सचिन देव बर्मन साहब की ३३ वीं पुण्यतिथि पर दिलीप कवठेकर का विशेष आलेख -
सचिन देव बर्मन एक ऐसा नाम है, जो हम जैसे सुरमई संगीत के दीवानों के दिल में अंदर तक जा बसा है. मेरा दावा है कि अगर आप और हम से यह पूछा जाये कि आप को सचिन दा के संगीतबद्ध किये गये गानों में किस मूड़ के, या किस Genre के गीत सबसे ज़्यादा पसंद है, तो आप कहेंगे, कि ऐसी को विधा नही होगी, या ऐसी कोई सिने संगीत की जगह नही होगी जिस में सचिन दा के मेलोड़ी भरे गाने नहीं हों.
आप उनकी किसी भी धुन को लें. शास्त्रीय, लोक गीत, पाश्चात्य संगीत की चाशनी में डूबे हुए गाने. ठहरी हुई या तेज़ चलन की बंदिशें. संवेदनशील मन में कुदेरे गये दर्द भरे नग्में, या हास्य की टाईमिंग लिये संवाद करते हुए हल्के फ़ुल्के फ़ुलझडी़यांनुमा गीत. जहां उनके समकालीन गुणी संगीतकारों नें अपने अपने धुनों की एक पहचान बना ली थी, सचिन दा हमेशा हर धुन में कोई ना कोई नवीनता देने के लिये पूरी मेहनत करते थे.
इसीलिये, उनके बारे में सही ही कहा है, देव आनंद नें (जिन्होने अपने लगभग हर फ़िल्म में - बाज़ी से प्रेम पुजारी तक सचिन दा का ही संगीत लिया था)- He was One of the Most Cultured & and Sophisticated Music Director,I have ever encountered !
हालांकि गीतकार जावेद अख्त़र नें उनके साथ काम नहीं किया लेकिन वे भी कायल थे सचिन दा की धुनों के रेंज से - चलती का नाम गाड़ी - सुजाता - गाईड़ - अभिमान.
शायद इसीलिये वे फ़िल्मों के चयन को लेकर बेहद चूज़ी थे. वे सिर्फ़ उन्ही के लिये संगीत देते थे जिन्हे संगीत की समझ थी. अपने १९४६ (शिकारी ) से शुरु हुए और त्याग (१९७७) तक के फ़िल्मी संगीत के सफ़र में ८९ फ़िल्मों के लिये लगभग ६६६ गीतों के संगीत रचना करते हुए देव आनंद, गुरुदत्त, हृषिकेश मुखर्जी, विजय आनंद, शक्ति सामंत आदि सशक्त निर्माताओं के साथ काम किया.
गायक के चुनाव करते हुए भी वे उतने ही चूज़ी होते थे. सुना है, जिस दिन उनकी रेकॊर्डिन्ग होती थी, वे सुबह गायक से फोन से बात करते थे और बातचीत के दौरान पता लगा लेते थे कि उस दिन उस गायक या गायिका के स्वर की क्या गुणवत्ता है.
संगीत के कंपोज़िशन के साथ ही वाद्यों के ओर्केस्ट्राइज़ेशन की भी बारीकीयां उन्हे पता थी.एक दिन किसी कारणवश एक की जगह दो वायोलीन वादक रिकॊर्डिन्ग में बजा रहे थे, तो दादा नें कंट्रोल केबिन से साज़ों के हुजूम में से यह बात पकड़ ली.उन्होने कहा, मैं एक ही वायोलीन का इफ़ेक्ट चाहता हूं.
वे इस बात को मानते थे, और अपने बेटे राहुल को भी उन्होने यह बात बडे़ गंभीरता से समझाई थी कि हमेशा कुछ नया सृजन किया करो, ताकि लोगों में यह आतुरता बनी रहे, कि अब क्या. जब तीसरी मंज़िल फ़िल्म के लिये पंचम ने सभी गीत लगभग वेस्टर्न स्टाईल से दिये तो दादा बेहद खुश हुए. वे धोती कुर्ता ज़रूर पहनते थे मगर मन से बडे आधुनिक या मोडर्न थे.
पंचम से वे बेहद प्यार करते थे. एक दिन जब वे कहीं टहल रहे थे तो बच्चों के किसी समूह में से एक ने कहा- देखो, वे आर डी बर्मन के पिताजी जा रहे हैं. वे उस दिन बडे खुश होकर सब को पान खिलाने लगे (वे जब खुश होते थे तो सब को पान खिलाया करते थे)
किसी कारणवश प्यासा के समय उनकी बातचीत लता से बंद हो गयी थी. तो उन्होने आशा से गाने गवाये, मगर बाद में पंचम की वजह से वह रुठना खत्म हुआ.
सचिन दा से समय तक गीत पहले लिखे जाते थे, बाद में धुन बनाई जाती थी. दादा इतने नैसर्गिक कम्पोज़र थे कि मिनटों में धुन बना लेते थे, और इसीलियी उन्होने यह प्रथा पहली बार डाली कि पहले धुन बनेगी बाद में उसपर बोल बिठाये जायेंगे. साहिर, मजरूह और शैलेंद्र के साथ उनके कई गीत बनें, मगर देव आनंद नें नीरज, हसरत और पं. नरेन्द्र शर्मा से भी कई गीत लिखवाये जो हिन्दी में साहित्यिक वज़न रखते थे. पं. नरेन्द्र शर्मा से तो वे बडे़ खुश रहते थे क्योंकि वे भी मिनटों में कोई भी गीत रच लेते थे, वह भी बहर में, और विषय से बाबस्ता.
प्यासा फ़िल्म में गुरुदत्त नें उनसे एक गीत बिना किसी साज़ के भी बनवाया और रफ़ी से गवाया था. (तंग आ चुके है कश्मकशे जिंदगी से हम- जो बाद में फ़िल्म लाईट हाऊस में एन.दत्ता के निर्देशन में आशा नें भी गाया). साहिर की एक काव्य संग्रह 'परछाईयां' से उन्होने कुछ चुनिंदा रचनायें चुनी और सचिन दा से धुन बनवाई. जैसे जिन्हे -नाज़ है हिन्द पर वो कहां है, जाने वो कैसे लोग थे - फ़िल्म के बाकी गानो में आपको सचिन दा के अंदाज़ के गानें मिले होंगे- सर जो तेरा चकराये, हम आप की आंखों में आदि. मगर आपनें भी सुन ही लिया है, कि दूसरे गीत कितने अलग ढंग से संगीत बद्ध किये दादा नें.
अभी अभी साहिर की भी पुण्यतिथि थी. यह फ़िल्म उनके गुरुदत्त और सचिन दा के जोडी़ का एक काव्यात्मक ऊंचाई प्राप्त करने वाला कमाल ही था, जो प्यासा के बाद दादा और साहिर के मनमुटाव के बाद टूट गया. सचिन दा का बोलबाला तब इतना बढ़ गया था कि गुरुदत्त को कागज़ के फ़ूल फ़िल्म के समय दोनों में से जब एक को चुनना पडा़ तो उन्होने दादा को ही चुना.
किशोर कुमार को एक अलग अंदाज़ में गवाने का श्रेय भी दादा को ही जाता है. उन्होंनें देव आनंद के लिये किशोर कुमार की आवाज़ को जो प्रयोग किया वह इतिहास बन गया. बाद में राजेश खन्ना के लिये भी किशोर की आवाज़ लेकर किशोर को दूसरी इनिंग में नया जीवन दिया, जिसके बाद किशोर नें कभी भी पीछे मुड़ कर नही देखा.
उसके बावजूद, सचिन दा ने देव आनंद के लिये हमेशा ही किशोर से नहीं गवाया, बल्कि रफ़ी साहब से भी गवाया, जैसे जैसे भी गाने की ज़रूरत होती थी. तीन देवियां में - ऐसे तो ना देखो, और अरे यार मेरी तुम भी हो गज़ब, तेरे घर के सामने में तू कहां , ये बता और छोड़ दो आंचल ज़माना क्या कहेगा,गाईड़ में तेरे मेरे सपने और गाता रहे मेरा दिल, आदि.
उनके गीतों में जो लोकगीतों की महक थी वह उत्तर पूर्व भारत के भटियाली, सारी औत धमैल आदि ट्रेडिशन से उपजी थी. उनकी आवाज़ पतली ज़रूर थी मगर दमदार और एक विशिष्ट लहजे की वजह से पृष्ठभूमि में गाये जाने वाले गीतों के लिये बड़ी सराही गयी.
और एक बात अंतिम, सचिन दा के सहायक के रूप में भी जयदेव (वर्मा) जो एक अच्छे सरोद वादक और गिटारिस्ट भी थे, का शास्त्रीय अनुभव भी मिला और पंचम की वजह से गानों में ताल वाद्यों के अलग अलग प्रयोग भी सुनने को मिले, वह एक अलग विषय है.
'बड़ी सूनी सूनी सी है, ज़िन्दगी ये ज़िन्दगी ' इस गीत के रिकॊर्डिंग के दो दिन बाद ही वे हमें छोड़ कर चले गये और गाने के बोल सार्थक कर गये.
प्रस्तुति - दिलीप कवठेकर
(उपर के चित्र में है दादा अपनी पत्नी मीरा के साथ, मध्य में देव आनंद और आर डी बर्मन के साथ और नीचे है किशोर कुमार के साथ)
सुनते हैं सचिन दा के स्वरबद्ध किए कुछ गीत. हमने कोशिश की है कि इस संकलन में सचिन दा के संगीत खजाने में से हर रंग के कुछ गीत समेटे जायें. काम बेहद मुश्किल था, हम कितने सफल हुए हैं ये आप सुनकर बतायें.
सचिन देव बर्मन एक ऐसा नाम है, जो हम जैसे सुरमई संगीत के दीवानों के दिल में अंदर तक जा बसा है. मेरा दावा है कि अगर आप और हम से यह पूछा जाये कि आप को सचिन दा के संगीतबद्ध किये गये गानों में किस मूड़ के, या किस Genre के गीत सबसे ज़्यादा पसंद है, तो आप कहेंगे, कि ऐसी को विधा नही होगी, या ऐसी कोई सिने संगीत की जगह नही होगी जिस में सचिन दा के मेलोड़ी भरे गाने नहीं हों.
आप उनकी किसी भी धुन को लें. शास्त्रीय, लोक गीत, पाश्चात्य संगीत की चाशनी में डूबे हुए गाने. ठहरी हुई या तेज़ चलन की बंदिशें. संवेदनशील मन में कुदेरे गये दर्द भरे नग्में, या हास्य की टाईमिंग लिये संवाद करते हुए हल्के फ़ुल्के फ़ुलझडी़यांनुमा गीत. जहां उनके समकालीन गुणी संगीतकारों नें अपने अपने धुनों की एक पहचान बना ली थी, सचिन दा हमेशा हर धुन में कोई ना कोई नवीनता देने के लिये पूरी मेहनत करते थे.
इसीलिये, उनके बारे में सही ही कहा है, देव आनंद नें (जिन्होने अपने लगभग हर फ़िल्म में - बाज़ी से प्रेम पुजारी तक सचिन दा का ही संगीत लिया था)- He was One of the Most Cultured & and Sophisticated Music Director,I have ever encountered !
हालांकि गीतकार जावेद अख्त़र नें उनके साथ काम नहीं किया लेकिन वे भी कायल थे सचिन दा की धुनों के रेंज से - चलती का नाम गाड़ी - सुजाता - गाईड़ - अभिमान.
शायद इसीलिये वे फ़िल्मों के चयन को लेकर बेहद चूज़ी थे. वे सिर्फ़ उन्ही के लिये संगीत देते थे जिन्हे संगीत की समझ थी. अपने १९४६ (शिकारी ) से शुरु हुए और त्याग (१९७७) तक के फ़िल्मी संगीत के सफ़र में ८९ फ़िल्मों के लिये लगभग ६६६ गीतों के संगीत रचना करते हुए देव आनंद, गुरुदत्त, हृषिकेश मुखर्जी, विजय आनंद, शक्ति सामंत आदि सशक्त निर्माताओं के साथ काम किया.
गायक के चुनाव करते हुए भी वे उतने ही चूज़ी होते थे. सुना है, जिस दिन उनकी रेकॊर्डिन्ग होती थी, वे सुबह गायक से फोन से बात करते थे और बातचीत के दौरान पता लगा लेते थे कि उस दिन उस गायक या गायिका के स्वर की क्या गुणवत्ता है.
संगीत के कंपोज़िशन के साथ ही वाद्यों के ओर्केस्ट्राइज़ेशन की भी बारीकीयां उन्हे पता थी.एक दिन किसी कारणवश एक की जगह दो वायोलीन वादक रिकॊर्डिन्ग में बजा रहे थे, तो दादा नें कंट्रोल केबिन से साज़ों के हुजूम में से यह बात पकड़ ली.उन्होने कहा, मैं एक ही वायोलीन का इफ़ेक्ट चाहता हूं.
वे इस बात को मानते थे, और अपने बेटे राहुल को भी उन्होने यह बात बडे़ गंभीरता से समझाई थी कि हमेशा कुछ नया सृजन किया करो, ताकि लोगों में यह आतुरता बनी रहे, कि अब क्या. जब तीसरी मंज़िल फ़िल्म के लिये पंचम ने सभी गीत लगभग वेस्टर्न स्टाईल से दिये तो दादा बेहद खुश हुए. वे धोती कुर्ता ज़रूर पहनते थे मगर मन से बडे आधुनिक या मोडर्न थे.
पंचम से वे बेहद प्यार करते थे. एक दिन जब वे कहीं टहल रहे थे तो बच्चों के किसी समूह में से एक ने कहा- देखो, वे आर डी बर्मन के पिताजी जा रहे हैं. वे उस दिन बडे खुश होकर सब को पान खिलाने लगे (वे जब खुश होते थे तो सब को पान खिलाया करते थे)
किसी कारणवश प्यासा के समय उनकी बातचीत लता से बंद हो गयी थी. तो उन्होने आशा से गाने गवाये, मगर बाद में पंचम की वजह से वह रुठना खत्म हुआ.
सचिन दा से समय तक गीत पहले लिखे जाते थे, बाद में धुन बनाई जाती थी. दादा इतने नैसर्गिक कम्पोज़र थे कि मिनटों में धुन बना लेते थे, और इसीलियी उन्होने यह प्रथा पहली बार डाली कि पहले धुन बनेगी बाद में उसपर बोल बिठाये जायेंगे. साहिर, मजरूह और शैलेंद्र के साथ उनके कई गीत बनें, मगर देव आनंद नें नीरज, हसरत और पं. नरेन्द्र शर्मा से भी कई गीत लिखवाये जो हिन्दी में साहित्यिक वज़न रखते थे. पं. नरेन्द्र शर्मा से तो वे बडे़ खुश रहते थे क्योंकि वे भी मिनटों में कोई भी गीत रच लेते थे, वह भी बहर में, और विषय से बाबस्ता.
प्यासा फ़िल्म में गुरुदत्त नें उनसे एक गीत बिना किसी साज़ के भी बनवाया और रफ़ी से गवाया था. (तंग आ चुके है कश्मकशे जिंदगी से हम- जो बाद में फ़िल्म लाईट हाऊस में एन.दत्ता के निर्देशन में आशा नें भी गाया). साहिर की एक काव्य संग्रह 'परछाईयां' से उन्होने कुछ चुनिंदा रचनायें चुनी और सचिन दा से धुन बनवाई. जैसे जिन्हे -नाज़ है हिन्द पर वो कहां है, जाने वो कैसे लोग थे - फ़िल्म के बाकी गानो में आपको सचिन दा के अंदाज़ के गानें मिले होंगे- सर जो तेरा चकराये, हम आप की आंखों में आदि. मगर आपनें भी सुन ही लिया है, कि दूसरे गीत कितने अलग ढंग से संगीत बद्ध किये दादा नें.
अभी अभी साहिर की भी पुण्यतिथि थी. यह फ़िल्म उनके गुरुदत्त और सचिन दा के जोडी़ का एक काव्यात्मक ऊंचाई प्राप्त करने वाला कमाल ही था, जो प्यासा के बाद दादा और साहिर के मनमुटाव के बाद टूट गया. सचिन दा का बोलबाला तब इतना बढ़ गया था कि गुरुदत्त को कागज़ के फ़ूल फ़िल्म के समय दोनों में से जब एक को चुनना पडा़ तो उन्होने दादा को ही चुना.
किशोर कुमार को एक अलग अंदाज़ में गवाने का श्रेय भी दादा को ही जाता है. उन्होंनें देव आनंद के लिये किशोर कुमार की आवाज़ को जो प्रयोग किया वह इतिहास बन गया. बाद में राजेश खन्ना के लिये भी किशोर की आवाज़ लेकर किशोर को दूसरी इनिंग में नया जीवन दिया, जिसके बाद किशोर नें कभी भी पीछे मुड़ कर नही देखा.
उसके बावजूद, सचिन दा ने देव आनंद के लिये हमेशा ही किशोर से नहीं गवाया, बल्कि रफ़ी साहब से भी गवाया, जैसे जैसे भी गाने की ज़रूरत होती थी. तीन देवियां में - ऐसे तो ना देखो, और अरे यार मेरी तुम भी हो गज़ब, तेरे घर के सामने में तू कहां , ये बता और छोड़ दो आंचल ज़माना क्या कहेगा,गाईड़ में तेरे मेरे सपने और गाता रहे मेरा दिल, आदि.
उनके गीतों में जो लोकगीतों की महक थी वह उत्तर पूर्व भारत के भटियाली, सारी औत धमैल आदि ट्रेडिशन से उपजी थी. उनकी आवाज़ पतली ज़रूर थी मगर दमदार और एक विशिष्ट लहजे की वजह से पृष्ठभूमि में गाये जाने वाले गीतों के लिये बड़ी सराही गयी.
और एक बात अंतिम, सचिन दा के सहायक के रूप में भी जयदेव (वर्मा) जो एक अच्छे सरोद वादक और गिटारिस्ट भी थे, का शास्त्रीय अनुभव भी मिला और पंचम की वजह से गानों में ताल वाद्यों के अलग अलग प्रयोग भी सुनने को मिले, वह एक अलग विषय है.
'बड़ी सूनी सूनी सी है, ज़िन्दगी ये ज़िन्दगी ' इस गीत के रिकॊर्डिंग के दो दिन बाद ही वे हमें छोड़ कर चले गये और गाने के बोल सार्थक कर गये.
प्रस्तुति - दिलीप कवठेकर
(उपर के चित्र में है दादा अपनी पत्नी मीरा के साथ, मध्य में देव आनंद और आर डी बर्मन के साथ और नीचे है किशोर कुमार के साथ)
सुनते हैं सचिन दा के स्वरबद्ध किए कुछ गीत. हमने कोशिश की है कि इस संकलन में सचिन दा के संगीत खजाने में से हर रंग के कुछ गीत समेटे जायें. काम बेहद मुश्किल था, हम कितने सफल हुए हैं ये आप सुनकर बतायें.
Comments
उनको श्रद्धांजली |
-- अवनीश तिवारी
sajeev sarathie
दिलीप भाई ने मेहनत और बारिकीसे दादा की खूबियोँ को उभारा है
उसके लिये उन्हेँ भी मेरी हार्दिक सराहना व स्नेह,
- लिखते रहीये और सुमधुर सँगीत और उससे जुडी बातेँ सुनाते रहीये -
- लावण्या