सितम्बर के सिकंदरों की पहली समीक्षा -
समीक्षा (खुशमिजाज़ मिटटी )
सितम्बर माह का पहला गीत आया है सुबोध साठे की आवाज़ में "खुशमिजाज़ मिट्टी"। गीत लिखा है गौरव सोलंकी ने और संगीतकार खुद सुबोध साठे हैं। गीत के बोल अच्छी तरह से पिरोये गये हैं। गीत की शुरुआत जिस तरह से टुकड़ों में होती है, उसी तरह संगीतकार ने मेहनत करके टुकड़ों में ही शुरुआत दी है। धीमी शुरुआत के बावजूद सुबोध साठे के स्वर मजबूती से जमे हुए नज़र आते हैं। वे एक परिपक्व संगीतकार की तरह गीत की "स्पीड" को "मेण्टेन" करते हुए चलते हैं। असल में गीत का दूसरा और तीसरा अन्तरा अधिक प्रभावशाली बन पड़ा है, बनिस्बत पहले अन्तरे के, क्योंकि दूसरा अन्तरा आते-आते गीत अपनी पूरी रवानी पर आ जाता है। ध्वनि और संगीत संयोजन तो बेहतरीन बन पड़ा ही है इसका वीडियो संस्करण भी अच्छा बना है। कुल मिलाकर एक पूर्ण-परिपक्व और बेहतरीन प्रस्तुति है। गीत के लिये 4 अंक (एक अंक काटने की वजह यह कि गीत की शुरुआत और भी बेहतर हो सकती थी), आवाज और गायकी के लिये 5 अंक (गीत की सीमाओं को देखते हुए शानदार प्रयास के लिये), ध्वनि संयोजन और संगीत के लिये 4 अंक और कुल मिलाकर देखा जाये तो प्रस्तुति को 5 में से पूरे 5 अंक देता हूँ। गौरव सोलंकी और सुबोध साठे का भविष्य बेहद उज्जवल नज़र आता है।
कुल अंक १८/२० यानी ९ / १०
===========================
समीक्षा (राहतें सारी...)
सितम्बर माह का दूसरा गीत है "राहतें सारी…" लिखा है मोहिन्दर कुमार ने और गाया तथा संगीतबद्ध किया है नये गायक कृष्ण कुमार ने। परिचय में बताया गया है कि कृष्ण कुमार पिछले 14 सालों से कर्नाटक संगीत की शिक्षा ले रहे हैं, लेकिन यह नहीं पता चला कि उन्होंने अब तक कितने गीतों को संगीतबद्ध किया है। गीत को आवाज़ देना और उसे ध्वनि संयोजन करना और संगीत देना दोनों अलग-अलग विधाऐं हैं, यह ज़रूरी नहीं कि जो अच्छा गायक हो वह अच्छा संगीतकार भी हो, और ठीक इसके उलट भी यही नियम लागू होता है। भारतीय फ़िल्म संगीत में ऐसे अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं, जिसमें गायकों ने संगीतकार बनने की कोशिश की लेकिन जल्दी ही उनकी समझ में आ गया कि यह उनका क्षेत्र नहीं है, और यही कुछ संगीतकारों के साथ भी हुआ है, जो गायक बनना चाहते थे। इस गीत में कृष्ण कुमार लगभग इसी "ऊहापोह" (Dilema) में फ़ँसे हुए दिखते हैं। मोहिन्दर कुमार की कविता तो उम्दा स्तर की है, यहाँ तक कि गायक की आवाज़ भी ठीक-ठाक लगती है, लेकिन सर्वाधिक निराश किया है संगीत संयोजन और ध्वन्यांकन ने। शुरु से आखिर तक गीत एक अस्पष्ट सी "श्रवणबद्धता" (Audibility) में चलता है। संगीत के पीछे आवाज़ बहुत दबी हुई आती है, कृष्ण कुमार चाहते तो संगीत का कम उपयोग करके आवाज़ को (माइक पास लाकर) थोड़ा खुला हुआ कर सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं किया गया और समूचा गीत बेहद अस्पष्ट सा लगा। कृष्ण कुमार अभी बहुत युवा हैं, उनकी संगीत दीक्षा भी चल रही है, उन्हें सिर्फ़ अपने गायकी पर ध्यान देना उचित होगा। कोई अन्य गुणी संगीतकार उनकी आवाज़ का और भी बेहतरीन उपयोग कर सकेगा, क्योंकि शास्त्रीय "बेस" तो उनकी आवाज़ में मौजूद है ही। इस गीत में बोल के लिये 4 अंक, संगीत संयोजन के लिये 2 अंक और आवाज़ और उच्चारण के लिये मैं सिर्फ़ 2 अंक दूँगा,यदि "ओवर-ऑल" अंक दिये जायें तो इस गीत को 5 में से 2 अंक ही देना उचित होगा। आवाज़ और संगीत शिक्षा को देखते हुए कृष्ण कुमार से और भी उम्मीदें हैं, लेकिन इस गीत ने निराश ही किया है।
कुल अंक १०/२० यानी ५ / १०
====================
====================
समीक्षा (ओ मुनिया )
माह का तीसरा गीत है "ओ मुनिया…" गाया और संगीतबद्ध किया है सोरेन ने और लिखा है सजीव ने…
एक प्रोफ़ेशनल गीत कैसा होना चाहिये यह इसका उत्तम उदाहरण है। तेज संगीत, गीत की तेज गति, स्टूडियो में की गई बेहतर रिकॉर्डिंग और स्पष्ट आवाज़ के कारण यह गीत एकदम शानदार बन पड़ा है। गीत के बोल सजीव ने उम्दा लिखे हैं जिसमें "मुनिया" को आधुनिक ज़माने की नसीहत है ही, साथ में उसके प्रति "केयर" और "आत्मीय प्यार" भी गीत में छलकता है। साईट पर गीत के लिये प्रस्तुत ग्राफ़िक में बम विस्फ़ोट में घायल हुए व्यक्ति और विलाप करती हुई माँ की तस्वीर दिखाई देती है, इसकी कोई आवश्यकता नहीं नज़र आती। यह चित्र इस गीत की मूल भावना से मेल नहीं खाते। बहरहाल, गीत की धुन "कैची" है, युवाओं की पसन्द की है, तत्काल ज़बान पर चढ़ने वाली है। सोरेन की आवाज़ और उच्चारण में स्पष्टता है। चूँकि यह गीत तेज़ गति के संगीत के साथ चलता है, इसलिये इसमें गायक को सिर्फ़ साथ में बहते जाना था, जो कि सोरेन ने बखूबी किया है। अब देखना यह होगा कि किसी शान्त गीत में जिसमें "क्लासिकल" का बेस हो, सोरेन किस तरह का प्रस्तुतीकरण दे पाते हैं… फ़िलहाल इस गीत के बोलों के लिये 5 में से 4, संगीत संयोजन के लिये भी 5 में से साढ़े 3, आवाज़ और ध्वन्यांकन के लिये (ज़ाहिर है कि इसमें तकनीक का साथ भी शामिल है) साढ़े 4 अंक देता हूँ, इस प्रकार यदि गीत का ओवर-ऑल परफ़ॉर्मेंस देखा जाये तो इस अच्छे गीत को 5 में से 4.25 अंक दिये जा सकते हैं।
कुल अंक १६/२० यानी ८ / १०
==============
समीक्षा 4 (सच बोलता है )
अज़ीम जी लिखी हुई यह गज़ल बेहतरीन अश्आर का एक नमूना है, साथ ही इसे मखमली आवाज़ देने वाले रफ़ीक शेख भी एक जानी-पहचानी आवाज़ बन चुके हैं। समीक्षा के लिये प्रस्तुत गज़ल में यदि एक अंतरा (तीसरा वाला) कम भी होता तो चल जाता, बल्कि गज़ल और अधिक प्रभावशाली हो जाती, क्योंकि इसका आखिरी पैरा "जानलेवा" है। इसी प्रकार रफ़ीक शेख की आवाज़ मोहम्मद अज़ीज़ से मिलती-जुलती लगी, उन्होंने इस गज़ल को बिलकुल प्रोफ़ेशनल तरीके से गाया है, संगीत में अंतरे के बीच का इंटरल्यूड कुछ खास प्रभावित नहीं करता, बल्कि कहीं-कहीं तो वह बेहद सादा सा लगता है। गज़ल के मूड को गायक ने तो बेहतरीन तरीके से निभाया लेकिन संगीत ने उसे थोड़ा कमज़ोर सा कर दिया है। रफ़ीक की आवाज़ बेहतरीन है और यही इस गज़ल का सबसे सशक्त पहलू बनकर उभरी है। गीत पक्ष को 5 में से साढ़े तीन, संगीत पक्ष को 5 में से 3 और गायकी पक्ष को 5 में से साढ़े 4 अंक दिये जा सकते हैं। इस प्रकार ओवरऑल परफ़ॉरमेंस के हिसाब से यह गज़ल "अच्छी"(४.५ /५) की श्रेणी में रखी जाना चाहिये।
कुल अंक १५/२० यानी ७.५ / १०
चलते चलते
खुशमिजाज़ मिटटी की टीम को बधाई, देखना दिलचस्प होगा कि यह गीत आने वाले हफ्तों में भी यह बढ़त बना कर रख पायेगा या नही. ओ मुनिया और सच बोलता है भी कम पीछे नही है हैं दौड़ में...फिलहाल के लिए इतना ही.
समीक्षा (खुशमिजाज़ मिटटी )
सितम्बर माह का पहला गीत आया है सुबोध साठे की आवाज़ में "खुशमिजाज़ मिट्टी"। गीत लिखा है गौरव सोलंकी ने और संगीतकार खुद सुबोध साठे हैं। गीत के बोल अच्छी तरह से पिरोये गये हैं। गीत की शुरुआत जिस तरह से टुकड़ों में होती है, उसी तरह संगीतकार ने मेहनत करके टुकड़ों में ही शुरुआत दी है। धीमी शुरुआत के बावजूद सुबोध साठे के स्वर मजबूती से जमे हुए नज़र आते हैं। वे एक परिपक्व संगीतकार की तरह गीत की "स्पीड" को "मेण्टेन" करते हुए चलते हैं। असल में गीत का दूसरा और तीसरा अन्तरा अधिक प्रभावशाली बन पड़ा है, बनिस्बत पहले अन्तरे के, क्योंकि दूसरा अन्तरा आते-आते गीत अपनी पूरी रवानी पर आ जाता है। ध्वनि और संगीत संयोजन तो बेहतरीन बन पड़ा ही है इसका वीडियो संस्करण भी अच्छा बना है। कुल मिलाकर एक पूर्ण-परिपक्व और बेहतरीन प्रस्तुति है। गीत के लिये 4 अंक (एक अंक काटने की वजह यह कि गीत की शुरुआत और भी बेहतर हो सकती थी), आवाज और गायकी के लिये 5 अंक (गीत की सीमाओं को देखते हुए शानदार प्रयास के लिये), ध्वनि संयोजन और संगीत के लिये 4 अंक और कुल मिलाकर देखा जाये तो प्रस्तुति को 5 में से पूरे 5 अंक देता हूँ। गौरव सोलंकी और सुबोध साठे का भविष्य बेहद उज्जवल नज़र आता है।
कुल अंक १८/२० यानी ९ / १०
===========================
समीक्षा (राहतें सारी...)
सितम्बर माह का दूसरा गीत है "राहतें सारी…" लिखा है मोहिन्दर कुमार ने और गाया तथा संगीतबद्ध किया है नये गायक कृष्ण कुमार ने। परिचय में बताया गया है कि कृष्ण कुमार पिछले 14 सालों से कर्नाटक संगीत की शिक्षा ले रहे हैं, लेकिन यह नहीं पता चला कि उन्होंने अब तक कितने गीतों को संगीतबद्ध किया है। गीत को आवाज़ देना और उसे ध्वनि संयोजन करना और संगीत देना दोनों अलग-अलग विधाऐं हैं, यह ज़रूरी नहीं कि जो अच्छा गायक हो वह अच्छा संगीतकार भी हो, और ठीक इसके उलट भी यही नियम लागू होता है। भारतीय फ़िल्म संगीत में ऐसे अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं, जिसमें गायकों ने संगीतकार बनने की कोशिश की लेकिन जल्दी ही उनकी समझ में आ गया कि यह उनका क्षेत्र नहीं है, और यही कुछ संगीतकारों के साथ भी हुआ है, जो गायक बनना चाहते थे। इस गीत में कृष्ण कुमार लगभग इसी "ऊहापोह" (Dilema) में फ़ँसे हुए दिखते हैं। मोहिन्दर कुमार की कविता तो उम्दा स्तर की है, यहाँ तक कि गायक की आवाज़ भी ठीक-ठाक लगती है, लेकिन सर्वाधिक निराश किया है संगीत संयोजन और ध्वन्यांकन ने। शुरु से आखिर तक गीत एक अस्पष्ट सी "श्रवणबद्धता" (Audibility) में चलता है। संगीत के पीछे आवाज़ बहुत दबी हुई आती है, कृष्ण कुमार चाहते तो संगीत का कम उपयोग करके आवाज़ को (माइक पास लाकर) थोड़ा खुला हुआ कर सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं किया गया और समूचा गीत बेहद अस्पष्ट सा लगा। कृष्ण कुमार अभी बहुत युवा हैं, उनकी संगीत दीक्षा भी चल रही है, उन्हें सिर्फ़ अपने गायकी पर ध्यान देना उचित होगा। कोई अन्य गुणी संगीतकार उनकी आवाज़ का और भी बेहतरीन उपयोग कर सकेगा, क्योंकि शास्त्रीय "बेस" तो उनकी आवाज़ में मौजूद है ही। इस गीत में बोल के लिये 4 अंक, संगीत संयोजन के लिये 2 अंक और आवाज़ और उच्चारण के लिये मैं सिर्फ़ 2 अंक दूँगा,यदि "ओवर-ऑल" अंक दिये जायें तो इस गीत को 5 में से 2 अंक ही देना उचित होगा। आवाज़ और संगीत शिक्षा को देखते हुए कृष्ण कुमार से और भी उम्मीदें हैं, लेकिन इस गीत ने निराश ही किया है।
कुल अंक १०/२० यानी ५ / १०
====================
====================
समीक्षा (ओ मुनिया )
माह का तीसरा गीत है "ओ मुनिया…" गाया और संगीतबद्ध किया है सोरेन ने और लिखा है सजीव ने…
एक प्रोफ़ेशनल गीत कैसा होना चाहिये यह इसका उत्तम उदाहरण है। तेज संगीत, गीत की तेज गति, स्टूडियो में की गई बेहतर रिकॉर्डिंग और स्पष्ट आवाज़ के कारण यह गीत एकदम शानदार बन पड़ा है। गीत के बोल सजीव ने उम्दा लिखे हैं जिसमें "मुनिया" को आधुनिक ज़माने की नसीहत है ही, साथ में उसके प्रति "केयर" और "आत्मीय प्यार" भी गीत में छलकता है। साईट पर गीत के लिये प्रस्तुत ग्राफ़िक में बम विस्फ़ोट में घायल हुए व्यक्ति और विलाप करती हुई माँ की तस्वीर दिखाई देती है, इसकी कोई आवश्यकता नहीं नज़र आती। यह चित्र इस गीत की मूल भावना से मेल नहीं खाते। बहरहाल, गीत की धुन "कैची" है, युवाओं की पसन्द की है, तत्काल ज़बान पर चढ़ने वाली है। सोरेन की आवाज़ और उच्चारण में स्पष्टता है। चूँकि यह गीत तेज़ गति के संगीत के साथ चलता है, इसलिये इसमें गायक को सिर्फ़ साथ में बहते जाना था, जो कि सोरेन ने बखूबी किया है। अब देखना यह होगा कि किसी शान्त गीत में जिसमें "क्लासिकल" का बेस हो, सोरेन किस तरह का प्रस्तुतीकरण दे पाते हैं… फ़िलहाल इस गीत के बोलों के लिये 5 में से 4, संगीत संयोजन के लिये भी 5 में से साढ़े 3, आवाज़ और ध्वन्यांकन के लिये (ज़ाहिर है कि इसमें तकनीक का साथ भी शामिल है) साढ़े 4 अंक देता हूँ, इस प्रकार यदि गीत का ओवर-ऑल परफ़ॉर्मेंस देखा जाये तो इस अच्छे गीत को 5 में से 4.25 अंक दिये जा सकते हैं।
कुल अंक १६/२० यानी ८ / १०
==============
समीक्षा 4 (सच बोलता है )
अज़ीम जी लिखी हुई यह गज़ल बेहतरीन अश्आर का एक नमूना है, साथ ही इसे मखमली आवाज़ देने वाले रफ़ीक शेख भी एक जानी-पहचानी आवाज़ बन चुके हैं। समीक्षा के लिये प्रस्तुत गज़ल में यदि एक अंतरा (तीसरा वाला) कम भी होता तो चल जाता, बल्कि गज़ल और अधिक प्रभावशाली हो जाती, क्योंकि इसका आखिरी पैरा "जानलेवा" है। इसी प्रकार रफ़ीक शेख की आवाज़ मोहम्मद अज़ीज़ से मिलती-जुलती लगी, उन्होंने इस गज़ल को बिलकुल प्रोफ़ेशनल तरीके से गाया है, संगीत में अंतरे के बीच का इंटरल्यूड कुछ खास प्रभावित नहीं करता, बल्कि कहीं-कहीं तो वह बेहद सादा सा लगता है। गज़ल के मूड को गायक ने तो बेहतरीन तरीके से निभाया लेकिन संगीत ने उसे थोड़ा कमज़ोर सा कर दिया है। रफ़ीक की आवाज़ बेहतरीन है और यही इस गज़ल का सबसे सशक्त पहलू बनकर उभरी है। गीत पक्ष को 5 में से साढ़े तीन, संगीत पक्ष को 5 में से 3 और गायकी पक्ष को 5 में से साढ़े 4 अंक दिये जा सकते हैं। इस प्रकार ओवरऑल परफ़ॉरमेंस के हिसाब से यह गज़ल "अच्छी"(४.५ /५) की श्रेणी में रखी जाना चाहिये।
कुल अंक १५/२० यानी ७.५ / १०
चलते चलते
खुशमिजाज़ मिटटी की टीम को बधाई, देखना दिलचस्प होगा कि यह गीत आने वाले हफ्तों में भी यह बढ़त बना कर रख पायेगा या नही. ओ मुनिया और सच बोलता है भी कम पीछे नही है हैं दौड़ में...फिलहाल के लिए इतना ही.
Comments