भारतीय सिनेमा के इतिहास में दादा साहेब फालके द्वारा निर्मित मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ को भारत के प्रथम कथा-चलचित्र का सम्मान प्राप्त है। इस चलचित्र का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन 3 मई, 1913 को गिरगांव, मुम्बई स्थित तत्कालीन कोरोनेशन सिनेमा में किया गया था। इस प्रदर्शन तिथि के अनुसार भारतीय सिनेमा अपने सौवें वर्ष में प्रवेश कर चुका है। इस ऐतिहासिक अवसर पर ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ का भी योगदान रहेगा। आज से प्रत्येक गुरुवार को हम साप्ताहिक स्तम्भ- ‘स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल’ आरम्भ कर रहे हैं। मास के पहले, तीसरे और पाँचवें गुरुवार को हम भारतीय फिल्म-जगत की कुछ भूली-बिसरी यादों को समेटने का प्रयत्न करेंगे तथा दूसरे और चौथे गुरुवार को हम ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ शीर्षक से आयोजित प्रतियोगिता के लिए आपकी प्रविष्टियों को शामिल करेंगे।
इस नवीन श्रृंखला का आरम्भ हम ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ के पहले आलेख से कर रहे हैं। ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ का स्वरूप आपके लिए तो प्रतियोगितात्मक है किन्तु ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के संचालकों के लिए यह गैर-प्रतियोगी होगा। तो आइए, आरम्भ करते हैं, हमारे-आपके प्रिय स्तम्भकार सुजॉय चटर्जी की देखी पहली फिल्म के अनुभव से। सुजॉय जी ने 1983-84 में देखी अपनी पहली फिल्म ‘आँचल’ का अनुभव इस आलेख के माध्यम से बाँटा है।
मैंने देखी पहली फिल्म - 1
हमें बेरोक-टोक फ़िल्में देखने की इजाज़त नहीं थी
हमें बेरोक-टोक फ़िल्में देखने की इजाज़त नहीं थी
सुजॉय चटर्जी |
जैसा कि मैंने कहा कि यह फ़िल्म मैंने उस वक़्त देखी जब मैं 6-7 बरस का था। उस समय टेलीविज़न नहीं आया था (या यूँ कहें कि हमारे घर में नहीं आया था)। फ़िल्में देखने के लिए सिनेमाघर जाने के अलावा कोई दूसरा ज़रिया नहीं था। रेलवे कॉलोनी में रहने की वजह से हमारे घर के पास ही में 'रेलवे सीनियर इंस्टिट्यूट' था जहाँ एक ऑडिटोरियम और एक स्क्रीन भी हुआ करता था, वहीं पर कभी कभार फ़िल्में दिखाई जाती थी। जब यह फ़िल्म लगी तो कालोनी के हमारे पास-पड़ोस की कुछ महिलाओं ने फ़िल्म देखने का प्रोग्राम बनाया, और उनमें मेरी माँ भी शामिल थीं। इसलिए ज़ाहिर सी बात है कि माँ के साथ मेरा और मेरे बड़े भाई का जाना भी अत्यावश्यक था, वरना न माँ को चैन मिलता और न हम उन्हें चैन से जाने देते। वैसे आपको बता दूँ कि जब टेलीविज़न आया, तब हमें रविवार (बाद में शनिवार) शाम को प्रसारित होने वाली हिन्दी फ़ीचर फ़िल्म देखने की अनुमति नहीं थी। इसलिए थिएटर जाकर इस फ़िल्म को देखने की घटना से आप यह न समझ लीजिएगा कि हमें बेरोक-टोक फ़िल्में देखने की इजाज़त थी। कतई नहीं। यह तो बस कालोनी के सारे लोग जा रहे थे, इसलिए माँ-पिताजी ने मना नहीं किया।
'आँचल' फ़िल्म की कहानी तो मुझे अब याद नहीं, और मैंने बाद में भी फिर यह फ़िल्म कभी नहीं देखी, पर थोड़ा-थोड़ा जो याद है, वह यह कि फ़िल्म के शुरू में ही राखी पर फ़िल्माया लता मंगेशकर का गाया गीत है "भोर भये पंछी धुन यह सुनाये, जागो रे गई ऋतु फिर नहीं आये..."। इस गीत के साथ मेरा कुछ इस तरह का नाता बन गया कि यह मेरे पसन्दीदा गीतों में शामिल हो गया। अब भी जब मैं आँखें बन्द करके इस गीत को सुनता हूँ तो उस 'रेलवे इन्स्टिट्यूट' के हॉल में बैठ कर फ़िल्म देखने की घटना धुँधले रूप से याद आ जाती है, साथ ही राखी पर फिल्माया वह दृश्य, जब वो इस गीत को गाते हुए सुबह उठ कर पूजा कर रही हैं। पर अफ़सोस कि फ़िल्म की कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे मैं निद्रा देवी की गोद में धँसता जाता हूँ और फिर फ़िल्म समाप्त होने पर ही मेरी आँखें खुलती हैं। फ़िल्म देखना तो बस एक बहाना था, सारे मुहल्ले वाले एक साथ जाकर फ़िल्म देख आये, यही मज़े की बात थी। बाहर निकल कर मसालेदार चने भी खाये, शायद चार आने के, क्या पता! ख़ैर, 'आँचल' फ़िल्म के अन्य गीतों की बात करें तो रेखा पर फ़िल्माया आशा भोसले का गाया "जाने दे गाड़ी तेरी जाने दे जाने दे, अपना भी है दोनों पाँव रे..." तथा आशा-किशोर का गाया "पैसे का काजल, दैके न लो हमरी जान..." गीत भी मुझे पसन्द है। आजकल इस फ़िल्म के गानें बहुत कम ही रेडियो पर बजते हैं, पर अगर मुझसे मेरे पसन्द के लता मंगेशकर के गाये गीतों के बारे में पूछा जाएगा तो उस लिस्ट में "भोर भये पंछी..." ज़रूर होगा, और इस गीत की अहमियत मेरे लिए और भी ज़्यादा बढ़ जाती है क्योंकि यह उस फ़िल्म का गीत है जो मेरी देखी पहली फ़िल्म है।
लीजिए, प्रस्तुत है, सुजॉय चटर्जी की देखी पहली फिल्म 'आँचल' से उनका पसन्दीदा गीत- "भोर भये पंछी..."
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आलेख - सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति – कृष्णमोहन मिश्र
Comments
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जब इस उम्र में आँचल जैसी फिल्म देखेंगे तो नींद तो आएगी ही न :)