आवाज़ के स्थायी स्तंभकार दिलीप कवठेकर लाये हैं देव आनंद के गीतों से सजा एक गुलदस्ता, साथ में है एक गीत उनकी अपनी आवाज़ में भी, आनंद लीजिये -
देव आनंद के बारे में मशहूर है कि उन्होने अपने अधिकतर गानों के लिए रफी और किशोर कुमार की आवाज़ उधार ली थी, और कभी कभी मन्ना दा (सांझ ढले),हेमंत कुमार (ये रात ये चांदनी फ़िर कहां,याद किया दिल नें, ना तुम हमॆ जानों)और तलत महमूद(जाये तो जाये कहां) की आवाज़ भी इस्तेमाल की थी.
मगर मुकेश के बारे में जहां तक मेरी जानकारी है, सिर्फ़ कुछ ही गीतों तक ही सीमित है.
आज जो गीत में ले कर आया हूँ वह अधिक मकबूल नही है, मगर अनोखा और दुर्लभ ज़रूर है. अनोखे गीत वे होते हैं, जिनमें कोई ख़ास नयी बात है.जैसे, यह गीत देव और मुकेश का दुर्लभ गीत है,जिसमें लता ने भी अपनी कोमल मधुर आवाज़ का जादू बिखेरा है..
सुन कर लुत्फ़ उठायें.
ये दुनिया है.. (फ़िल्म शायर - १९४९ में लता के साथ एक दोगाना)
इस गीत के विडियो में देखें उन दिनों के देव की छवि -
देव आनंद के बारे में एक बात बता दूं, कि इस हर दिल अज़ीज़ कलाकार को चाकलेट हीरो के रूप में मान्यता मिली और उन दिनों में मशहूर हुए तीन सुपरस्टार त्रिमूर्ति के त्रिकोण, दिलीप कुमार और राज कपूर ,का तीसरा कोण थे. तीनों नें अपने अपने अलग मकाम बनाये, और पहचान स्थापित की.
जहां दिलीप कुमार नें सरल सशक्त अभिनय और ट्रेजेडी की पीड़ा का अहसास दर्शकों के भावुक मन में करवाया,वहीं राज कपूर नें चैपलीन के ट्रैंम्प के चरित्र के आम सहृदय इंसान को पेश किया जिसने हास्य और अश्रू के उचित समन्वय से हमारे आपके दिल में जगह बनाई.
देव आनंद नें हमें उस नायक से मिलवाया जो रोमान्स,प्रेम और फंतासी की मन मोहनी दुनिया में हमें ले जाता है, और भावना के नाजुक मोरपंखी स्पर्श से हमारे वजूद में रोमांस को मेनीफेस्ट करता है,चस्पा करता है.यह वह सपनों का राजकुमार था जिसका जन्म ही प्यार करने को हुआ था. एक ऐसा चिरकुमार, "Evergreen" व्यक्तित्व, मन को गुदगुदानेवाला, आल्हादित करने वाला, जिसे सदा ही जवां मोहब्बत का वरदान मिला हुआ है. प्यार,प्यार और प्यार. युवतीयों के फंतासी हिरो और युवकों के रोल मॉडल के रूप में देव बखूबी सराहे गए.साथ में एन्टीहिरो के स्वरुप को प्रस्थापित किया.(अशोक कुमार थे पहले एन्टीहिरो.उन दिनों की माताओं ने भी उन्हें अपने पुत्र के रूप में उनका तसव्वुर किया(लीला चिटनीस याद है?)
ये बात ज़रूर है, की अपने समकालीन नायकों दिलीप कुमार और राज कपूर से अभिनय क्षमता में वे उन्नीस ज़रूर थे, मगर लोकप्रियता (विशेषकर महिलाओं में)और करिश्माई व्यक्तित्व के मामले में इक्कीस थे. सन १९५९ में कालापानी और १९६७ में गाईड के लिए उन्हें फिल्मफेयर के अभिनय के अवार्ड से नवाजा गया.
यह नही के उन दिनों में हिरो मात्र अपने व्यक्तित्व की जादूगरी से चलते थे. साथ में ज़रूरी था वह Ambience of Love,वह रोमांस का मायाजाल जो बुना जाता था मधुर मेलोडियस गीत संगीत से. इसलिए देव आनंद को भी यह साथ मिला गुणी और प्रयोगशील संगीतकारों का - सचिन देव बर्मन, ओ पी नैय्यर,शंकर जय किशन,हेमंत कुमार इत्यादी,और बाद में राहुल देव बर्मन,लक्ष्मीकांत प्यारेलाल आदि.
बानगी स्वरुप कुछ मुलाहिज़ा फरमाएं ;
ये दिल ना होता बेचारा ,
ऐसे तो ना देखो के हमको नशा हो जाए ,
अभी ना जाओ छोड़ कर,
याद किया दिल नें कहां हो तुम,
फूलों के रंग से ,
तेरी जुल्फों से जुदाई,
हम बेखुदी में तुमको,
मैं जिंदगी का साथ,
दुखी मन मेरे
१९६१ में आयी साहिर के गीतों से सजी फ़िल्म हम दोनों का यह सदाबहार ग़मदोस्त नगमा.
कभी ख़ुद पे कभी हालत पे रोना आया -
मेरी समझ से इस गीत को तो दर्द के एहसास की अभिव्यक्ति के मान से सर्वकालीन दर्द भरे गीतों की फेहरिस्त में शीर्ष पर रखा जा सकता है. जयदेव के सुरीली धुन और स्वर संयोजन की परिणीती हुई है एक ऐसे कालजयी गीत में ,जो काल और अंतरसंबंधों के परे जाकर मानव संवेदनाओं की चरमसीमा या ऊंचाई को छूता है.
दर्द के इस एहसास में पार्श्व संगीत का वजूद ही उस पीड़ा में समाहित हो जाता है, रफी साहब की आवाज़ उसे कहीं और भी उकेरती है,और कहीं ज़ख्मों पर फूंक का भी काम करती है.
आईये, यह गीत भी सुनें और गम के,संत्रास के एहसास को हम भी जीयें,भोगें :
वैसे देव साहब का सालों पहले गाया एक गीत मैं भी लाया हूँ. मैं गायक नहीं मगर अहसास है .यही कहूंगा कि-
एक दिल मैं भी ले के आया हूँ,
मुझको भी एक गुनाह का हक़ है.
आवाज़ पर मेरे साथी भाईयों के आग्रह पर...
प्रस्तुति - दिलीप कवठेकर
देव आनंद के बारे में मशहूर है कि उन्होने अपने अधिकतर गानों के लिए रफी और किशोर कुमार की आवाज़ उधार ली थी, और कभी कभी मन्ना दा (सांझ ढले),हेमंत कुमार (ये रात ये चांदनी फ़िर कहां,याद किया दिल नें, ना तुम हमॆ जानों)और तलत महमूद(जाये तो जाये कहां) की आवाज़ भी इस्तेमाल की थी.
मगर मुकेश के बारे में जहां तक मेरी जानकारी है, सिर्फ़ कुछ ही गीतों तक ही सीमित है.
आज जो गीत में ले कर आया हूँ वह अधिक मकबूल नही है, मगर अनोखा और दुर्लभ ज़रूर है. अनोखे गीत वे होते हैं, जिनमें कोई ख़ास नयी बात है.जैसे, यह गीत देव और मुकेश का दुर्लभ गीत है,जिसमें लता ने भी अपनी कोमल मधुर आवाज़ का जादू बिखेरा है..
सुन कर लुत्फ़ उठायें.
ये दुनिया है.. (फ़िल्म शायर - १९४९ में लता के साथ एक दोगाना)
इस गीत के विडियो में देखें उन दिनों के देव की छवि -
देव आनंद के बारे में एक बात बता दूं, कि इस हर दिल अज़ीज़ कलाकार को चाकलेट हीरो के रूप में मान्यता मिली और उन दिनों में मशहूर हुए तीन सुपरस्टार त्रिमूर्ति के त्रिकोण, दिलीप कुमार और राज कपूर ,का तीसरा कोण थे. तीनों नें अपने अपने अलग मकाम बनाये, और पहचान स्थापित की.
जहां दिलीप कुमार नें सरल सशक्त अभिनय और ट्रेजेडी की पीड़ा का अहसास दर्शकों के भावुक मन में करवाया,वहीं राज कपूर नें चैपलीन के ट्रैंम्प के चरित्र के आम सहृदय इंसान को पेश किया जिसने हास्य और अश्रू के उचित समन्वय से हमारे आपके दिल में जगह बनाई.
देव आनंद नें हमें उस नायक से मिलवाया जो रोमान्स,प्रेम और फंतासी की मन मोहनी दुनिया में हमें ले जाता है, और भावना के नाजुक मोरपंखी स्पर्श से हमारे वजूद में रोमांस को मेनीफेस्ट करता है,चस्पा करता है.यह वह सपनों का राजकुमार था जिसका जन्म ही प्यार करने को हुआ था. एक ऐसा चिरकुमार, "Evergreen" व्यक्तित्व, मन को गुदगुदानेवाला, आल्हादित करने वाला, जिसे सदा ही जवां मोहब्बत का वरदान मिला हुआ है. प्यार,प्यार और प्यार. युवतीयों के फंतासी हिरो और युवकों के रोल मॉडल के रूप में देव बखूबी सराहे गए.साथ में एन्टीहिरो के स्वरुप को प्रस्थापित किया.(अशोक कुमार थे पहले एन्टीहिरो.उन दिनों की माताओं ने भी उन्हें अपने पुत्र के रूप में उनका तसव्वुर किया(लीला चिटनीस याद है?)
ये बात ज़रूर है, की अपने समकालीन नायकों दिलीप कुमार और राज कपूर से अभिनय क्षमता में वे उन्नीस ज़रूर थे, मगर लोकप्रियता (विशेषकर महिलाओं में)और करिश्माई व्यक्तित्व के मामले में इक्कीस थे. सन १९५९ में कालापानी और १९६७ में गाईड के लिए उन्हें फिल्मफेयर के अभिनय के अवार्ड से नवाजा गया.
यह नही के उन दिनों में हिरो मात्र अपने व्यक्तित्व की जादूगरी से चलते थे. साथ में ज़रूरी था वह Ambience of Love,वह रोमांस का मायाजाल जो बुना जाता था मधुर मेलोडियस गीत संगीत से. इसलिए देव आनंद को भी यह साथ मिला गुणी और प्रयोगशील संगीतकारों का - सचिन देव बर्मन, ओ पी नैय्यर,शंकर जय किशन,हेमंत कुमार इत्यादी,और बाद में राहुल देव बर्मन,लक्ष्मीकांत प्यारेलाल आदि.
बानगी स्वरुप कुछ मुलाहिज़ा फरमाएं ;
ये दिल ना होता बेचारा ,
ऐसे तो ना देखो के हमको नशा हो जाए ,
अभी ना जाओ छोड़ कर,
याद किया दिल नें कहां हो तुम,
फूलों के रंग से ,
तेरी जुल्फों से जुदाई,
हम बेखुदी में तुमको,
मैं जिंदगी का साथ,
दुखी मन मेरे
१९६१ में आयी साहिर के गीतों से सजी फ़िल्म हम दोनों का यह सदाबहार ग़मदोस्त नगमा.
कभी ख़ुद पे कभी हालत पे रोना आया -
मेरी समझ से इस गीत को तो दर्द के एहसास की अभिव्यक्ति के मान से सर्वकालीन दर्द भरे गीतों की फेहरिस्त में शीर्ष पर रखा जा सकता है. जयदेव के सुरीली धुन और स्वर संयोजन की परिणीती हुई है एक ऐसे कालजयी गीत में ,जो काल और अंतरसंबंधों के परे जाकर मानव संवेदनाओं की चरमसीमा या ऊंचाई को छूता है.
दर्द के इस एहसास में पार्श्व संगीत का वजूद ही उस पीड़ा में समाहित हो जाता है, रफी साहब की आवाज़ उसे कहीं और भी उकेरती है,और कहीं ज़ख्मों पर फूंक का भी काम करती है.
आईये, यह गीत भी सुनें और गम के,संत्रास के एहसास को हम भी जीयें,भोगें :
वैसे देव साहब का सालों पहले गाया एक गीत मैं भी लाया हूँ. मैं गायक नहीं मगर अहसास है .यही कहूंगा कि-
एक दिल मैं भी ले के आया हूँ,
मुझको भी एक गुनाह का हक़ है.
आवाज़ पर मेरे साथी भाईयों के आग्रह पर...
प्रस्तुति - दिलीप कवठेकर
Comments
बहुत अच्छे लगे रहिये ।