Skip to main content

सांझ ढले गगन तले हम कितने एकाकी...- सुरेश वाडकर

१९५४ में जन्में सुरेश वाडकर ने संगीत सीखना शुरू किया जब वो मात्र १० वर्ष के थे. पंडित जयलाल वसंत थे उनके गुरु. कहते हैं उनके पिता ने उनका नाम सुरेश (सुर+इश) इसलिए रखा क्योंकि वो अपने इस पुत्र को बहुत बड़ा गायक देखना चाहते थे. २० वर्ष की आयु में उन्होंने एक संगीत प्रतियोगिता "सुर श्रृंगार" में भाग लिया जहाँ बतौर निर्णायक मौजूद थे संगीतकार जयदेव और हमारे दादू रविन्द्र जैन साहब. सुरेश की आवाज़ से निर्णायक इतने प्रभावित हुए कि उन्हें फिल्मों में प्ले बैक का पक्का आश्वासन मिला दोनों ही महान संगीतकारों से, जयदेव जी ने उनसे फ़िल्म "गमन" का "सीने में जलन" गीत गवाया तो दादू ने उनसे "विष्टि पड़े टापुर टुपुर" गवाया फ़िल्म "पहेली" में. "पहेली" का गीत पहले आया और फ़िर "गमन" के गीत ने सब को मजबूर कर दिया कि यह मानने पर कि इंडस्ट्री में एक बेहद प्रतिभशाली गायक का आगमन हो चुका है.


उनकी आवाज़ और प्रतिभा से प्रभावित लता जी ने उन्हें बड़े संगीतकारों से मिलवाया. लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने दिया उन्हें वो "बड़ा' ब्रेक, जब उन्होंने लता दी के साथ गाया फ़िल्म "क्रोधी" का वो दो गाना "चल चमेली बाग़ में" और फ़िर आया "मेघा रे मेघा रे" जैसा सुपरहिट गीत (एक बार फ़िर लता जी के साथ), जिसके बाद सुरेश वाडकर घर घर में पहचाने जाने लगे. कैरियर ने उठान ली फ़िल्म "प्रेम रोग" के जबरदस्त गीतों से. राज कपूर की इस बड़ी फ़िल्म के सभी गीत सुरेश ने गाये. संगीत था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का. फ़िल्म के हीरो ऋषि कपूर पर सुरेश की आवाज़ कुछ ऐसे जमी कि उसके बाद ऋषि की हर फ़िल्म के लिए उन्हीं को तलब किया जाने लगा. लक्ष्मी प्यारे के आलावा सुरेश ने अपने ज़माने के लगभग सभी बड़े संगीतकारों के निर्देशन में गीत गाये. "हाथों की चाँद लकीरों का"(कल्यानजी आनंदजी), "हुजूर इस कदर भी न"(आर डी बर्मन), "गोरों की न कालों की"(बप्पी लाहिरी), "ऐ जिंदगी गले लगा ले"(इल्लायाराजा) और "लगी आज सावन की'(शिव हरी), जैसे बहुत से गीत हैं जिन्हें सुरेश ने अपनी आवाज़ में कुछ ऐसे गाया है कि आज भी हम इन गीतों में किसी और गायक की कल्पना नही कर पाते.

प्रतिभा के धनी सुरेश की क्षमता का फ़िल्म जगत ने बहुत नाप तोल कर ही इस्तेमाल किया. उनके गीत कम सही पर अधिकतर ऐसे हैं जिन्हें संगीत प्रेमी कभी भूल नही सकेंगे. आर डी बर्मन और गुलज़ार साहब के साथ मिलकर उन्होंने कुछ गैर फिल्मी गीतों की अल्बम्स भी की,जो व्यवसयिक दृष्टि से शायद बहुत कामियाब नही हुईं पर सच्चे संगीत प्रेमियों ने उन्हें हमेशा अपने संकलन में शीर्ष स्थान दिया है. गुलज़ार साहब भी लता दी की तरह सुरेश से बहुत अधिक प्रभावित थे, तो जब उन्होंने लंबे अन्तराल के बाद फ़िल्म "माचिस' का निर्देशन संभाला तो विशाल भारद्वाज के निर्देशन में उनसे "छोड़ आए हम" और "चप्पा चप्पा" जैसे गीत गवाए. विशाल भारद्वाज के साथ सुरेश ने फ़िल्म "सत्या" और "ओमकारा" में कुछ बेहद अनूठे गीत गाये. उनके गीतों की विविधता का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि एक तरफ़ "सुरमई शाम" जैसा राग आधारित गीत है तो दूसरी तरफ़ "तुमसे मिलके" जैसा रोमांस. एक तरफ़ "साँझ ढले" जैसे गम में डुबो देने वाला गीत है तो दूसरी तरफ़ "सपने में मिलती है" का अल्हड़पन. उनके गाये हिन्दी और मराठी भजनों की अल्बम्स जब भी बाज़ार में आती है हाथों हाथ बिक जाती है. बहुत कम समय में ही सुरेश वाडकर हिन्दी फ़िल्म और गैर फ़िल्म संगीत में अपनी गहरी छाप छोड़ने में कामियाब हुए हैं. संगीत के चाहने वालों को उनसे आगे भी ढेरों उम्मीदें रहेंगी.

आईये सुनते हैं सुरेश की आवाज़ में कुछ यादगार नगमें -





Comments

सुरेश जी मेरे पसंदीदा गायकों में से एक हैं... उनके गीत सुनाकर आपने तबियत खुश कर दी है... मजा आ गया...
धन्यवाद आवाज़...
Vidhu said…
sureshvaadkar ji ki abhi bhi koi braabari nahi kar saktaa,unkaa har geet laajawaab hai ....lekin geet sine main jalan ....philm daman nahi gaman kaa hai meri jaankaari ke anusaar ,thanx
बहुत सुंदर, दिल खुश हो गया.
धन्यवाद
विधु जी आपका कहना बिल्कुल सही है.....गलती सुधार ली गई है

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

कल्याण थाट के राग : SWARGOSHTHI – 214 : KALYAN THAAT

स्वरगोष्ठी – 214 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 1 : कल्याण थाट राग यमन की बन्दिश- ‘ऐसो सुघर सुघरवा बालम...’  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ एक नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के प्रथम अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत आने वाले रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था है। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की