Skip to main content

११५वीं जयन्ती पर संगीत-मार्तण्ड ओंकारनाथ ठाकुर का स्मरण


स्वरगोष्ठी – ७६ में आज

‘मैं नहीं माखन खायो, मैया मोरी...’

 २० वर्ष की आयु में ही वे इतने पारंगत हो गए कि उन्हें लाहौर के गन्धर्व संगीत विद्यालय का प्रधानाचार्य नियुक्त कर दिया गया। १९३४ में उन्होने मुम्बई में ‘संगीत निकेतन’ की स्थापना की। १९४० में महामना मदनमोहन मालवीय उन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत संकाय के प्रमुख के रूप में बुलाना चाहते थे किन्तु अर्थाभाव के कारण न बुला सके।
‘स्वरगोष्ठी’ के एक नये अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने सभी संगीत-प्रेमी पाठकों-श्रोताओं का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। आज २४ जून है और आज के ही दिन वर्ष १८९७ में तत्कालीन बड़ौदा राज्य के जहाज नामक गाँव में एक ऐसे महापुरुष का जन्म हुआ था जिसने आगे चल कर भारतीय संगीत जगत को ऐसी गरिमा प्रदान की, जिससे सारा विश्व चकित रह गया। आज हम आपके साथ संगीत-मार्तण्ड पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर के व्यक्तित्व पर चर्चा करेंगे और उनकी कुछ विशिष्ट रचनाएँ आपके लिए प्रस्तुत भी करेंगे।

ओंकारनाथ के दादा महाशंकर जी और पिता गौरीशंकर जी नाना साहब पेशवा की सेना के वीर योद्धा थे। एक बार उनके पिता का सम्पर्क अलोनीबाबा के नाम से विख्यात एक योगी से हुआ। इन महात्मा से दीक्षा लेने के बाद से गौरीशंकर के परिवार की दिशा ही बदल गई। वे प्रणव-साधना अर्थात ओंकार के ध्यान में रहने लगे। तभी २४ जून, १८९७ को उनकी चौथी सन्तान ने जन्म लिया। ओंकार-भक्त पिता ने पुत्र का नाम ओंकारनाथ रखा। जन्म के कुछ ही समय बाद यह परिवार बड़ौदा राज्य के जहाज ग्राम से नर्मदा तट पर भड़ौच नामक स्थान पर आकर बस गया। ओंकारनाथ जी का लालन-पालन और प्राथमिक शिक्षा यहीं सम्पन्न हुई। इनका बचपन अभावों में बीता। यहाँ तक कि किशोरावस्था में ओंकारनाथ जी को अपने पिता और परिवार के सदस्यों के भरण-पोषण के लिए एक मिल में नौकरी करनी पड़ी। ओंकारनाथ की आयु जब १४ वर्ष थी, तभी उनके पिता का देहान्त हो गया। उनके जीवन में एक निर्णायक मोड़ तब आया, जब भड़ौच के एक संगीत-प्रेमी सेठ ने किशोर ओंकार की प्रतिभा को पहचाना और उनके बड़े भाई को बुला कर संगीत-शिक्षा के लिए बम्बई के विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय भेजने को कहा। पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के मार्गदर्शन में उनकी संगीत-शिक्षा आरम्भ हुई।

पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर के जीवन-वृत्त को आगे बढ़ाने से पहले आइए, थोड़ा विराम लेकर उनकी एक प्रिय रचना- राग नीलाम्बरी का रसास्वादन करते हैं। सुप्रसिद्ध संगीत-लेखिका डॉ. सुशीला मिश्रा ने एक अवसर पर बताया था कि राग नीलाम्बरी पण्डित जी द्वारा रचित ऐसा राग है जो कर्नाटक संगीत के राग नीलाम्बरी से भिन्न है। इस राग में काफी और सिंदूरा का ऐसा मेल है, जो मिलने के बाद एक अलग रस-भाव की सृष्टि करता है। यह राग उनकी धर्मपत्नी को बेहद प्रिय था। आइए, हम सब भी सुनते हैं पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर के स्वर में राग नीलाम्बरी की रचना का एक अंश-

राग – नीलाम्बरी : ‘मितवा बालमवा...’ : पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर



विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय, बम्बई (अब मुम्बई) में प्रवेश लेने के बाद ओंकारनाथ जी ने वहाँ के पाँच वर्ष के पाठ्यक्रम को तीन वर्ष में ही पूरा कर लिया और इसके बाद गुरु जी के चरणों में बैठ कर गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत संगीत की गहन शिक्षा अर्जित की। २० वर्ष की आयु में ही वे इतने पारंगत हो गए कि उन्हें लाहौर के गन्धर्व संगीत विद्यालय का प्रधानाचार्य नियुक्त कर दिया गया। १९३४ में उन्होने मुम्बई में ‘संगीत निकेतन’ की स्थापना की। १९४० में महामना मदनमोहन मालवीय उन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत संकाय के प्रमुख के रूप में बुलाना चाहते थे किन्तु अर्थाभाव के कारण न बुला सके। बाद में विश्वविद्यालय के एक दीक्षान्त समारोह में शामिल होने जब पण्डित जी आए तो उन्हें वहाँ का वातावरण इतना अच्छा लगा कि वे काशी में ही बस गए। १९५० में उन्होने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के गन्धर्व महाविद्यालय के प्रधानाचार्य का पद-भार ग्रहण किया और १९५७ में सेवानिवृत्त होने तक वहीं रहे।

पण्डित जी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर यह चर्चा जारी रहेगी, किन्तु यहाँ थोड़ा विराम लेकर हम आपको उनकी गायकी के कुछ उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। ‘स्वरगोष्ठी’ के पिछले अंक में प्रस्तुत ‘झरोखा अगले अंक का’ पढ़ कर हमारे कई पाठको ने हमें उलाहना दिया कि हम उन्हें सुबह का राग नहीं सुनवाते। इन पाठकों ने पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर के स्वर में सुबह के राग सुनवाने का अनुरोध किया है। आप सब का आदेश सिरोधार्य है। लीजिए प्रस्तुत है, पहले राग ललित की और उसके बाद राग तोड़ी में क्रमशः दो रचनाएँ।

राग – ललित : ‘पिउ पिउ रटत पपीहरा...’ : पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर



राग – तोड़ी : ‘गरवा में हरवा डारूँ...’ : पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर



पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का जितना प्रभावशाली व्यक्तित्व था उतना ही असरदार उनका संगीत भी था। एक बार महात्मा गाँधी ने उनका गायन सुन कर टिप्पणी की थी- “पण्डित जी अपनी मात्र एक रचना से जन-समूह को इतना प्रभावित कर सकते हैं, जितना मैं अपने अनेक भाषणों से भी नहीं कर सकता।” उन्होने एक बार सर जगदीशचन्द्र बसु की प्रयोगशाला में पेड़-पौधों पर संगीत के स्वरों के प्रभाव विषय पर अभिनव और सफल प्रयोग किया था। इसके अलावा १९३३ जब वे इटली की यात्रा पर थे, उन्हें ज्ञात हुआ की वहाँ के शासक मुसोलिनी को पिछले छः मास से नींद नहीं आई है। पण्डित जी मुसोलिनी से मिले और उनके गायन से उसे तत्काल नींद आ गई। उनके संगीत में ऐसा जादू था कि आम से लेकर खास व्यक्ति भी सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकता था। अपने बचपन में मैंने भी सुना था कि जब वे सूरदास का पद- ‘मैं नहीं माखन खायो, मैया मोरी...’ गाते थे तो पूरे श्रोता समुदाय की आँखेँ आँसुओं से भींग जाती थी। इस पद को गाते समय पण्डित जी साहित्य के सभी रसों से साक्षात्कार कराते थे। लीजिए आप भी सुनिए, पण्डित जी के स्वर में, सूरदास का यह पद-

सूरदास का पद : ‘मैं नहीं माखन खायो, मैया मोरी...’ : पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर



पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर की कालजयी रचनाओं में एक महत्त्वपूर्ण रचना है, ‘वन्देमातरम्...’। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय की यह अमर रचना, स्वतंत्र भारत के प्रथम सूर्योदय पर पण्डित जी के स्वरों से अलंकृत होकर रेडियो से प्रसारित हुई थी। आगे चल कर ‘वन्देमातरम्...’ गीत के आरम्भिक दो अन्तरों को भारत की संविधान सभा ने राष्ट्रगीत के समकक्ष मान्यता प्रदान की थी। आइए, अब हम आपको यह गीत सुनवाते हैं, जो राग देस के स्वरों में ढल कर अपूर्व परिवेश रचता है। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर के स्वर में आप यह गीत सुनिए और आज के अंक से मुझे यहीं विराम लेने की अनुमति दीजिए।

‘वन्देमातरम्...’ : पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर



आज की पहेली

आज की ‘संगीत-पहेली’ में हम आपको सुनवा रहे हैं, पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया के बांसुरी वादन का एक अंश। इसे सुन कर आपको दो आसान सवालों के जवाब देना है। ‘स्वरगोष्ठी’ के ८०वें अंक तक सर्वाधिक अंक अर्जित करने वाले पाठक-श्रोता हमारी तीसरी श्रृंखला के ‘विजेता’ होंगे।



१ – बांसुरी वादन का यह अंश किस राग में प्रस्तुत किया गया है?

२ – यह रचना किस ताल में निबद्ध है?


आप अपने उत्तर हमें तत्काल swargoshthi@gmail.com पर भेजें। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के ७८वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। हमसे सीधे सम्पर्क के लिए swargoshthi@gmail.com पर अपना सन्देश भेज सकते हैं।

पिछली पहेली के उत्तर

‘स्वरगोष्ठी’ के ७४वें अंक की पहेली में हमने आपको फिल्म पाकीज़ा में शामिल एक ठुमरी सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग पहाड़ी और दूसरे का सही उत्तर है- गायिका परवीन सुलताना। इस बार की पहेली के दोनों प्रश्नों का सही उत्तर जबलपुर की क्षिति तिवारी ने दिया है। मीरजापुर (उ.प्र.) के डॉ. पी.के. त्रिपाठी ने दूसरे प्रश्न का सही उत्तर दिया किन्तु राग पहचानने में उन्होने भूल कर दी। उन्हें इस बार एक अंक से ही सन्तोष करना होगा। दोनों प्रतियोगियों को रेडियो प्लेबैक इण्डिया की ओर से हार्दिक बधाई।

झरोखा अगले अंक का

मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ के अगले अंक में हम आपको विश्वविख्यात बांसुरी वादक पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा करेंगे। आपको याद दिया दूँ, अगले रविवार को इन महान संगीतज्ञ का जन्म-दिन है। तो भूलियेगा नहीं, अगले रविवार को प्रातः ९-३० पर आयोजित अपनी इस गोष्ठी में आप भी हमारे सहभागी बनिए।



अमित तिवारी के साथ आपकी बात

मित्रों, अब हमने आपकी प्रतिक्रियाओं, सन्देशों और सुझावों के लिए एक अलग साप्ताहिक स्तम्भ ‘आपकी बात’’ आरम्भ किया है। अब प्रत्येक शुक्रवार को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया ’ पर आपके भेजे संदेशों को हम अपने सजीव कार्यक्रम में शामिल करते हैं। आप हमें radioplaybackindia@live.co, swargoshthi@gmail.com अथवा cine.paheli@yahoo.com के पते पर अपनी टिप्पणियाँ, सुझाव और सन्देश आज ही लिखें।


“मैंने देखी पहली फिल्म” : आपके लिए एक रोचक प्रतियोगिता

दोस्तों, भारतीय सिनेमा अपने उदगम के 100 वर्ष पूर्ण करने जा रहा है। फ़िल्में हमारे जीवन में बेहद खास महत्त्व रखती हैं, शायद ही हम में से कोई अपनी पहली देखी हुई फिल्म को भूल सकता है। वो पहली बार थियेटर जाना, वो संगी-साथी, वो सुरीले लम्हें। आपकी इन्हीं सब यादों को हम समेटेगें एक प्रतियोगिता के माध्यम से। 100 से 500 शब्दों में लिख भेजिए अपनी पहली देखी फिल्म का अनुभव swargoshthi@gmail.com पर। मेल के शीर्षक में लिखियेगा “मैंने देखी पहली फिल्म”। सर्वश्रेष्ठ 3 आलेखों को 500 रूपए मूल्य की पुस्तकें पुरस्कार-स्वरुप प्रदान की जायेगीं। तो देर किस बात की, यादों की खिड़कियों को खोलिए, कीबोर्ड पर उँगलियाँ जमाइए और लिख डालिए अपनी देखी हुई पहली फिल्म का दिलचस्प अनुभव, प्रतियोगिता में आलेख भेजने की अन्तिम तिथि 31 अक्टूबर 2012 है।


कृष्णमोहन मिश्र

Comments

Unknown said…
वो सचमुच संगीत के मार्तंड थे, आप लोगोने जयंती पर उनको याद किया, आपका आभार। वो मेरे दादा गुरु थे। आपके स्वरो मे अपना स्वर मिलते हुवे मैं उन्हे अपनी पुष्पांजलि भी अर्पित करता हूँ।
संगीत सेवक श्रीकुमार मिश्रा

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट