ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 765/2011/205
नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत के लोक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी रचनाओं की चल रही शृंखला 'पुरवाई' में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। असम, सिक्किम और उत्तर बंगाल में एक बड़ा समुदाय नेपालियों का भी है। मूलत: नेपाल से ताल्लुख़ रखने वाले ये लोग बहुत समय पहले इन अंचलों में आ बसे थे और अब ये भारत के ही नागरिक हैं और भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग भी। नेपाली लोक-गीत इतने मधुर होते हैं कि तनाव भरी ज़िन्दगी जी रहे लोग अगर इन्हें सुनें तो जैसे मन-मस्तिष्क ताज़गी से भर जाता है। पहाड़ों की मन्द-मन्द शीतल बयार जैसे इन गीतों के साथ-साथ चलने लग जाती है। जितने भी भारत के पहाड़ी अंचल हैं, उनमें जो लोक-संगीत की परम्परा है, उनमें नेपाली लोक-संगीत एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान रखती है। और शायद इसी वजह से हमारी हिन्दी फ़िल्मों में भी कई बार नेपाली लोक धुनों का गीतों में इस्तमाल किया गया है। सलिल चौधरी एक ऐसे संगीतकार हुए जिन्होंने असम और पहाड़ी संगीत का ख़ूब इस्तमाल किया जिनमें नेपाली लोक धुनें भी शामिल थीं। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण फ़िल्म 'मधुमति' के गीत हैं। सचिन देव बर्मन और उनके पुत्र राहुल देव बर्मन का भी इस तरह रुझान रहा है। कहा जाता है कि दादा बर्मन नें 'ज्वेल थीफ़' फ़िल्म के गीत "होठों पे ऐसी बात मैं दबा के चली आई" की रेकॉर्डिंग् करने से इन्कार कर दिया था क्योंकि इस गीत के ऑरकेस्ट्रेशन में नेपाली वाद्यों की ज़रूरत थी जिन्हें ख़ास नेपाल से मंगवाया गया था। और क्योंकि वो सामान नहीं आ पहुँचा था, दादा नें अन्य वाद्यों का इस्तमाल करना गवारा नहीं किया। दादा के बेटे पंचम नें भी कई बार नेपाली धुनों का सहारा लिया। शम्मी कपूर पर फ़िल्माये 'तीसरी मंज़िल' का गीत "दीवाना मुझसा नहीं इस अम्बर के नीचे", फ़िल्म 'जोशीले' का गीत "दिल में जो बातें हैं आओ चलो हम कह दें" और फ़िल्म 'फिर वही रात' का गीत "संग मेरे निकले थे साजन" असल में नेपाली लोक-धुनों पर ही अधारित हैं।
'पुरवाई' के लिए हमनें नेपाली लोक धुन पर आधारित जिस फ़िल्मी रचना को चुना है, वह है फ़िल्म 'फिर वही रात' का गीत "संग मेरे निकले थे साजन, हार बैठे, थोड़ी ही दूर चल के"। लता मंगेशकर, किशोर कुमार और साथियों का गाया यह गीत फ़िल्माया गया है राजेश खन्ना, किम और सहेलियों पर। यह गीत जिस नेपाली मूल लोक गीत पर आधारित है वह एक डोहोरी गीत है, जिसके बोल हैं "आगे आगे टोपई को गोला, पाछी पाछी मशीन गन भररा"। यूं तो इस गीत के कई संस्करण बने हैं, पर सबसे पुराना और लोकप्रिय जो वर्ज़न है, वह १९६५ में डैनी डेन्ज़ोंगपा और आशा भोसले का गाया हुआ एक स्टेज शो गीत है, और इस शो का आयोजन काठमाण्डु, नेपाल में किया गया था। इस नेपाली गीत को सुनने के लिए आप यहाँ क्लिक करें:
मज़े की बात ही कहिए या फिर संयोग, 'फिर वही रात' में भी डैनी नें अभिनय किया था। "संग मेरे निकले थे साजन" गीत के बारे में यही कहना चाहेंगे कि पंचम नें भले नेपाली धुन का इस्तमाल किया, पर केवल मुखड़े में। अंतरा उनका अपना कम्पोज़िशन था। गीत के शुरु में कोरस का प्रयोग बहुत लुभावना है, और अन्त में बांसुरी की तान तो जैसे हमें यकायक किसी दूर पर्वत पर उड़ा ले जाता है। फ़िल्म के न चलने से यह गीत उतना लोकप्रिय नहीं हुआ, पर बचपन में रेडियो पर मैंने इस गीत को इतना सुना है कि मेरे पसन्दीदा गीतों में से एक रहा है यह गीत। तो आइए सुनते हैं मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा यह गीत। खासी, बिहु, असमीया कीर्तन और चाय बागान के बाद आज 'पुरवाई' में बारी नेपाली लोक धुन की। सुनिए और अपने दोस्तों यारों को भी सुनने पे मजबूर कीजिए।
चलिए आज से खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
मुखड़े में शब्द है "अलबेली"
पिछले अंक में
इंदु जी गीत कैसा लगा ये बतयिये
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी
नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत के लोक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी रचनाओं की चल रही शृंखला 'पुरवाई' में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। असम, सिक्किम और उत्तर बंगाल में एक बड़ा समुदाय नेपालियों का भी है। मूलत: नेपाल से ताल्लुख़ रखने वाले ये लोग बहुत समय पहले इन अंचलों में आ बसे थे और अब ये भारत के ही नागरिक हैं और भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग भी। नेपाली लोक-गीत इतने मधुर होते हैं कि तनाव भरी ज़िन्दगी जी रहे लोग अगर इन्हें सुनें तो जैसे मन-मस्तिष्क ताज़गी से भर जाता है। पहाड़ों की मन्द-मन्द शीतल बयार जैसे इन गीतों के साथ-साथ चलने लग जाती है। जितने भी भारत के पहाड़ी अंचल हैं, उनमें जो लोक-संगीत की परम्परा है, उनमें नेपाली लोक-संगीत एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान रखती है। और शायद इसी वजह से हमारी हिन्दी फ़िल्मों में भी कई बार नेपाली लोक धुनों का गीतों में इस्तमाल किया गया है। सलिल चौधरी एक ऐसे संगीतकार हुए जिन्होंने असम और पहाड़ी संगीत का ख़ूब इस्तमाल किया जिनमें नेपाली लोक धुनें भी शामिल थीं। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण फ़िल्म 'मधुमति' के गीत हैं। सचिन देव बर्मन और उनके पुत्र राहुल देव बर्मन का भी इस तरह रुझान रहा है। कहा जाता है कि दादा बर्मन नें 'ज्वेल थीफ़' फ़िल्म के गीत "होठों पे ऐसी बात मैं दबा के चली आई" की रेकॉर्डिंग् करने से इन्कार कर दिया था क्योंकि इस गीत के ऑरकेस्ट्रेशन में नेपाली वाद्यों की ज़रूरत थी जिन्हें ख़ास नेपाल से मंगवाया गया था। और क्योंकि वो सामान नहीं आ पहुँचा था, दादा नें अन्य वाद्यों का इस्तमाल करना गवारा नहीं किया। दादा के बेटे पंचम नें भी कई बार नेपाली धुनों का सहारा लिया। शम्मी कपूर पर फ़िल्माये 'तीसरी मंज़िल' का गीत "दीवाना मुझसा नहीं इस अम्बर के नीचे", फ़िल्म 'जोशीले' का गीत "दिल में जो बातें हैं आओ चलो हम कह दें" और फ़िल्म 'फिर वही रात' का गीत "संग मेरे निकले थे साजन" असल में नेपाली लोक-धुनों पर ही अधारित हैं।
'पुरवाई' के लिए हमनें नेपाली लोक धुन पर आधारित जिस फ़िल्मी रचना को चुना है, वह है फ़िल्म 'फिर वही रात' का गीत "संग मेरे निकले थे साजन, हार बैठे, थोड़ी ही दूर चल के"। लता मंगेशकर, किशोर कुमार और साथियों का गाया यह गीत फ़िल्माया गया है राजेश खन्ना, किम और सहेलियों पर। यह गीत जिस नेपाली मूल लोक गीत पर आधारित है वह एक डोहोरी गीत है, जिसके बोल हैं "आगे आगे टोपई को गोला, पाछी पाछी मशीन गन भररा"। यूं तो इस गीत के कई संस्करण बने हैं, पर सबसे पुराना और लोकप्रिय जो वर्ज़न है, वह १९६५ में डैनी डेन्ज़ोंगपा और आशा भोसले का गाया हुआ एक स्टेज शो गीत है, और इस शो का आयोजन काठमाण्डु, नेपाल में किया गया था। इस नेपाली गीत को सुनने के लिए आप यहाँ क्लिक करें:
मज़े की बात ही कहिए या फिर संयोग, 'फिर वही रात' में भी डैनी नें अभिनय किया था। "संग मेरे निकले थे साजन" गीत के बारे में यही कहना चाहेंगे कि पंचम नें भले नेपाली धुन का इस्तमाल किया, पर केवल मुखड़े में। अंतरा उनका अपना कम्पोज़िशन था। गीत के शुरु में कोरस का प्रयोग बहुत लुभावना है, और अन्त में बांसुरी की तान तो जैसे हमें यकायक किसी दूर पर्वत पर उड़ा ले जाता है। फ़िल्म के न चलने से यह गीत उतना लोकप्रिय नहीं हुआ, पर बचपन में रेडियो पर मैंने इस गीत को इतना सुना है कि मेरे पसन्दीदा गीतों में से एक रहा है यह गीत। तो आइए सुनते हैं मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा यह गीत। खासी, बिहु, असमीया कीर्तन और चाय बागान के बाद आज 'पुरवाई' में बारी नेपाली लोक धुन की। सुनिए और अपने दोस्तों यारों को भी सुनने पे मजबूर कीजिए।
चलिए आज से खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
मुखड़े में शब्द है "अलबेली"
पिछले अंक में
इंदु जी गीत कैसा लगा ये बतयिये
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
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