स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा
के सौ साल – 27
मैंने देखी पहली फ़िल्म
मैंने देखी पहली फ़िल्म
भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित
विशेष अनुष्ठान- ‘स्मृतियों के झरोखे से’ में आप सभी सिनेमा प्रेमियों का
हार्दिक स्वागत है। गत जून मास के दूसरे गुरुवार से हमने आपके संस्मरणों पर
आधारित प्रतियोगिता ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ का आयोजन किया है। इस स्तम्भ
में हमने आपके प्रतियोगी संस्मरण और रेडियो प्लेबैक इण्डिया के संचालक
मण्डल के सदस्यों के गैर-प्रतियोगी संस्मरण प्रस्तुत किये हैं। आज के अंक
में हम उत्तर प्रदेश राज्य के सेवानिवृत्त सूचना अधिकारी सतीश पाण्डेय जी
का प्रतियोगी संस्मरण प्रस्तुत कर रहे हैं। सतीश जी ने अपनी पहली देखी
फिल्म ‘हक़ीक़त’ की चर्चा की है। यह भारत की पहली युद्ध विषयक फिल्म मानी
जाती है।
पहली फिल्म देखने के दौरान जब प्रिंसिपल ने हॉल पर छापा मारा : सतीश पाण्डेय
आज जब मेरे सामने यह सवाल उठा कि मेरे जीवन की पहली फिल्म कौन थी, तो इसके जवाब में मैं यही कहना चाहूँगा कि वह ऐतिहासिक फिल्म थी ‘हकीकत’। 1962 में हमारे पड़ोसी देश चीन ने जमीन हथियाने के नापाक इरादे से हमारी सीमाओं पर हमला कर दिया था। हमारी सेना को इस हमले का कोई गुमान न था। तब हमारे बहादुर जवानों ने सीमित साधन और आधी-अधूरी तैयारी के बावजूद हर मोर्चे पर जान की बाजी लगाई थी। भारतीय सेना के त्याग और बलिदान की कुछ सच्ची कथाओं पर फिल्म निर्माता और निर्देशक चेतन आनन्द ने 1964 में फिल्म ‘हकीकत’ बनाई थी। हमारे शहर लखनऊ के निशात सिनेमा हॉल में जब यह फिल्म घटी दरों पर दूसरी बार लगी थी तब मैंने इसे देखा था। उस समय हाईस्कूल पास करके क्वीन्स कालेज में इंटरमीडिएट का छात्र था। एक दिन स्कूल पहुँचने पर पता चला कि केमेस्ट्री के टीचर नहीं आए हैं। बस फिर क्या था, चार-पाँच फिल्म के शौकीन साथियों ने दोपहर के शो का प्रोग्राम बना लिया। उन साथियों ने मुझे भी इस प्रोग्राम में शामिल कर लिया। पहले तो मैंने घरवालों और कालेज के प्रिन्सिपल के डर से ना-नुकुर किया, लेकिन पहली बार फिल्म देखने के रोमांच के कारण साथियों के इस षड्यंत्र में शामिल हो गया। वैसे जेब में पड़ी अठन्नी भी कुलबुला रही थी।
डरते-डरते, अपना चेहरा छुपाते हुए हम सब किसी तरह सिनेमा हॉल पहुँचे। टिकट के लिए जब खिड़की में हाथ डाला तो टिकट के साथ बुकिंग क्लर्क ने हथेली पर एक मूहर भी लगा दी। बाद में साथियों ने बताया कि ब्लैक में टिकट बेचा न जा सके, इसलिए हथेली पर मूहर लगाया गया है। गेटकीपर इसी मूहर को देख कर ही हॉल के अन्दर जाने देता था। अन्दर जाकर देखा कि मेरे कालेज ही अन्य साथी दो-तीन समूहों में पहले से ही विराजमान थे। बहरहाल, फिल्म शुरू हुई और मैं एकाग्र होकर एक-एक फ्रेम में डूबता गया। युद्ध दृश्यों की फोटोग्राफी देखकर मैं चकित था। मेरी एकाग्रता तब टूटी जब इंटरवल से करीब दो मिनट पहले साथियों में खुसुर-पुसुर होने लगी कि कालेज के प्रिन्सिपल ने हॉल पर छापा मारा है। इंटरवल में हमारे प्रिंसिपल धड़धड़ाते हुए हॉल में घुसे और कालेज के हर विद्यार्थी के पास गए, नाम पूछा और अगले दिन अपने आफिस में मिलने का आदेश देकर चले गए। इस आकस्मिक घटना के बाद मेरे दिल की धड़कने बढ़ गई थी। इंटरवल के बाद की फिल्म का तो मजा ही किरकिरा हो गया था। उसी वक्त तय किया कि आगे कभी भी कालेज कट कर फिल्म नहीं देखना है। मन ही मन की गई प्रतिज्ञा को मैंने अपनी विश्वविद्यालय तक की पढ़ाई तक निभाया।
उन दिनों मध्यवर्गीय परिवार के बच्चों का फिल्म देखना अच्छा नहीं माना जाता था, और अकेले फिल्में देखना तो मानो अपराध ही था। बाद में मैं दोस्तों के साथ ही फिल्म देखने जाता था, मगर माँ को बता कर (पिता जी को नहीं) जाया करता था। जब कभी अपनी पहली देखी फिल्म की याद करता हूँ, तब से लेकर आज तक फिल्मों में काफी बदलाव आया है। तकनीक के स्तर पर फिल्मों में खूब विकास हुआ है, लेकिन आज की फिल्में रस और भाव से दूर हैं। यही स्थिति गानों की है। आज देखी फिल्म के गाने अगले दिन भुला दिये जाते हैं। हॉल में जाकर फिल्में देखने की इच्छा ही नहीं होती। वैसे भी लखनऊ के मेरे प्रिय सिनेमा हॉल, जैसे- मेफेयर, बसंत, प्रिंस, निशात, जयहिंद, तुलसी आदि सब बंद हो चुके हैं। अब तो बस अपनी देखी पहली फिल्म ‘हकीकत’ से लेकर ज्यादा से ज्यादा 1980 तक की फिल्मों के गानों को गुनगुना कर जुगाली कर लेता हूँ।
सतीश जी की देखी पहली और यादगार फिल्म ‘हक़ीक़त’ के बारे में अभी आपने उनका संस्मरण पढ़ा। अब हम आपको इस फिल्म के दो गीत सुनवाते हैं, जो सतीश जी को ही नहीं हम सबको बेहद प्रिय है। 1964 में प्रदर्शित फिल्म ‘हक़ीक़त’ के संगीतकार थे मदनमोहन और गीत लिखे थे कैफी आज़मी ने। दूसरा गीत- ‘अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों...’ आज भी प्रत्येक राष्ट्रीय पर्व पर हम अवश्य सुनते हैं।
फिल्म – हक़ीक़त : ‘हो के मजबूर मुझे...’ : मोहम्मद रफी, तलत महमूद, भूपेन्द्र सिंह और मन्ना डे
आपको सतीश जी का यह संस्मरण कैसा लगा, हमें अवश्य लिखिएगा। आप अपनी प्रतिक्रिया radioplaybackindia@live.com
पर भेज सकते हैं। ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ प्रतियोगिता का यह समापन
संस्मरण था। इस प्रतियोगिता का परिणाम और विजेताओं के नाम इस मास के अन्तिम
गुरुवार अर्थात 27 दिसम्बर को घोषित करेंगे। नए वर्ष से हम इसके स्थान पर
एक नई श्रृंखला आरम्भ करेंगे। आप अपने सुझाव और फरमाइश अवश्य
भेजें।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
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