बात होती है सदी के नायक की, नायिका की, पर अगर हम बात करें बीती सदी के सबसे सफलतम संगीतकार की, तो बिना शक जो नाम जेहन में आता है वो है - संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का. १९६३ में फ़िल्म "पारसमणी" से शुरू हुआ संगीत सफर बिना रुके चला अगले चार दशकों तक. बदलते समय के साथ ख़ुद को बदलकर हर पीढी के मिजाज़ को ध्यान में रख ये संगीत के महारथी चलते रहे अनथक और लिखते रहे निरंतर कमियाबी की नयी इबारतें. पल पल रंग बदलती, हर नए शुक्रवार नए रूप में ढलती फ़िल्म इंडस्ट्री में इतने लंबे समय तक चोटी पर अपनी जगह बनाये रखने की ये मिसाल लगभग असंभव सी ही प्रतीत होती है. और किस संगीतकार की झोली में आपको मिलेंगी इतनी विविधता. शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत, लोक गीतों में ढले ठेठ भारतीय गीत, पाश्चात्य संगीत में बसे गीत, भजन, मुजरा, डिस्को -जैसा मूड वैसा संगीत, और वो भी सरल, सुमधुर, "कैची" और "क्लास".परफेक्शन ऐसा कि कोई ढूंढें भी तो कोई कमी न मिले. आम आदमी की जुबान पर तो उनके गीत यूँ चढ़ जाते थे जैसे बस उन्हीं के मन की धुन हो कोई. मेलोडी ही उनके गीतों की आत्मा रही. सहज धुन में सरल सी बात और संयोजन (जो अमूमन प्यारेलाल जी का होता था) सौ प्रतिशत बेजोड़.
३७ सालों तक उनका नाम रजत पटल पर इस शान से आता था जैसे उनका संगीत ही फ़िल्म का तुरुप का इक्का हो, कभी कभी तो फ़िल्म के निर्माता नायक नायिका से बढ़कर इस बात का प्रचार करते थे कि फ़िल्म में संगीत एल पी का है. वो एक ऐसा नाम थे जो सफलता की गैरंटी का काम करते थे. तभी तो हर नए पुराने निर्माता निर्देशकों की वो पहली पसंद हुआ करते थे. शायद ही कोई ऐसा बड़ा बैनर हो फ़िल्म जगत में जिनके साथ उनका रिश्ता न जुडा हो. राजश्री फ़िल्म, राज खोंसला, राज कपूर, सुभाष घई, जे ओम् प्रकाश, मनमोहन देसाई, मोहन कुमार, मनोज कुमार आदि केवल कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनके साथ एल पी का बेहद लंबा और बेहद कामियाब रिश्ता रहा है. अब ज़रा इस सूची में शामिल निर्देशकों की फिल्मों पर एक नज़र डालते हैं -
राज खोंसला ने एस डी, ओ पी नय्यर और रवि के साथ काम करने के बाद फ़िल्म "अनीता" में पहले बार एल पी को आजमाया. सामाजिक विषयों पर फ़िल्म बनाने वाले राज ने "मेरा गाँव मेरा देश", "मैं तुलसी तेरे आंगन की", "दो रास्ते" और "दोस्ताना" जैसी फिल्में बनायीं जिनके लिए एल पी तुम बिन जीवन, सोना ले जा रे, हाय शरमाऊं, ये रेशमी जुल्फें, बिंदिया चमकेगी, दिल्लगी ने दी हवा, जैसे सरल और मिटटी से जुड़े गीत दिए. राज खोंसला ने एक बार एक सभा में कहा था कि यदि आपके पास एल पी है तो आपको और कुछ नही चाहिए. सदी के सबसे बड़े शो मैन कहे जाने वाले राज कपूर ने शंकर जयकिशन के साथ बहुत लंबा सफर तय किया. पर एक समय ऐसा भी आया जब राज साहब की महत्वकांक्षी फ़िल्म "मेरा नाम जोकर" की असफलता के बाद पहली बार राज साहब अपनी नई फ़िल्म "बॉबी" को लेकर शंकित थे. फ़िल्म नई पीढी को टारगेट कर बनाई जानी थी तो संगीत में भी उस समय का "फील" मिलना चाहिए था. राज साहब ने चुनाव किया एल पी का, जो उनका सबसे बढ़िया निर्णय साबित हुआ. फ़िल्म का एक एक गीत श्रोताओं के दिलो जहेन पर छा गया. ज़रा गौर फरमायें फ़िल्म इन गीतों में बसे मुक्तलिफ़ रंगों की. एक ही फ़िल्म में बुल्ले शाह का सूफी अंदाज़ "मैं नई बोलना", मस्ती भरा शोख "हम तुम एक कमरे में बंद हो", युवाओं की बोलचाल वाला "मुझे कुछ कहना है", गोवा के संगीत का जायका "गे गे गे साहिबा", पहली मोहब्बत का पहला सरूर "मै शायर तो नही" और टूटे दिल की दर्द भरी सदा "अखियों को रहने दे". क्या नही दिया उस फ़िल्म में एल पी ने. राज साहब के साथ फ़िर आई "सत्यम शिवम् सुन्दरम" और "प्रेम रोग" दोनों ही बेहद अलग कैनवस की फ़िल्म थी और देखिये वहां भी बाज़ी मार गए एल पी हर बार की तरह.
फ़िल्म "दोस्ती" से शुरू हुआ राजश्री फिल्म्स के साथ उनका सफर ८ सालों तक चला. कुछ लोग मानते हैं कि इस बैनर के साथ एल पी हमेशा अपना "सर्वश्रेष्ट" काम दिया. जे ओम् प्रकाश की रोमांटिक फिल्मों के लिए उन्होंने ऐसा समां बांधा कि आज भी संगीत प्रेमी उन फिल्मों में लता रफी के गाये दोगानों के असर से मुक्त नही हो पाये. मनोज कुमार की देशभक्ति और भावनाओं से ओत प्रेत फिल्मों (शोर, रोटी कपड़ा और मकान, और क्रांति) के लिए एल पी ने एक प्यार का नग्मा, पानी रे पानी, महंगाई मार गई, जिन्दगी की न टूटे लड़ी जैसे आम आदमी के मन को छूने वाले गीत दिए. तो वहीँ सुभाष घई की फिल्में जो बहुत बड़े स्तर पर निर्मित होती थी और जहाँ संगीत में मेलोडी की गुंजाईश बहुत होती थी वहां भी एल पी अपना भरपूर जलवा दिखाया. "हीरो", "मेरी ज़ंग", और "खलनायक" में उनका फॉर्म जबरदस्त रहा तो वहीँ "क़र्ज़" में घई को आर डी के फ्लेवर का संगीत चाहिए था और उन्हें शक था कि क्या एल पी एक पॉप सिंगर के जीवन पर आधारित इस विषय में जहाँ संगीत का सबसे अहम् रोल था, न्याय कर पायेंगें या नही. पर एल पी सारे कयासों को एक तरफ़ कर "ओम् शान्ति ओम्", "पैसा ये पैसा", जैसे थिरकते गीत दिए तो रफी साहब के गाये "दर्दे दिल" के साथ पहली बार उन्होंने ग़ज़ल को पाश्चात्य फॉर्म में ढाल कर दुनिया के सामने रखा. "एक हसीना थी..." (ख़ास तौर पर वो गीटार का पीस)को क्या कोई संगीत प्रेमी कभी भूल सकता है. इस मूल गीत को आज भी सुनें तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं. (किशोर दा को भी सलाम).
फार्मूला फिल्मों के शिल्पी मनमोहन देसाई की नाटकीय फिल्मों में भी एल पी का संगीत पूरे शबाब पर दिखा. तो मोहन कुमार की फिल्में तो कह सकते हैं कि उनके संगीत के बल पर ही आज तक याद की जाती हैं. इसके अलावा भी एल पी ने महेश भट्ट, रामानंद सागर, यश चोपडा, बी आर चोपडा, फिरोज खान, जे पी दत्ता, जैसे निर्देशकों के साथ भी लाजावाब काम किया. दक्षिण के निर्देशकों की भी वही पहली पसंद रहे हमेशा. एल वी प्रसाद से लेकर टी रामाराओ तक जिस किसी ने भी उनका साथ थामा वो उन्ही के होके रह गए...ऐसा कौन सा जादू था एल पी के संगीत में, ये हम आपको बताएँगे इस शृंखला की अगली कड़ी में. फिलहाल आपको छोड़ते हैं इन यादगार नग्मों की बाँहों में.
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