Skip to main content

मैं तो दीवाना...दीवाना...दीवाना...मुकेश, एक परिचय

इससे पहले आपने पढ़ा हृदय नाथ मंगेशकर द्वारा लिखित संस्मरण 'ओ जाने वाले हो सके तो॰॰॰' और सुने मुकेश के गाये ९ हिट गीत। संजय पटेल का आलेख 'दर्द को सुरीलेपन की पराकाष्ठा पर ले जाने वाले अमर गायक मुकेश'। अब जानिए मुकेश के बारे में तपन शर्मा से।


मुकेश चंद्र माथुर का जन्म दिल्ली के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में जुलाई २२, १९२३ को हुआ। उन्हें अभिनय व गायन का बचपन से ही शौक था और वे के.एल. सहगल के प्रशंसक थे। मात्र दसवीं तक पढ़ने के बावजूद उन्हें लोक निर्माण कार्य में सहायक सर्वेक्षक विभाग में नौकरी मिल गई, जहाँ पर उन्होंने सात महीने तक काम किया। पर भाग्य को कुछ और ही मंजूर था। दिल्ली में उन्होंने चुपके से कईं गैर-फिल्मी गानों की रिकार्डिंग करी। उसके बाद तो वे भाग कर मुम्बई में फिल्म-स्टार बनने के लिये जा पहुँचे। वे अपने रिश्तेदार व प्रसिद्ध कलाकार मोतीलाल के यहाँ ठहरने लगे।

मोतीलाल की मदद से वे फिल्मों में काम करने लगे। एक गायक के तौर पर उनका पहला गीत "निर्दोष" में "दिल ही बुझा हुआ..." रहा, उसके बाद उनका पहला युगल गीत फिल्म "उस पार" में गायिका कुसुम के साथ "ज़रा बोली री हो.." था। फिर उन्होंने फिल्म "मूर्ति" में "बदरिया बरस गई उस पार.." खुर्शीद के साथ गाया। उस समय तक उन्होंने सुनने वालों के मन में अपनी एक जगह बना ली थी। तब उनके जीवन में महत्त्व पूर्ण घटना घटी। साल था १९४५, जब अनिल बिस्वास ने उनसे फिल्म 'पहली नज़र' के लिये 'दिल जलता है तो जलने दे....' गाने के लिये कहा। ये वो गीत था जो मुकेश को पूरी तरह से लोगों की नजरों व प्रसिद्धि में ले आया। वे किंवदंति बन चुके थे और आने वाले कईं दशकों तक उनकी जादुई आवाज़ को पूरे देश ने ‘आग’, ‘अनोखी अदा’ और ‘मेला’ के गानों में सुना।


१९४९ में उन्होंने एक और मील का पत्थर पार किया। वो था उनका राज कपूर और शंकर-जयकिशन के साथ मिलन। राजकपूर उनसे और शंकर-जयकिशन से अपने आर.के. फिल्म्स के लिये गानों की फरमाईश करते रहते। उसके बाद तो 'आवारा' और 'श्री ४२०" जैसी फिल्मों में गाये गये 'आवारा हूँ..' व ' मेरा जूता है जापानी..' से उनकी आवाज़ ने देश ही नहीं विदेश में भी शोहरत पाई। रूस में तो "आवारा हूँ..." सड़कों पर सुनाई देने लगा था। राज कपूर जैसे चतुर निर्देशक व संगीत प्रेमी के साथ काम करने का मुकेश को फायदा मिला। राज कपूर फिल्मों में अच्छे गानों के पक्षधर रहे। शंकर जयकिशन की हर एक धुन को वे सुनते थे व उनके पास करने पर ही वो धुन रिकार्डिंग के लिये जाया करती थी। राज कपूर हर गाने की रिकार्डिंग के वक्त स्टूडियो में ही रहते थे व आर्केस्ट्रा की हौंसला अफजाई करते रहते। उनके संगीत के प्रति इसी समर्पण का असर आने वाली हर पीढी पर दिखा जो जब भी राज कपूर के गाने सुनती है तो हर बार नई ताज़गी सी मिलती है। ‘आह’, ‘आवारा’, ‘बरसात’, ‘श्री ४२०’, ‘अनाड़ी’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘संगम’, ‘मेरा नाम जोकर’ व अन्य कईं फिल्मों के गाने आज भी तरो-ताज़ा से लगते हैं। राज कपूर की सफलता के साथ मुकेश व शंकर जयकिशन की सफलता भी शामिल रही।

लेकिन उनका जीवन हमेशा आसान नहीं रहा। 'आवारा' की सफलता के बाद मुकेश ने दोबारा अभिनय के क्षेत्र में अपने आपको आजमाने का प्रयास किया और अपने गायन के करियर को हाशिये पर धकेल दिया। सुरैया के साथ ‘माशूका’ (१९५३) व ऊषा किरोन के साथ ‘अनुराग’ (१९५६) बहुत बुरी तरह से पिटी। उन्होंने राज कपूर की फिल्म ‘आह’ (१९५३) में एक तांगे वाले की छोटी सी भूमिका निभाई। उसी फिल्म के एक गाने- ‘छोटी सी ज़िन्दगानी’ को उन्होंने गाया भी। कठिन परिस्थितियों को देखते हुए मुकेश ने पार्श्व गायन में दोबारा हाथ आजमाने का निश्चय किया। परन्तु तब उन्हें न के बराबर ही काम मिल रहा था। स्थिति इतनी गम्भीर हो चुकी थी कि उनके दोनों बच्चे नितिन और रितु को स्कूल छोड़ना पड़ा।

आखिरकार उन्होंने ‘यहूदी’ (१९५८) के गाने 'ये मेरा दीवानापन है..' से जोरदार वापसी करी। उसी साल आई ‘मधुमति’, ‘परवरिश’ और ‘फिर सुबह होगी’ के गाने इतने जबर्दस्त थे कि मुकेश ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। एस.डी बर्मन जिन्होंने तब तक मुकेश को अपने गानों में मौका नहीं दिया था, उनसे दो उत्कृष्ट गीत गवाये। वे गीत थे- फिल्म 'बम्बई का बाबू' (१९६०) से 'चल री सजनी...' और बन्दिनि (१९६३) से 'ऒ जाने वाले हो सके तो लौट के आना...'। उसके बाद तो मुकेश ६० और ७० के दशक में चमके रहे और उन्होंने 'हिमालय की गोद में'(१९६५) से 'मैं तो एक ख्वाब हूँ...', मेरा नाम जोकर से 'जीना यहाँ मरना यहाँ..' आनंद(१९७०) से 'मैंने तेरे लिये ही सात रंग के..' 'रोटी कपड़ा और मकान' से ' मैं न भूलूँगा..'जैसे असंख्य मधुर और दिल व आत्मा को छू जाने वाले गीत गाये। और उनके ‘कभी कभी’ (१९७६) के दो गानों 'मैं पल दो पल का शायर...' और 'कभी कभी मेरे दिल में..' को कौन भूल सकता है।

अन्य संगीत निर्देशक जिनके लिये मुकेश ने बेहतरीन गाने गाये, वे थे लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंदजी, सलिल चौधरी, ऊषा खन्ना, आर.डी.बर्मन वगैरह। फिल्म 'कभी कभी' में तो खय्याम के संगीत, साहिर लुधियानवी के गीत और मुकेश की आवाज़ ने तो जादू बिखेर दिया था।

१९७४ में मुकेश ने सलिल चौधरी द्वारा संगीतबद्ध, फिल्म रजनीगंधा में 'कईं बार यूँ भी देखा है...' गाया जिसके लिये उन्हें उस साल के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 'सत्यम शिवम सुंदरम'(१९७८) का गीत 'चंचल शीतल, कोमल' उनका आखिरी रिकार्ड किया गया गाना था। २७ अगस्त १९७६ में अमरीका के डेट्रोएट में संगीत समारोह के दौरान आये दिल के दौरे से उनका देहांत हो गया। मुकेश आज हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी अमर आवाज़ हमेशा हमेशा संगीत प्रेमियों को अपना दीवाना बनाती रहेगी, आज उनकी पुण्यतिथि पर हम याद करें उस अमर फनकार को, उनके यादगार गीतों को सुनकर, आईये, चलते चलते सुनें एक बार वही गीत जिसके लिए उन्हें रास्ट्रीय पुरस्कार मिला, फ़िल्म 'रजनीगंधा' के इस गीत को लिखा है योगेश ने, और संगीत है सलील दा का, इन दोनों के बारे में हम आगे बात करेंगे, फिलहाल सुनें मुकेश को, जिन्होंने इस गीत को भावनाओं के चरम शिखर पर बिठा दिया है अपनी आवाज़ के जादू से.



जानकारी सोत्र - इन्टरनेट.
संकलन - तपन शर्मा "चिन्तक"



इससे पहले आपने पढ़ा हृदय नाथ मंगेशकर द्वारा लिखित संस्मरण 'ओ जाने वाले हो सके तो॰॰॰' और सुने मुकेश के गाये ९ हिट गीत। संजय पटेल का आलेख 'दर्द को सुरीलेपन की पराकाष्ठा पर ले जाने वाले अमर गायक मुकेश'। अब जानिए मुकेश के बारे में तपन शर्मा से।

Comments

Manish Kumar said…
जानकारी से भरा बेहतरीन आलेख !
pooja said…
मुकेश जी के गाये गाने सदाबहार हैं और हमेशा रहेंगे , आज उनके बारे में पढ़ते हुए उनके गाये गीत फ़िर से तरोताजा हो गए , उनके गायकी के सफर के बारे में बताने के लिए तपन जी और हिंद युग्म को धन्यवाद
मुकेश अपने गीतों में सदैव जिन्दा रहेंगे.पाठको के लिए मुकेश पर इतना अच्छा लेख प्रकाशित करने के लिए हिन्दयुग्म परिवार को बहुत-बहुत धन्यवाद

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट