सुर संगम - 21 - रविन्द्र संगीत में बसती है बंगाल की आत्मा
तुम इस बार मुझे अपना ही लो हे नाथ, अपना लो।
इस बार नहीं तुम लौटो नाथ
हृदय चुराकर ही मानो।
उपरोक्त पंक्तियों में समर्पण का भाव घुला हुआ है| समर्पण किसी प्रेमिका का प्रेमी के प्रति, समर्पण किसी भक्त का अपने ईश्वर के प्रति| और यह जानकर भी शायद आश्चर्य नहीं होगा की ये पंक्तियाँ एक ऐसे महकवि की रचना के हिन्दी अनुवाद में से ली गई हैं जिन्होंने अपना समस्त जीवन अपनी रचनाओं के माध्यम से देश व समाज में जागृति लाने में समर्पित कर दिया था| जी हाँ! मैं बात कर रहा हूँ 'गुरुदेव' श्री रबिंद्रनाथ ठाकुर की| सुर-संगम के सभी श्रोता-पाठकों का मैं, सुमित चक्रवर्ती हार्दिक अभिनंदन करता हूँ हमारी २१वीं कड़ी में जो समर्पित है महान कविगुरू श्री रबिंद्रनाथ ठाकुर को जिनका १५०वाँ जन्मदिवस वैसाख महीने की २५वीं तिथि यानि ९ मई २०११ को मनाया गया|
रबिंद्रनाथ ठाकुर का जन्म देवेंद्रनाथ ठाकुर और शारदा देवी की संतान के रूप में वर्ष १८६१ में कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट् ज़ेवियर स्कूल में हुई। टैगोर ने बैरिस्टर बनने की चाहत में १९७८ में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया लेकिन १८८० में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए। उनका १८८३ में मृणालिनी देवी के साथ विवाह हुआ। बचपन से ही उनकी कविता, छन्द और भाषा में अद्भुत प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र लिखी थी और १८७७ में केवल सोलह वर्ष की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। वे बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगद्रष्टा थे तथा एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति बने। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्र-गान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान "जन गण मन" और बांग्लादेश का राष्ट्र-गान "आमार सोनार बांग्ला" गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। आइये गुरूदेव व उनकी रचनाओं के बारे में और जानने से पहले सुनते हैं उनके द्वारा रचित एक मधुर गीत उन्हीं की आवाज़ में।
गीत - तबे मोने रेखो (तुम याद रखना)
गुरूदेव ने अपने द्वारा रची कविताओं को गीतों का रूप दे दिया, इस प्रकार रचना हुई एक नई संगीत विधा की जिसे हम रबिंद्र संगीत के नाम से जानते हैं। इस शैली ने बंगाल की संगीत अवधारणा में एक नया आयाम जोड़ा। गुरूदेव ने लगभग २३०० गीत रचे जिनका संगीत भारतीय शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित है। ये गीत प्रकृति के प्रति उनके गहरे लगाव और मानवीय भावनाओं को दर्शाते हैं। रबिंद्र संगीत ने बंगाली संस्कृति पर एक गहरा प्रभाव डाला है तथा इसे बांग्लादेश तथा पश्चिम बंगाल दोनों की सांस्कृतिक निधि माना गया है। सामजिक जन चेतना तथा भारतीय स्वाधीनता में उनके गीतों ने महत्त्व्पूर्ण भूमिका निभाई।
रबिंद्रसंगीत एक विशिष्ट संगीत पद्धति के रूप में विकसित हुआ है। इस शैली के कलाकार पारंपरिक पद्धति में ही इन गीतों को प्रस्तुत करते हैं। बीथोवेन की संगीत रचनाओं(सिम्फनीज़) या विलायत ख़ाँ के सितार की तरह रबिंद्रसंगीत अपनी रचनाओं के गीतात्मक सौन्दर्य की सराहना के लिए एक शिक्षित, बुद्धिमान और सुसंस्कृत दर्शक वर्ग की मांग करता है। १९४१ में गुरूदेव की मृत्यु हो गई परन्तु उनका गौरव और उनके गीतों का प्रभाव अनन्त है। उन्होंने अपने गीतों में शुद्ध कविता को सृष्टिकर्त्ता, प्रकृति और प्रेम से एकीकृत किया है। मानवीय प्रेम प्रकृति के दृश्यों में मिलकर सृष्टिकर्त्ता के लिए समर्पण (भक्ति) में बदल जाता है। उनके 2000 अतुल्य गीतों का संग्रह गीतबितान(गीतों का बागीचा) के रूप में जाना जाता है। इस पुस्तक के चार प्रमुख हिस्से हैं- पूजा (भक्ति), प्रेम (प्यार), प्रकृति (प्रकृति) और बिचित्रा (विविध)। लीजिए प्रस्तुत है गुरूदेव द्वारा रचित एक गीत "ग्राम छाड़ा ओई रांगा माटीर पौथ" का हिन्दी अनुवाद जिसे गाया है आगरा घराने की प्रसिद्घ गायिका श्रीमति दिपाली नाग ने। इस गीत में कवि अपने देश की धरती को याद कर रहा है।
गाँव से दूर - दीपली नाग - रबिंद्र संगीत (हिन्दी अनुवाद)
यह एक स्वीकृत तथ्य है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के तत्वों को रबिन्द्र-संगीत में एक बहुत ही बुद्धिमान और प्रभावी तरीके से इस्तेमाल किया गया है। इसे इन गीतों में कथित भावों व मनोदशा को व्यक्त करने हेतु एक इकाई के रूप में ही सीमित रखा गया है ताकि शात्रीय संगीत के तत्व गीत के मुख्य भाव के साथ प्रतिद्वन्द्वित न हों। इसीलिए कई गीतों में शास्त्रीय संगीत का आंशिक अनुरूप पाया जाता है। परन्तु यह भी पाया गया है कि कुछ गीतों में न केवल रागों व तालों को उनके शुद्ध रूप में अपनाकर बल्कि कुछ अवसरों में तो गुरूदेव ने रागों को बहुत ही रोचक रूप में मिश्रित कर अपनी सबसे सुंदर व बौद्धिक रूप से चुनौतिपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। आइए सुनते हैं राग मेघ और राग देश के ऐसे ही एक मिश्रण पर आधारित एक गीत को प्रसिद्ध रबिंद्रसंगीत गायिका श्रीराधा बन्धोपाध्याय की आवाज़ में तथा उसके बाद सुनिए इसी गीत का इन्स्ट्रुमेंटल वर्ज़न जिसे प्रस्तुत किया गया है सरोद पर। इस गीत में वर्षा के प्रति तड़प को प्रमि से विरह की तड़प से जोड़कर दर्शाया गया है।
एशो श्यामोलो सुन्दोरो - श्रीराधा बन्धोपाध्याय - राग मेघ व राग देश
एशो श्यामोलो सुन्दोरो - सरोद
और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।
सुनिए और पहचानिए इस आवाज़ को।
पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी आपने थोडी सी देर कर दी, पिछ्ली बार क्षिति जी ने बता दिया कि वे खेल में बनी हुई हैं, बधाई!
इसी के साथ 'सुर-संगम' के आज के इस अंक को यहीं पर विराम देते हैं| गुरूदेव टैगोर की रचनाएँ और रबिंद्र संगीत एक ऐसा अनन्त सागर हैं जिनको एक अध्याय में समेटना नामुम्किन है, इसलिए इनसे जु़डे कई अन्य तथ्यों व रचनाओं को आपके समक्ष हम प्रस्तुत करेंगे सुर-संगम की सावन माह की किसी कड़ी में जब मनाई जाएगी कविगुरू की पुण्यतिथि| आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे हमारे प्रिय सुजॉय दा प्रस्तुत करेंगे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ग़ुलदस्ता, पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!
खोज व आलेख- सुमित चक्रवर्ती
इस शैली ने बंगाल की संगीत अवधारणा में एक नया आयाम जोड़ा। गुरूदेव ने लगभग २३०० गीत रचे जिनका संगीत भारतीय शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित है। ये गीत प्रकृति के प्रति उनके गहरे लगाव और मानवीय भावनाओं को दर्शाते हैं।
तुम इस बार मुझे अपना ही लो हे नाथ, अपना लो।
इस बार नहीं तुम लौटो नाथ
हृदय चुराकर ही मानो।
उपरोक्त पंक्तियों में समर्पण का भाव घुला हुआ है| समर्पण किसी प्रेमिका का प्रेमी के प्रति, समर्पण किसी भक्त का अपने ईश्वर के प्रति| और यह जानकर भी शायद आश्चर्य नहीं होगा की ये पंक्तियाँ एक ऐसे महकवि की रचना के हिन्दी अनुवाद में से ली गई हैं जिन्होंने अपना समस्त जीवन अपनी रचनाओं के माध्यम से देश व समाज में जागृति लाने में समर्पित कर दिया था| जी हाँ! मैं बात कर रहा हूँ 'गुरुदेव' श्री रबिंद्रनाथ ठाकुर की| सुर-संगम के सभी श्रोता-पाठकों का मैं, सुमित चक्रवर्ती हार्दिक अभिनंदन करता हूँ हमारी २१वीं कड़ी में जो समर्पित है महान कविगुरू श्री रबिंद्रनाथ ठाकुर को जिनका १५०वाँ जन्मदिवस वैसाख महीने की २५वीं तिथि यानि ९ मई २०११ को मनाया गया|
रबिंद्रनाथ ठाकुर का जन्म देवेंद्रनाथ ठाकुर और शारदा देवी की संतान के रूप में वर्ष १८६१ में कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट् ज़ेवियर स्कूल में हुई। टैगोर ने बैरिस्टर बनने की चाहत में १९७८ में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया लेकिन १८८० में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए। उनका १८८३ में मृणालिनी देवी के साथ विवाह हुआ। बचपन से ही उनकी कविता, छन्द और भाषा में अद्भुत प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र लिखी थी और १८७७ में केवल सोलह वर्ष की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। वे बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगद्रष्टा थे तथा एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति बने। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्र-गान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान "जन गण मन" और बांग्लादेश का राष्ट्र-गान "आमार सोनार बांग्ला" गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। आइये गुरूदेव व उनकी रचनाओं के बारे में और जानने से पहले सुनते हैं उनके द्वारा रचित एक मधुर गीत उन्हीं की आवाज़ में।
गीत - तबे मोने रेखो (तुम याद रखना)
गुरूदेव ने अपने द्वारा रची कविताओं को गीतों का रूप दे दिया, इस प्रकार रचना हुई एक नई संगीत विधा की जिसे हम रबिंद्र संगीत के नाम से जानते हैं। इस शैली ने बंगाल की संगीत अवधारणा में एक नया आयाम जोड़ा। गुरूदेव ने लगभग २३०० गीत रचे जिनका संगीत भारतीय शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित है। ये गीत प्रकृति के प्रति उनके गहरे लगाव और मानवीय भावनाओं को दर्शाते हैं। रबिंद्र संगीत ने बंगाली संस्कृति पर एक गहरा प्रभाव डाला है तथा इसे बांग्लादेश तथा पश्चिम बंगाल दोनों की सांस्कृतिक निधि माना गया है। सामजिक जन चेतना तथा भारतीय स्वाधीनता में उनके गीतों ने महत्त्व्पूर्ण भूमिका निभाई।
रबिंद्रसंगीत एक विशिष्ट संगीत पद्धति के रूप में विकसित हुआ है। इस शैली के कलाकार पारंपरिक पद्धति में ही इन गीतों को प्रस्तुत करते हैं। बीथोवेन की संगीत रचनाओं(सिम्फनीज़) या विलायत ख़ाँ के सितार की तरह रबिंद्रसंगीत अपनी रचनाओं के गीतात्मक सौन्दर्य की सराहना के लिए एक शिक्षित, बुद्धिमान और सुसंस्कृत दर्शक वर्ग की मांग करता है। १९४१ में गुरूदेव की मृत्यु हो गई परन्तु उनका गौरव और उनके गीतों का प्रभाव अनन्त है। उन्होंने अपने गीतों में शुद्ध कविता को सृष्टिकर्त्ता, प्रकृति और प्रेम से एकीकृत किया है। मानवीय प्रेम प्रकृति के दृश्यों में मिलकर सृष्टिकर्त्ता के लिए समर्पण (भक्ति) में बदल जाता है। उनके 2000 अतुल्य गीतों का संग्रह गीतबितान(गीतों का बागीचा) के रूप में जाना जाता है। इस पुस्तक के चार प्रमुख हिस्से हैं- पूजा (भक्ति), प्रेम (प्यार), प्रकृति (प्रकृति) और बिचित्रा (विविध)। लीजिए प्रस्तुत है गुरूदेव द्वारा रचित एक गीत "ग्राम छाड़ा ओई रांगा माटीर पौथ" का हिन्दी अनुवाद जिसे गाया है आगरा घराने की प्रसिद्घ गायिका श्रीमति दिपाली नाग ने। इस गीत में कवि अपने देश की धरती को याद कर रहा है।
गाँव से दूर - दीपली नाग - रबिंद्र संगीत (हिन्दी अनुवाद)
यह एक स्वीकृत तथ्य है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के तत्वों को रबिन्द्र-संगीत में एक बहुत ही बुद्धिमान और प्रभावी तरीके से इस्तेमाल किया गया है। इसे इन गीतों में कथित भावों व मनोदशा को व्यक्त करने हेतु एक इकाई के रूप में ही सीमित रखा गया है ताकि शात्रीय संगीत के तत्व गीत के मुख्य भाव के साथ प्रतिद्वन्द्वित न हों। इसीलिए कई गीतों में शास्त्रीय संगीत का आंशिक अनुरूप पाया जाता है। परन्तु यह भी पाया गया है कि कुछ गीतों में न केवल रागों व तालों को उनके शुद्ध रूप में अपनाकर बल्कि कुछ अवसरों में तो गुरूदेव ने रागों को बहुत ही रोचक रूप में मिश्रित कर अपनी सबसे सुंदर व बौद्धिक रूप से चुनौतिपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। आइए सुनते हैं राग मेघ और राग देश के ऐसे ही एक मिश्रण पर आधारित एक गीत को प्रसिद्ध रबिंद्रसंगीत गायिका श्रीराधा बन्धोपाध्याय की आवाज़ में तथा उसके बाद सुनिए इसी गीत का इन्स्ट्रुमेंटल वर्ज़न जिसे प्रस्तुत किया गया है सरोद पर। इस गीत में वर्षा के प्रति तड़प को प्रमि से विरह की तड़प से जोड़कर दर्शाया गया है।
एशो श्यामोलो सुन्दोरो - श्रीराधा बन्धोपाध्याय - राग मेघ व राग देश
एशो श्यामोलो सुन्दोरो - सरोद
और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।
सुनिए और पहचानिए इस आवाज़ को।
पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी आपने थोडी सी देर कर दी, पिछ्ली बार क्षिति जी ने बता दिया कि वे खेल में बनी हुई हैं, बधाई!
इसी के साथ 'सुर-संगम' के आज के इस अंक को यहीं पर विराम देते हैं| गुरूदेव टैगोर की रचनाएँ और रबिंद्र संगीत एक ऐसा अनन्त सागर हैं जिनको एक अध्याय में समेटना नामुम्किन है, इसलिए इनसे जु़डे कई अन्य तथ्यों व रचनाओं को आपके समक्ष हम प्रस्तुत करेंगे सुर-संगम की सावन माह की किसी कड़ी में जब मनाई जाएगी कविगुरू की पुण्यतिथि| आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे हमारे प्रिय सुजॉय दा प्रस्तुत करेंगे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ग़ुलदस्ता, पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!
खोज व आलेख- सुमित चक्रवर्ती
आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.
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