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परीशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए.. पेश-ए-नज़र है अल्लामा इक़बाल का दर्द मेहदी हसन की जुबानी

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९९

सितारों के आगे जहाँ और भी हैं,
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं|

अगर खो गया एक नशेमन तो क्या ग़म
मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ और भी हैं|

गए दिन के तन्हा था मैं अंजुमन में
यहाँ अब मेरे राज़दाँ और भी हैं|

हमारे यहाँ कुछ शायर ऐसे हुए हैं, जिन्हें हमने उनकी कुछ ग़ज़लों (कभी-कभी तो महज़ एक ग़ज़ल या एक नज़्म) तक हीं बाँधकर रखा है। ऐसे हीं एक शायर हैं, "मोहम्मद इक़बाल"। अभी हमने ऊपर जो शेर पढे, उन शेरों में से कम-से-कम एक शेर तो (पहला शेर हीं) अमूमन हर इंसान की जुबान पर काबिज़ है ,लेकिन ऐसे कितने हैं, जिन्हें इन शेरों के शायर का नाम पता है। हाँ, "इक़बाल" के नाम से सभी वाकिफ़ हैं, लेकिन कितनों की इसकी जानकारी है कि "सितारों के आगे... " कहकर लोगों में आशा की एक नई लहर पैदा करने वाला शायर "इक़बाल" हीं है। हमारे लिए तो इक़बाल बस "सारे जहां से अच्छा" तक हीं सीमित हैं। और यही कारण है कि जब हम बड़े शायरों की गिनती करते हैं तो ग़ालिब के दौर के शायरों को गिनने के बाद सीधे हीं फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ तक पहुँच जाते हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि इन दो दौरों के बीच भी एक शायर हुआ है, जिसने पुरानी शायरी और नई शायरी के बीच एक पुल की तरह काम किया है। मेरे हिसाब से ऐसी गलती या ऐसी अनदेखी बस हिन्दुस्तान में हीं होती है, क्योंकि पाकिस्तान के तो ये क़ौमी शायर (राष्ट्रकवि) हैं और इनके जन्म की सालगिरह पर यानि कि ९ नवंबर को वहाँ सार्वजनिक (राष्ट्रीय) छुट्टी होती है।

मैंने अपने कई लेखों में यह लिखा है कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ग़ालिब के एकमात्र उत्तराधिकारी थे, यह बात शायद सच हो, लेकिन यह भी सच है कि उर्दू भाषा ने ‘ग़ालिब’ के अतिरिक्त अभी तक इक़बाल से बड़ा शायर उत्पन्न नहीं किया। ग़ालिब के उत्तराधिकारी होने वाली बात इसलिए सच हो सकती है क्योंकि इक़बाल पर सबसे ज्यादा प्रभाव मौलाना 'रूमी' का था। हाँ, साथ-हीं-साथ ये ग़ालिब और जर्मन शायर 'गेटे' को भी खूब पढा करते थे, लेकिन ’रूमी’ की बात तो कुछ और हीं थी। इक़बाल की शायरी प्रसिद्धि के मामले में ग़ालिब के आस-पास ठहरती है, ऐसा कईयों का मानना है.. उन्हीं में से एक हैं उर्दू पत्रिका "मख़जन" के भूतपूर्व संपादक "स्वर्गीय शेख अब्दुल कादिर बैरिस्टर-एट-लॉ"। उन्होंने कहा था (साभार: प्रकाश पंडित):

"अगर मैं तनासख़ (आवागमन) का क़ायल होता तो ज़रूर कहता कि ‘ग़ालिब’ को उर्दू और फ़ारसी शायरी से जो इश़्क था उसने उनकी रूह को अदम (परलोक) में भी चैन नहीं लेने दिया और मजबूर किया कि वह फिर किसी इन्सानी जिस्म में पहुँचकर शायरी के चमन की सिंचाई करे; और उसने पंजाब के एक गोशे में, जिसे स्यालकोट कहते हैं, दोबारा जन्म लिया और मोहम्मद इक़बाल नाम पाया।"

इक़बाल के बारे में और कुछ जानने के लिए चलिए प्रकाश पंडित जी की पुस्तक "इक़बाल और उनकी शायरी" को खंगालते हैं:

सन् १८९९ में इक़बाल ने पंजाब विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया। और यही वह ज़माना था जब लाहौर के सीमित क्षेत्र से निकलकर उनकी शायरी की चर्चा पूरे भारत में पहुँची। पत्रिका ‘मख़ज़न’ उन दिनों उर्दू की सर्वोत्तम पत्रिका मानी जाती थी। उसके सम्पादक स्वर्गीय शेख़ अब्दुल क़ादिर ‘अंजुमने-हिमायते-इस्लाम’ के जल्सों में इक़बाल को नज़्में पढ़ते देख चुके थे और देख चुके थे कि इन दर्द-भरी नज़्मों को सुनकर उपस्थिति सज्जनों की आँखों में आँसू आ जाते हैं। उन्होंने इक़बाल की नज़्मों को ‘मख़ज़न’ में विशेष स्थान देना शुरू किया। पहली नज़्म ‘हिमालय’/’हिमाला’ के प्रकाशन पर ही, जो अप्रैल १९०१ के अंक में निकली, पूरा उर्दू-जगत् चौंक उठा। सभाओं द्वारा प्रार्थनाएं की जाने लगीं कि उनके वार्षिक सम्मेलनों में वे अपनी नज़्मों के पाठ द्वारा लोगों को लाभान्वित करें। स्वर्गीय अब्दुल क़ादिर के कथनानुसार उन दिनों इक़बाल शे’र कहने पर आते तो एक-एक बैठक में अनगिनत शे’र कह डालते। "मैंने उन दिनों उन्हें कभी काग़ज़-क़लम लेकर शे’र लिखते नहीं देखा। गढ़े-गढ़ाए शब्दों का एक दरिया या चश्मा उबलता मालूम होता था। अपने शे’र सुरीली आवाज़ में, तरन्नुम से (गाकर) पढ़ते थे। स्वयं झूमते थे, औरों को झुमाते थे। यह विचित्र विशेषता है कि मस्तिष्क ऐसा पाया था कि जितने शे’र इस प्रकार ज़बान से निकलते थे, सब-के-सब दूसरे समय और दूसरे दिन उसी क्रम से मस्तिष्क में सुरक्षित होते थे।"

शायरी कैसी हो, इस बारे में इक़बाल का ख्याल था: "अगरचे आर्ट के मुतअ़ल्लिक़ दो नज़रिये (दृष्टिकोण) मौजूद हैं : अव्वल यह कि आर्ट की ग़रज़ (उद्देश्य) महज़ हुस्न (सौंदर्य) का अहसास (अनुभूति) पैदा करना है और दोयम यह है कि आर्ट से ज़िन्दगी को फ़ायदा पहुँचाना चाहिए। मेरा ज़ाती ख़याल यह है कि आर्ट ज़िन्दगी के मातहत है। हर चीज़ को इन्सानी ज़िन्दगी के लिए वक़्त होना चाहिए और इसलिए हर आर्ट जो ज़िन्दगी के लिए मुफ़ीद हो, अच्छा और जाइज़ है। और जो ज़िन्दगी के ख़िलाफ़ हो, जो इन्सानों की हिम्मतों को पस्त और उनके जज़बाते-आलिया (उच्च भावनाओं) को मुर्दा करने वाला हो, क़ाबिले-नफ़रत है और उसकी तरवीज (प्रसार) हुकूमत की तरफ़ से ममनू (निषिद्ध) क़रार दी जानी चाहिए।" इसी ख्य़ाल के तहत १९०५ तक (जब तक वे उच्च शिक्षा के लिए यूरोप नहीं गए थे) वे देश-प्रेम में डूबी हुई तथा भारत की पराधीनता और दरिद्रता पर खून के आँसू रुलाने वाली नज़्मों की रचना करते रहे। उन्होंने हर किसी के मुख में यह प्रार्थना डाली:

हो मेरे दम से यूं ही मेरे वतन की ज़ीनत
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत


फिर १९०५ में उनका यूरोप जाना हुआ। वहाँ छोटे-बड़े और काले-गोरे का भेद-भाव देखकर उनके हृदय पर गहरी चोट लगी। अब विशाल अध्ययन तथा विस्तृत निरीक्षण के बाद उनकी क़लम से ऐसे शेर निकलने लगे:

दियारे-मग़रिब के रहनेवालों खुदा की बस्ती दुकां नहीं है
खरा जिसे तुम समझ रहे हो, वो अब ज़रे-कम-अयार होगा
तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही खुदकशी करेगी
जो शाख़े-नाजुक पे आशियाना बनेगा नापायदार होगा


वे अब प्रगतिशील शायरी की और कूच करने लगे। ये इक़बाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले ‘इंक़िलाब’ (क्रान्ति) का प्रयोग राजनीतिक तथा सामाजिक परिवर्तन के अर्थों में किया और उर्दू शायरी को क्रान्ति का वस्तु-विषय दिया। पूँजीपति और मज़दूर, ज़मींदार और किसान, स्वामी और सेवक, शासक और पराधीन की परस्पर खींचातानी के जो विषय हम आज की उर्दू शायरी में देखते हैं, उन सबपर सबसे पहले इक़बाल ने ही क़लम उठाई थी और यही वे विषय हैं जिनसे उनके बाद की पूरी पीढ़ी प्रभावित हुई और यह प्रभाव राष्ट्रवादी, रोमांसवादी और क्रान्तिवादी शायरों से होता हुआ आधुनिक काल के प्रगतिशील शायरों तक पहुँचा है।

१९०८ में यूरोप से लौटने के बाद वे उर्दू की बजाय फ़ारसी में अधिक लिखने लगे। फ़ारसी इस्तेमाल करने का कारण यह था कि उर्दू भाषा का शब्द-भण्डार फ़ारसी के मुक़ाबले में बहुत कम है। वहीं कुछ लोगों का मत यह है कि अब वे केवल भारत के लिए नहीं, संसार-भर के मुसलमानों के लिए शे’र कहना चाहते थे। कारण कुछ भी हो, वास्तविकता यह है कि फ़ारसी भाषा में शे’र कहने से उनका यश भारत से निकलकर न केवल ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, टर्की और मिश्र तक पहुँचा, बल्कि ‘असरारे-ख़ुदी’ (अहंभाव के रहस्य) पुस्तक की रचना और डॉक्टर निकल्सन के उसके अंग्रेज़ी अनुवाद से तो पूरे यूरोप और अमरीका की नज़रें इस महान भारतीय कवि की ओर उठ गईं। और फिर अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें ‘सर’ की श्रेष्ठ उपाधि प्रदान की।

इक़बाल का जन्म ९ नवंबर १८७७ को स्यालकोट में हुआ था। पुरखे कश्मीरी ब्राह्मण थे जिन्होंने तीन सौ वर्ष पूर्व इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था और कश्मीर से निकलकर पंजाब में आ बसे थे। उनके पिता एक अच्छे सूफी संत थे। यह उनके पिता की हीं तालीम थी कि इक़बाल की शायरी में गहरी सोच के दर्शन होते हैं। जैसे कि इन्हीं शेरों को देखिए:

पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है

ख़ुदा के बन्दे तो हैं हज़ारों बनो‌ में फिरते हैं मारे-मारे
मैं उसका बन्दा बनूँगा जिसको ख़ुदा के बन्दों से प्यार होगा

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बे-अदब हूँ, सज़ा चाहता हूँ


इक़बाल के बारे में इतनी जानकारियों के बाद चलिए अब हम आज की ग़ज़ल की ओर रूख करते हैं। आज की ग़ज़ल को अपनी मखमली आवाज़ से मुकम्मल किया है उस्ताद मेहदी हसन ने। तो लीजिए पेश-ए-खिदमत है "राख" को परीशां करके "दिल" बना देने वाली ग़ज़ल, जो इक़बाल की पुस्तक "बाम-ए-जिब्रील" में दर्ज़ है:

परीशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए
जो मुश्किल अब है यारब फिर वोही मुश्किल न बन जाए

कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को
___ सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल न बन जाए

बनाया इश्क़ ने दरिया-ए-ना-पैगा-गराँ मुझको
ये मेरी ख़ुद निगहदारी मेरा साहिल न बन जाए

अरूज़-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं
के ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "बेगाने" और शेर कुछ यूँ था-

गै़रों की दोस्ती पर क्यों ऐतबार कीजे
ये दुश्मनी करेंगे, बेगाने आदमी हैं

इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:

चलो अच्छा है अपनों में कोई गैर तो निकला.
अगर होते सभी अपने तो बेगाने कहाँ जाते. (राजेंद्र कृष्ण)

अगर पाना है सुकून तो कुछ बेगाने तलाश कर
अपनों के यहाँ तो आजकल महफ़िल नहीं होती (अवनींद्र जी)

जब से वे दिल की महफ़िल से रुखसत हुए ,
सारे मोसम अपने अब बेगाने हो गए . (मंजु जी)

अपनों- बेगानों का फ़रक न रहा होता ,
कभी वो नजरें यूं चुरा के न गया होता
जाना ही था तो बता के जाता ,
रास्ता हमने खुद ही दिखा दिया होता (नीलम जी)

जिस की ख़ातिर शहर भी छोड़ा जिस के लिये बदनाम हुए,
आज वही हम से बेगाने-बेगाने से रहते हैं| (हबीब जालिब)

ख्वाबों पे कोई जोर नहीं उनकी मनमानी होती है
बेगाने दिल में बसने की उनसे नादानी होती है. (शन्नो जी)

यूँ तो पिछली महफ़िल के सबसे पहले मेहमान थे "नीरज रोहिल्ला" जी, लेकिन सही शब्द की पहचान कर अवध जी महफ़िल की शान बने। नीरज जी, सच कहूँ तो महफ़िल सजाने से पहले मुझे भी इस बात की जानकारी नहीं थी कि "ख़ूब परदा है... " वाला शेर "दाग़" का है। मैं बता नहीं सकता कि महफ़िल लिखने का मुझे कितना फायदा हो रहा है। आलेख पसंद करने के लिए आपका और अन्य मित्रों का तह-ए-दिल से आभार। अवध जी, ये हाज़िर-गैरहाज़िर होने का खेल कब तक खेलते रहिएगा.. हमारे नियमित पाठक/श्रोता क्यों नहीं बन जाते.. :) अवनींद्र जी, आपके इस स्वरचित शेर के क्या कहने.. इसी तरह हर बार महफ़िल में चार चाँद लगाते रहें। मंजु जी और नीलम जी, हमें अच्छा लगा कि हमारे बहाने आपको भी छुट्टी मिल गई :) लेकिन आगे से ऐसा नहीं होगा.. हम इसका आपको यकीन दिलाते हैं। सजीव जी, महफ़िल जैसी भी बन पड़ी है, सब आपकी दुआओं का हीं असर है.. हमारे लिए यूँ हीं दुआ करते रहिएगा। शन्नो जी, आपको भी जन्माष्टमी की शुभकामनाएँ, और हाँ ईद, तीज और गणेश-चतुर्थी की शुभकामनाएँ भी लगे हाथों कबूल कीजिए। (बस शन्नो जी हीं क्यों.. ये बधाईयाँ तो हरेक स्वजन के लिए हैं)। आशीष जी, हबीब साहब के शेरों से हमें रूबरू कराने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

इतनी जानकारी एक ही जगह पर पा कर अच्छा लगा.. आशा करता हूँ कि और भी सीखने और जानने को मिलेगा...

आभार..
shanno said…
तन्हा जी,

शायरी की दुनिया के जाने-माने शायर मोहम्मद इकबाल से रूबरु कराने का शुक्रिया...और उन पर इतना अच्छा आलेख लिखकर उसकी इतनी अच्छी प्रस्तुति देने के लिये आपको बधाई ! और कुछ अचंभा हुआ पर अच्छा भी लगा जानकर कि वो इतनी ख्याति वाले इंसान थे कि जिस दिन वो उत्पन्न हुये उस तारीख पर पाकिस्तान में हर साल सार्वजनिक छुट्टी होती है. भला हो उनकी रूह का कि इसी बहाने वहाँ के लोगों को एक दिन छुट्टी का और मिल जाता है मौज मनाने के लिये...

और अब गजल के बारे में बात करें तो उसका गायब वाला शब्द है '' खटक '' ( सुनने में तो यही लगा था )..

तो मन में अब ये खटक रहा है कि '' खटक '' पर शेर क्या और कैसे लिखूँ...देखती हूँ..सोचती हूँ कि इस पर फिर..

तब तक के लिये...खुदा हाफिज
shanno said…
लीजिये अभी-अभी दिमाग में उपजा हुआ एक शेर अर्ज करती हूँ....

बहारों का मौसम से साथ होता है
तो फूलों का काँटों से साथ होता है
इक दूसरे से निभाती है ये दुनिया
हर शय में किसी का साथ होता है.

( स्वरचित )
shanno said…
ये लीजिये इस शेर ने भी मिन्नतें कीं कि हमें भी महफ़िल में ले चलो..हमने कहा कि ठीक है..चलो :)

हम फँसे हैं जिंदगी की सलाखों में
यहाँ दुश्मन भी मिलते हैं लाखों में
महफूज रहीं अब तक हमारी साँसें
पर खटक रही हैं उनकी आँखों में.

( स्वरचित )
फूल जिस डाली पे उगा करता है
शूल उस डाली पे खटक जाता है
फूल और शूल में इतना सा ही बस अन्तर है
इक मन में अटक जाता है इक तन में अटक जाता है। (अज्ञात)
neelam said…
न लुटता दिन को तो कब रात को यूं बेखबर सोता .रहा खटका न चोरी का ,दुआ देते हैं राहजन को

ये उन्ही का है जिनको दोबारा जन्म लेना पड़ा इकबाल के रूप में

bahut achchi post saare jhaan se achcha hindostaan ke naam se hamesha amar hain wo is watan me bhi .naman aise shaayar ko ,kavi ko
neelam said…
न लुटता दिन को तो कब रात को यूं बेखबर सोता .रहा खटका न चोरी का ,दुआ देते हैं राहजन को

ये उन्ही का है जिनको दोबारा जन्म लेना पड़ा इकबाल के रूप में

bahut achchi post saare jhaan se achcha hindostaan ke naam se hamesha amar hain wo is watan me bhi .naman aise shaayar ko ,kavi ko
Arvind Mishra said…
वाह संग्रहनीय
mahendra verma said…
इकबाल साहब के बारे में रोचक और विस्तृत जानकारी प्रदान करने के लिए धन्यवाद।
avenindra said…
तेरी यादों को पलकों का चिलमन बना लिया
तेरे वादों को जीवन का आँगन बना लिया
जाने किस किस की आँख मैं खटकते रहे हैं हम
इक तुझे दोस्त बनाया तो जहान दुश्मन बना लिया
(स्वरचित)

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