स्वरगोष्ठी-101 में आज
फिल्म संगीत के गुलदस्ते को रागों की खुशबू दी अप्रतिम साधक नौशाद अली ने
‘स्वरगोष्ठी’ का यह 101वाँ अंक है और इस विशेष अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र
सभी संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। मित्रों, दो दिन बाद
ही अर्थात 25 दिसम्बर को भारतीय सिनेमा के एक महान संगीतकार नौशाद अली का
94वाँ जन्मदिवस हम मनाने जा रहे हैं। इस उपलक्ष्य में हम ‘स्वरगोष्ठी’ की
दो कड़ियों के माध्यम से सिनेमा संगीत का एक मानक स्थापित करने वाले
संगीतकार नौशाद के व्यक्तित्व और कृतित्व का स्मरण कर रहे हैं। आज के अंक
के लिए हमने 1946 से लेकर 1955 तक, अर्थात एक दशक की अवधि के कुछ राग
आधारित गीतों को चुना है जिनमें नौशाद की सांगीतिक प्रतिभा के स्पष्ट दर्शन
होते हैं।
25
दिसम्बर, 1919 को सांगीतिक परम्परा से समृद्ध शहर लखनऊ के कन्धारी बाज़ार
में एक साधारण परिवार में नौशाद का जन्म हुआ था। नौशाद जब कुछ बड़े हुए तो
उनके पिता घसियारी मण्डी स्थित अपने नए घर में आ गए। यहीं निकट ही मुख्य
मार्ग लाटूश रोड (वर्तमान गौतम बुद्ध मार्ग) पर संगीत के वाद्ययंत्र बनाने
और बेचने वाली दूकाने थीं। उधर से गुजरते हुए बालक नौशाद घण्टों दूकान में
रखे साज़ों को निहारा करता था। एक बार तो दूकान के मालिक गुरबत अली ने नौशाद
को फटकारा भी, लेकिन नौशाद ने उनसे आग्रह किया की वे बिना वेतन के दूकान
पर रख लें। नौशाद उस दूकान पर रोज बैठते, साज़ों की झाड़-पोछ करते और दूकान
मालिक का हुक्का तैयार करते। संगीत के प्रति ऐसी ही दीवानगी में नौशाद का
बचपन बीता। साज़ों की झाड़-पोंछ के दौरान ही कभी-कभी बजाने का मौका भी मिल
जाता था।
उन दिनों मूक फिल्मों का युग था। लखनऊ के रॉयल सिनेमाघर
में फिल्मों के प्रदर्शन के दौरान एक लद्दन खाँ थे जो हारमोनियम बजाया करते
थे। यही खाँ साहब नौशाद के पहले गुरु बने। नौशाद के पिता संगीत के सख्त
विरोधी थे, अतः घर में बिना किसी को बताए सितार नवाज़ युसुफ अली और गायक
बब्बन खाँ की शागिर्दी की। कुछ बड़े हुए तो उस दौर के नाटकों की संगीत
मण्डली में भी काम किया। घर वालों की फटकार बदस्तूर जारी रहा। अन्ततः एक
दिन घर में बिना किसी को बताए माया नगरी बम्बई की ओर रुख किया।
इसके
आगे का वृतान्त हम जारी रखेंगे, इस बीच थोड़ा विराम लेकर हम आपको नौशाद का
संगीतबद्ध किया एक गीत सुनवाते हैं। यह गीत हमने 1946 में प्रदर्शित फिल्म
‘शाहजहाँ’ से लिया है। फिल्म के नायक और गायक कुन्दनलाल (के.एल.) सहगल थे।
कई अर्थों में यह फिल्म भारतीय फिल्म इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों से
अंकित है। इस फिल्म का गीत- ‘जब दिल ही टूट गया...’ सहगल का अन्तिम गीत
हुआ। इसी गीत के गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी की यह पहली फिल्म थी। इसी गीत को
नौशाद ने सहगल से आग्रह कर दो बार, एक बार बिना शराब पिये और फिर दोबारा
शराब पिला कर रिकार्ड कराया और उन्हें यह एहसास कराया कि बिना पिये वे
बेहतर गाते हैं। बहरहाल, आइए हम आपको सहगल का गाया और नौशाद का संगीतबद्ध
किया फिल्म ‘शाहजहाँ’ का वह गीत सुनवाते हैं जो राग बिहाग पर आधारित है। इस
गीत में राग के स्वर और भाव स्पष्ट रूप से झलकते हैं।
राग- बिहाग : फिल्म ‘शाहजहाँ’ : ‘ऐ दिल-ए-बेकरार झूम...’ : कुन्दनलाल सहगल
घर से भाग कर बम्बई (अब मुम्बई) पहुँचे नौशाद अली कुछ समय तक भटकते रहे। एक दिन न्यू पिक्चर कम्पनी में संगीत वादकों के चयन के लिए प्रकाशित विज्ञापन के आधार पर नौशाद बड़ी उम्मीद लेकर ग्रांट रोड स्थित कम्पनी के कार्यालय पहुँचे। वहाँ उस समय के जाने-माने संगीतकार उस्ताद झण्डे खाँ वादकों का इंटरव्यू ले रहे थे। नौशाद ने भी खाँ साहब को कुछ सुनाया। उन्होने बाद में आने को कह कर नौशाद को रुखसत किया। उसी इंटरव्यू में नौशाद की भेंट गुलाम मोहम्मद से हुई, जो आगे चलकर पहले उनके सहायक बने और फिर बाद में स्वतंत्र संगीतकार भी हुए। बहरहाल, उस्ताद झण्डे खाँ ने नौशाद को पियानो वादक के रूप में चालीस रुपये और गुलाम मोहम्मद को तबला व ढोलक वादक के रूप में साठ रुपये मासिक वेतन पर रख लिया। और इस तरह नौशाद का प्रवेश फिल्म संगीत के क्षेत्र में हुआ।
आज के अंक के लिए नौशाद के संगीतबद्ध किये कुछ ऐसे राग आधारित गीत लेकर हम उपस्थित हुए हैं, जिनमे स्पष्ट रागानुभूति होती है। ऐसा ही एक गीत 1948 में प्रदर्शित महबूब खाँ की फिल्म ‘अनोखी अदा’ से लिया गया है। इस फिल्म का एक गीत- ‘कभी दिल, दिल से टकराता तो होगा...’ को नौशाद ने मुकेश और शमशाद बेगम दोनों के स्वर में प्रस्तुत किया था। यह गीत राग दरबारी कान्हड़ा की सार्थक अनुभूति कराता है। हम आपको शमशाद बेगम का गाया संस्करण सुनवाते हैं-
राग- दरबारी : फिल्म ‘अनोखी अदा’ : ‘कभी दिल दिल से टकराता तो होगा...’ : शमशाद बेगम
पियानो वादक के रूप में नौशाद को न्यू पिक्चर कम्पनी में एक ठिकाना तो मिल गया, परन्तु मंज़िल तो अभी कोसों दूर थी। अभी तक नौशाद मुम्बई (तब बम्बई) में रह रहे अलीम साहब के नाम लखनऊ से अपने एक मित्र का खत लेकर आए थे और उन्हीं के साथ गुजर कर रहे थे। नौकरी मिलते ही उन्होने अलीम साहब पर बोझ बने रहना उचित नहीं समझा और लखनऊ के ही एक अख्तर साहब के साथ दादर में रहने लगे। नौशाद के यह दूसरे आश्रयदाता एक दूकान में सेल्समैन थे और रात में दूकान बन्द होने के बाद दरवाजा बन्द कर अन्दर ही सोते थे। नौशाद को भी ऐसे ही रहना पड़ता था। कभी जब दूकान में गर्मी अधिक होती तो दोनों बाहर फुटपाथ पर रात गुजारते थे।
आइए अब हम वर्ष 1952 की उस फिल्म और उसके एक गीत की चर्चा करते हैं जिसने नौशाद की राग आधारित गीतों की रचना करने की क्षमता को उजागर किया। इस वर्ष प्रदर्शित फिल्म ‘बैजू बावरा’ में नौशाद ने कई कालजयी गीतो की रचना कर अपने शास्त्रीय संगीत के प्रति अनुराग को सिद्ध किया। फिल्म के गीतों के लिए उनके पास मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर का साथ तो था ही, रागों का शुद्ध रूप में प्रस्तुत करने की ललक के कारण उन्होने उस समय के प्रख्यात शास्त्रीय गायक उस्ताद अमीर खाँ और पण्डित दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर को भी फिल्म गीत गाने के लिए राजी किया। खाँ साहब और पण्डित पलुस्कर द्वारा प्रस्तुत राग देशी के स्वरों में जुगलबन्दी वाला गीत- ‘आज गावत मन मेरो...’ तो फिल्म संगीत के इतिहास में एक अमर गीत बन चुका है। इसके अलावा उस्ताद अमीर खाँ ने अपने एकल स्वर में राग पूरिया धनाश्री में गीत- ‘तोरी जय जय करतार...’ भी गाया था। परन्तु आज हम आपको नौशाद के सर्वप्रिय पार्श्वगायक मोहम्मद रफी के स्वर में राग मालकौंस पर आधारित वह गीत सुनवाते हैं, जिसकी लोकप्रियता आज भी कायम है।
राग- मालकौंस : फिल्म ‘बैजू बावरा’ : ‘मन तड़पत हरिदर्शन को आज...’ : मोहम्मद रफी
उस्ताद अमीर खाँ जैसे दिग्गज गवैये नौशाद की प्रतिभा के ऐसे कायल हुए कि आगे चल कर जब भी उन्हें नौशाद ने बुलाया, अपनी सहमति और सहयोग प्रदान किया। रागदारी संगीत के प्रति नौशाद की ऐसी अगाध श्रद्धा थी कि इस विषय पर प्रायः फिल्म के निर्माता-निर्देशक के साथ उनकी मीठी नोकझोक भी हो जाती थी। एक साक्षात्कार में नौशाद ने फ़िल्मकार ए.आर. कारदार के हवाले से जिक्र किया भी था कि फिल्म में राग आधारित गीत रखने के सवाल पर कैसे उन्हें चुनौती मिली थी। उस्ताद अमीर खाँ को नौशाद साहब ने दोबारा याद किया, 1954 में प्रदर्शित फिल्म ‘शबाब’ के लिए। इस फिल्म के अन्य गीतों के लिए मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर और हेमन्त कुमार थे, किन्तु उस्ताद अमीर खाँ से उन्होने राग मुल्तानी के स्वरों में मीरा का एक पद- ‘दया करो हे गिरिधर...’ गवाया। यह राग दिन के चौथे प्रहर के परिवेश को यथार्थ रूप से अनुभूति कराता है। आइए सुनते हैं यह गीत-
राग- मुल्तानी : फिल्म ‘शबाब’ : ‘दया करो हे गिरिधर...’ : उस्ताद अमीर खाँ
राग- बिहाग : फिल्म ‘शाहजहाँ’ : ‘ऐ दिल-ए-बेकरार झूम...’ : कुन्दनलाल सहगल
घर से भाग कर बम्बई (अब मुम्बई) पहुँचे नौशाद अली कुछ समय तक भटकते रहे। एक दिन न्यू पिक्चर कम्पनी में संगीत वादकों के चयन के लिए प्रकाशित विज्ञापन के आधार पर नौशाद बड़ी उम्मीद लेकर ग्रांट रोड स्थित कम्पनी के कार्यालय पहुँचे। वहाँ उस समय के जाने-माने संगीतकार उस्ताद झण्डे खाँ वादकों का इंटरव्यू ले रहे थे। नौशाद ने भी खाँ साहब को कुछ सुनाया। उन्होने बाद में आने को कह कर नौशाद को रुखसत किया। उसी इंटरव्यू में नौशाद की भेंट गुलाम मोहम्मद से हुई, जो आगे चलकर पहले उनके सहायक बने और फिर बाद में स्वतंत्र संगीतकार भी हुए। बहरहाल, उस्ताद झण्डे खाँ ने नौशाद को पियानो वादक के रूप में चालीस रुपये और गुलाम मोहम्मद को तबला व ढोलक वादक के रूप में साठ रुपये मासिक वेतन पर रख लिया। और इस तरह नौशाद का प्रवेश फिल्म संगीत के क्षेत्र में हुआ।
आज के अंक के लिए नौशाद के संगीतबद्ध किये कुछ ऐसे राग आधारित गीत लेकर हम उपस्थित हुए हैं, जिनमे स्पष्ट रागानुभूति होती है। ऐसा ही एक गीत 1948 में प्रदर्शित महबूब खाँ की फिल्म ‘अनोखी अदा’ से लिया गया है। इस फिल्म का एक गीत- ‘कभी दिल, दिल से टकराता तो होगा...’ को नौशाद ने मुकेश और शमशाद बेगम दोनों के स्वर में प्रस्तुत किया था। यह गीत राग दरबारी कान्हड़ा की सार्थक अनुभूति कराता है। हम आपको शमशाद बेगम का गाया संस्करण सुनवाते हैं-
राग- दरबारी : फिल्म ‘अनोखी अदा’ : ‘कभी दिल दिल से टकराता तो होगा...’ : शमशाद बेगम
पियानो वादक के रूप में नौशाद को न्यू पिक्चर कम्पनी में एक ठिकाना तो मिल गया, परन्तु मंज़िल तो अभी कोसों दूर थी। अभी तक नौशाद मुम्बई (तब बम्बई) में रह रहे अलीम साहब के नाम लखनऊ से अपने एक मित्र का खत लेकर आए थे और उन्हीं के साथ गुजर कर रहे थे। नौकरी मिलते ही उन्होने अलीम साहब पर बोझ बने रहना उचित नहीं समझा और लखनऊ के ही एक अख्तर साहब के साथ दादर में रहने लगे। नौशाद के यह दूसरे आश्रयदाता एक दूकान में सेल्समैन थे और रात में दूकान बन्द होने के बाद दरवाजा बन्द कर अन्दर ही सोते थे। नौशाद को भी ऐसे ही रहना पड़ता था। कभी जब दूकान में गर्मी अधिक होती तो दोनों बाहर फुटपाथ पर रात गुजारते थे।
आइए अब हम वर्ष 1952 की उस फिल्म और उसके एक गीत की चर्चा करते हैं जिसने नौशाद की राग आधारित गीतों की रचना करने की क्षमता को उजागर किया। इस वर्ष प्रदर्शित फिल्म ‘बैजू बावरा’ में नौशाद ने कई कालजयी गीतो की रचना कर अपने शास्त्रीय संगीत के प्रति अनुराग को सिद्ध किया। फिल्म के गीतों के लिए उनके पास मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर का साथ तो था ही, रागों का शुद्ध रूप में प्रस्तुत करने की ललक के कारण उन्होने उस समय के प्रख्यात शास्त्रीय गायक उस्ताद अमीर खाँ और पण्डित दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर को भी फिल्म गीत गाने के लिए राजी किया। खाँ साहब और पण्डित पलुस्कर द्वारा प्रस्तुत राग देशी के स्वरों में जुगलबन्दी वाला गीत- ‘आज गावत मन मेरो...’ तो फिल्म संगीत के इतिहास में एक अमर गीत बन चुका है। इसके अलावा उस्ताद अमीर खाँ ने अपने एकल स्वर में राग पूरिया धनाश्री में गीत- ‘तोरी जय जय करतार...’ भी गाया था। परन्तु आज हम आपको नौशाद के सर्वप्रिय पार्श्वगायक मोहम्मद रफी के स्वर में राग मालकौंस पर आधारित वह गीत सुनवाते हैं, जिसकी लोकप्रियता आज भी कायम है।
राग- मालकौंस : फिल्म ‘बैजू बावरा’ : ‘मन तड़पत हरिदर्शन को आज...’ : मोहम्मद रफी
उस्ताद अमीर खाँ जैसे दिग्गज गवैये नौशाद की प्रतिभा के ऐसे कायल हुए कि आगे चल कर जब भी उन्हें नौशाद ने बुलाया, अपनी सहमति और सहयोग प्रदान किया। रागदारी संगीत के प्रति नौशाद की ऐसी अगाध श्रद्धा थी कि इस विषय पर प्रायः फिल्म के निर्माता-निर्देशक के साथ उनकी मीठी नोकझोक भी हो जाती थी। एक साक्षात्कार में नौशाद ने फ़िल्मकार ए.आर. कारदार के हवाले से जिक्र किया भी था कि फिल्म में राग आधारित गीत रखने के सवाल पर कैसे उन्हें चुनौती मिली थी। उस्ताद अमीर खाँ को नौशाद साहब ने दोबारा याद किया, 1954 में प्रदर्शित फिल्म ‘शबाब’ के लिए। इस फिल्म के अन्य गीतों के लिए मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर और हेमन्त कुमार थे, किन्तु उस्ताद अमीर खाँ से उन्होने राग मुल्तानी के स्वरों में मीरा का एक पद- ‘दया करो हे गिरिधर...’ गवाया। यह राग दिन के चौथे प्रहर के परिवेश को यथार्थ रूप से अनुभूति कराता है। आइए सुनते हैं यह गीत-
राग- मुल्तानी : फिल्म ‘शबाब’ : ‘दया करो हे गिरिधर...’ : उस्ताद अमीर खाँ
स्वतंत्र
संगीतकार के रूप में नौशाद को अवसर तो 1939-40 में ही मिल चुका था। अपने
शुरुआती दौर में उन्होने उत्तर प्रदेश की लोकधुनों का प्रयोग करते हुए अनेक
लोकप्रिय गीत रचे। ऐसे गीतों में प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य की छटा थी।
दरअसल नौशाद के ऐसे प्रयोगों से उन दिनों प्रचलित फिल्म संगीत को एक नया
मुहावरा मिला। आगे चल कर अन्य संगीतकारों ने भी प्रादेशिक और क्षेत्रीय लोक
संगीत से जुड़ कर ऐसे ही प्रयोग किए। लोक संगीत के साथ ही उन्होने
शास्त्रीय राग आधारित गीतों का प्रचलन भी पाँचवें दशक से आरम्भ कर दिया था।
नौशाद के संगीत से सजे अगले जिस गीत की हम चर्चा करने जा रहे हैं, वह 1955
में प्रदर्शित बेहद सफल फिल्म ‘उड़न खटोला’ का गीत है- ‘मोरे सइयाँ जी
उतरेंगे पार हो, नदिया धीरे बहो...’। दरअसल यह एक पारम्परिक ठुमरी है, जिसे
नौशाद ने फिल्म के लिए लता मंगेशकर से बड़े ही आकर्षक ढंग से गवाया था।
फिल्म के अन्य गीतों के साथ यह गीत भी बेहद लोकप्रिय हुआ था। आइए सुनते
हैं, राग पीलू की एक पारम्परिक ठुमरी का फिल्मी रूपान्तरण।
राग- पीलू : फिल्म ‘उड़न खटोला’ : ‘मोरे सइयाँ जी उतरेंगे पार...’ : लता मंगेशकर
और अन्त में, जिस प्रकार संगीत के मंच की परम्परा होती है, संगीतकार नौशाद की स्मृतियों को समर्पित ‘स्वरगोष्ठी’ की इस कड़ी को हम राग भैरवी से विराम देंगे। राग भैरवी पर आधारित यह गीत 1954 में प्रदर्शित फिल्म ‘अमर’ से लिया गया है। नौशाद ने इस फिल्म के लिए अत्यन्त सुरीले गीत रचे थे, जिनमें एक गीत है- ‘इंसाफ का मन्दिर है ये भगवान का घर है...’। इस गीत में भैरवी का स्पष्ट स्वरूप उभरता है। फिल्म में इस गीत के अन्तरों का प्रयोग कई बार किया गया है। मोहम्मद रफी के स्वर में आप इस गीत का आनन्द लीजिए और मुझे आज के अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए। अगले अंक में हम नौशाद के स्वरबद्ध किये राग आधारित गीतों की एक और श्रृंखला प्रस्तुत करेंगे।
राग- भैरवी : फिल्म ‘अमर’ : ‘इंसाफ का मन्दिर है ये...’ : मोहम्मद रफी
आज की पहेली
‘स्वरगोष्ठी’ के 101वें अंक से आज की संगीत पहेली एक नई श्रृंखला में पदार्पण कर रही है। इस अंक की पहेली में हम आपको एक राग आधारित फिल्मी गीत का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली के 110वें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा।
१ - संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह गीत किस राग पर आधारित है?
२ – इस इस गीत की गायिका कौन हैं?
आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 103वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’ के 99वें अंक में हमने आपको सुप्रसिद्ध गायिका विदुषी सिद्धेश्वरी देवी के स्वरों में भैरवी की एक ठुमरी का अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग भैरवी और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- संगीतकार जयदेव। दोनों प्रश्नो के सही उत्तर लखनऊ के प्रकाश गोविन्द, जबलपुर की क्षिति तिवारी और जौनपुर के डॉ. पी.के. त्रिपाठी ने दिया है। तीनों प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से बधाई।
झरोखा अगले अंक का
मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ के आगामी अंक में हम संगीतकार नौशाद अली पर जारी श्रृंखला का दूसरा भाग प्रस्तुत करेंगे। इसके साथ ही पिछले सौवें अंक तक चली संगीत प्रतियोगिता के महाविजेता और उप-विजेताओ के प्राप्तांकों और उनके नामों की घोषणा भी करेंगे। जनवरी, 2013 से हम आपके सुझावों और फरमाइशों के आधार पर आपके प्रिय कार्यक्रमों में कुछ परिवर्तन भी कर रहे हैं। अगले अंक में रविवार को प्रातः ९-३० बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इस मंच पर आप सब संगीत-रसिकों की हम प्रतीक्षा करेंगे।
कृष्णमोहन मिश्र
राग- पीलू : फिल्म ‘उड़न खटोला’ : ‘मोरे सइयाँ जी उतरेंगे पार...’ : लता मंगेशकर
और अन्त में, जिस प्रकार संगीत के मंच की परम्परा होती है, संगीतकार नौशाद की स्मृतियों को समर्पित ‘स्वरगोष्ठी’ की इस कड़ी को हम राग भैरवी से विराम देंगे। राग भैरवी पर आधारित यह गीत 1954 में प्रदर्शित फिल्म ‘अमर’ से लिया गया है। नौशाद ने इस फिल्म के लिए अत्यन्त सुरीले गीत रचे थे, जिनमें एक गीत है- ‘इंसाफ का मन्दिर है ये भगवान का घर है...’। इस गीत में भैरवी का स्पष्ट स्वरूप उभरता है। फिल्म में इस गीत के अन्तरों का प्रयोग कई बार किया गया है। मोहम्मद रफी के स्वर में आप इस गीत का आनन्द लीजिए और मुझे आज के अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए। अगले अंक में हम नौशाद के स्वरबद्ध किये राग आधारित गीतों की एक और श्रृंखला प्रस्तुत करेंगे।
राग- भैरवी : फिल्म ‘अमर’ : ‘इंसाफ का मन्दिर है ये...’ : मोहम्मद रफी
आज की पहेली
‘स्वरगोष्ठी’ के 101वें अंक से आज की संगीत पहेली एक नई श्रृंखला में पदार्पण कर रही है। इस अंक की पहेली में हम आपको एक राग आधारित फिल्मी गीत का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली के 110वें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा।
१ - संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह गीत किस राग पर आधारित है?
२ – इस इस गीत की गायिका कौन हैं?
आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 103वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’ के 99वें अंक में हमने आपको सुप्रसिद्ध गायिका विदुषी सिद्धेश्वरी देवी के स्वरों में भैरवी की एक ठुमरी का अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग भैरवी और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- संगीतकार जयदेव। दोनों प्रश्नो के सही उत्तर लखनऊ के प्रकाश गोविन्द, जबलपुर की क्षिति तिवारी और जौनपुर के डॉ. पी.के. त्रिपाठी ने दिया है। तीनों प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से बधाई।
झरोखा अगले अंक का
मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ के आगामी अंक में हम संगीतकार नौशाद अली पर जारी श्रृंखला का दूसरा भाग प्रस्तुत करेंगे। इसके साथ ही पिछले सौवें अंक तक चली संगीत प्रतियोगिता के महाविजेता और उप-विजेताओ के प्राप्तांकों और उनके नामों की घोषणा भी करेंगे। जनवरी, 2013 से हम आपके सुझावों और फरमाइशों के आधार पर आपके प्रिय कार्यक्रमों में कुछ परिवर्तन भी कर रहे हैं। अगले अंक में रविवार को प्रातः ९-३० बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इस मंच पर आप सब संगीत-रसिकों की हम प्रतीक्षा करेंगे।
कृष्णमोहन मिश्र
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