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सुर संगम में आज - इसराज की मोहक ध्वनि और पण्डित श्रीकुमार मिश्र

सुर संगम- 37 – सितार और सारंगी, दोनों के गुण हैं इन वाद्यों में
(दूसरा भाग)


पढ़ें पहला भाग

राग-रस-रंग की सुरीली महफिल ‘सुर संगम’ के एक और नये अंक में कृष्णमोहन मिश्र की ओर से आपका हार्दिक स्वागत है। गत सप्ताह हमने एक ऐसे लुप्तप्राय तंत्रवाद्य 'मयूरी वीणा' पर चर्चा आरम्भ की थी, जिसका चलन लगभग एक शताब्दी पूर्व समाप्त हो चुका था, किन्तु भारतीय संगीत के क्षेत्र में समय-समय पर ऐसे भी संगीतकार हुए हैं, जिन्होने लुप्तप्राय वाद्यों और संगीत-शैलियों का पुनरोद्धार किया है। जाने-माने इसराज-वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र एक ऐसे ही कलासाधक हैं, जिन्होने विभिन्न संगीत-ग्रन्थों का अध्ययन कर लगभग लुप्त हो चुके तंत्रवाद्य 'मयूरी वीणा' का नव-निर्माण किया। पिछले अंक में हमने पंजाब में इस वाद्य के विकास पर आपसे चर्चा की थी। आज के अंक में हम बंगाल में वाद्य के विकास की पंडित श्रीकुमार मिश्र द्वारा दी गई जानकारी आपसे बाँटेंगे।

बंगाल के विष्णुपुर घराने के रामकेशव भट्टाचार्य सुप्रसिद्ध ताऊस अर्थात मयूरी वीणा वादक थे। उन्होने भी इस वाद्य को संक्षिप्त रूप देने के लिए इसकी कुण्डी से मोर की आकृति को हटा दिया और इस नए स्वरूप का नाम 'इसराज' रखा। पंजाब का 'दिलरुबा' और बंगाल का 'इसराज' दरअसल एक ही वाद्य के दो नाम हैं। दोनों की उत्पत्ति 'मयूरी वीणा' से हुई है। इस श्रेणी के वाद्य वर्तमान सितार और सारंगी के मिश्रित रूप है। इसराज या दिलरुबा वाद्यों की उत्पत्ति के बाद ताऊस या मयूरी वीणा का चलन प्रायः बन्द हो गया था। लगभग दो शताब्दी पूर्व इसराज की उत्पत्ति के बाद अनेक ख्यातिप्राप्त इसराज-वादक हुए हैं। रामपुर के सेनिया घराने के सुप्रसिद्ध वादक उस्ताद वज़ीर खाँ कोलकाता में १८९२ से १८९९ तक रहे। इस दौरान उन्होने अमृतलाल दत्त को सुरबहार और इसराज-वादन की शिक्षा दी। उस्ताद अलाउद्दीन खाँ, जो उस्ताद वज़ीर खाँ के शिष्य थे, ने भी कोलकाता में इसराज-वादन की शिक्षा ग्रहण की थी। बंगाल के वादकों में स्वतंत्र वादन की परम्परा भी अत्यन्त लोकप्रिय थी। इसराज पर चमत्कारिक गतकारी शैली का विकास भी बंगाल में ही हुआ।

गया घराने के सूत्रधार हनुमान दास (१८३८-१९३६) कोलकाता में निवास करते थे और स्वतंत्र इसराज-वादन करते थे। हनुमान दास जी के शिष्य थे- कन्हाईलाल ठेडी, हाबू दत्त, कालिदास पाल, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, सुरेन्द्रनाथ, दिनेन्द्रनाथ, ब्रजेन्द्रकिशोर रायचौधरी, प्रकाशचन्द्र सेन, शीतल चन्द्र मुखर्जी आदि। ब्रजेन्द्रकिशोर रायचौधरी और प्रकाशचन्द्र सेन से सेनिया घराने के सितार-वादक इमदाद खाँ ने इसराज-वादन की शिक्षा ग्रहण की थी। कोलकाता में ही मुंशी भृगुनाथ लाल और इनके शिष्य शिवप्रसाद त्रिपाठी ‘गायनाचार्य’ इसराज वादन करते थे। शिवप्रसाद जी के शिष्य थे रामजी मिश्र व्यास। वर्तमान में सक्रिय इसराज-वादक और ‘मयूरी वीणा’ के वर्तमान स्वरूप के अन्वेषक पण्डित श्रीकुमार मिश्र, पं॰ रामजी मिश्र व्यास के पुत्र और शिष्य हैं। अपने पिता से दीक्षा लेने के अलावा इन्होने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संगीत में स्नातकोत्तर शिक्षा भी ग्रहण की है। ‘ताऊस अर्थात मयूरी वीणा’ से उत्पन्न ‘दिलरुबा’ तथा ‘इसराज’ वाद्य का प्रचलन पंजाब, गुजरात और महाराष्ट्र में अधिक रहा है। सिख समाज और रागी कीर्तन के साथ इस वाद्य का प्रचलन आज भी है। पंजाब के भाई वतन सिंह (निधन-१९६६) प्रसिद्ध दिलरुबा-वादक थे। फिल्म-संगीतकारों में रोशन और एस.डी. बातिश इस वाद्य के कुशल वादक रहे हैं।


गुजरात के नागर दास और उनके शिष्य मास्टर वाडीलाल प्रख्यात दिलरुबा-वादक थे। इनके शिष्य कनकराय त्रिवेदी ने दो उँगलियों की वादन तकनीक का प्रयोग विकसित किया था। त्रिवेदी जी ने इसी तकनीक की शिक्षा श्रीकुमार जी को भी प्रदान की है। वर्तमान में ओमप्रकाश मोहन, चतुर सिंह, और भगत सिंह दिलरुबा के और अलाउद्दीन खाँ तथा विजय चटर्जी इसराज के गुणी कलाकार हैं। श्रीकुमार मिश्र एकमात्र ऐसे कलाकार हैं, जो परम्परागत इसराज के साथ-साथ स्वविकसित ‘मयूरी वीणा’ का भी वादन करते हैं। आइए अब हम आपको सुनवाते हैं पण्डित श्रीकुमार मिश्र का बजाया इसराज पर राग मधुवन्ती। तबला संगति ठाकुर प्रसाद मिश्र ने की है। आप इस सुरीले वाद्य पर मोहक राग का आनन्द लीजिए और मुझे आज यहीं अनुमति दीजिये।

इसराज वादन : राग मधुवन्ती : कलाकार – श्रीकुमार मिश्र


अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। अगले रविवार को हम एक और शास्त्रीय अथवा लोक कलासाधक के साथ पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० अमित जी द्वारा प्रस्तुत 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

संलग्न चित्र परिचय

१- इसराज वाद्य
२- तीन तन्त्रवाद्यों का अनूठा संगम (बाएँ से) श्रीकुमार मिश्र (इसराज), विनोद मिश्र (सारंगी) और भानु बनर्जी (वायलिन).
३- सुप्रसिद्ध फिल्म संगीतकार और गायक एस.डी. बातिश दिलरुबा वादन करते हुए : एक दुर्लभ चित्र.



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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