एहतराम - अज़ीम शायरों का सलाम
"एहतराम - अजीम शायरों को सलाम" की अगली कड़ी के रूप में आईये सुनें शिशिर पारखी की बेमिसाल आवाज़ में उस्ताद शायर मिर्जा दाग़ दहलवी की ये ग़ज़ल -
आज एक उस्ताद शायर हैं मिर्जा दाग़ दहलवी - एक संक्षिप्त परिचय
मिर्ज़ा ‘दाग़’ को अपने जीवनकाल में जो ख्याति, प्रतिष्ठा और शानो-शौकत प्राप्त हुई, वह किसी बड़े-से-बड़े शाइर को अपनी ज़िन्दगी में मयस्सर न हुई। स्वयं उनके उस्ताद शैख़, ‘ज़ौक़’ शाही क़फ़स में पड़े हुए ‘तूतिये-हिन्द’ कहलाते रहे, मगर 100 रू० माहवारी से ज़्यादा का आबो-दाना कभी नहीं पा सके। ख़ुदा-ए-सुख़न ‘मीर’ ‘अमर-शाइर’ ‘गा़लिब’ और ‘आतिश’-जैसे आग्नेय शाइरों को अर्थ-चिन्ता जीवनभर घुनके कीड़े की तरह खाती रही। हकीम ‘मोमिन शैख़’ ‘नासिख़’ अलबत्ता अर्थाभाव से किसी क़द्र निश्चन्त रहे, मगर ‘दाग़’ जैसी फ़राग़त उन्हें भी कहाँ नसीब हुई
यूँ अपने ज़माने में एक-से-एक बढ़कर उस्ताद एवं ख्याति-प्राप्त शाइर हुए, मगर जो ख्याति और शुहरत अपनी ज़िन्दगीमें ‘दाग़’ को मिली, वह औरों को मयस्सर नहीं हुई। भले ही आज उनकी शाइरी का ज़माना लद गया है और मीर, दर्द, आतिश, ग़लिब, मोमिन, ज़ौक़, आज भी पूरे आबो-ताबके साथ चमक रहे हैं। लेकिन अपने ही जीवनकाल में उन्हें ‘दाग़’-जैसी ख्याति प्राप्त नहीं हो सकी।
जनसाधराण के वे महबूब शायर थे। उनके सामने मुशाअरो में किसी का भी रंग नहीं जमने पाता था। हजरत ‘नूह’ नारवी लिखते हैं कि -‘‘मुझसे रामपुर के एक सिन-रसीदा (वयोवृद्ध) साहब ने जिक्र किया कि नवाब कल्बअली खाँ साहब का मामूल था कि मुशाअरे के वक़्त कुछ लोगों को मुशाअरे के बाहर महज़ इस ख्याल बैठा देते थे कि बाद में ख़त्म मुशाअरा लोग किसका शेर पढ़ते हुए मुशाइरे से बाहर निकलते हैं। चुनाव हमेशा यही होता था कि ‘दाग़’ साहब का शेर पढ़ते हुए लोग अपने-अपने घरों को जाते थे।
‘‘एक बार मुंशी ‘मुनीर’ शिकोहाबादीने सरे-दरबार हजरत ‘दाग़’ का दामन थामकर कहा कि-‘क्या तुम्हारे शेर लोगों की ज़वानों पर रह जाते हैं और मेरे शेरों पर लोंगों की न ख़ास तवज्जह होती है, न कोई याद रखता है।’ इसपर जनाब ‘अमीर मीनाई’ ने फ़र्माया- ‘‘यह खुदादाद मक़बूलियत है, इसपर किसी का बस नहीं।’’
यह मशूहूर है कि दाग़ की ग़ज़ल के बाद मुशआर के किसी शाइर का शेर विर्दे-जबा़न न होता था। ‘असीर’ (अमीर मीनाई के उस्ताद) का मक़ूला है कि वह कलाम पसन्दीदा है, जो मुशाअरे से बाहर जाये। फ़र्माते थे कि मैंने बाहर जाने वालों में अक्सर मिर्जा ‘दाग़’ का शेर बाहर निकलते देखा है।
हज़रत मुहम्मदअली खाँ ‘असर’ रामपुरी लिखते हैं-‘‘जब ‘दाग़’ मुशाअरे में अपनी ग़ज़ल सुनाते थे, तो रामपुर के पठान उन्हें सैकड़ों गालियाँ देते थे। दारियाफ़्त किया गया कि गालियों का क्या मौका था। पता चला कि कलाम की तासीर (असर) और हुस्ने-कुबून (पसन्दीदगी) का यह आलम था कि पठान बेसाख्ता चीख़ें मार-मार कर कहते थे कि-‘उफ़ ज़ालिम मार डाला।’ ओफ़्फोह ! गला हलाल कर दिया। उफ़-उफ़ सितम कर दिया, ग़ज़ब ढा दिया।
एक दिन नवाब खुल्द-आशियाँने नवाब अब्दुलखाँ से पूछा कि ‘दाग़’ के मुतअल्लिक़ तुम्हारी क्या राय है। जवाब दिया कि -‘‘तीतड़े में गुलाब भरा हुआ है।’’ मक्सद यह है कि सूरत तो काली है, लेकिन बातिन (अंतरंग) गुलहार-मआनीकी खुशबुओ (कविता-कुसुम की सुगन्धों) से महक रहा है।
जब उनकी ग़ज़ले थिरकती थीं। यहाँ तक कि उनकी ख्यातिसे प्रभवित होकर उनके कितने समकालीन शाइर अपना रंग छोड़कर रंगे-दाग़ में ग़ज़ल कहने लगे थे। दाग़ की ख्याति और लोक-प्रियता का यह आलम था कि उनकी शिष्य मण्डली में सम्मलित होना बहुत बड़ा सौभाग्य एवं गौरव समझा जाता था। हैदराबाद-जैसे सुदूर प्रान्त में ‘दाग़’ के समीप जो शाइर नहीं रह सकते थे, वे लगभग शिष्य संशोधनार्थ ग़ज़लें भेजते थे। ‘दाग़’ का शिष्य कहलाना ही उन दिनों शाइर होने का बहुत बड़ा प्रमाणपत्र समझा जाता था और उन दिनों क्यों, आज भी ऐसे शाइर मौजूद हैं, जिन्हें ब-मुश्किल एक-दो ग़ज़लों पर इस्लाह लेना नशीब होगा, फिर भी बड़े फ़ख़्र के साथ अपनेको मिर्जा ‘दाग़’ का शिष्य कहते हैं।
मिर्जा दाग़ के जन्नत-नशीं होने के बाद एक दर्जन से अधिक शिष्य अपने को ‘जा-नशीने-दाग़’ (गुरु का उत्तराधिकारी शिष्य) लिखने लगे। हालाँकि शाइरीमें उत्तराधिकारी स्वरूप कुछ भी प्राप्त नहीं होता। शाइरी तो उस स्रोत के समान है, जो पृथ्वी से स्वयं फूट निकलता है। यह अन्य पेशे की तरह वंश परम्परागत नहीं चलता। यह ज़रूरी नहीं कि शाइर की संतान भी शाइर हो।
मीर, ग़ालिब, मोमिन, ज़ौक़, आतिश, मुस्हफ़ी के पिता शाइर नहीं थे। उनकी सन्तान भी शाइरों में कोई उल्लेख योग्य नहीं। शाइर अपने कलाम से ही ख्याति पाता है। यह समझते हुए भी कई शाइर ‘जानशीने-दाग़’ कहलाने का मोह नहीं त्याग सके।
नवाब ‘साइल’ मिर्जा ‘दाग़’ के दामाद भी थे और शिष्य भी। अतः बहुत बड़ी संख्या उन्हीं को ‘जानशीने-दाग़’ समझती थी। ‘बेखुद’ देहलवी, ‘बेखुद’ बेख़ुद’ बदायूनी, ‘आगा’ शाइर क़िज़िलबाश, ‘अहसन’ मारहरवी’, ‘नूह’ नारवी, भी अपने को ‘जानशीने-दाग़’ लिखने में बहुत अधिक गर्व का अनुभव करते हैं; और किसी कि मजाल नहीं जो उन्हें इस गौरवास्पद शब्द से वंचित कर सके। वास्तविक उत्ताधिकारी कौन है, इस प्रश्न को सुलझाने के लिए वर्षों वाद-विवाद चले है। बीसवीं शताब्दी-का वह प्रारम्भिक युग ही ऐसा था कि दाग़के नाम पर हर शाइर अपने-को उस्ताद घोषित कर सकता था। जैसे कि आज गान्धीके नाम पर हर कांग्रेसी अपने को पुजवा सकता है और उल्टी-सीधी हर बात गान्धी के नाम पर जनता के गले के नीचे उतार सकता है।
यद्यपि ‘दाग़’ के जीवनकाल में ही उनकी शाइरी पर आक्षेप होने लगे थे। उनकी शाइरी को निम्नस्तर की, शोख़, बाज़ारू,-शाइरी समझा जाने लगा था। फिर भी ‘दाग़’ के परिस्तार एवं प्रशंसक बहुत अधिक संख्या में थे। समस्त भारतमें उनके कलामकी धूम एवं चाहत थी।
दाग़ जन्न्त-नशीं हुए तो ऊर्दू-संसारमें सफें-मातम बिछ गई। औरों–का तो ज़िक्र ही क्या, सर ‘इकबाल’ –जैसा गम्भीर शाइर अपने उस्ताद की मौत पर टस-टस रो पड़ा।
"एहतराम - अजीम शायरों को सलाम" की अगली कड़ी के रूप में आईये सुनें शिशिर पारखी की बेमिसाल आवाज़ में उस्ताद शायर मिर्जा दाग़ दहलवी की ये ग़ज़ल -
आज एक उस्ताद शायर हैं मिर्जा दाग़ दहलवी - एक संक्षिप्त परिचय
मिर्ज़ा ‘दाग़’ को अपने जीवनकाल में जो ख्याति, प्रतिष्ठा और शानो-शौकत प्राप्त हुई, वह किसी बड़े-से-बड़े शाइर को अपनी ज़िन्दगी में मयस्सर न हुई। स्वयं उनके उस्ताद शैख़, ‘ज़ौक़’ शाही क़फ़स में पड़े हुए ‘तूतिये-हिन्द’ कहलाते रहे, मगर 100 रू० माहवारी से ज़्यादा का आबो-दाना कभी नहीं पा सके। ख़ुदा-ए-सुख़न ‘मीर’ ‘अमर-शाइर’ ‘गा़लिब’ और ‘आतिश’-जैसे आग्नेय शाइरों को अर्थ-चिन्ता जीवनभर घुनके कीड़े की तरह खाती रही। हकीम ‘मोमिन शैख़’ ‘नासिख़’ अलबत्ता अर्थाभाव से किसी क़द्र निश्चन्त रहे, मगर ‘दाग़’ जैसी फ़राग़त उन्हें भी कहाँ नसीब हुई
यूँ अपने ज़माने में एक-से-एक बढ़कर उस्ताद एवं ख्याति-प्राप्त शाइर हुए, मगर जो ख्याति और शुहरत अपनी ज़िन्दगीमें ‘दाग़’ को मिली, वह औरों को मयस्सर नहीं हुई। भले ही आज उनकी शाइरी का ज़माना लद गया है और मीर, दर्द, आतिश, ग़लिब, मोमिन, ज़ौक़, आज भी पूरे आबो-ताबके साथ चमक रहे हैं। लेकिन अपने ही जीवनकाल में उन्हें ‘दाग़’-जैसी ख्याति प्राप्त नहीं हो सकी।
जनसाधराण के वे महबूब शायर थे। उनके सामने मुशाअरो में किसी का भी रंग नहीं जमने पाता था। हजरत ‘नूह’ नारवी लिखते हैं कि -‘‘मुझसे रामपुर के एक सिन-रसीदा (वयोवृद्ध) साहब ने जिक्र किया कि नवाब कल्बअली खाँ साहब का मामूल था कि मुशाअरे के वक़्त कुछ लोगों को मुशाअरे के बाहर महज़ इस ख्याल बैठा देते थे कि बाद में ख़त्म मुशाअरा लोग किसका शेर पढ़ते हुए मुशाइरे से बाहर निकलते हैं। चुनाव हमेशा यही होता था कि ‘दाग़’ साहब का शेर पढ़ते हुए लोग अपने-अपने घरों को जाते थे।
‘‘एक बार मुंशी ‘मुनीर’ शिकोहाबादीने सरे-दरबार हजरत ‘दाग़’ का दामन थामकर कहा कि-‘क्या तुम्हारे शेर लोगों की ज़वानों पर रह जाते हैं और मेरे शेरों पर लोंगों की न ख़ास तवज्जह होती है, न कोई याद रखता है।’ इसपर जनाब ‘अमीर मीनाई’ ने फ़र्माया- ‘‘यह खुदादाद मक़बूलियत है, इसपर किसी का बस नहीं।’’
यह मशूहूर है कि दाग़ की ग़ज़ल के बाद मुशआर के किसी शाइर का शेर विर्दे-जबा़न न होता था। ‘असीर’ (अमीर मीनाई के उस्ताद) का मक़ूला है कि वह कलाम पसन्दीदा है, जो मुशाअरे से बाहर जाये। फ़र्माते थे कि मैंने बाहर जाने वालों में अक्सर मिर्जा ‘दाग़’ का शेर बाहर निकलते देखा है।
हज़रत मुहम्मदअली खाँ ‘असर’ रामपुरी लिखते हैं-‘‘जब ‘दाग़’ मुशाअरे में अपनी ग़ज़ल सुनाते थे, तो रामपुर के पठान उन्हें सैकड़ों गालियाँ देते थे। दारियाफ़्त किया गया कि गालियों का क्या मौका था। पता चला कि कलाम की तासीर (असर) और हुस्ने-कुबून (पसन्दीदगी) का यह आलम था कि पठान बेसाख्ता चीख़ें मार-मार कर कहते थे कि-‘उफ़ ज़ालिम मार डाला।’ ओफ़्फोह ! गला हलाल कर दिया। उफ़-उफ़ सितम कर दिया, ग़ज़ब ढा दिया।
एक दिन नवाब खुल्द-आशियाँने नवाब अब्दुलखाँ से पूछा कि ‘दाग़’ के मुतअल्लिक़ तुम्हारी क्या राय है। जवाब दिया कि -‘‘तीतड़े में गुलाब भरा हुआ है।’’ मक्सद यह है कि सूरत तो काली है, लेकिन बातिन (अंतरंग) गुलहार-मआनीकी खुशबुओ (कविता-कुसुम की सुगन्धों) से महक रहा है।
जब उनकी ग़ज़ले थिरकती थीं। यहाँ तक कि उनकी ख्यातिसे प्रभवित होकर उनके कितने समकालीन शाइर अपना रंग छोड़कर रंगे-दाग़ में ग़ज़ल कहने लगे थे। दाग़ की ख्याति और लोक-प्रियता का यह आलम था कि उनकी शिष्य मण्डली में सम्मलित होना बहुत बड़ा सौभाग्य एवं गौरव समझा जाता था। हैदराबाद-जैसे सुदूर प्रान्त में ‘दाग़’ के समीप जो शाइर नहीं रह सकते थे, वे लगभग शिष्य संशोधनार्थ ग़ज़लें भेजते थे। ‘दाग़’ का शिष्य कहलाना ही उन दिनों शाइर होने का बहुत बड़ा प्रमाणपत्र समझा जाता था और उन दिनों क्यों, आज भी ऐसे शाइर मौजूद हैं, जिन्हें ब-मुश्किल एक-दो ग़ज़लों पर इस्लाह लेना नशीब होगा, फिर भी बड़े फ़ख़्र के साथ अपनेको मिर्जा ‘दाग़’ का शिष्य कहते हैं।
मिर्जा दाग़ के जन्नत-नशीं होने के बाद एक दर्जन से अधिक शिष्य अपने को ‘जा-नशीने-दाग़’ (गुरु का उत्तराधिकारी शिष्य) लिखने लगे। हालाँकि शाइरीमें उत्तराधिकारी स्वरूप कुछ भी प्राप्त नहीं होता। शाइरी तो उस स्रोत के समान है, जो पृथ्वी से स्वयं फूट निकलता है। यह अन्य पेशे की तरह वंश परम्परागत नहीं चलता। यह ज़रूरी नहीं कि शाइर की संतान भी शाइर हो।
मीर, ग़ालिब, मोमिन, ज़ौक़, आतिश, मुस्हफ़ी के पिता शाइर नहीं थे। उनकी सन्तान भी शाइरों में कोई उल्लेख योग्य नहीं। शाइर अपने कलाम से ही ख्याति पाता है। यह समझते हुए भी कई शाइर ‘जानशीने-दाग़’ कहलाने का मोह नहीं त्याग सके।
नवाब ‘साइल’ मिर्जा ‘दाग़’ के दामाद भी थे और शिष्य भी। अतः बहुत बड़ी संख्या उन्हीं को ‘जानशीने-दाग़’ समझती थी। ‘बेखुद’ देहलवी, ‘बेखुद’ बेख़ुद’ बदायूनी, ‘आगा’ शाइर क़िज़िलबाश, ‘अहसन’ मारहरवी’, ‘नूह’ नारवी, भी अपने को ‘जानशीने-दाग़’ लिखने में बहुत अधिक गर्व का अनुभव करते हैं; और किसी कि मजाल नहीं जो उन्हें इस गौरवास्पद शब्द से वंचित कर सके। वास्तविक उत्ताधिकारी कौन है, इस प्रश्न को सुलझाने के लिए वर्षों वाद-विवाद चले है। बीसवीं शताब्दी-का वह प्रारम्भिक युग ही ऐसा था कि दाग़के नाम पर हर शाइर अपने-को उस्ताद घोषित कर सकता था। जैसे कि आज गान्धीके नाम पर हर कांग्रेसी अपने को पुजवा सकता है और उल्टी-सीधी हर बात गान्धी के नाम पर जनता के गले के नीचे उतार सकता है।
यद्यपि ‘दाग़’ के जीवनकाल में ही उनकी शाइरी पर आक्षेप होने लगे थे। उनकी शाइरी को निम्नस्तर की, शोख़, बाज़ारू,-शाइरी समझा जाने लगा था। फिर भी ‘दाग़’ के परिस्तार एवं प्रशंसक बहुत अधिक संख्या में थे। समस्त भारतमें उनके कलामकी धूम एवं चाहत थी।
दाग़ जन्न्त-नशीं हुए तो ऊर्दू-संसारमें सफें-मातम बिछ गई। औरों–का तो ज़िक्र ही क्या, सर ‘इकबाल’ –जैसा गम्भीर शाइर अपने उस्ताद की मौत पर टस-टस रो पड़ा।
Comments
बेहद पुरकश गज़ल है और आवाज़ वैसी हीं तिलिस्मी।
मज़ा आ जाता गर कुछ और भी शेर आलेख में डाले गए होते।
बधाई स्वीकारें।