Taaza Sur Taal (TST) - 12/2011 - I AM
आज सोमवार की इस सुबह मुझे यानी सजीव सारथी को यहाँ देख कर हैरान न होईये, दरअसल कई कारणों से पिछले कुछ दिनों से हम ताज़ा सुर ताल नहीं पेश कर पाए और इस बीच बहुत सा संगीत ऐसा आ गया जिस पर चर्चा जरूरी थी, तो कुछ बैक लोग निकालने के इरादे से मैं आज यहाँ हूँ, आज हम बात करेंगें ओनिर की नयी फिल्म "आई ऍम" के संगीत की. दरअसल फिल्म संगीत में एक जबरदस्त बदलाव आया है. अब फिल्मों में अधिक वास्तविकता आ गयी है, तो संगीत का इस्तेमाल आम तौर पर पार्श्व संगीत के रूप में हो रहा है. यानी लिपसिंग अब लगभग खतम सी हो गयी है. और एक ट्रेंड चल पड़ा है रोक् शैली का. व्यक्तिगत तौर पर मुझे रोक् जेनर बेहद पसंद है पर अति सबकी बुरी है. खैर आई ऍम का संगीत भी यही उपरोक्त दोनों गुण मौजूद हैं.
पहला गाना "बांगुर", बेहद सुन्दर विचार, समाज के बदलते आयामों का चित्रण है, एक तुलनात्मक अध्ययन है बोलों में इस गीत के और इस कारुण अवस्था से बाहर आने की दुआ भी है. आवाजें है मामे खान और कविता सेठ की. अमित त्रिवेदी के चिर परिचित अंदाज़ का है गीत जिसे सुनते हुए भीड़ भाड भरे शहर उलझनों की जिन्दा तस्वीरें आँखों के आगे झूलने लगती हैं. मामे खान भी उभरते हुए गायक मोहन की तरह बेहद सशक्त है. इससे पहले आपने इन्हें "नो वन किल्ल्ड जसिका" के बेहद प्रभावशाली गीत "ऐतबार" में सुना था. पर यहाँ अंदाज़ अपेक्षाकृत बेहद माईल्ड है. कविता अपने फॉर्म में है, यक़ीनन गीत कई कई बार सुने जाने लायक है.
इसके बाद जो गीत है वो अल्बम का सबसे शानदार गीत है, पहले गीत की तमाम निराशाओं को दरकिनार कर एक नयी आशा का सन्देश है यहाँ. गीत के बोल उत्कृष्ट हैं, "बोझ बनके रहे सुबह क्यों किसी रात पे....", "जीत दम तोड़ दे न कभी किसी मात पे" जैसी पक्तियां स्वतः ही आपका ध्यान आकर्षित करेंगीं. आवाज़ है मेरे बेहद पसंदीदा गायक के के की. मैं अभी कुछ दिनों पहले ये फिल्म देखी थी, जिसके बाद ही मुझे इसके संगीत के चर्चा लायक होने का अहसास हुआ. एक और बार बार सुने जाने लायक गीत.
फिल्म में चार छोटी छोटी कहानियों को जोड़ा गया है. अगला गीत इसकी तीसरी कहानी पर है जहाँ नायक का बचपन में शारीरिक शोषण हुआ है और बड़े होने के बाद भी कैसे उन बुरे लम्हों को वो खुद से जुदा नहीं कर पा रहा है, इसी कशमकश का बयां है गीत "बोझिल से...". बेहद दर्द भरा गीत है, एक बार फिर शब्द शानदार हैं,..."बिना पूछे ढेर सारी यादें जब आती है.....ख़ाक सा धुवां सा रहता है इन आँखों में...." वाह. यहाँ संगीत है राजीव भल्ला का. आवाज़ निसंदेह के के की है, जिनकी आवाज में ऐसे गीत अक्सर एक मिसाल बन जाते हैं. यहाँ भी कोई अपवाद नहीं.
अगला गीत 'ऑंखें" शायद हिंदी फिल्म इतिहास का पहला गीत होगा जो एक प्रेम गीत है और जहाँ दोनों प्रेमी समलिंगी है. बस यही इस गीत की खूबी है पर इसके आलावा गीत में कोई नयापन नहीं है. विवेक फिलिप के संगीत में ये गीत अल्बम के बाकी गीतों से कुछ कमजोर ही है.
अमित त्रिवेदी वापस आते हैं एक और नए तजुर्बे के साथ. एक आज़ान से शुरू होता है ये गीत, क्योंकि फिल्म में इसका इस्तेमाल एक कश्मीरी पंडित परिवार के पलायन की दास्ताँ बयां करने के लिए होता है. "साये साये" जिस तरह से बोला गया है वही काफी है आपकी तव्वजो चुराने के लिए. देखिये ऊपर मैंने मोहन का नाम लिया और मोहन मौजूद है यहाँ, साथ में जबरदस्त फॉर्म में रेखा भारद्वाज. जन्नत से दूर होकर खोये हुए जन्नत का दर्द है बोलों में, कहीं कहीं अमित रहमान के "दिल से" वाले अंदाज़ को फोल्लो करते नज़र आते हैं जैसे जैसे गीत आगे बढ़ता है, मुझे यही बात खटकी इस गीत में वैसे गीत शानदार है पर जिन लोगों इस दर्द को जिया है केवल उन्हीं को ये लंबे समय तक याद रहेगा.
राजीव भल्ला का "येंदु वंडू मेरी समझ से बाहर, इसलिए इसका जिक्र छोड़ रहा हूँ, वैसे बांगुर, बोझिल और इसी बात पे जैसे गीत काफी हैं इस अल्बम के लिए आपके द्वारा चुकाई गयी कीमत की वसूली के लिए. वैसे कभी मौका लगे तो ये फिल्म भी देखिएगा, ओनिर एक बेहद सशक्त निर्देशक हैं और फिल्म में आज के दौर के परेल्लल सिनेमा के सभी कलाकार मौजूद हैं. मुझे लगता है जिस स्तर के संगीतकार हैं अमित त्रिवेदी उन्हें रोक् जेनर से कुछ अलग भी ट्राई करना चाहिए अपने संगीत में विवधता लाने के लिए.
श्रेष्ठ गीत – "इसी बात पे", "बांगुर", "साये साये", और "बोझिल"
आवाज़ रेटिंग – ७.५/१०
फिल्म के गीत आप यहाँ सुन सकते हैं
आज सोमवार की इस सुबह मुझे यानी सजीव सारथी को यहाँ देख कर हैरान न होईये, दरअसल कई कारणों से पिछले कुछ दिनों से हम ताज़ा सुर ताल नहीं पेश कर पाए और इस बीच बहुत सा संगीत ऐसा आ गया जिस पर चर्चा जरूरी थी, तो कुछ बैक लोग निकालने के इरादे से मैं आज यहाँ हूँ, आज हम बात करेंगें ओनिर की नयी फिल्म "आई ऍम" के संगीत की. दरअसल फिल्म संगीत में एक जबरदस्त बदलाव आया है. अब फिल्मों में अधिक वास्तविकता आ गयी है, तो संगीत का इस्तेमाल आम तौर पर पार्श्व संगीत के रूप में हो रहा है. यानी लिपसिंग अब लगभग खतम सी हो गयी है. और एक ट्रेंड चल पड़ा है रोक् शैली का. व्यक्तिगत तौर पर मुझे रोक् जेनर बेहद पसंद है पर अति सबकी बुरी है. खैर आई ऍम का संगीत भी यही उपरोक्त दोनों गुण मौजूद हैं.
पहला गाना "बांगुर", बेहद सुन्दर विचार, समाज के बदलते आयामों का चित्रण है, एक तुलनात्मक अध्ययन है बोलों में इस गीत के और इस कारुण अवस्था से बाहर आने की दुआ भी है. आवाजें है मामे खान और कविता सेठ की. अमित त्रिवेदी के चिर परिचित अंदाज़ का है गीत जिसे सुनते हुए भीड़ भाड भरे शहर उलझनों की जिन्दा तस्वीरें आँखों के आगे झूलने लगती हैं. मामे खान भी उभरते हुए गायक मोहन की तरह बेहद सशक्त है. इससे पहले आपने इन्हें "नो वन किल्ल्ड जसिका" के बेहद प्रभावशाली गीत "ऐतबार" में सुना था. पर यहाँ अंदाज़ अपेक्षाकृत बेहद माईल्ड है. कविता अपने फॉर्म में है, यक़ीनन गीत कई कई बार सुने जाने लायक है.
इसके बाद जो गीत है वो अल्बम का सबसे शानदार गीत है, पहले गीत की तमाम निराशाओं को दरकिनार कर एक नयी आशा का सन्देश है यहाँ. गीत के बोल उत्कृष्ट हैं, "बोझ बनके रहे सुबह क्यों किसी रात पे....", "जीत दम तोड़ दे न कभी किसी मात पे" जैसी पक्तियां स्वतः ही आपका ध्यान आकर्षित करेंगीं. आवाज़ है मेरे बेहद पसंदीदा गायक के के की. मैं अभी कुछ दिनों पहले ये फिल्म देखी थी, जिसके बाद ही मुझे इसके संगीत के चर्चा लायक होने का अहसास हुआ. एक और बार बार सुने जाने लायक गीत.
फिल्म में चार छोटी छोटी कहानियों को जोड़ा गया है. अगला गीत इसकी तीसरी कहानी पर है जहाँ नायक का बचपन में शारीरिक शोषण हुआ है और बड़े होने के बाद भी कैसे उन बुरे लम्हों को वो खुद से जुदा नहीं कर पा रहा है, इसी कशमकश का बयां है गीत "बोझिल से...". बेहद दर्द भरा गीत है, एक बार फिर शब्द शानदार हैं,..."बिना पूछे ढेर सारी यादें जब आती है.....ख़ाक सा धुवां सा रहता है इन आँखों में...." वाह. यहाँ संगीत है राजीव भल्ला का. आवाज़ निसंदेह के के की है, जिनकी आवाज में ऐसे गीत अक्सर एक मिसाल बन जाते हैं. यहाँ भी कोई अपवाद नहीं.
अगला गीत 'ऑंखें" शायद हिंदी फिल्म इतिहास का पहला गीत होगा जो एक प्रेम गीत है और जहाँ दोनों प्रेमी समलिंगी है. बस यही इस गीत की खूबी है पर इसके आलावा गीत में कोई नयापन नहीं है. विवेक फिलिप के संगीत में ये गीत अल्बम के बाकी गीतों से कुछ कमजोर ही है.
अमित त्रिवेदी वापस आते हैं एक और नए तजुर्बे के साथ. एक आज़ान से शुरू होता है ये गीत, क्योंकि फिल्म में इसका इस्तेमाल एक कश्मीरी पंडित परिवार के पलायन की दास्ताँ बयां करने के लिए होता है. "साये साये" जिस तरह से बोला गया है वही काफी है आपकी तव्वजो चुराने के लिए. देखिये ऊपर मैंने मोहन का नाम लिया और मोहन मौजूद है यहाँ, साथ में जबरदस्त फॉर्म में रेखा भारद्वाज. जन्नत से दूर होकर खोये हुए जन्नत का दर्द है बोलों में, कहीं कहीं अमित रहमान के "दिल से" वाले अंदाज़ को फोल्लो करते नज़र आते हैं जैसे जैसे गीत आगे बढ़ता है, मुझे यही बात खटकी इस गीत में वैसे गीत शानदार है पर जिन लोगों इस दर्द को जिया है केवल उन्हीं को ये लंबे समय तक याद रहेगा.
राजीव भल्ला का "येंदु वंडू मेरी समझ से बाहर, इसलिए इसका जिक्र छोड़ रहा हूँ, वैसे बांगुर, बोझिल और इसी बात पे जैसे गीत काफी हैं इस अल्बम के लिए आपके द्वारा चुकाई गयी कीमत की वसूली के लिए. वैसे कभी मौका लगे तो ये फिल्म भी देखिएगा, ओनिर एक बेहद सशक्त निर्देशक हैं और फिल्म में आज के दौर के परेल्लल सिनेमा के सभी कलाकार मौजूद हैं. मुझे लगता है जिस स्तर के संगीतकार हैं अमित त्रिवेदी उन्हें रोक् जेनर से कुछ अलग भी ट्राई करना चाहिए अपने संगीत में विवधता लाने के लिए.
श्रेष्ठ गीत – "इसी बात पे", "बांगुर", "साये साये", और "बोझिल"
आवाज़ रेटिंग – ७.५/१०
फिल्म के गीत आप यहाँ सुन सकते हैं
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
Comments
मुझे तो फिल्म इतनी अच्छी लगी कि मैने इस फिल्म पर तीन पोस्ट की एक श्रृंखला ही लिख डाली...
http://rashmiravija.blogspot.com/2011/05/i-am.html