ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 662/2011/102
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार व उर्दू के जानेमाने शायर मजरूह सुल्तानपुरी पर केन्द्रित लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया' की दूसरी कड़ी में आप सब का हार्दिक स्वागत है। मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम था असरार उल हसन ख़ान, और उनका जन्म उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर नामक स्थान पर १९१९ या १९२० में हुआ था। कहीं कहीं पे १९२२ भी कहा गया है। 'लिस्नर्स बुलेटिन' में उनकी जन्म तारीख़ १ अक्तुबर १९१९ दी गई है। उनके पिता एक पुलिस सब-इन्स्पेक्टर थे। पिता का आय इतना नहीं था कि अपने बेटे को अंग्रेज़ी स्कूल में दाख़िल करवा पाते। इसलिए मजरूह को अरबी और फ़ारसी में सात साल 'दर्स-ए-निज़ामी' की तालीम मिली, और उसके बाद आलिम की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद मजरूह नें लखनऊ के तकमील-उत-तिब कॉलेज में यूनानी चिकित्सा की तालीम ली। इसमें उन्होंने पारदर्शिता हासिल की और एक नामचीन हकीम के रूप में नाम कमाया। सुल्तानपुर में मुशायरे में भाग लेते समय वो एक स्थापित हकीम भी थे। लेकिन लोगों नें उनकी शायरी को इतना पसंद किया कि उन्होंने हकीमी को छोड़ कर लेखन को ही पेशे के तौर पर अपना लिया। जल्द ही वो मुशायरों की जान बन गये और उर्दू के नामी शायर जिगर मोरादाबादी के दोस्त भी।
कल पहली कड़ी में आपनें सुना था मजरूह साहब का लिखा पहला फ़िल्मी गीत और हमने बताया कि किस तरह से उन्हें इसका मौका मिला था। १९४६ की फ़िल्म 'शाहजहाँ' के गीतों नें इतिहास रच दिया। लेकिन इससे मजरूह सुल्तानपुरी को ज़्यादा फ़ायदा नहीं पहुँचा। देश बटवारे की आग में जल रही थी। देश विभाजन के बाद जब महबूब साहब नें मजरूह साहब को फ़िल्म 'अंदाज़' में गीत लिखने का अवसर दिया तो उन्होंने फ़िल्मी दुनिया में एक बार फिर धूम मचा दी। इस फ़िल्म के "झूम झूम के नाचो आज, गाओ ख़ुशी के गीत" को सुनकर लोगों नें झूम झूम कर मजरूह के गीतों को गुनगुनाना जो शुरु किया, बस गुनगुनाते चले गये, और मजरूह साहब को फिर कभी पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। नौशाद साहब के बाद ५० के दशक के पहले ही साल में जिस संगीतकार के लिये मजरूह को गीत लिखने का मौका मिला, वो थे अनिल बिस्वास। १९५० की फ़िल्म 'आरज़ू' के गानें बेहद लोकप्रिय हुए हालाँकि इस फ़िल्म में प्रेम धवन और जाँनिसार अख़्तर नें भी कुछ गीत लिखे थे। १९५३ में अनिल बिस्वास और मजरूह नें साथ में काम किया फ़िल्म 'फ़रेब' में जिसके गीत भी कामयाब रहे। इसी बीच मजरूह नें कुछ और संगीतकारों के साथ भी काम किया, जैसे कि ग़ुलाम मोहम्मद (हँसते आँसू, १९५०) और बुलो सी. रानी (प्यार की बातें, १९५१)। मजरूह साहब और अनिल दा के संगम से १९५३ में दो और फ़िल्मों का संगीत उत्पन्न हुआ - 'जलियाँवाला बाग़ की ज्योति' और 'हमदर्द'। आज के अंक के लिये अनिल दा के जिस कम्पोज़िशन को हम सुनवाने के लिये लाये हैं, वह है १९५६ की फ़िल्म 'हीर' का। प्रदीप कुमार और नूतन अभिनीत फ़िल्मिस्तान की इस फ़िल्म के सुमधुर गीतों में लता मंगेशकर का गाया "आ मेरे रांझना रुख़सत की है शाम", हेमन्त कुमार का गाया "बिन देखे फिरूँमस्ताना, मैं तो हीर का हूँ दीवाना" और गीता दत्त का गाया "बुलबुल मेरे चमन के तक़दीर बनके जागो" भी शामिल है, लेकिन हमनें जिस गीत को चुना है, वह है आशा भोसले की आवाज़ में "छेड़ी मौत नें शहनाई, आजा आनेवाले"। नूतन पर फ़िल्माये गये इस गीत को आज हम भुला चुके हैं, लेकिन 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के माध्यम से आइए आज, हम और आप, सब एक साथ मिलकर इस भूले बिसरे गीत को सुनें और इन दोनों लाजवाब फ़नकारों - मजरूह सुल्तानपुरी और अनिल बिस्वास - के फ़न को सलाम करें।
क्या आप जानते हैं...
कि राज कपूर नें फ़िल्म 'धरम करम' में एक गीत लिखने के लिये मजरूह सुल्तानपुरी को नियुक्त किया था, और मजरूह साहब नें लिखा था "इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल", जिसके लिये उन्हें १००० रूपए का पारिश्रमिक मिला
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 3/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - फिल्म के नायक और नायिका दोनों के नाम बताएं - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन थे - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं- १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
अविनाश राज जी ने खता खोला ३ शानदार अंकों के साथ. मगर हिन्दुस्तानी जी आप चूक गए, भाई अमित और अनजाना जी गायब तो न रहें कम से कम
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार व उर्दू के जानेमाने शायर मजरूह सुल्तानपुरी पर केन्द्रित लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया' की दूसरी कड़ी में आप सब का हार्दिक स्वागत है। मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम था असरार उल हसन ख़ान, और उनका जन्म उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर नामक स्थान पर १९१९ या १९२० में हुआ था। कहीं कहीं पे १९२२ भी कहा गया है। 'लिस्नर्स बुलेटिन' में उनकी जन्म तारीख़ १ अक्तुबर १९१९ दी गई है। उनके पिता एक पुलिस सब-इन्स्पेक्टर थे। पिता का आय इतना नहीं था कि अपने बेटे को अंग्रेज़ी स्कूल में दाख़िल करवा पाते। इसलिए मजरूह को अरबी और फ़ारसी में सात साल 'दर्स-ए-निज़ामी' की तालीम मिली, और उसके बाद आलिम की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद मजरूह नें लखनऊ के तकमील-उत-तिब कॉलेज में यूनानी चिकित्सा की तालीम ली। इसमें उन्होंने पारदर्शिता हासिल की और एक नामचीन हकीम के रूप में नाम कमाया। सुल्तानपुर में मुशायरे में भाग लेते समय वो एक स्थापित हकीम भी थे। लेकिन लोगों नें उनकी शायरी को इतना पसंद किया कि उन्होंने हकीमी को छोड़ कर लेखन को ही पेशे के तौर पर अपना लिया। जल्द ही वो मुशायरों की जान बन गये और उर्दू के नामी शायर जिगर मोरादाबादी के दोस्त भी।
कल पहली कड़ी में आपनें सुना था मजरूह साहब का लिखा पहला फ़िल्मी गीत और हमने बताया कि किस तरह से उन्हें इसका मौका मिला था। १९४६ की फ़िल्म 'शाहजहाँ' के गीतों नें इतिहास रच दिया। लेकिन इससे मजरूह सुल्तानपुरी को ज़्यादा फ़ायदा नहीं पहुँचा। देश बटवारे की आग में जल रही थी। देश विभाजन के बाद जब महबूब साहब नें मजरूह साहब को फ़िल्म 'अंदाज़' में गीत लिखने का अवसर दिया तो उन्होंने फ़िल्मी दुनिया में एक बार फिर धूम मचा दी। इस फ़िल्म के "झूम झूम के नाचो आज, गाओ ख़ुशी के गीत" को सुनकर लोगों नें झूम झूम कर मजरूह के गीतों को गुनगुनाना जो शुरु किया, बस गुनगुनाते चले गये, और मजरूह साहब को फिर कभी पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। नौशाद साहब के बाद ५० के दशक के पहले ही साल में जिस संगीतकार के लिये मजरूह को गीत लिखने का मौका मिला, वो थे अनिल बिस्वास। १९५० की फ़िल्म 'आरज़ू' के गानें बेहद लोकप्रिय हुए हालाँकि इस फ़िल्म में प्रेम धवन और जाँनिसार अख़्तर नें भी कुछ गीत लिखे थे। १९५३ में अनिल बिस्वास और मजरूह नें साथ में काम किया फ़िल्म 'फ़रेब' में जिसके गीत भी कामयाब रहे। इसी बीच मजरूह नें कुछ और संगीतकारों के साथ भी काम किया, जैसे कि ग़ुलाम मोहम्मद (हँसते आँसू, १९५०) और बुलो सी. रानी (प्यार की बातें, १९५१)। मजरूह साहब और अनिल दा के संगम से १९५३ में दो और फ़िल्मों का संगीत उत्पन्न हुआ - 'जलियाँवाला बाग़ की ज्योति' और 'हमदर्द'। आज के अंक के लिये अनिल दा के जिस कम्पोज़िशन को हम सुनवाने के लिये लाये हैं, वह है १९५६ की फ़िल्म 'हीर' का। प्रदीप कुमार और नूतन अभिनीत फ़िल्मिस्तान की इस फ़िल्म के सुमधुर गीतों में लता मंगेशकर का गाया "आ मेरे रांझना रुख़सत की है शाम", हेमन्त कुमार का गाया "बिन देखे फिरूँमस्ताना, मैं तो हीर का हूँ दीवाना" और गीता दत्त का गाया "बुलबुल मेरे चमन के तक़दीर बनके जागो" भी शामिल है, लेकिन हमनें जिस गीत को चुना है, वह है आशा भोसले की आवाज़ में "छेड़ी मौत नें शहनाई, आजा आनेवाले"। नूतन पर फ़िल्माये गये इस गीत को आज हम भुला चुके हैं, लेकिन 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के माध्यम से आइए आज, हम और आप, सब एक साथ मिलकर इस भूले बिसरे गीत को सुनें और इन दोनों लाजवाब फ़नकारों - मजरूह सुल्तानपुरी और अनिल बिस्वास - के फ़न को सलाम करें।
क्या आप जानते हैं...
कि राज कपूर नें फ़िल्म 'धरम करम' में एक गीत लिखने के लिये मजरूह सुल्तानपुरी को नियुक्त किया था, और मजरूह साहब नें लिखा था "इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल", जिसके लिये उन्हें १००० रूपए का पारिश्रमिक मिला
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 3/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - फिल्म के नायक और नायिका दोनों के नाम बताएं - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन थे - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं- १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
अविनाश राज जी ने खता खोला ३ शानदार अंकों के साथ. मगर हिन्दुस्तानी जी आप चूक गए, भाई अमित और अनजाना जी गायब तो न रहें कम से कम
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
Comments
अवध जी ने कल ठीक समय रहते २ अंक के सवाल का उत्तर दे दिया.