ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 663/2011/103
दस अलग अलग संगीतकारों के लिये मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गीतों की इस लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया' की तीसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। आज है २४ मई। आज ही के दिन साल २००० में मजरूह साहब इस फ़ानी दुनिया को हमेशा हमेशा के लिये छोड़ गये थे। नीमोनिआ का दौरा पड़ने पर मजरूह साहब को १६ मई २००० को मुंबई के लीलावती हस्पताल में भर्ती करवाया गया था और वहीं पर उन्होंने अपनी अंतिम सांसें ली। आज मजरूह साहब को गये १२ वर्ष, याने एक युग बीत चुका है, लेकिन जब भी मई का यह महीना आता है, और ख़ास कर आज के दिन, बार बार उनका लिखा और मदन मोहन का स्वरबद्ध किया वही गीत याद आता है कि "हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयाँ होंगे, बहारें हमको ढूंढ़ेंगी न जाने हम कहाँ होंगे"। लेखक राजीव विजयकर नें बहुत ही अच्छी तरह से मजरूह साहब की शख्सियत को बयान किया था अपने एक लेख में, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मजरूह साहब एक सिक्के की तरह है जिसके दोनों पहलुओं की एक समान ज़रूरत होती है। अगर आप इस सिक्के से टॉस भी अगर करें तो चित हो या पुट, दोनों में ही आपकी जीत निश्चित है। इस सिक्के के एक पहलु में है एक लाजवाब शायर, वह शायर जिनका शुमार २०-वीं सदी के सर्वश्रेष्ठ अदबी शायरों में होता है। ये वो शायर हैं जिन्होंने लिखा था "मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गये और कारवाँ बनता गया"। सिक्के के दूसरे पहलु में है फ़िल्म संगीत में दीर्घतम पारी खेलने वाले अज़ीम व लोकप्रिय गीतकार, जिन्होंने नौशाद से शुरु कर आनंद-मिलिंद, जतीन-ललित, अनु मलिक से होते हुए लेज़्ली ले लीविस और ए. आर. रहमान की धुनों पर अपने अमर बोल बिठा गये।
कल हम बात कर रहे थे १९५३ की उन फ़िल्मों का जिनमें मजरूह साहब नें अनिल बिस्वास के साथ काम किया था। इसी साल तीन और संगीतकारों के साथ किये उनके काम चर्चित हुए। ये थे जमाल सेन, जिनका संगीत गूंजा था फ़िल्म 'दायरा' में। ओ. पी. नय्यर के साथ मजरूह नें लम्बी पारी खेली जिसकी शुरुआत इस साल फ़िल्म 'बाज़' से हुई। और तीसरे संगीतकार थे मदन मोहन, जिनकी धुनों पर इन्होंने इस साल लिखे थे फ़िल्म 'बाग़ी' के गानें। दिलीप कुमार के अच्छे मित्र आयुब ख़ान नें 'ट्युन फ़िल्म्स' के बैनर तले इस फ़िल्म का निर्माण किया था, जिसका निर्देशन अनंत ठाकुर नें किया और जिसमें मुख्य कलाकार थे रंजन और नसीम बानो। इस फ़िल्म में लता जी के गाये "बहारें हमको ढूंढ़ेंगी न जाने हम कहाँ होंगे" को सुनकर वाक़ई यह अहसास होता है कि इस गीत के गीतकार-संगीतकार को बहारें बड़ी शिद्दत से याद करती हैं। आज इस गीत के बने ६० साल होने जा रही है, लेकिन जब भी इस गीत को हम सुनते हैं इससे जुड़े कलाकारों के लिए जैसे नतमस्तक होने को जी चाहता है। आज मजरूह साहब की पुण्यतिथि पर हम उन्हें इसी गीत से श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं। मजरूह साहब, बहारें आपको क्यों ढूंढ़े? आप चाहे जहाँ कहीं भी हों, आपके सदाबहार गीत हमेशा बहार बन कर छाते रहे हैं, और हमेशा छाते रहेंगे!
क्या आप जानते हैं...
कि 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' के अलावा मजरूह सुल्तानपुरी को मध्य प्रदेश शासन प्रदत्त 'इक़बाल सम्मान', महाराष्ट्र शासन प्रदत्त 'संत ज्ञानेश्वर पुरस्कार', तथा उनके ग़ज़ल संग्रह "ग़ज़ल" के लिये 'महाराष्ट्र राज्य उर्दू ग़ज़ल अकादमी' प्रदत्त पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 4/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - इस गीत क एक अन्य संस्करण भी है, उस युगल गीत में किनकी आवाजें है - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन थे - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं- १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
पेपर लीक ????? शरद जी हम पर ऐसा इलज़ाम न लगाईये, आप खुद कितनी प्रतियोगिताओं में जीते हैं, क्या कभी ऐसा कोई संकेत मिला आपको हमारी तरफ से. सच तो ये है कि अनजाना जी से हम लोग (यानी मैं सजीव और सुजॉय) कभी परिचित भी नहीं हुए, अमित जी जरूर अब हमारे मित्रों में है, पर अनजाना जी शायद अनजाने ही बने रहना चाहते हैं, वैसे हैरानगी जितनी आपको होती है उससे कई ज्यादा हमें होती है, हम पहेली को मुश्किल बनाने की लाख कोशिश करते हैं पर ये दोनों तो जैसे सभी गाने सुने बैठे हैं, पता नहीं कैसे सुन भी लेते हैं और बूझ भी लेते हैं मात्र एक मिनट में. खैर कल एक बार फिर अविनाश जी ने सही जवाब देकर ३ अंक कमाए, अरे कोई तो उन्हें टक्कर दें भाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
दस अलग अलग संगीतकारों के लिये मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गीतों की इस लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया' की तीसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। आज है २४ मई। आज ही के दिन साल २००० में मजरूह साहब इस फ़ानी दुनिया को हमेशा हमेशा के लिये छोड़ गये थे। नीमोनिआ का दौरा पड़ने पर मजरूह साहब को १६ मई २००० को मुंबई के लीलावती हस्पताल में भर्ती करवाया गया था और वहीं पर उन्होंने अपनी अंतिम सांसें ली। आज मजरूह साहब को गये १२ वर्ष, याने एक युग बीत चुका है, लेकिन जब भी मई का यह महीना आता है, और ख़ास कर आज के दिन, बार बार उनका लिखा और मदन मोहन का स्वरबद्ध किया वही गीत याद आता है कि "हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयाँ होंगे, बहारें हमको ढूंढ़ेंगी न जाने हम कहाँ होंगे"। लेखक राजीव विजयकर नें बहुत ही अच्छी तरह से मजरूह साहब की शख्सियत को बयान किया था अपने एक लेख में, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मजरूह साहब एक सिक्के की तरह है जिसके दोनों पहलुओं की एक समान ज़रूरत होती है। अगर आप इस सिक्के से टॉस भी अगर करें तो चित हो या पुट, दोनों में ही आपकी जीत निश्चित है। इस सिक्के के एक पहलु में है एक लाजवाब शायर, वह शायर जिनका शुमार २०-वीं सदी के सर्वश्रेष्ठ अदबी शायरों में होता है। ये वो शायर हैं जिन्होंने लिखा था "मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गये और कारवाँ बनता गया"। सिक्के के दूसरे पहलु में है फ़िल्म संगीत में दीर्घतम पारी खेलने वाले अज़ीम व लोकप्रिय गीतकार, जिन्होंने नौशाद से शुरु कर आनंद-मिलिंद, जतीन-ललित, अनु मलिक से होते हुए लेज़्ली ले लीविस और ए. आर. रहमान की धुनों पर अपने अमर बोल बिठा गये।
कल हम बात कर रहे थे १९५३ की उन फ़िल्मों का जिनमें मजरूह साहब नें अनिल बिस्वास के साथ काम किया था। इसी साल तीन और संगीतकारों के साथ किये उनके काम चर्चित हुए। ये थे जमाल सेन, जिनका संगीत गूंजा था फ़िल्म 'दायरा' में। ओ. पी. नय्यर के साथ मजरूह नें लम्बी पारी खेली जिसकी शुरुआत इस साल फ़िल्म 'बाज़' से हुई। और तीसरे संगीतकार थे मदन मोहन, जिनकी धुनों पर इन्होंने इस साल लिखे थे फ़िल्म 'बाग़ी' के गानें। दिलीप कुमार के अच्छे मित्र आयुब ख़ान नें 'ट्युन फ़िल्म्स' के बैनर तले इस फ़िल्म का निर्माण किया था, जिसका निर्देशन अनंत ठाकुर नें किया और जिसमें मुख्य कलाकार थे रंजन और नसीम बानो। इस फ़िल्म में लता जी के गाये "बहारें हमको ढूंढ़ेंगी न जाने हम कहाँ होंगे" को सुनकर वाक़ई यह अहसास होता है कि इस गीत के गीतकार-संगीतकार को बहारें बड़ी शिद्दत से याद करती हैं। आज इस गीत के बने ६० साल होने जा रही है, लेकिन जब भी इस गीत को हम सुनते हैं इससे जुड़े कलाकारों के लिए जैसे नतमस्तक होने को जी चाहता है। आज मजरूह साहब की पुण्यतिथि पर हम उन्हें इसी गीत से श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं। मजरूह साहब, बहारें आपको क्यों ढूंढ़े? आप चाहे जहाँ कहीं भी हों, आपके सदाबहार गीत हमेशा बहार बन कर छाते रहे हैं, और हमेशा छाते रहेंगे!
क्या आप जानते हैं...
कि 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' के अलावा मजरूह सुल्तानपुरी को मध्य प्रदेश शासन प्रदत्त 'इक़बाल सम्मान', महाराष्ट्र शासन प्रदत्त 'संत ज्ञानेश्वर पुरस्कार', तथा उनके ग़ज़ल संग्रह "ग़ज़ल" के लिये 'महाराष्ट्र राज्य उर्दू ग़ज़ल अकादमी' प्रदत्त पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 4/शृंखला 17
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.
सवाल १ - इस गीत क एक अन्य संस्करण भी है, उस युगल गीत में किनकी आवाजें है - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन थे - २ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं- १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
पेपर लीक ????? शरद जी हम पर ऐसा इलज़ाम न लगाईये, आप खुद कितनी प्रतियोगिताओं में जीते हैं, क्या कभी ऐसा कोई संकेत मिला आपको हमारी तरफ से. सच तो ये है कि अनजाना जी से हम लोग (यानी मैं सजीव और सुजॉय) कभी परिचित भी नहीं हुए, अमित जी जरूर अब हमारे मित्रों में है, पर अनजाना जी शायद अनजाने ही बने रहना चाहते हैं, वैसे हैरानगी जितनी आपको होती है उससे कई ज्यादा हमें होती है, हम पहेली को मुश्किल बनाने की लाख कोशिश करते हैं पर ये दोनों तो जैसे सभी गाने सुने बैठे हैं, पता नहीं कैसे सुन भी लेते हैं और बूझ भी लेते हैं मात्र एक मिनट में. खैर कल एक बार फिर अविनाश जी ने सही जवाब देकर ३ अंक कमाए, अरे कोई तो उन्हें टक्कर दें भाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
Comments
-----Avinash
: Mohammad Rafi & Geeta Dutt
हा हा हा बाकि नही मालूम सड़ी गर्मी ने दिमाग में भरे भूसे को भी जला दिया है. हा हा हा अब खली दिमाग से तो ऐसा जवाब ही मिलेगा न !
sangeetkar - o.p. naiyar