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ओ जाने वाले हो सके तो ....

हृदयनाथ मंगेशकर द्वारा लिखित संस्मरण

हजारों गाने गानेवाले मुकेश दा के आखिरी शब्‍द थे – ‘यह पट्टा खोल दो’

खुशमिज़ाज मुकेश
तीस हजार फुट की ऊँचाई पर हमारा जहाज उड़ा जा रहा है। रूई के गुच्‍छों जैसे अनगिनत सफेद बादल चारों ओर छाए हुए हुए हैं। ऊपर फीके नीले रंग का आसमान है। इन बादलों और नीले आकाश से बनी गुलाबी क्षितिज रेखा दूर तक चली गई है। कभी-कभी कोई बड़ा सा बादल का टुकड़ा यों सामने आ जाता है, माने कोई मजबूत किला हो। हवाई जहाज की कर्कश आवाज को अपने कानों में झेलते हुए मैं उदास मन से भगवान की इस लीला को देख रहा हूँ।

अभी कल-परसों ही जिस व्‍यक्ति के साथ ताश खेलते हुए और अपने अगले कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाते हुए हमने विमान में सफर किया था, उसी अपने अतिप्रिय, आदरणीय मुकश दा का निर्जीव, चेतनाहीन, जड़ शरीर विमान के निचले भाग में रखकर हम लौट रहे हैं। उनकी याद में भर-भर आनेवाली ऑंखों को छिपाकर हम उनके पुत्र नितिन मुकेश को धीरज देते हुए भारत की ओर बढ़ रहे हैं।

आज 29 अगस्‍त है। आज से ठीक एक महीना एक दिन पहले मुकेश दा यात्री बनकर विमान में बैठे थे। आज उसी देश को, जिसमें पिछले 25 वर्षों का एक दिन, एक घण्‍टा, एक क्षण भी ऐसा नहीं गुजरा था कि जब हवा में मुकश दा का स्‍वर न गूंज रहा हो; जिसमें एक भी व्‍यक्ति ऐसा नहीं था, जिसने मुकेश दा का स्‍वर सुनकर गर्दन न‍ हिला दी हो; जिसमें एक भी ऐसा दुखी जीव नहीं था, जिसने मुकेश दा की दर्द-भरी आवाज में अपने दुखों की छाया न देखी हो। सर्वसाधारण के लिए दुख शाप हो सकता, पर कलाकार के लिए वह वरदान होता है।

अनुभूति के यज्ञ में अपने जीवन की समिधा देकर अग्नि को अधिकाधिक प्रज्‍वलित करके उसमें जलती हुई अपनी जीवनानुभूतियों और संवेदनाओं को सुरों की माला में पिरोते-पिरोते मुकेश दा दुखों की देन का रहस्‍य जान गये थे। यह दान उन्‍हें बहुत पहले मिल चुका था।

उस दिन 1 अगस्‍त था वेंकुवर के एलिजाबेथ सभागृह में कार्यक्रम की पूरी तैयारियॉं हो चुकी थीं। मुकश दा मटमैले रंग की पैंट, सफेद कमीज, गुलाबी टाई और नीला कोट पहनकर आए थे। समयानुकूल रंगढंग की पोशाकों में सजे-धजे लोगों के बीच मुकेश दा के कपड़े अजीब-से लग रहे थे। पर ईश्‍वर द्वारा दिए गए सुन्‍दर रूप और मन के प्रतिबिम्‍ब में वे कपड़े भी उनपर फब रहे थे। ढाई-तीन हजार श्रोताओं से सभागृह भर गया। ध्‍वनि-परीक्षण करने के बाद मैं ऊपर के ‘साउंड बूथ’ में ‘मिक्‍सर चैनल’ हाथ में संभाले हुए कार्यक्रम के प्रारम्‍भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था। मुकेश दा के ‘माइक’ का ‘स्‍विच’ मेरे पास था। इतने में मुकेश दा मंच पर आए। तालियों की गड़गड़ाहट से सारा हाल गुंज उठा। मुकश दा ने बोलना प्रारम्‍भ किया तो ‘भाइयो और बहनो’ कहते ही इतनी सारी तालियाँ पिटीं की मुझे हाल के सारे माइक बंद कर देने पड़े।

मुकश दा अपना नाम पुकारे जाने पर सदैव पिछले विंग से निकलकर धीरे-धीर मंच पर आते थे। वे जरा झुककर चलते थे। माइक के सामने आकर उसे अपनी ऊँचाई के अनुसार ठीक कर तालियों की गड़गड़ाहट रूकने का इंतजार करते थे। फिर एक बार ‘राम-राम, भाई-बहनों’ का उच्‍चारण करते थे। कोई भी कार्यक्रम क्‍यों न हो, उनका यह क्रम कभी नहीं बदला।

उस दिन मुकश दा मंच पर आए और बोले, “राम-राम, भाई-बाहनों आज मुझे जो काम सौंपा गया है, वह कोई मुश्किल काम नहीं है। मुझे लता की पहचान आपसे करानी है। लता मुझसे उम्र में छोटी है और कद में भी; पर उसकी कला हिमालय से भी ऊँची है। उसकी पहचान मैं आपसे क्‍या कराऊँ! आइए, हम सब खूब जोर से तालियॉं बजाकर उसका स्‍वागत करें! लता मंगेशकर ....’’

तालियों की तेज आवाज के बीच दीदी मंच पर पहुँचीं। मुकेश दा ने उसे पास खींच लिया। सिर पर हाथ रखकर उसे आशीर्वाद दिया और घूमकर वापस अन्‍दर चले गए। मंच से कोई भय नहीं, कोई संकोच नहीं, बनावट तो बि‍ल्‍कुल भी नहीं। सबकुछ बिल्‍कुल स्‍वाभाविक और शांत।

दीदी के पाँच गाने पूरे होने पर मुकेश दा फिर मंच पर आए। एक बार फिर माइक ऊपर-नीचे किया और हारमोनियम संभाला। जरा-सा खंखार कर, कुछ फुसफुसाकर (शायद ‘राम-राम कहा होगा) कहना शुरू किया, “मैं भी कितना ढीठ आदमी हूँ। इतना बड़ा कलाकार अभी-अभी यहाँ आकर गया है और उसके बाद मैं यहाँ गाने के लिए आ खड़ा हुआ हूँ। भाइयो और बहनो, कुछ गलती हो जाए तो माफ करना।’’

मुकेश दा के शब्‍दों को सुनकर मेरा जी भर आया। एक कलाकार दूसरे का कितना सम्‍मान करता है, इसका यह एक उदाहरण है। मुकेश दा के निश्‍छल और बढ़िया स्‍वभाव से हम सब मंत्रमुग्‍ध-से हो गये थे कि माइक पर सुर उठा – “जाने कहॉँ गये वो दिन ....”

गीत की इस पहली पंक्ति पर ही बहुत देर तक तालियाँ बजती रहीं। और फिर सुरों में से शब्‍द और शब्‍दों में से सुरों की धारा बह निकली। लग रहा था कि मुकश दा गा नहीं रहे हैं, वे श्रोताओं से बातें कर रहे हैं। सारा हॉल शांत था गाना पूरा हुआ। पर तालियाँ नहीं बजीं। मुकेश दा ने सीधा हाथ उठाया (यह उनकी आदत थी) और अचानक तालियों की गड़गड़ाहट बज उठी। तालियों के उसी शोर में मुकेश दा ने अगला गाना शुरू कर दिया – ‘डम-डम डिगा-डिगा’ और इस बार तालियों के साथ श्रोताओं के पैरों ने ताल देना शुरू कर दिया था।

यह गाना पूरा हुआ तो मुकेश दा अपनी डायरी के पन्‍ने उलटने लगे। एक मिनट, दो मिनट, पर मुकेश दा को कोई गाना भाया ही नहीं। लोगों में फुसफुसाहट होने लगी। अन्‍त में मुकेश दा ने डायरी का पीछा छोड़ दिया और मन से ही गाना शुरू कर दिया-‘दिल जलता है तो जलने दे’ यह मुकेश दा का तीस वर्ष पुराना सबसे पहला गना था। मैं सोचने लगा कि क्‍या इतना पुराना गाना लोगों को पसन्‍द आएगा! मन-ही-मन मैं मुकेश दा पर नाराज होने लगा। ऐसे महत्‍वपूर्ण कार्यक्रम के लिए उन्‍होंने पहले से गानों का चुनाव क्‍यों नहीं कर लिया था।

मैंने ‘बूथ’ से ही बैकस्‍टेज के लिए फोन मिलाया और मुकेश दा के पुत्र नितिन को बुलाकर कहा, “अगले कार्यक्रम के लिए गाना चुनकर तैयार रखो।’’

नितिन ने जवाब दिया, “यह नहीं हो सकता। यह पापा की आदत है।’’

गाना खत्‍म होते ही हॉल में ‘वंस मोर’ की आवाजें आने लगीं। मेरा अंदाज बिल्‍कुल गलत साबित हुआ था। मैंने झट से नितिन को दुबारा फोन मिलाया और कहा, “मैंने जो कुछ कहा था, मुकेश दा को पता न चले।’’ तभी दीदी मंच पर पहुँच गई और दो गीतों की शुरूआत हो गई। ‘सावन का महीना’, ‘कभी-कभी मेरे दिल में’, ‘दिल तड़प-तड़प के’ आदि एक के बाद एक गानों का तांता लगा रहा। फिर आखिरी दो गानों का प्रारम्‍भ हुआ – ‘आ जा रे, अब मेरा दिल पुकारा’।

इस गाने का पहला स्‍वर उठते ही मैं 1950 में जा पहुंचा। दिल्‍ली के लालकिले के मैदान में एक लाख लोग मौजूद थे ठण्‍ड का मौसम था। तरूण, सुन्‍दर मुकेश दा बाल संवारे हुए स्‍वेटर पर सूट डाले, मफलर बाँधे बाएँ हाथ से हारमोनियम बजा रहे थे और मैं दीदी के साथ गा रहा था, ‘आजा रे ...’ मेरे जीवन का वह दूसरा या तीसरा गाना था। मुकेश दा ने जबरदस्‍ती मुझे गाने को बिठा दिया था और खुद हारमोनियम बजाने लगे थे। मैं घबराना गया और कुछ भी गलत-सलत गाने लगता था। मुकेश दा मुझे सांत्‍वना देते जाते और मेरा साथ देने लग जाते। मुझे उनका यह तरूण सुन्‍दर रूप याद आने लगा, जिसे 26 वर्षों के कटु अनुभवों के बाद भी उनहोंने कायम रखा था। पर उनकी आवाज में एक नया जादू चढ़ गया था।

मिलवाकी से हम वाशिंगटन की ओर चले। हम सबों के हाथ सामानों से भरे थे। हवाई अड्डा दूर, और दूर होता जा रहा था। मैं थक गया था और रूक-रूककर चल रहा था। तभी किसी ने पीछे से मेरे हाथ से बैग ले लिया। मैंने दचककर पीछे देखा तो मुकेश दा। मैंने उन्‍हें बहुत समझाया, पर उन्‍होंने एक न सुनी। विमान में हम पास-पास बैठे। वे बोले, ‘अब खाना निकालो’। (हम दोनों ही शाकाहारी थे)। मैंने उन्हें चिवड़ा और लड्डू दिए और वे खाने लगे। तभी मैंने कहा, ‘मुकेश दा, कल के कार्यक्रम में आपकी आवाज अच्‍छी नहीं थी। लगता है, आपको जुकाम हो गया है!’

उन्‍होंने सिर हिलाया। बोले, ‘मैं दवा ले रहा हूँ। पर सर्दी कम होती ही नहीं है, इसलिए आवाज में जरा-सी खराश आ गई है’। फिर विषय बदलकर उन्‍होंने मुझसे ताश निकालने को कहा। करीब-करीब एक घंटे तक हम दोनों ताश खेलते रहे। खेल के बीच में उन्‍होंने मुझसे कहा ‘गाते समय जब मेरी आवाज ऊँची उठती है तब तू ‘फेडर’ को नीचे कर दिया कर, क्‍योंकि सर्दी के कारण ऊपर के स्‍वरों को संभालना जरा कठिन पड़ता है। फिर रमी के ‘प्‍वाइन्‍ट’ लिखने के लिए उन्‍होंने जेब से पेन निकाला। उसे मेरे सामने रखते हुए बोले, ‘बाल, यह क्रास पेन है। जब से मैंने क्रास पेन से लिखना शुरू किया है, दूसरा कोई पेना भाता ही नहीं है। तुम भी क्रास पेन खरीद लो’। और वाशिंगटन में उन्‍होंने आग्रह करके मुझे एक क्रास पेन खरीदवा ही दिया।

अनहोनी, जो होनी बन गई!

उसी शाम भारतीय राजदूत के यहाँ हमारी पार्टी थी। देश-विदेश के लोग आए हुए थे। मुकेश दा अपनी रोज की पोशाक में इधर-उधर घूम रहे थे। तभी किसी ने सुझाया कि गाना होना चाहिए। उस जगह तबला, हारमोनियम कुछ भी नहीं था, पर सबों के आग्रह पर मुकेश दा खड़े हो गए और जरा-सा स्‍वर संभालकर गाने लगे – ‘आँसू भरी है ये जीवन की राहें...’ वाद्यों की संगत न होने के कारण उनकी आवाज के बारीक-बारीक रेशे भी स्‍पष्‍ट सुनाई दे रहे थे। सहगल से काफी मिलती हुई उनकी वह सरल आवाज भावनाओं से ऐसी भरी हुई थी कि मैं उसे कभी भुला न पाऊँगा।

रात को मैंने टोका, ‘आपको पार्टी के लिए बुलाया था, गाने के लिए नहीं। किसी ने कहा और आप गाने लगे!’ वे हंसकर बाले, ‘यहाँ कौन बार-बार आता है! अब पता नहीं यहाँ फिर कभी आ पाऊँगा या नहीं!’

मुकेश दा ! आपका कहना सच ही था। वाशिंगटन से ये लोग आपके अंतिम दर्शनों के लिए न्‍यूयार्क आए थे और उस पार्टी की याद कर करके आँसू बहा रहे थे।

बोस्‍टन में मुकेश दा की आवाज बहुत खराब हो गई थी। एक गाना पूरा होते ही मैंने ऊपर से फोन किया और दीदी से कहा, ‘मुकेश दा को मत गाने देना। उनकी आवाज बहुत खराब हो रही है’।
दीदी बोलीं, ‘फिर इतना बड़ा कार्यक्रम पूरा कैसे होगा?’
मैंने सुझाया, ‘नितिन को गाने के लिए कहो’।

दीदी मान गईं। मंच पर आईं और श्राताओं से बोलीं, ‘आज मैं आपके सामने एक नया मुकेश पेश कर रही हूँ। यह नया मुकेश मेरे साथ आपका मनपसंन्‍द गाना ‘कभी-कभी मेरे दिल में...’ गाएगा।‘

लोग अनमने से हो फुसफुस करने लगे थे। तभी नितिन मंच पर पहुँचा। देखने में बिल्‍कुल मुकेश दा जैसा। उसने दीदी के पाँव छुए और गाना शुरू किया – कभी-कभी मेरे दिल में... ‘ नितिन की आवाज में कच्‍चापन था। पर सुरों की फेंक, शब्‍दोच्‍चार बिल्‍कुल पिता जैसे थे। गाना खतम होते ही ‘वंस मोर’ की आवाजें उठने लगीं। लोग नितिन को छोड़ने को तैयार ही नहीं थे। ‘विंग’ में बैठे मुकेश दा का चेहरा आनन्‍द से चमक उठा।

‘ऐंबुलेंस’ में उन्‍होंने केवल एक वाक्‍य बोला –यह पट्टा खोल दो’ (वह ह्वील चेयर का पट्टा था) फिर वे कुछ नहीं बोले। हजारों गाने गानेवाले मुकेश दा के वे आखिरी शब्‍द थे – ‘यह पट्टा खोल दो’।

कौन-सा पट्टा? कौन-सा बंधन? ह्वील चेयर का पट्टा या जीवन का बंधन? मुकेश दा को बाँधे हुए चमड़े का पट्टा या चैतन्‍य को बाँधे हुए जड़त्‍व का पट्टा? कहीं उनके कहने का आशय यही तो नहीं था!
फिर वे मंच पर आए और हारमोनियम पर हाथ रख दिया। बाप-बेटे ने मिलकर ‘जाने कहाँ गए वे दिन’ गाया। उसके बाद के सारे गाने नितिन ने ही गाए। मुकेश दा ने हारमोनियम पर साथ दिया।

अगले दिन वे मुझेसे बोले,'अब मेरे सर पर से एक और बोझ उतर गया। नितिन की चिन्‍ता मुझे नहीं रही। अब मैं मरने के लिए तैयार हूँ’।

मैने कहा, ‘अपना गाना गाए बिना आपको मरने कैसे दूँगा। पन्‍द्रह वर्ष पूर्व आपने मेरे गाने की रिहर्सल तो की थी, पर गाया नहीं था। गाना मुझे ही पड़ा था’। (वह गाना था – ‘त्‍या फुलांच्‍या गंध कोषी’)

वे हंसकर बोले, ‘मेरे कोई नया गाना तैयार कराओ। मैं जरूर गाऊँगा।
अगले दिन हम टोरन्‍टो से डेट्रायट जाने के लिए रेलगाड़ी पर सवार हुए। हमारा एनाउंसर हमें छोड़ने आया था। मुकेश दा ने उससे पूछा, ‘क्‍यों मियॉँ साहेब, आप नहीं आ रहे हमारे साथ!”

उसने जवाब दिया, मैं तो आपको छोड़ने आया हूँ।’

मुकेश दा हँसे, अरे, आप क्‍या हमें छोड़ेंगे!
हम आपको ऐसा छोड़ेंगे कि फिर कभी नहीं मिलेंगे’। मियाँ का दिल भर आया। बोला, ‘नहीं-नहीं। ऐसी अशुभ बात मुंह से मत निकालिए’।

मुकेश दा हंसे। ‘राम-राम’ कहते हुए गाड़ी में चढ़कर मेरे पास आ बैठे। ताश निकालकर हम ‘रमी’ खेलने लगे। वे तीन डॉलर हार गए। मुझे पैसे देते हुए बोले, आज रात को फिर खेलेंगे। मैं तुमसे ये तीनों डॉलर वापस जीत लूँगा’।

और सचमुच ही डेट्रायट (अमरीका) में उन्‍होंने मुझे अपने कमरे में बुला लिया और मैं, अरूण, रवि उनके साथ रात साढ़े ग्‍यारह बजे तक ‘रमी’ खेलते रहे। इस बार मुकेश दा छह डॉलर हार गए। हमने उनकी खूब मजाक उड़ाई। मुझसे बोले, ‘आज कुल मिलाकर मैं नौ डॉलर हार गया हूँ। मगर कल रात को तुमसे सब वसूल कर लूँगा।

पर ‘कल की रात’ उनकी आयु में नहीं लिखी थी। मुझे कल्‍पना भी नहीं थी कि ‘कल की रात’ मुझे मुकेश दा के निर्जीव शरीर के पास बैठकर काटनी पड़ेगी।

झूठे बंधन तोड़ के सारे .....

अपने पुत्र नितिन मुकेश के साथ
वह दिन ही अशुभ था। एक मित्र को जल्‍दी भारत लौटना था, इसलिए उसके टिकट की भागदौड़ में ही दोपहर के तीन बज गए। टिकट नहीं मिला सो अलग। साढ़े चार बजे हम होटल लौटे। मैं, दीदी और अनिल मोहिले शाम के कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने लगे। हम सब भूखे थे, इसलिए चाय और सैण्‍डविच मंगा ली गई थी। तभी मुकेश दा का फोन आया कि हारमोनियम ऊपर भिजवा दो। (उनका कमरा बीसवीं मंजिल पर था और हमारा सोलहवीं पर)। मैंने हारमोनियम भेज दिया। कार्यक्रम की चर्चा पूरी करने के बाद मैंने अनिल मोहिले से कहा, ‘चाय पीने के बाद म्‍यूजीसियंश को तैयार करके ठीक छह बजे मंच पर पहुंच जाना’। तभी चाय आ गई। मैं चाय तैयार कर ही रहा था कि ऊपर आओ। उसकी आवाज सुनते ही मैं भागा। अपने कमरे में मुकेश दा लुंगी और बनियान पहने हुए पलंग के पीछे हाथ टिकाए बैठे थे। मैंने नितिन से पूछा, “क्‍या हुआ?”

उसने बताया, ‘पापा ने कुछ देर गाया। फिर उन्‍होंने चाय मंगाई। पीकर वे बाथरूम गए। बाथरूम से आने के बाद उन्‍हें गर्मी लगने लगी और पसीना आने लगा। इसलिए मैंने आपको बुला लिया। मुझे कुछ डर लग रहा है’।

मैं सोचने लगा-पसीना आ जाने भर से ही यह लड़का डर गया है। कमाल है। फिर मैंने मुकेश दा से कहा, ‘आप लेट जाइए’।

वे एकदम बोल पड़े, ‘अरे तुम अभी तक एक नहीं? मैं लेटूँगा नहीं। लेटने से मुझे तकलीफ होती है। तुम स्‍टेज पर जाओ। मैं इंजेक्शन लेकर पीछे-पीछे आता हूँ। लता को कुछ मत बताना। वह घबरा जाएगी।

‘अच्‍छा,’ कहकर मैंने उनकी पीठ पर हाथ रख और झटके से हटा लिया। मेरा हाथ पसीने से भीग गया था। इतना पसीना, माने नहाकर उठे हों। तभी डॉक्‍टर आ गया। ऑक्‍सीजन की व्‍यवस्‍था की गई। मैंने मुकेश से पूछा, ‘आपको दर्द हो रहा है’?

उन्‍होंने सिर हिलाकर ‘न’ कहा। फिर उन्‍हें ‘ह्वील चेयर’ पर बिठाकर नीचे लाया गया। ऑक्‍सीजन लगा हुआ था, फिर भी लिफ्ट में उन्‍हें तकलीफ ज्‍यादा होने लगी, ‘ह्वील चेयर’ को ही ‘ऐंबुलेंस’ पर चढ़ा दिया गया। यह सब बीस मिनट में हो गया।

‘ऐंबुलेंस’ में उन्‍होंने केवल एक वाक्‍य बोला –यह पट्टा खोल दो’ (वह ह्वील चेयर का पट्टा था) फिर वे कुछ नहीं बोले। हजारों गाने गानेवाले मुकेश दा के वे आखिरी शब्‍द थे – ‘यह पट्टा खोल दो’।

कौन-सा पट्टा? कौन-सा बंधन? ह्वील चेयर का पट्टा या जीवन का बंधन? मुकेश दा को बाँधे हुए चमड़े का पट्टा या चैतन्‍य को बाँधे हुए जड़त्‍व का पट्टा? कहीं उनके कहने का आशय यही तो नहीं था!

‘एमरजेन्‍सी वार्ड’ में पहुंचने से पूर्व उन्‍होंने केवल एक बार आँखे खोलीं, हंसे और बेटे की तरफ हाथ उठाया। डॉक्‍टर ने वार्ड का दरवाजा बंद कर लिया। आधे घंटे बाद दरवाजा खुला। डॉक्‍टर बाहर आया ओर उसने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया। उसके स्‍पर्श ने मुझसे सबकुछ कह दिया था।

विशाल सभागृह खचाखच भरा हुआ है। मंच सजा हुआ है। सभी वादक कलाकार साज मिलाकर तैयार बैठे हुए हैं। इंतजार है कि कब मैं आऊँ, माइक ‘टेस्‍ट’ करूँ और कार्यक्रम शुरू हो। मैं मंच पर गया। सदैव की भाँति रंगभूमि को नमस्‍कार किया। माइक हाथ में लिया और बोला "भाइयो और बहनो, कार्यक्रम प्रारंभ होने में देर हो रही है, पर उसके लिए आज मैं आपसे क्षमा नहीं माँगूँगा। आज मैं किसी से कुछ नहीं माँगूँगा। केवल उससे बारम्‍बार एक ही माँग है – ‘ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना ...’

धर्मयुग से साभार
रूपांतर- भारती मंगेशकर
प्रस्तुति- शैलेश भारतवासी
प्रस्तुति सहयोग- सतेन्द्र झा
चित्र साभार- हमाराफोटोजडॉटकॉम(यह संस्मरण विश्व हिन्दी न्यास की त्रैमासिक पत्रिका 'हिन्दी-जगत' में भी प्रकाशित किया गया है)


इस अवसर पर हमने इस संस्मरण में उल्लेखित सभी गीतों को सुनवाने का प्रबंध किया है।


ओ जाने वाले हो सके तो॰॰
Oh Jaane Waale Ho Sake To
आ जा रे, अब मेरा दिल पुकारा॰॰
Aa Ja Re, Ab Mera Dil Pukara
आँसू भरी है ये जीवन की राहें॰॰
Aanso Bhari Hai, Ye Jeevan Ki Rahen
दिल जलता है तो जलने दे॰॰
Dil Jalta Hai To Jalane De
दिल तड़प-तड़प के दे रहा है ये सदा॰॰
Dil Tadap-Tadap Ke De Raha Hai Ye Sada
डम-डम डिगा-डिगा॰॰
जाने कहाँ गये वो दिन॰॰
Jane Kahan Gaye Woh Din
सावन का महीना॰॰
Sawan Ka Mahina
कभी-कभी मेरे दिल में॰॰
Kabhi-Kabhi Mere Dil Mein



आज अमर गायक मुकेश की ३२वीं बरसी पर हम पूरे दिन मुकेश की यादें आपसे बांट रहे हैं। पढ़िए संगीत समीक्षक संजय पटेल का "दर्द को सुरीलेपन की पराकाष्ठा पर ले जाने वाले अमर गायक मुकेश", इसी पोस्ट में आप बम्बई का बाबू का गीत 'चल री सजनी! अब क्या सोचें॰॰॰' भी सुन पायेंगे। और साथ ही पढ़िए तपन शर्मा चिंतक की प्रस्तुति "मैं तो दीवाना, दीवाना-दीवाना"। तो पूरे दिन बने रहिए आवाज़ के संगी.

Comments

shivani said…
शैलेश जी आपका आभार कि आपने मुकेश जी के व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं से अवगत कराया !मैं मुकेश जी कि बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ....उनकी जिंदगी के अंतिम पलों के बारे में पढ़ कर आँखें नम हो आई....उनके गीत अमर रहे यही चाहती हूँ....उनके गीत सुना कर आपने बहुत अच्छा किया....
इतने बहुमूल्य आलेख को यहाँ दुबारा से प्रस्तुत करने के लिए शैलेश का आभार, पढ़ कर ऑंखें नम हो गई, शुक्रिया कह देना काफ़ी नही होगा, आवाज़ के इस महान जादूगर को शत शत नमन
pooja said…
जाने वाले कब और किस रूप में हमारे सामने आ जाएँ, यह तो हम नहीं जानते, किंतु जाने वाले की याद में यह आलेख पढ़ कर मन अति भावुक हो आया , शैलेश जी का बहुत बहुत आभार, मुकेश जी जैसे महान व्यक्तित्व को हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि
aisa sanshamaran pehle kabhi nai padha tha......aankhein baar-baar nam hoti rahin. Kin-kin ka shukriya ada karoon samajh nahi aa raha.
Sabse pehle to Mukesh ji ka shukriya, jinhone kai saari filmon , sangeeton aur kalaakaron ko paribhaashit kiya.
Hriday nath ji ka shukriya , jinhone aisa sansmaran likha.
Shailesh ji ka shukriya, jinhone is sansmaran ko yahaaan prastut kiya.

Awaaz aise hi uthati rahegi,
manzilein ho door kitni bhi, milti rahengi.

-Vishwa Deepak
Manish Kumar said…
bahut hi mehnat ki hai shailesh aapne ise yahan pesh karne mein , hats off to you...
Magnificent Tribute - Thanx a ton, Shailesh ji --
Hriday Nath bhai's article is excellent & heart wrenching.
anitakumar said…
Thanks a ton for this article...Shailesh you are doing a very good job...congratulations
बहुत ही पछतावा हो रहा है कि इतना अच्छा लेख कल ही क्यों नही पढ़ा.बहुत ही अच्छा संकलन प्रस्तुत किया शैलेश जी और उनके सहयोगियों ने.वाकई में अंत तक पढ़ते पढ़ते आंखे नम हो आई.गानों का संकलन भी अति उत्तम है.बहुत-बहुत-बहुत अच्छा लेख
artist. said…
shailesh ji aapka bahut bahut shukriya ki aapne itani saari baaten jo mukesh ji ke antim chhann ki hamare saath share kiya aor humen in baaton se avgat karaya.main mukesh ji ke gaane bachapan se hi gun gunata aaya hun
aor ab to mukesh ji ke gaane dil aor deemag mein beithe hai.meri bhagwan se prarthna hai ki mukesh ji ko amar banaye rakhe aor unake gaane hamare dil mein yunhi gunjata rahe

aa lout ke aaja mere meet.........

aapka ye lekh padh kar aanken bhar aayi.

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स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट