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तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले...मिर्जा ग़ालिब / शिशिर पारखी

एहतराम - अजीम शायरों को सलाम ( अंक -06 )

आज शिशिर परखी साहब एहतराम कर रहे है उस्तादों के उस्ताद शायर मिर्जा ग़ालिब का, पेश है ग़ालिब का कलाम शिशिर जी की जादूभरी आवाज़ में -

तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
हूराँ-ए-ख़ुल्द में तेरी सूरत मगर मिले

अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यों तेरा घर मिले

साक़ी गरी की शर्म करो आज वर्ना हम
हर शब पिया ही करते हैं मेय जिस क़दर मिले

तुम को भी हम दिखाये के मजनूँ ने क्या किया
फ़ुर्सत कशाकश-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ से गर मिले

लाज़िम नहीं के ख़िज्र की हम पैरवी करें
माना के एक बुज़ुर्ग हमें हम सफ़र मिले

आए साकनान-ए-कुचा-ए-दिलदार देखना
तुम को कहीं जो ग़लिब-ए-आशुफ़्ता सर मिले

तस्कीं : Consolation, ज़ौक़ _ Taste, हूराँ - Fairy, ख़ुल्द - Paradise
ख़ल्क़ - People, पिन्हाँ - Secret, साकनान - Inhabitants, Steady
कुचा - Narrow lane, आशुफ़्ता सर - Uneasy, Restless.



सदी के सबसे महान शायर का एक संक्षिप्त परिचय -

पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या

मिर्जा असद्दुल्लाह खान जिन्हें सारी दुनिया मिर्जा 'ग़ालिब' के नाम से जानती है का जन्म आगरा में 27 दिसम्बर 1797 को आगरा में हुआ. उनके दादा मिर्जा कोकब खान समरकंद से हिन्दुस्तान आए और लाहौर में मुइनउल मुल्क के यहाँ नौकर लग गए. उनके बड़े बेटे अब्दुल्लाह बेग से मिर्जा गालिब हुए. अब्दुल्लाह बेग नवाब आसिफ उद्दौला की फौज में शामिल हुए और फ़िर हैदराबाद से होते हुए अलवर के राजा बख्तावर सिंह के यहाँ लग गए. पर जब मिर्जा गालिब महज़ 5 वर्ष के थे तब एक लड़ाई में शहीद हो गए. मिर्जा गालिब को तब उनके चचा जान नस्रउल्लाह बेग खान ने संभाला पर गालिब के बचपन में अभी और दुःख शामिल होने थे. जब वे 9 साल के थे तब चचा जान भी चल बसे. जब मिर्जा 13 वर्ष के थे तब उनका निकाह हुआ, सात बच्चे भी हुए पर अफ़सोस की एक के बाद एक उन पर बिजली गिरती चली गई. सातों बच्चे जाते रहे. मिर्जा की निजी जिंदगी सचमुच दर्द की एक लम्बी दास्ताँ थी. तभी तो लिखा उन्होंने -

दिल ही तो है न संगो-खिश्त, दर्द से भर न आए क्यों,
रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों.


मिर्जा ने दिल्ली में 'असद' नाम से शायरी शुरू की. ‘ग़ालिब’ से पहले उर्दू शायरी में भाव-भावनाएं तो थीं, भाषा तथा शैली के ‘चमत्कार ‘गुलो-बुलबुल’, ‘जुल्फ़ो-कमर’ (माशूक़ के केश और कमर) ‘मीना-ओ-जाम’ (शराब की सुराही और प्याला) के वर्णन तक सीमित थे। बहुत हुआ तो किसी ने तसव्वुफ़ (सूफ़ीवाद) का सहारा लेकर संसार की असारता एवं नश्वरता पर दो-चार आँसू बहा दिए और निराशावाद के बिल में दुबक गया। इसे समय में ‘ग़ालिब’ ने

दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सदकामे-नहंग।
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक ?

और
है परे सरहदे-इदराक से अपना मसजूद।
क़िबला को अहले-नज़र क़िबलानुमा कहते हैं।।

की बुलंदी से ग़ज़लगो शायरों को, और :

बक़द्रे-शौक़ नहीं ज़र्फे-तंगनाए ग़ज़ल।
कुछ और चाहिए वुसअ़त मेरे बयां के लिए।।

की बुलंदी से नाजुकमिज़ाज ग़ज़ल को ललकारा तो नींद के मातों और माशूक़ की कमर की तलाश करने वालों ने चौंककर इस उद्दण्ड नवागान्तुक की ओर देखा। कौन है यह ? यह किस संसार की बातें करता है ? फब्तियां कसी गईं। मुशायरों में मज़ाक उड़ाया गया। किसी ने उन्हें मुश्किल-पसंद (जटिल भाषा लिखने वाला) कहा, तो किसी ने मोह-मल-गो (अर्थहीन शे’र कहने वाला) और किसी ने तो सिरे से सौदाई ही कह डाला। लेकिन, जैसा कि होना चाहिए था, ‘ग़ालिब’ इन समस्त विरोधों और निन्दाओं को सहन करते रहे-हंस-हंसकर.

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे।
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और।।

उनकी पुश्तैनी जागीरें ज़ब्त कर ली गई थी. वे पेंशन पाने के लिए सरकारी दरवाजों पर भटकने लगे. उनकी खोई हुई जागीर के बदले उनके और रिश्तेदारों के लिए दस हज़ार रुपये सालाना जागीर तय हुई पर असल में मिली सिर्फ़ तीन हज़ार, जिस में से उनका हिस्सा सात सौ रूपए सालाना था. उन्होंने शिकायत की तो रेसिडेंट बहादुर बर्खास्त हुए पर रकम में कुछ इजाफा न हुआ. दिल्ली के बादशाह ने पचास रूपए महीना वजीफा बाँधा पर इस फैसले के दो साल बाद उस के उत्तराधिकारी चल बसे. अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने पाँच सौ रूपए सालाना मुक़र्रर किए पर दो साल बाद वह भी नहीं रहा.

क़र्ज की पीते थे मैं और समझते थे कि हाँ।
रंग लायेगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन।।

पर अमल करते हुए चालीस-पचास हज़ार के ऋणी हो गए; और एक दीवानी मुक़दमे के सिलसिले में जब उनके विरुद्ध 5000 रुपये की डिगरी हो गई, तो उनका घर से बाहर कदम रखना असम्भव हो गया। (उन दिनों यह नियम था कि यदि ऋणी कोई सम्मानित व्यक्ति हो तो डिगरी की रक़म अदा न करने की हालत में उसे केवल उस समय गिरफ़्तार किया जा सकता था जब वह अपने घर की चारदीवारी से बाहर हो।) यह इन्हीं और भावी विपत्तियों की ही देन थी कि उनके क़लम से :

रंज से ख़ूगर * हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज।
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं।।

* ख़ूगर- अभ्यस्त

गालिब ने 1857 का ग़दर भी आंखों से देखा और हर किस्म की राजनैतिक हलचल भी. शायरों में पूरी दुनिया में शायद उनका कोई सानी नहीं. गालिब फारसी बोली के विद्वान् थे इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा फारसी में लिखा. बहुत नगण्य सा उर्दू में लिखा जो आज उर्दू शायरी की एक अनमोल विरासत है. गालिब की कुछ लोकप्रिय ग़ज़लों का आनंद लें -

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया है मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।

होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे।

मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।

ईमान मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे।

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे।

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल = Children’s Playground
शब-ओ-रोज़ = Night and Day
निहाँ = निहान = Hidden, Buried, Latent
जबीं = जबीन = Brow, Forehead
कुफ़्र = Infidelity, Profanity, Impiety
कलीसा = Church
जुम्बिश = Movement, Vibration
सागर = Wine Goblet, Ocean, Wine-Glass, Wine-Cup
मीना = Wine Decanter, कंटेनर

( २ )

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है।

हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है।

जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है।

जान तुम पर निसार करता हूँ
मैंने नहीं जानता दुआ क्या है।

मुश्ताक़ = Eager, Ardent
बेज़ार = Angry, Disgusted

( ३ )

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है?
तुम ही कहो कि ये अंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू क्या है?

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है?

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है?

रही ना ताक़त-ए-गुफ़्तार और हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है?

ग़ुफ़्तगू = Conversation
अंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू = Style of Conversation
पैराहन = Shirt, Robe, Clothe
हाजत-ए-रफ़ू = Need of mending (हाजत = Need)
गुफ़्तार = Conversation
ताक़त-ए-गुफ़्तार = Strength for Conversation


और रचनाएँ आप यहाँ पढ़ सकते हैं

सन 1879 में गालिब का इंतकाल हुआ और उनकी मजार दिल्ली में हज़रात निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास है.

हाज़िर जवाब ग़ालिब साहब कुछ रोचक किस्से -

पुल्लिंग या स्त्रीलिंग
शब्दों को लेकर मिर्ज़ा ग़ालिब के कई लतीफ़ा प्रसिद्ध हैं । उनमें से एक प्रस्तुत है । दिल्ली में ‘रथ’ को कुछ लोग स्त्रीलिंग और कुछ लोग पुल्लिंग मानते थे । किसी ने मिर्ज़ा से एक बार पूछा कि “हज़रत रथ मोअन्नस (स्त्रीलिंग) है या मुज़क्कर (पुल्लिंग) है?” मिर्ज़ा तपाक से बोले- “भैया, जब रथ में औरतें बैठी हो तो उसे मोअन्नस कहो और जब मर्द बैठे हों तो मुज़क्कर समझो ।”

आधा मुसलमान हूँ
अपनी हाज़िरजवाबी और विनोदवृत्ति के कारण मिर्ज़ा जहाँ कई बार कठिनाईयों में फँस जाते थे वहीं कई बार बड़ी-बड़ी मुसीबतों से बच निकलते थे ।ग़दर के दिनों की बात है । उन दिनों का माहौल ऐसा था कि अँगरेज़ सभी मुसलमानों को शक की नज़र से देखते थे । दिल्ली लगभग मुसलमानों से खाली हो गयी थी । पर ग़ालिब थे कि वहीँ चुपचाप अपने घर में पड़े रहे । आखिर एक दिन कुछ गोरे सिपाही उन्हें भी पकड़कर कर्नल ब्राउन के पास ले गये । जब ग़ालिब को कर्नल के सम्मुख उपस्थित किया गया मिर्ज़ा के सिर पर ऊँची टोपी थी । वेशभूषा भी अजब थी । कर्नल ने मिर्ज़ा की यह सजधज देखी तो पूछा- “वेल टुम मुसलमान ?”
मिर्ज़ा ने कहा- “आधा ।”
कर्नल से पूछा- “इसका क्या मटलब है ?”
मिर्ज़ा बोले- “मतलब साफ है, शराब पीता हूँ, सुअर नहीं खाता ।“
कर्नल सुनकर हँसने लगा और हँसते-हँसते मिर्ज़ा को घर लौटने की इजाजत दे दी ।

तुम सौदाई हो
बात एक गोष्ठी की है । मिर्ज़ा ग़ालिब मशहूर शायर मीर तक़ी मीर की तारीफ़ में कसीदे गढ़ रहे थे । शेख इब्राहीम ‘जौक’ भी वहीं मौज़ूद थे । ज़ौक की मिर्ज़ा से कुछ ठस रहती थी । ग़ालिब जो भी कहते वे उसे काटने की फ़िराक में रहते थे । अक्सर दोनों में छेड़छाड़ चलती रहती थी । ग़ालिब द्वारा मीर की तारीफ़ सुनकर वे बैचेन हो उठे । उन्होंने सौदा नामक शायर को श्रेष्ठ बताने लगे । मिर्ज़ा ने झट से चोट की- “ मैं तो तुमको मीरी* समझता था मगर अब जाकर मालूम हुआ कि आप तो सौदाई* हैं ।”

* मीरी और सौदाई दोनों में श्लेष है । मीरी का मायने मीर का समर्थक होता है और नेता या आगे चलने वाला भी । इसी तरह सौदाई का पहला अर्थ है सौदा या अनुयायी, दूसरा है- पागल ।

ख़ुदा या आप
बात उन दिनों की है जब रामपुर के नवाब यूसुफ़ अली खाँ का इंतकाल हो चुका था और नये नवाब क़लब अली खाँ गद्दी पर बैठ चुके थे । मियां मिर्ज़ा मातमपुर्सी और नये नवाब के प्रति आदर प्रकट करने के लिए रामपुर जा पहुँचे । उस दिन कलब अली लेफ्टिनेंट गवर्नर से मिलने बरेली जा रहे थे । रवानगी के वक़्त, परंपरा का ख़याल करते हुए मिर्ज़ा से उन्होंने कहा- “ख़ुदा के सुपुर्द ।”
मिर्ज़ा झट बोल उठे- “हजरत ! ख़ुदा ने तो मुझे आपके सुपुर्द किया है । आप फिर उलटा मुझको ख़ुदा के सुपुर्द करते हैं ” सारे लोग हँस पड़े ।

बीबी पास
एक बार गालिब के घर कोई उनका प्रशंसक मिलने आया. गालिब साहब अपने शयन कक्ष में सपत्नीक बैठे थे. आगंतुक ने बैठक में बैठे नौकर को अपना 'विजिटिंग-कार्ड' दिया कि गालिब साहब से गुजारिश कीजिये की यह शख्स आपसे मिलने चाहता है. पर फ़िर उस व्यक्ति ने अपना 'विजिटिंग कार्ड' ले कर उस में फाउंटेन पेन से अपने नाम के आगे बी.ए. जोड़ दिया, क्यों कि उस ने कार्ड छपवाने के बाद बी.ए. पास किया था. नौकर आगंतुक का आग्रह देख कर किसी प्रकार गालिब से इजाज़त ले कर अन्दर गया और 'विजिटिंग-कार्ड' दिखाया. थोडी देर बाद नौकर बाहर आया और आगंतुक को उनका कार्ड वापस दे दिया. कार्ड के पीछे गालिब ने एक शेर लिख दिया था:

शेख जी घर से न निकले और यह कहला दिया
आप बी ए पास हैं तो मैं भी बीबी पास हूँ

आलेख प्रस्तुतीकरण सहयोग - प्रेमचंद सहजवाला

Comments

ग़ालिब के जीवन से रूबरू कराने के लिए धन्यवाद.
ग़ज़ल और लतीफे दोनों ही अच्छे है.
shivani said…
शिशिर जी आपकी आवाज़ में गालिब जी की ग़ज़ल सुनी !आपकी आवाज़ बहुत ही अच्छी लगी !मिर्जा गालिब जी से रु-ब्-रु कराने के लिए शुक्रिया !मेरे पास मिर्जा साहिब जी की ये ग़ज़ल नही थी !आपने और प्रेमचंद सहजवाला जी ने उनकी हाजिरजवाबी के किस्से सुना कर लेख और भी रोचक बना दिया !आप दोनों का बहुत बहुत धन्यवाद !
JitenderJamwal said…
shishir is an average singer and needs lot of practice.mixing of the music is also poor.
jitender singh

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