की प्रेरणा हो या फिर टुकडों में बँटे देश को जोड़ने का प्रयास, इन साहित्यकारों ने अपना योगदान बखूबी दिया है. इनकी कलम से निकले शब्दों ने पत्थर हृदयों में भी स्वाभिमान और देशप्रेम का जज़्बा पैदा कर दिया. कहते है कि "जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुचे कवि". अर्थात कवियों की कल्पना से कोइ भी अछूता नहीं है. जो काम अन्य लोगों को असंभव दिखा वो कार्य इन कवियों ने अपनी कलम की ताकत के द्वारा कर दिखाया. भारतीय रचनाकार बंकिमचंद्र चटर्जी को कौन नहीं जानता. उनके द्वारा लिखे "वन्दे मातरम" गीत ने करोड़ों भारतीयों के सीने में अपनी जन्मभूमि के प्रति कर्तव्य और प्रेम के भाव को जागृत कर दिया. यही नहीं यह गीत आजादी का नारा बन गया. आज भी इस गीत के स्वर भारतवर्ष की फिजाओं में गूँजते है और देशप्रेमी इस गीत की तान को अपनी आत्मा से अलग नहीं कर पाते. ऐसे में स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर इस गीत का जिक्र और फरमाईश ना हो, मुमकिन ही नहीं. हमारे हिन्दयुग्म के नियमित पाठक व श्रोता पराग सांकला(यू.एस.ए) जी ने "वंदे मातरम" गीत को सुनने की ख्वाहिश के साथ उससे जुड़ी कई बेहतरीन जानकारी भी हमसे बाँटी है.....

"रविवार ७ नवम्बर सन १८७५ में बंकिमचंद्र चटर्जी ने प्रसिद्ध गीत "वन्दे मातरम" लिखा. यूँ तो यह गीत १२५ साल से भी ज्यादा पुराना है. लेकिन आज भी इसकी लोकप्रियता जस की तस है. कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने "वंदे मातरम" गीत को 'बादों स्क्वायर' में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के १८९६ सम्मेलन में गाया था. उसके बाद यह देशभक्ति की मिसाल बन गया जिसके चलते इस पर ब्रिटिश प्रतिबंध भी लगाया गया.

हिन्दी और बांग्ला भाषा में बनी फिल्म आनंदमठ(१९५२) में यह गीत शामिल किया गया इसकी धुन आज भी बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय है. यह धुन संगीतकार हेमंतकुमार ने राग मालकौंस और भैरवी के मिश्रण से बनाई थी. फिल्म में यह गीत लता जी और हेमंत दा ने गाया था. इससे दो साल पहले इस गीत को गीता दत्त जी ने एम दुर्रानी के साथ गाया था. दुर्भाग्य से इस गैरफिल्मी रिकॉर्ड का ऑडियो उपलब्ध नहीं हैं.
"

आइये सुनते है पराग जी की पसंद, और फिल्म आनंद मठ का वह दुर्लभ गीत........ जो शुरू होता हैं "नैनों में सावन" बोलों से. फिर गीत के बोल बन जाते हैं "गूँज उठा जब कोटि कोटि कंठों से आजादी का नारा" साथ ही पृष्ठभूमि में "वन्दे मातरम " का उच्चारण होता रहता है. आशा हैं की आप सभी संगीत प्रेमियों को भी यह गीत पसंद आयेगा.

नैनों में सावन.......वंदे मातरम


हम बात कर रहे थे अपने कवियों की. बंकिम चंद्र चटर्जी के अलावा अन्य कवियों ने भी स्वतन्त्रता की लड़ाई में अपनी लेखनी को तलवार की तरह इस्तेमाल किया है.लोगों के सोये स्वाभिमान को जगाने के लिये वह लिखते है...."निज भाषा, निज गौरव, देश पर जिसे अभिमान नही, नर नहीं वह पशु है, जिसको स्वदेश से प्यार नहीं".राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने तो संपूर्ण देश में राष्ट्रीयता की भावना ही भर दी थी. उनकी कलम से निकले यह शब्द आत्मा को छूते है......."जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं". हमारे देश के क्रान्तिकारी भी पीछे नहीं थे. जोश और भावों से पूर्ण उनका हृदय भी कविता बन फूट पड़ता था. क्रान्तिकारी भगतसिंह, बिस्मिल और राजगुरु ने जेल में बिताए हुए दिनों के दौरान अनेक गीतों और शेरों को कहा. इनमें "मेरा रंग दे बसंती चोला"और "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है" मुख्य हैं. यह शेर व गीत अंग्रेजों के कान में खौलते तेल की तरह पड़ते थे लेकिन भारतीयों के लिए प्रेरणा का स्रोत थे और रहेंगे. देशप्रेम का भाव ऐसा होता है कि इसके वशीभूत हो व्यक्ति अपनी सुधबुध खो देता है. हमारे साथी निखिल आनंद गिरि जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. निखिल जी हिन्दयुग्म के साथ अपना अनुभव बाँटते हुए बताते है कि.......

'मेरा रंग दे बसंती चोला' और 'सरफरोशी की तमन्ना' जब भी सुनता हूं, रोएं खड़े हो जाते हैं..

"सरफरोशी की तमन्ना" गीत का जो नया वर्ज़न "गुलाल" फिल्म में आया है, ने इस गाने को सर्वकालिक बना दिया है...

नोएडा के स्पाइस मॉल में जब ये फिल्म देख रहा था तो बीच हॉल में खड़ा होकर मस्ती में झूमने लगा...लोग मुझे बैठाने लगे...दो-तीन गानों में ऐसा हुआ....मुझे मज़ा आ रहा था...मन में यही विचार आया कि क्या मैं कभी ऐसा लिख पाऊँगा ?

अभी कारगिल विजय पर कार्यक्रम बना रहा था...तो कई गाने सुनने को मिले....मज़ा आ गया....


निखिल जी ने ख्वाहिश की है गीत "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है".......

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


फिल्म "शहीद" का यह गीत वो जख्म फिर से ताजा कर देता है जो हमारे क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजों से जेल में खाये थे. अगर हम क्रान्तिकारी कवियों की बात करें तो "सियारामसरन गुप्त, श्रीधर पाठक, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध आदि में भारतेन्दु जी का नाम मुख्य है उन्होंने अपनी कविता में अंग्रेजों की चाटुकारिता करने वाले शासकों को धिक्कारा है.

"गले बाँधि इस्टार सब, जटित हीर मनि कोर,

धावहु धावहु दौरि के कलकत्ता की ओर ।
चढ तुरंग बग्गीन पर धावहु पाछे लागि,
उडुपति संग उडुगन सरसि नृप सुख सोभा पागि।

राजभेट सब ही करो अहो अमीर नवाब,
हाजिर ह्वै झुकि झुकि करौ सब सलाम आदाब।
राजसिंह छूटे सबै करि निज देस उजार,
सेवन हित नृप कुँवर वर धाये बाँधि कतार ।

हिमगिरि को दै पीठ किय काश्मीरेस पयान ।

धाए नृप एक साथ सब करि सूनौ निज ठौर

देखा दोस्तों ये है कलम की धार जो बड़े-छोटे सभी की पोल खोल देती है. इस कलम की ताकत हमें फिल्मों में भी देखने को मिलती है. देशप्रेम और स्वतन्त्रता संग्राम के विषय पर बहुत सी फिल्में बनी है. हमारे एक अन्य श्रोता अनूप मंचाल्वर(पुणे)जी ने देशप्रेम से पूर्ण फिल्मों के बहुत ही भावपूर्ण दृश्य लिखकर भेजे हैं जो सभी को प्रभावित करेंगे..........

"देशभक्ति से पूर्णं कई फिंल्मे बहुत ही अच्छी है. मनोज कुमार, बेन किंग्सले हों या मणि रत्नम, सभी ने फिल्मो में देशभक्ति को बहुत ही सलीखे से दर्शाया है. मुझे दो दृश्य बहुत प्रभावित करते हैं.एक तो "गांधी" फिल्म से है "जब बापू एक नदी पर आते है और एक गरीब महिला को देखकर अपना गमछा पानी में छोड़ देते है ताकि वह महिला अपना तन ढक सके". इस दृश्य में भारत की समकालीन गरीबी और गांधीजी के देश प्रेम को बहुत ही सहजता से दर्शाया है. दूसरा दृश्य "रोजा" फिल्म का है "जब आतंकवादी (पंजक कपूर) तिरंगे को जलाकर फेंकता है तो नायक तिरंगे में लगी आग के ऊपर कूदकर तिरंगे को जलने से बचाता है. यहाँ ए.आर.रहमान द्वारा निर्मित तर्ज (आवाज़ दो हम एक है) माहौल में जोश भर देते है."

इन भावपूर्ण दृश्यो को पढ़ हमारा मन भी रोजा फिल्म का गीत सुनने को मचल उठा है. अनूप मंचाल्वर जी की इच्छा हम जरुर पूरी करेंगे..

भारत हमको जान से प्यारा है


दोस्तों साहित्यकारों और संगीतकारों की ताकत को नकारा नहीं जा सकता. वो अपने लेखन और संगीत से गहरी छाप छोड़ते हैं. हम उनके लेखन में तात्कालिक देश की हालत के भी दर्शन कर सकते हैं इसका प्रमाण है कवि बद्रीनारायण "प्रेमघन" की ये पंक्तियाँ...

कैदी के सम रहत सदा, आधीन और के

घूमत लुंडा बने, शाह शतरंज के। "

खैर यह तो पुराने समय के कवियों की बात हुई. अगर हम आज की बात करें तब भी पायेंगे कि नए लेखक और कवि भी अपने लेखन में देश के तत्कालिक हालातों और घटनाओं को स्थान दे रहे हैं. उनकी रचनाओं में ताजा हालातों को बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है.. कारगिल युद्ध पर कई किताबें लिखी गई हैं व फिल्म भी बनाई गयी है. हमारे नियमित पाठक व श्रोता शरद तेलंग(राजस्थान) कारगिल युद्ध के समय से जुड़ा अनुभव लिखते है कि शहीदों और सैनिकों के प्रति देशवासियों में कितनी इज्जत है....."कारगिल युद्ध के समय की बात है हमारे संगीत दल ने यह तय किया कि हम लोग शहीदों की याद में एक देशभक्ति गीतों का कार्यक्रम विभिन्न जगहों पर आयोजित करेंगे । इसी योजना के तहत हमने कोटा, बून्दी, बारां तथा झालावाड़ जिलों में कार्यक्रम आयोजित किए । सभी जगह बहुत अच्छा अनुभव रहा, लेकिन झालावाड़ कार्यक्रम में मुख्य अतिथि जिला कलेक्टर तथा आर्मी के कुछ अफ़सरों के सामने हमने कार्यक्रम प्रस्तुत किया. तीन चार गीत सुनाने के बाद जब हमने श्रोताओं से अपील की कि जो भी सज्जन शहीद सैनिकों के परिवार हेतु अपना योगदान देना चाहे वो जिला कलेक्टर को मंच पर आकर दे दें. फिर क्या था एक बार जो सिलसिला शुरू हुआ वो थमा ही नही। लोगों का ध्यान गीतों से ज्यादा सैनिकों के लिये योगदान देने में था. उस दिन पहली बार मैनें लोगों में अपने देश और उसकी रक्षा करने वाले सैनिकों के प्रति गज़ब का उत्साह देखा। सभी शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए मैं "उसने कहा था' फिल्म का गीत 'जाने वाले सिपाही से पूछो वो कहाँ जा रहा है' सुनना चाहूँगा"

सही कहा शरद जी ने स्वतन्त्रता दिवस पर इससे अच्छी श्रद्धाजंली तो हो ही नहीं सकती. चलिये सुनते है यह गीत.

जाने वाले सिपाही से पूछो


दिल्ली से ही तपन शर्मा जी हमें लिखते हैं-
"देश भक्ति गीतों की जब बात आती है तो दो गीत ऐसे हैं जो मुझे सबसे अच्छे लगते हैं। एक गीत से गर्व महसूस होता है और दूसरा गीत जोश दिलाता है। देशभक्ति पर आधारित फ़िल्मों में सबसे पसंदीदा फ़िल्मों में से एक है ’पूरब और पश्चिम’। मनोज कुमार उर्फ़ भारत कुमार ने एक से बढ़कर एक देशभक्ति से ओतप्रोत फ़िल्में बनाईं। उन्हीं में से एक थी पूरब और पश्चिम। और उसी का एक गीत है- "जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने दुनिया को तब गिनती आई"। ये उस गीत के शुरु के बोल हैं। आम लोगों में - "है प्रीत जहाँ की रीत सदा..." ये बोल प्रसिद्ध हैं। इसी गीत के शुरु में जब मनोज कुमार गुनगुनाता है कि- देता न दशमलव भारत तो चाँद पे जाना मुश्किल था..धरती और चाँद की दूरी का अंदाज़ा लगाना मुश्किल था....। ये बोल मुझे गर्वांवित करते हैं। और मैं ये महसूस करने लगता हूँ कि हाँ, हमारे देश में विश्व शक्ति बनने की काबिलियत है बस थोड़ा हौंसला और जोश चाहिये।

और ये जोश मिलता है मेरे अगले पसंदीदा गाने से। फ़िल्म थी "हक़ीकत"। और गाना-"कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों"। आगे के बोल में जब गीतकार ने कहा- "साँसे थमती गईं नब्ज़ जमती गईं..फिर भी बढ़ते कदम को न रूकने दिया.." तब लगता है मानो हम खुद ही बॉर्डर पर हों और दुश्मनों का सामना कर रहे हों। उन शहीदों को बारम्बार नमन करने की इच्छा होती है जिनकी वजह से हम सुरक्षित हैं। रौंगटे खड़ी कर देती हैं अगली पंक्तियाँ- "ज़िन्दा रहने के मौसम बहुत हैं मगर..जान देने की रुत रोज़ आती नहीं.."। मन में बस एक ही बात उठती है..सीमा की सुरक्षा करना कोई हँसी मजाक नहीं। निडरता और हौंसला और देश पर मर मिटने का जज़्बा चाहिये। कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो अंदर तक हिल न जाये इस गीत को देखकर। इतना खूबसूरत ऊर्जा से भरपूर है ये गीत।
"

चलते चलते सुनते चलें तपन जी की पसंद के ये दो गीत भी
है प्रीत जहाँ की रीत सदा (पूरब और पश्चिम)


कर चले हम फ़िदा (हकीक़त)


देशप्रेम और साहित्यकारों का संबंध तो बहुत पुराना है प्राचीनकाल से लेकर आज तक सहित्यकारों ने बहुत कुछ लिखा है. आज भी उनका यह प्रयास जारी है कि उनकी लेखनी से निकले शब्द किसी एक नागरिक के हृदय मे भी देशप्रेम और स्वाभिमान का बीज बो दें तो काफी है, क्योकि बीज पड़ना जरुरी है अंकुर तो फूटेगा ही. प्रसिद्ध लेखक दुष्यंत जी ने कहा था "महज़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं ये सूरत बदलनी चाहिए, मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में ही सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए". हम भी यही प्रार्थना करते हैं कि लोगों में देश के प्रति लौ लगे. अंत में हम देश के शहीदों और समस्त साहित्यकारों को उनके योगदान के लिये समस्त देशवासियों की ओर से नमन करते है.

सूचना - अगले रविवार सुबह की कॉफी के साथ हम सुनेंगें गुलज़ार साहब के कुछ बेहद दुर्लभ गीत जिनका चयन किया है पंकज सुबीर जी ने. गुलज़ार साहब के बहुत से गीतों ने आप सब को कहीं न कहीं जीवन के किसी मोड़ पर छुआ होगा. उनके उन्हीं ख़ास गीतों से जुडी अपनी यादें हम सब के साथ बांटिये अपने उन अनुभवों को हमें लिख भेजिए. १८ अगस्त को गुलज़ार साहब का जन्मदिन है. हम कोशिश करेंगें कि आपकी मुबारकबाद उन तक पहुंचाएं, आप अपने अनुभव इसी पोस्ट में टिप्पणियों के रूप में भी लिख सकते हैं.तो जल्दी कीजिये कहीं देर न हो जाए.

प्रस्तुति - दीपाली तिवारी "दिशा"


"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

Comments

दिशा जी का लेखन और संपादन(संग्रहण) दोनों हीं उच्च कोटि का है।

इतने सारे लोगों ने देश से जुड़ी अपने दिल की बातें कहीं है कि पढ कर एक बार तो सीना गर्व से चौड़ा हो गया। १५ अगस्त का दिन है हीं फ़ख्र करने के लिए।

सभी गीतों को सुना...... सारे हीं संग्रहणीय हैं।

आवाज़ को इस पहल के लिए बधाई।

-विश्व दीपक
दिशाजी, सजीव जी, और अन्य सभी पाठक और हिन्दयुग्म के स्थंभ,

आप सबको बधाई, इतना अच्छा संकलन, और ज़ज़बात से भरे ये शब्द, वाकई रविवार का दिन सफ़ल हो गया.
दिशा जी
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर रविवार सुवह की काँफ़ी इस बार बहुत स्वादिष्ट लगी लग रहा था काँफ़ी के साथ बहुत सारे व्यंजन भी परोस दिए गए हो जिनका स्वाद बहुत लम्बे समय तक याद रहेगा । आवाज़ की इस पहल पर बहुत बहुत बधाई ।
Anonymous said…
Aaj ki subahki chayeka maza hi kuchh alag laga

Aap sochte honge ke yeh geet pehli baar sun raha hoon
main to sada hi sunta aa raha hoon , bharatiye deshbhaktike
geet filmonke jariye sunne ko milta hai. Un sabhi filmaronko
salaam jo deshke prati gambheer hai !

E mere watanke logo jara aankhmein bharlo paani
jo saheed hue hain unki jara yaad karo qurbani

Shailedra iske rachanakar the, Kokil kanthika
Latake swormein yeh rastriya geet sunte hi
aankh bhar aati hai , halaanki yeh ek bharatiye
sahityakarki kalamse likha hua aur bharatiye
gaika ne gai hui hai lekin main sub bharatiyonko
yaad diladoon ke Nepal aur bharat ki dosti aajki
nahin, sadiyon puraani dosti hai hamari, aur wohanke
culture aur yehanki culture mein kuchh bhi bhinnata
nahin hai. Nepalke pragati path par bharatka sada
haath raha hai.

mere deshki dharti sona ugle, ugle heere moti
mere deshki dharti

kar chale hum fida jano tan saathiyo
ab tumhare hawale watan saathiyo

hai preet jahanki reet sada
main geet wohanke gata hoon
bharatka rehnewala hoon
bharatki baat soonata hoon

honthonpe sachhai rehti hai, jahan dilmein safai rehti hai
hum us deshke waasi hai , jis desh mein ganga behti hai

aise kai rastriye bhawanase oot prot geet jis kisine bhi
likha ho un haathonko pranaam, in geetonke madhyamse
kitanonke dilmein desh bhakti bhawanayen aaye honge !
hona bhi chahiye, jis deshki mittimein janm liye ho us
mittiki sada pooja karni chahiye, deshne kya diya hai
yeh sochnese behatar yehi hoga ke tum deshke liye
kya kar sakate ho aur kya doge , yeh sada hi sochana
chahiye.

Swatantrata divas (15th. August) ke awsar par
meri tarafse bahut bahut shubhakamanayen hindyunke Sanjeev Sarathieji
aur 100 karod bharatiyonko bhi

Dhanyavad !
Aapka apna
Gyani Raja Manandhar
Kathmandu
Nepal
Manish Kumar said…
Sundar sankaln aur prastuti
Manju Gupta said…
दिशा जी को सुंदर प्रस्तुती
के लिए बधाई .जोश से भरे गीतों ने समां बांध दिया .मेरे उदगार हैं -उल्लास से मनाएं हम होकर मदमस्त /आया है पर्व १५ अगस्त .
Anonymous said…
Re. 09/08/09
Please do correct the writer of the national song " E mere watanke logo, jara aankhmein bharlo paani"
Kavi Pradeep instead of Shailendra.
Thanks ! Gyani Raja Manandhar
grmanandhar@yahoo.com
Nepal
Playback said…
bahut hi sundar prastuti. Disha ji ko dheron badhaai....
Shamikh Faraz said…
गीत बहुत शानदार हैं. इस रविवार की सुबह यादगार बन गई.

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