जब सोनू निगम ने जलाए गीतों के दीप एल पी के लिए
हिन्दी फ़िल्म संगीत के सबसे सफलतम संगीत जोड़ी के लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल का एक साधारण स्तर से उठ कर इतने बड़े मुकाम तक पहुँचने की दास्तान भी कम दिलचस्प नही है. दोनों लगभग १०-१२ साल के रहे होंगे जब मंगेशकर परिवार द्वारा बच्चों के लिए चलाये जाने वाले संगीत संस्थान, सुरील कला केन्द्र में वो पहली बार एक दूसरे के करीब आए (हालांकि वो एक स्टूडियो में पहले भी मिल चुके थे). दरअसल लक्ष्मीकांत को एक कंसर्ट में मँडोलिन बजाते देख प्रभावित हुई लता दी ने ही उन्हें इस संस्था में दाखिल करवाया था. वहीँ प्यारेलाल ने अपने गुरु पंडित राम प्रसाद शर्मा से trumpet और गोवा के अन्थोनी गोंसाल्विस (जी हाँ ये वही हैं जिनके लिए उन्होंने फ़िल्म अमर अकबर एंथोनी का वो यादगार गीत समर्पित किया था) से वोयालिन बजाना सीखा वो भी मात्र ८ साल की उम्र में. वोयालिन के लिए उनका जनून इस हद तक था कि वो दिन में ८ से १२ घंटे इसका रियाज़ करते थे. दोनों बहुत जल्दी दोस्त बन गए दोनों का जनून संगीत था और दोनों के पारिवारिक और वित्तीय हालात भी लगभग एक जैसे थे. लता जी ने उन्हें नौशाद साहब, एस डी बर्मन, और सी रामचंद्र जैसे संगीतकारों के लिए बजाने का काम दिलवा दिया. दोनों घंटों साथ स्टूडियो में समय बिताते, एक दूसरे के लिए काम की तलाश करते, और यदि मौका लगे तो एक साथ बजाते. उनके मित्रों में अब जुबिन मेहता, शिव कुमार शर्मा और हरी प्रसाद चौरसिया भी थे. प्यारेलाल ने जुबिन के साथ विदेश पलायन करने का मन बना लिया. पर दोस्ती ने उन्हें भारत में ही रोक लिया. उन्होंने लक्ष्मीकांत के साथ जोड़ी बनाई और किस्मत ने उन्हें संगीतकार जोड़ी कल्यानजी आनंद जी का सहायक बना दिया.
संघर्ष के इन दिनों में एस डी बर्मन के सुपुत्र आर डी बर्मन से उनकी दोस्ती हुई. वो भी अपने लिए एक बड़े ब्रेक का इंतज़ार कर रहे थे. आर डी को जब पहली फ़िल्म मिली "छोटे नवाब" तो उन्होंने संगीत संयोजन का काम सौंपा एल पी को. इससे पहले एल पी ने एस डी फ़िल्म "जिद्दी" का भी संगीत संयोजन किया था. कहते हैं एस डी ने परखने के लिए इस फ़िल्म के एक गीत का अंतरा एल पी और आर डी को अलग अलग दिया बनाने के लिए और अंत में उन्होंने वही मुखडा फ़िल्म में रखा जो एल पी ने बनाया था. इस बीच एक बी ग्रेड फ़िल्म मिली जो प्रर्दशित नही हो पायी. ५०० धुनों का खजाना था एल पी के पास जब उन्हें उनकी पहली प्रर्दशित नॉन स्टारर फ़िल्म "पारसमणि" मिली. आर डी ने उन्हें हिदायत दी कि इस फ़िल्म को न करें, ये उनके कैरिअर को बुरी शुरआत दे सकता है, पर एल पी हाथ आए इस सुनहरे मौके को नही छोड़ना चाहते थे. आज भी इस फ़िल्म को सिर्फ़ और सिर्फ़ उसके सुपर हिट संगीत के लिए याद किया जाता है. लता और कमल बारोट का गाया "हँसता हुआ नूरानी चेहरा", रफी साहब का गाया "सलामत रहो" और "वो जब याद आए" जैसे गीतों ने धूम मचा दी. अगली बड़ी फ़िल्म थी राजश्री की "दोस्ती". इंडस्ट्री के सभी बड़े संगीतकारों ने इस नए बिल्कुल अनजान कलाकारों को लेकर बनाई जाने वाली फ़िल्म को ठुकरा दिया तो फ़िल्म एल पी की झोली में गिरी. गीतकार थे मजरूह सुल्तानपुरी. फ़िल्म का एक एक गीत एक शाहकार बना. फ़िल्म ने ८ फ़िल्म फेयर और सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का रास्ट्रीय पुरस्कार जीता. कौन भूल सकता है - "जाने वालों जरा", "चाहूँगा मैं तुझे" और "राही मनवा" जैसे अमर गीत.
प्रसाद प्रोडक्शन की फ़िल्म "मिलन" के लिए जब मुकेश की आवाज़ में "मैं तो दीवाना" रिकॉर्ड हुआ निर्देशक कुछ ख़ास प्रभावित नही लगे. पर जब अगला गाना "सवान का महीना" रिकॉर्ड हुआ तो जैसे स्टूडियो में बहार आ गयी. इस गीत के गीतकार आनंद बख्शी बताते हैं कि जब वो एक रेल यात्रा के दौरान किसी स्टेशन पर उतरे और वहां उन्होंने एक बेहद गरीब और साधारण से रिक्शा चालक को ये गीत गुनगुनाते हुए सुना तो उन्हें समझ आ गया कि उनका काम सार्थक हुआ है. लक्ष्मी प्यारे अब घर घर में पहचाने जाने लगे थे. यहीं से उन्हें मिला गीतकार आनंद बख्शी साहब का साथ. जो लगभग 250फिल्मों का रहा. हिन्दी फ़िल्म संगीत में गीतकार संगीतकार की ये सबसे सफल जोड़ी है अब तक.
व्यवसायिक रूप से आमने सामने होकर भी आर डी और उनकी दोस्ती में खलल नही पड़ा. फ़िल्म "दोस्ती" में जहाँ आर डी ने उनके लिए "माउथ ओरगन" बजाया तो लक्ष्मीकांत ने आर डी की फ़िल्म "तेरी कसम" के गीत "दिल की बात" में बतौर संगीतकार अतिथि रोल किया.पर बाद में जब फ़िल्म "देशप्रेमी" के लिए आर डी से गाने की गुजारिश की एल पी ने तो आर डी ने कुछ मजबूरियों के चलते मना कर दिया, ये गीत तब लक्ष्मीकांत के ख़ुद गाया अपनी आवाज़ में. पर तमाम व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के चलते भी दोनों महान संगीतकारों के रिश्ते अन्तिम समय तक भी दोस्ताना रहे.२५-०५-१९९८ को जोडीदार लक्ष्मीकांत को खोने के बाद प्यारेलाल ने थोड़ा बहुत काम ज़रूर किया पर फ़िर बहुत अधिक सक्रिय नही रह पाये. प्यारेलाल जी ने एक ख़ास इंटरव्यू में बहुत सी नई बातों का खुलासा किया. ये इंटरव्यू हम आपके लिए लेकर आयेंगें इस शृंखला की अन्तिम कड़ी में. फिलहाल देखिये इस विडियो में,आज के सबसे सफल गायक सोनू निगम द्वारा संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को दिया गया ये संगीत भरा तोहफा.
हिन्दी फ़िल्म संगीत के सबसे सफलतम संगीत जोड़ी के लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल का एक साधारण स्तर से उठ कर इतने बड़े मुकाम तक पहुँचने की दास्तान भी कम दिलचस्प नही है. दोनों लगभग १०-१२ साल के रहे होंगे जब मंगेशकर परिवार द्वारा बच्चों के लिए चलाये जाने वाले संगीत संस्थान, सुरील कला केन्द्र में वो पहली बार एक दूसरे के करीब आए (हालांकि वो एक स्टूडियो में पहले भी मिल चुके थे). दरअसल लक्ष्मीकांत को एक कंसर्ट में मँडोलिन बजाते देख प्रभावित हुई लता दी ने ही उन्हें इस संस्था में दाखिल करवाया था. वहीँ प्यारेलाल ने अपने गुरु पंडित राम प्रसाद शर्मा से trumpet और गोवा के अन्थोनी गोंसाल्विस (जी हाँ ये वही हैं जिनके लिए उन्होंने फ़िल्म अमर अकबर एंथोनी का वो यादगार गीत समर्पित किया था) से वोयालिन बजाना सीखा वो भी मात्र ८ साल की उम्र में. वोयालिन के लिए उनका जनून इस हद तक था कि वो दिन में ८ से १२ घंटे इसका रियाज़ करते थे. दोनों बहुत जल्दी दोस्त बन गए दोनों का जनून संगीत था और दोनों के पारिवारिक और वित्तीय हालात भी लगभग एक जैसे थे. लता जी ने उन्हें नौशाद साहब, एस डी बर्मन, और सी रामचंद्र जैसे संगीतकारों के लिए बजाने का काम दिलवा दिया. दोनों घंटों साथ स्टूडियो में समय बिताते, एक दूसरे के लिए काम की तलाश करते, और यदि मौका लगे तो एक साथ बजाते. उनके मित्रों में अब जुबिन मेहता, शिव कुमार शर्मा और हरी प्रसाद चौरसिया भी थे. प्यारेलाल ने जुबिन के साथ विदेश पलायन करने का मन बना लिया. पर दोस्ती ने उन्हें भारत में ही रोक लिया. उन्होंने लक्ष्मीकांत के साथ जोड़ी बनाई और किस्मत ने उन्हें संगीतकार जोड़ी कल्यानजी आनंद जी का सहायक बना दिया.
संघर्ष के इन दिनों में एस डी बर्मन के सुपुत्र आर डी बर्मन से उनकी दोस्ती हुई. वो भी अपने लिए एक बड़े ब्रेक का इंतज़ार कर रहे थे. आर डी को जब पहली फ़िल्म मिली "छोटे नवाब" तो उन्होंने संगीत संयोजन का काम सौंपा एल पी को. इससे पहले एल पी ने एस डी फ़िल्म "जिद्दी" का भी संगीत संयोजन किया था. कहते हैं एस डी ने परखने के लिए इस फ़िल्म के एक गीत का अंतरा एल पी और आर डी को अलग अलग दिया बनाने के लिए और अंत में उन्होंने वही मुखडा फ़िल्म में रखा जो एल पी ने बनाया था. इस बीच एक बी ग्रेड फ़िल्म मिली जो प्रर्दशित नही हो पायी. ५०० धुनों का खजाना था एल पी के पास जब उन्हें उनकी पहली प्रर्दशित नॉन स्टारर फ़िल्म "पारसमणि" मिली. आर डी ने उन्हें हिदायत दी कि इस फ़िल्म को न करें, ये उनके कैरिअर को बुरी शुरआत दे सकता है, पर एल पी हाथ आए इस सुनहरे मौके को नही छोड़ना चाहते थे. आज भी इस फ़िल्म को सिर्फ़ और सिर्फ़ उसके सुपर हिट संगीत के लिए याद किया जाता है. लता और कमल बारोट का गाया "हँसता हुआ नूरानी चेहरा", रफी साहब का गाया "सलामत रहो" और "वो जब याद आए" जैसे गीतों ने धूम मचा दी. अगली बड़ी फ़िल्म थी राजश्री की "दोस्ती". इंडस्ट्री के सभी बड़े संगीतकारों ने इस नए बिल्कुल अनजान कलाकारों को लेकर बनाई जाने वाली फ़िल्म को ठुकरा दिया तो फ़िल्म एल पी की झोली में गिरी. गीतकार थे मजरूह सुल्तानपुरी. फ़िल्म का एक एक गीत एक शाहकार बना. फ़िल्म ने ८ फ़िल्म फेयर और सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का रास्ट्रीय पुरस्कार जीता. कौन भूल सकता है - "जाने वालों जरा", "चाहूँगा मैं तुझे" और "राही मनवा" जैसे अमर गीत.
प्रसाद प्रोडक्शन की फ़िल्म "मिलन" के लिए जब मुकेश की आवाज़ में "मैं तो दीवाना" रिकॉर्ड हुआ निर्देशक कुछ ख़ास प्रभावित नही लगे. पर जब अगला गाना "सवान का महीना" रिकॉर्ड हुआ तो जैसे स्टूडियो में बहार आ गयी. इस गीत के गीतकार आनंद बख्शी बताते हैं कि जब वो एक रेल यात्रा के दौरान किसी स्टेशन पर उतरे और वहां उन्होंने एक बेहद गरीब और साधारण से रिक्शा चालक को ये गीत गुनगुनाते हुए सुना तो उन्हें समझ आ गया कि उनका काम सार्थक हुआ है. लक्ष्मी प्यारे अब घर घर में पहचाने जाने लगे थे. यहीं से उन्हें मिला गीतकार आनंद बख्शी साहब का साथ. जो लगभग 250फिल्मों का रहा. हिन्दी फ़िल्म संगीत में गीतकार संगीतकार की ये सबसे सफल जोड़ी है अब तक.
व्यवसायिक रूप से आमने सामने होकर भी आर डी और उनकी दोस्ती में खलल नही पड़ा. फ़िल्म "दोस्ती" में जहाँ आर डी ने उनके लिए "माउथ ओरगन" बजाया तो लक्ष्मीकांत ने आर डी की फ़िल्म "तेरी कसम" के गीत "दिल की बात" में बतौर संगीतकार अतिथि रोल किया.पर बाद में जब फ़िल्म "देशप्रेमी" के लिए आर डी से गाने की गुजारिश की एल पी ने तो आर डी ने कुछ मजबूरियों के चलते मना कर दिया, ये गीत तब लक्ष्मीकांत के ख़ुद गाया अपनी आवाज़ में. पर तमाम व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के चलते भी दोनों महान संगीतकारों के रिश्ते अन्तिम समय तक भी दोस्ताना रहे.२५-०५-१९९८ को जोडीदार लक्ष्मीकांत को खोने के बाद प्यारेलाल ने थोड़ा बहुत काम ज़रूर किया पर फ़िर बहुत अधिक सक्रिय नही रह पाये. प्यारेलाल जी ने एक ख़ास इंटरव्यू में बहुत सी नई बातों का खुलासा किया. ये इंटरव्यू हम आपके लिए लेकर आयेंगें इस शृंखला की अन्तिम कड़ी में. फिलहाल देखिये इस विडियो में,आज के सबसे सफल गायक सोनू निगम द्वारा संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को दिया गया ये संगीत भरा तोहफा.
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