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स्वरगोष्ठी में आज : ठुमरी- ‘गोरी तोरे नैन काजर बिन कारे...’


'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' की पहली वर्षगाँठ पर सभी पाठकों-श्रोताओं का हार्दिक अभिनन्दन   


स्वरगोष्ठी-९८  में आज 

फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी –९ 

श्रृंगार रस से परिपूर्ण ठुमरी ‘गोरी तोरे नैन काजर बिन कारे...’



फिल्मों में शामिल की गई पारम्परिक ठुमरियों पर केन्द्रित ‘स्वरगोष्ठी’ की लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के एक नए अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, आज का यह अंक जारी श्रृंखला की ९वीं कड़ी है और आज की इस कड़ी में हम आपको पहले राग पीलू की ठुमरी ‘गोरी तोरे नैन, काजर बिन कारे... ’ का पारम्परिक स्वरूप, और फिर इसी ठुमरी का फिल्मी स्वरूप प्रस्तुत करेंगे। इसके अलावा इस अंक में एकल तथा युगल ठुमरी गायन की परम्परा के बारे में आपके साथ चर्चा करेंगे। 


ज पीलू की यह ठुमरी ‘गोरी तोरे नैन काजर बिन कारे...’ हम आपको सबसे पहले गायिका इकबाल बानो की आवाज़ में सुनवाते हैं। इकबाल बनो का जन्म १९३५ में दिल्ली के एक सामान्य परिवार में हुआ था। बचपन में ही उनकी प्रतिभा को पहचान कर दिल्ली के उस्ताद चाँद खाँ ने उन्हें रागदारी संगीत का प्रशिक्षण देना आरम्भ किया। कुछ वर्षों की संगीत-शिक्षा के दौरान उस्ताद ने अनुभव किया कि इकबाल बानो के स्वरों में भाव और रस के अभिव्यक्ति की अनूठी क्षमता है। उस्ताद ने उन्हें ठुमरी, दादरा और गजल गायन की ओर प्रेरित और प्रशिक्षित किया। मात्र १४ वर्ष की आयु में इकबाल बानो ने दिल्ली रेडियो से शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय गायन आरम्भ कर दिया था। वर्ष १९५० में उन्हें देश की प्रख्यात गायिकाओं में शुमार कर लिया गया था। १९५२ में १७ वर्ष की आयु में उनका विवाह पाकिस्तान के एक समृद्ध परिवार में हुआ और उन्होने मुल्तान शहर को अपना नया ठिकाना बनाया। पाकिस्तान के संगीत-प्रेमियों ने इकबाल बानो को सर-आँखों पर बैठाया। शीघ्र ही वह रेडियो पाकिस्तान की नियमित गायिका बन गईं। यही नहीं उन्होने अनेक फिल्मों में पार्श्वगायन भी किया। १९८५ में उन्हें फैज अहमद ‘फैज’ की नज़मों पर विशेष शोध और गायन के लिए विश्वस्तर पर सम्मान प्राप्त हुआ था। २१ अप्रैल, २००९ को लाहौर में उनका निधन हो गया। इस अप्रतिम गायिका के स्वरों में ही है, आज की ठुमरी, लीजिए प्रस्तुत है।

पीलू ठुमरी : ‘गोरी तोरे नैन काजर बिन कारे...’ विदुषी इकबाल बानो



आम तौर पर मंच पर एकल ठुमरी गायन की ही परम्परा है। युगल ठुमरी गायन का उदाहरण कभी-कभी उस समय परिलक्षित होता है, जब युगल खयाल गायक खयाल के बाद अन्त में ठुमरी गाते है। इसके अलावा नृत्य के कार्यक्रम में भाव अंग के अन्तर्गत दो नर्तक या नृत्यांगना मंच पर जब भाव-प्रदर्शन करते हैं। बीसवीं शताब्दी के मध्यकाल में संगीत के मंच पर जिन युगल गायकों का वर्चस्व था उनमें शामचौरासी घराने के उस्ताद नज़ाकत अली (१९२०-१९८४) और सलामत अली (१९३४-२००१) बन्धुओं का नाम शीर्ष पर था। देश के विभाजन के बाद ये दोनों भाई पाकिस्तान के प्रमुख युगल गायक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। इन्हीं के दो छोटे भाई अख्तर अली और ज़ाकिर अली हैं, जिनका ठुमरी-दादरा गायन संगीत के मंचों पर बेहद लोकप्रिय हुआ। आइए, अब हम आपको उस्ताद अख्तर अली और ज़ाकिर अली खाँ की आवाज़ में राग पीलू की यही ठुमरी- 'गोरी तोरे नैन काजर बिन कारे...' सुनवाते हैं।

पीलू ठुमरी : ‘गोरी तोरे नैन काजर बिन कारे...’ उस्ताद अख्तर अली और ज़ाकिर अली खाँ



१९६४ में अजीत और माला सिन्हा अभिनीत फिल्म ‘मैं सुहागन हूँ’ प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म का संगीत फिल्मों के एक कम चर्चित संगीतकार लच्छीराम तँवर ने तैयार किया था। लच्छीराम की स्वतंत्र रूप से प्रथम संगीत निर्देशित १९४७ की फिल्म थी ‘आरसी’। इस पहली फिल्म का संगीत अत्यन्त लोकप्रिय भी हुआ, किन्तु १९४७ से १९६४ के बीच उन्हें साधारण स्तर की फिल्मों के प्रस्ताव ही मिले। इसके बावजूद उनकी प्रत्येक फिल्मों के एक-दो गीतों ने लोकप्रियता के मानक गढ़े। १९६४ की फिल्म ‘मैं सुहागन हूँ’ उनकी अन्तिम फिल्म थी। इस फिल्म में लच्छीराम ने इस परम्परागत ठुमरी को आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी के स्वरों में प्रस्तुत किया। फिल्मों में प्रयोग की गई ठुमरियों में सम्भवतः पहली बार युगल स्वरों में किसी ठुमरी को शामिल किया गया था। फिल्म में नायक-नायिका अजीत और माला सिन्हा हैं, परन्तु इस ठुमरी को फिल्म के सह-कलाकारों, सम्भवतः केवल कुमार और निशी पर फिल्माया गया है। ठुमरी के अन्त में अभिनेत्री द्वारा तीनताल में कथक के तत्कार और टुकड़े भी प्रस्तुत किये गए हैं। मूलतः यह ठुमरी राग पीलू की है। परन्तु लच्छीराम ने इसे राग देस के स्वरों में बाँधा है। आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी ने गायन में राग देस के स्वरों को बड़े आकर्षक ढंग से निखारा है। रफ़ी ने इस गीत को सपाट स्वरों में गाया है किन्तु आशा भोसले ने स्वरों में मुरकियाँ देकर और बोलों में भाव उत्पन्न कर ठुमरी को आकर्षक रूप दे दिया है। आइए सुनते हैं, श्रृंगार रस से ओतप्रोत राग देस में यह फिल्मी ठुमरी। आप इस ठुमरी का रसास्वादन करें और मुझे आज के इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।

फिल्म ‘मैं सुहागन हूँ’ : देस ठुमरी : ‘गोरी तोरे नैन काजर बिन कारे...’ : आशा भोसले और मोहम्मद रफी



आज की पहेली

आज की संगीत पहेली में हम आपको एक पंजाब अंग के सुविख्यात गायक के स्वर में एक पारम्परिक ठुमरी का अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली के सौवें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा।


१- यह ठुमरी किस विख्यात गायक की आवाज़ में है?

२- आपने अभी जिस पारम्परिक ठुमरी का अंश सुना है, इसी ठुमरी का प्रयोग आठवें दशक की एक फिल्म में किया गया था। क्या आप उस फिल्म में शामिल ठुमरी के राग का नाम हमें बता सकते हैं?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के १०० वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। हमसे सीधे सम्पर्क के लिए swargoshthi@gmail.com पर अपना सन्देश भेज सकते हैं।

पिछली पहेली के विजेता


‘स्वरगोष्ठी’ के ९६वें अंक की पहेली में हमने आपको रसूलन बाई के स्वरों में भैरवी की पारम्परिक ठुमरी ‘जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ...’ का एक अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग ‘भैरवी’ और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- फिल्म ‘सौतेला भाई’। दोनों प्रश्नों के सही उत्तर जबलपुर से क्षिति तिवारी, लखनऊ से प्रकाश गोविन्द और जौनपुर, उत्तर प्रदेश से डॉ. पी.के. त्रिपाठी ने दिया है। तीनों प्रतिभागियों को रेडियो प्लेबैक इण्डिया की ओर से हार्दिक बधाई।

झरोखा अगले अंक का



मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ की शुरुआत हमने १९३६ की फिल्म ‘देवदास’ में शामिल पारम्परिक ठुमरी ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन....’ से किया था। अब हम आ पहुँचे हैं, इस श्रृंखला के समापन की दिशा में। अन्तिम दो अंकों में हम आठवें दशक की फिल्मों में शामिल ठुमरियों पर चर्चा करेंगे। अगले अंक में हम आपके लिए एक और मनमोहक पारम्परिक ठुमरी लेकर उपस्थित होंगे। अगले रविवार को प्रातः ९-३० पर हमारी इस सुरीली गोष्ठी में आप अपनी उपस्थिति अवश्य दर्ज़ कराइएगा। अब हमें आज के इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।

कृष्णमोहन मिश्र


Comments

Sajeev said…
iqbal bano kii awaaz men ise sunna bahtareen laga
Unknown said…
Aathee dashak mein ise yesudas ne raag sindh bhairavi mrin gaya thaa
Unknown said…
Ye paheli wali thumri ustad bade gulam ali khan saab ki gayi hui hai

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