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‘जिनके दुश्मन सुख मा सोवें उनके जीवन को धिक्कार...’ वीर रस की लोक-काव्य-धारा : आल्हा

सुर संगम- 40 – आल्हा-ऊदल चरित्रों की ऐतिहासिकता

(पहला भाग)
सुर संगम’ के गत सप्ताह के अंक में हमने बुन्देलखण्ड की वीर-भूमि में उपजी और और समूचे उत्तर भारत में लोकप्रिय लोक-गायन शैली ‘आल्हा’ पर चर्चा आरम्भ की थी। आज के अंक में हम इस लोकगाथा के दो वीर चरित्रों- आल्हा और ऊदल की ऐतिहासिकता पर चर्चा करेंगे। बारहवीं शताब्दी में उपजी लोक संगीत की यह विधा अनेक शताब्दियों तक श्रुति परम्परा के रूप जीवित रही। परिमाल राजा के भाट जगनिक ने इस लोकगाथा को गाया और संरक्षित किया। आल्हा और ऊदल की ऐतिहासिकता के विषय में पिछले दिनों हमने बुन्देलखण्ड की लोक-कलाओं और लोक-साहित्य के शोधकर्त्ता, उरई निवासी श्री अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’ से चर्चा की थी।

बारहवीं शताब्दी के इतिहास में आल्हा और ऊदल का उल्लेख उस रूप में नहीं मिलता, जिस रूप में ‘आल्ह खण्ड’ में किया गया है, इस प्रश्न पर श्री कुमुद का कहना है कि इतिहास केवल राजाओं को महत्त्व देता है, सामान्य सैनिकों को नहीं,चाहे वे कितने भी वीर क्यों न हों। गायक जगनिक ने पहली बार सेना के सामान्य सरदारों और सैनिकों को अपनी गाथा में शामिल कर उनका यशोगान किया। उसने बहादुर सैनिकों को उनके यथोचित सम्मान से विभूषित किया। आल्हा और ऊदल राजा नहीं थे। इसलिए उनके बारे में इतिहास में उल्लेख नहीं मिलता है। जबकि इतिहासकार महोबा के राजा परमाल, दिल्ली के सम्राट पृथ्वीराज चौहान और जयचन्द को ऐतिहासिक व्यक्तित्व मानते हैं। उन्होंने बताया कि आल्हा के लेखन का कार्य सबसे पहले ब्रिटिश शासनकाल में फर्रुखाबाद के कलेक्टर सर चार्ल्स इलियट ने १८६५ में कराया। इसका संग्रह ‘आल्ह खण्ड’ के नाम से प्रचलित हुआ तथा यह पहला संग्रह कन्नौजी भाषा में था।

आल्हा-ऊदल चरित्रों और ‘आल्ह खण्ड’ की ऐतिहासिकता को प्रमाणित करते हुए श्री कुमुद ने कहा कि आज भी अनेक शिलालेख और भवन मौजूद हैं, जो प्रमाणित करते हैं कि आल्हा-ऊदल ऐतिहासिक पात्र हैं। उन्होंने बताया कि आल्हा और मलखान के शिलालेख हैं। श्री कुमुद के अनुसार वर्ष ११८२ के शिलालेख में यह उल्लेख है कि पृथ्वीराज चौहान ने महोबा के परमाल राजा को पराजित किया था। आल्हा के ऐतिहासिक व्यक्तित्व की पुष्टि उत्तर प्रदेश के जनपद ललितपुर में मदनपुर के एक मन्दिर में लगे ११७८ के एक शीलालेख से भी होती है। इसमें आल्हा का उल्लेख बिकौरा-प्रमुख अल्हन देव के नाम से हुआ है। मदनपुर में आज भी ६७ एकड़ की एक झील है। इसे मदनपुर तालाब भी कहते हैं। इसके पास ही बारादरी बनी है। यह बारादली आल्हा-ऊदल की कचहरी के नाम से प्रसिद्ध है। इस बारादरी और झील को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने संरक्षित किया है। आल्हा-ऊदल को ऐतिहासिक चरित्र सिद्ध करने वाले शिलालेखों और अभिलेखों की चर्चा हम जारी रखेंगे। थोड़ा विराम लेकर अब हम आपको प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश के आल्हा-विशेषज्ञ विजय सिंह की आवाज़ में ‘आल्ह खण्ड’ से एक प्रसंग सुनवाते है-

आल्हा गायन : स्वर – विजय सिंह : प्रसंग – माड़वगढ़ की लड़ाई


आल्हा गायकी और इसके चरित्रों की ऐतिहासिकता के विषय में श्री कुमुद ने बताया कि पृथ्वीराज रासौ में भी चन्द्रवरदाई ने आल्हा को अल्हनदेव शब्द से सम्बोधित किया है। उस काल में बिकौरा गाँवों का समूह था। आज भी बिकौरा गाँव मौजूद है। इसमें ११वीं और १२वीं शताब्दी की इमारते हैं। इससे प्रतीत होता है कि पृथ्वीराज चौहान के हाथों पराजित होने से चार साल पहले महोबा के राजा परमाल ने आल्हा को बिकौरा का प्रशासन प्रमुख बनाया था। यह गाँव मदनपुर से ५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है तथा दो गाँवों में विभक्त है। एक को बड़ा बिकौरा तथा दूसरे को छोटा बिकौरा कहा जाता है। उन्होंने बताया कि महोबा में भी ११वीं और १२वीं शताब्दी के ऐसे अनेक भवन मौजूद हैं जोकि आल्हा-ऊदल की प्रमाणिकता को सिद्ध करते हैं। इसी तरह सिरसागढ़ मे मलखान की पत्नी का चबूतरा भी एक ऐतिहासिक प्रमाण है। यह चबूतरा मलखान की पत्नी गजमोदनी के सती-स्थल पर बना है। पृथ्वीराज चौहान के साथ परमाल राजा की पहली लड़ाई सिरसागढ़ में ही हुई थी। इसमें मलखान को पृथ्वीराज ने मार दिया था। यहीं उनकी पत्नी सती हो गई थी। सती गजमोदिनी की मान्यता इतनी अधिक है कि उक्त क्षेत्र मे गाये जाने वाले मंगलाचरण में पहले सती की वन्दना की जाती है। उन्होंने बताया कि आल्हा ऊदल की ऐतिहासिकता की पुष्टि पन्ना के अभिलेखों में सुरक्षित एक पत्र से भी होती है। यह पत्र महाराजा छत्रसाल ने अपने पुत्र जगतराज को लिखा था।

श्री कुमुद ने आगे कहा कि आल्हा के किले को भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने संरक्षित किया है। आल्हा की लाट, मनियादेव का मन्दिर, आल्हा की सांग आज भी मौजूद हैं। इन्हें भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने मान्यता दी है। आइए अब हम आपको १९५९ में प्रदर्शित फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज चौहान’ में प्रयुक्त एक आल्हा गीत सुनवाते हैं। हिन्दी फिल्मों में आल्हा की धुन पर आधारित गीतों का प्रयोग कम ही हुआ है। बहुत खोज करने पर यह गीत प्राप्त हो सका है। पिछले दशक में प्रदर्शित फिल्म ‘मंगल पाण्डे’ के एक गीत में भी आल्हा-धुन का प्रयोग किया गया था। हमारे पाठको को यदि आल्हा-गीतों की धुन पर आधारित किसी फिल्म-गीत की जानकारी हो तो हमें अवश्य सूचित करें।

आइए सुनते हैं, मोहम्मद रफी के स्वर में फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज चौहान’ का यह आल्हा गीत, भरत व्यास के शब्दों को संगीतबद्ध किया है बसन्त देसाई ने-

आल्हा –‘लो कामना पूरी हुई हैं....’ : स्वर – मोहम्मद रफी : गीतकार – भरत व्यास


सुर संगम पहेली : पिछले कुछ सप्ताह से इस स्तम्भ की पहेली स्थगित थी। इस अंक से हम पुनः पहेली आरम्भ कर रहे हैं।

आज का प्रश्न – अगले अंक में हम आपसे आगरा घराने के एक उस्ताद संगीतज्ञ की चर्चा करेंगे, जिन्हें ‘आफताब-ए-मौसिकी’ की उपाधि से नवाजा गया था। उस महान गायक का आपको नाम और घराना बताना है।

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। अगले रविवार को हम एक उस्ताद शास्त्रीय गायक के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा के साथ पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

चित्र परिचय : आल्हा-ऊदल की आराध्य मैहर की देवी माँ शारदा


आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

Comments

Kshiti said…
Ustaad Fiyaaz khaan Agra gharana
ustad faiaaz khan sahab ki gayi bhairvi dadra 'hato kahe ko jhuthi bano batiyan' sunayenge to badi khusi hogi.

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