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Showing posts from July, 2009

जाने क्या ढूंढती रही है ये ऑंखें मुझमें...ढूंढते हैं हम संगीत प्रेमी आज भी उस आवाज़ को जो कहीं आस पास ही है हमेशा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 157 'द स चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी', आवाज़ पर इन दिनों आप सुन रहे हैं गायक मोहम्मद रफ़ी को समर्पित यह लघु शृंखला, जिसमें दस अलग अलग अभिनेताओं पर फ़िल्माये रफ़ी साहब के गाये गीत सुनवाये जा रहे हैं। आज बारी है अभिनेता धर्मेन्द्र की। धर्मेन्द्र और रफ़ी साहब का एक साथ नाम लेते ही झट से जो गानें ज़हन में आ जाते हैं वो हैं "यही है तमन्ना तेरे घर के सामने", "मैं निगाहें तेरे चेहरे से हटाऊँ कैसे", "क्या कहिये ऐसे लोगों से जिनकी फ़ितरत छुपी रहे", "आप के हसीन रुख़ पे आज नया नूर है", "मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे", "एक हसीन शाम को दिल मेरा खो गया", "छलकायें जाम आइये आपकी आँखों के नाम", "गर तुम भुला न दोगे", "हो आज मौसम बड़ा बेइमान है", "मैं जट यमला पगला दीवाना", और भी न जाने कितने ऐसे हिट गीत हैं जिन्हे रफ़ी साहब ने गाये हैं परदे पर अभिनय करते हुए धर्मेन्द्र के लिये। लेकिन आज हम ने इस जोड़ी के नाम जिस गीत को समर्पित किया है वह उस फ़िल्म का है जो धर्मेन्द्

उल्फ़त की नई मंज़िल को चला....... महफ़िल में इक़बाल बानो और क़तील एक साथ

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३४ १८वें एपिसोड में हमने आपको " तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे " सुनवाया था जिसे अपनी पुरकशिश आवाज़ से रंगीन किया था मोहतरमा "इक़बाल बानो" ने। उस एपिसोड के ९ एपिसोड बाद यानी कि २७ वें एपिसोड में हम लेकर आए थे " मोहे आई न जग से लाज, मैं इतनी जोर से नाची आज कि घुंघरू टूट गए "। यूँ तो उस नज़्म में आवाज़ थी "रूना लैला" की लेकिन जिसकी कलम ने उस कलाम को शिखर तक पहुँचाया उस शख्स का नाम था "क़तील शिफ़ाई"। तो हाँ आज हम इ़क़बाल बानो और क़तील शिफ़ाई की मिलीजुली मेहनत को सलाम करने के लिए जमा हुए हैं। हम आज जो गज़ल लेकर हाज़िर हुए हैं उसकी फ़रमाईश श्री शरद तैलंग जी ने की थी। जानकारी के लिए बता दें कि अगली कड़ी में हम दिशा जी की फ़रमाईश की हीं गज़ल प्रस्तुत करेंगे। अब चूँकि उनकी गज़लों की फ़ेहरिश्त हमें देर से हासिल हुई, इसलिए वक्त लगना लाजिमी है। आज की गज़ल इसलिए भी खास है क्योंकि टिप्पणियों के माध्यम से कई बार शरद जी इसकी खूबसूरती का ज़िक्र कर चुके हैं। इतना होने के बावजूद हम इस गज़ल को टालने की सोच रहे थे क्योंकि इक़बाल बानो और

लिखे जो ख़त तुझे वो तेरी याद में...शशि कपूर का रोमांस और रफी साहब का अंदाज़-ए-बयां

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 156 अ भी दो दिन पहले हम ने आप को प्रेम-पत्र पर लिखा एक मशहूर गीत सुनवाया था फ़िल्म 'संगम' का। रफ़ी साहब का गाया एक और ख़त वाला मशहूर गीत है फ़िल्म 'कन्यादान' का "लिखे जो ख़त तुझे वह तेरी याद में हज़ारों रंग के नज़ारे बन गये"। यह गीत भी उतना ही लोकप्रिय हुआ जितना कि फ़िल्म 'संगम' का गीत। इन दोनों गीतों में कम से कम दो बातें सामान थी, एक तो रफ़ी साहब की आवाज़, और दूसरा शंकर जयकिशन का संगीत। "ये मेरा प्रेम-पत्र" फ़िल्माया गया था राजेन्द्र कुमार पर और फ़िल्म 'कन्यादान' का यह गीत है शशी कपूर के अभिनय से सजा हुआ। जी हाँ, 'दस चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी' के अंतर्गत आज हम जिस चेहरे पर फ़िल्माये गीत से आप का रु-ब-रु करवा रहे हैं, वो शशी कपूर ही हैं। फ़िल्म 'कन्यादान' बनी थी सन् १९६८ में जिसमें शशी कपूर के साथ नायिका की भूमिका में थीं आशा पारेख। मोहन सहगल की यह फ़िल्म एक पारिवारिक सामाजिक फ़िल्म थी जिसका आधार था शादी, झूठ, तथा पुराने और नये ख़यालातों में द्वंद। फ़िल्म तो कामयाब थी ही, उसका गीत संगीत

छू लेने दो नाज़ुक होंठों को...राज कुमार का संजीदा अंदाज़ और रफी साहब की गलाकारी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 155 मो हम्मद रफ़ी पर केन्द्रित विशेष शृंखला 'दस चेहरे एक आवाज़' के लिए आज हम ने जिस चेहरे को चुना है, वो ज़्यादातर जाने जाते हैं अपने संवाद अदायगी के ख़ास अंदाज़ की वजह से। जी हाँ, ज़िक्र है राजकुमार साहब का। राजकुमार जैसे अभिनेताओं पर गानें नहीं फ़िल्माये जाते, उनकी संवाद अदायगी और अभिनय ही उनके निभाये किरदारों के केन्द्रबिंदु में रहे। लेकिन फिर भी कुछ फ़िल्मों में उन्होने परदे पर कुछ गानें भी गाये, और जिनमें से अधिकतर रफ़ी साहब की ही आवाज़ में थे। 'नीलकमल', 'हीर रांझा', और 'काजल' कुछ ऐसी ही फ़िल्में हैं। आज इनमें से सुनिये फ़िल्म 'काजल' का वह सदाबहार नग़मा जिसमें है अजीब सा एक नशा है जिसे सुनकर यकायक मन बहकने लगे, क़दम डगमागाने लगे। "छू लेने दो नाज़ुक होठों को, कुछ और नहीं है जाम है ये, कुदरत ने जो हमको बख़्शा है, वो सब से हसीं इनाम है ये"। सन्‍ १९६५ में बनी फ़िल्म 'काजल' का निर्माण व निर्देशन किया था राम महेश्वरी ने और राजकुमार के अलावा फ़िल्म के प्रमुख कलाकार थे मीना कुमारी और धर्मेन्द्र। कहानी गुल्श

लोग उन्हें "गाने वाली" कहकर चिढ़ाते थे, धीरे धीरे ये उनका उपनाम हो गया....

दुनिया में कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं, जिनके जाने के बाद भी उनकी मधुर स्मृतियाँ हमें प्रेरित करती हैं. सपने देखने और उन्हें पूरा करने का हौसला देती हैं. इसी श्रेणी में एक नाम और दर्ज हुआ है, वो है शास्त्रीय संगीत की मल्लिका गंगूबाई का. गीता में कहा है कि 'शरीर मरता है आत्मा नही'. गंगूबाई शास्त्रीय संगीत की आत्मा हैं. आज वो नहीं रहीं लेकिन उनकी संगीत शैली आत्मा के रुप में हमारे बीच विराजमान है. यूँ तो आज गंगूबाई संगीत के शिखर पर विराजित थीं लेकिन उस शिखर तक पहुँचने का रास्ता उन्होंने बहुत ही कठिनाईयों से तय किया था. गंगूबाई का जन्म १९१३ में धारवाड़ में हुआ था. देवदासी कुल में जन्म लेने वाली गंगूबाई ने छुटपन से संगीत की शिक्षा लेनी शुरु कर दी थी. अक्सर उन्हें जातीय टिप्पणी का सामना करना पड़ता और उनकी गायन कला को लेकर लोग मजाक बनाया करते थे. उस समय गायन को अच्छा नहीं माना जाता था, इसलिए लोग उन्हें 'गाने वाली' कहकर चिढ़ाते थे. धीरे-धीरे यह उनका उपनाम हो गया. गंगूबाई कर्नाटक के दूरस्थ इलाके हंगल में रहती थीं. इसी से उनकी पहचान बनी और उनके नाम के स

ये मेरा प्रेम पत्र पढ़ कर के तुम नाराज़ न होना....राजेंद्र कुमार की दरख्वास्त रफी साहब की आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 154 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के तहत इन दिनों आप सुन रहें हैं लघु शृंखला 'दस चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी'। अब तक जिन चेहरों से आपका परिचय हुआ है, वो हैं शम्मी कपूर, दिलीप कुमार और सुनिल दत्त। आज का चेहरा भी बहुत ख़ास है क्योंकि इनके भी ज़्यादातर गानें रफ़ी साहब ने ही गाये हैं। इस चेहरे को हम सब जुबिली कुमार, यानी कि राजेन्द्र कुमार के नाम से जानते हैं। रफ़ी साहब और राजेन्द्र कुमार की जोड़ी की अगर बात करें तो जो जो प्रमुख फ़िल्में ज़हन में आती हैं, उनके नाम हैं धूल का फूल, मेरे महबूब, आरज़ू, सूरज, गंवार, दिल एक मंदिर, और आयी मिलन की बेला। लेकिन एक और फ़िल्म ऐसी है जिसमें मुख्य नायक राज कपूर थे, और सह नायक रहे राजेन्द्र कुमार। ज़ाहिर सी बात है कि फ़िल्म के ज़्यादातर गानें मुकेश ने ही गाये होंगे, लेकिन उस फ़िल्म में दो गानें ऐसे थे जो राजेन्द्र कुमार पर फ़िल्माये जाने थे। उनमें से एक गीत तो लता-मुकेश-महेन्द्र कपूर का गाया हुआ था जिसमें राजेन्द्र साहब का प्लेबैक किया महेन्द्र कपूर ने, और दूसरा जो गीत था वह रफ़ी साहब की एकल आवाज़ में था। जी हाँ, यहाँ फ़िल्

यूँ न रह-रहकर हमें तरसाईये.....एक फ़नकार जो चला गया हमें तरसाकर

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३३ यूँ तो हमने पिछली दफ़ा फ़रमाईश की गज़लों का सिलसिला शुरू कर दिया था.. लेकिन न जाने क्यों आज मन हुआ कि कम से कम एक दिन के लिए हीं अपने पुराने ढर्रे पर वापस आ जाया जाए। अहा..... हम अपने वादे से मुकर नहीं रहे, आने वाली ७ कड़ियों में हमें फ़रमाईश की ५ गज़लों/नज़्मों को हीं सुनाना है, इसलिए आगे भी दो बार हम अपने संग्रह से चुनी हुई २ गज़लों/नज़्मों का आनंद ले सकते हैं। तो चलिए आज की गज़ल की ओर बढते हैं। आज की गज़ल "यूँ न रह-रहकर हमें तरसाईये" को लिखा है "सागर निज़ामी" ने और संगीत से सँवारा है चालीस के दशक के मशहूर संगीतकार "पंडित अमरनाथ" ने। जानकारी के लिए बता दूँ कि "पंडित अमरनाथ" जानी-मानी संगीतकार जोड़ी "हुस्नलाल-भगतराम" के बड़े भाई थे। रही बात "सागर निज़ामी" की तो अंतर्जाल पर उनकी लिखी चार हीं गज़लें मौजूद हैं- "यूँ न रह-रहकर", "हैरत से तक रहा", "हादसे क्या-क्या तुम्हारी बेरूखी से हो गए" और "काफ़िर गेशु वालों की रात बसर यूँ होती है"। संगीतकार और शायर के बाद जिसका नाम हमा

रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ...सुनील दत्त का दर्द, रफी के स्वर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 153 'द स चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी' के तहत आज जिस चेहरे पर रफ़ी साहब की आवाज़ सजने वाली है, उस चेहरे का नाम है सुनिल दत्त। सुनिल दत्त उन अभिनेताओं में से हैं जिनका कई गायकों ने पार्श्व-गायन किया है जैसे कि तलत महमूद, मुकेश, किशोर कुमार, महेन्द्र कपूर, और रफ़ी साहब भी। रफ़ी साहब की आवाज़ और दत्त साहब के अभिनय से सजी एक बेहद मशहूर फ़िल्म रही है 'ग़ज़ल'. १९६४ में बनी यह फ़िल्म एक मुस्लिम सामाजिक फ़िल्म थी। ज़ाहिर है ऐसे फ़िल्मों में उर्दू शायरी का बड़ा हाथ हुआ करता है और यह फ़िल्म भी व्यतिक्रम नहीं है। साहिर लुधियानवी के अशआर, मदन मोहन का संगीत, सुनिल दत्त और मीना कुमारी के अभिनय, तथा रफ़ी साहब की आवाज़, कुल मिलाकर आज यह फ़िल्म यादगार फ़िल्मों में अपना जगह बना चुकी है, और यह जगह इसके गीत संगीत के वजह से ही और ज़्यादा पुख़्ता हुई है। साहिर, मदन मोहन, रफ़ी साहब, ये तीनों अपने अपने क्षेत्र में अग्रणी रहे हैं और आज का प्रस्तुत गीत इन तीनों के संगीत सफ़र का एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा है, इसमें कोई शक़ नहीं है। "रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ,

जुलाई का पॉडकास्ट कवि सम्मेलन और बारिश की फुहारें

सुनिए ऑनलाइन कवि सम्मेलन का बारिश अंक रश्मि प्रभा खुश्बू एक समय था जब हम महीने के नाम से मौसम का मिज़ाज बता सकते थे। उत्तर भारत में सावन का महीना झूलों का, छोटी-बड़ी नदियों में आई उफानों का, धान की रोपाई का महीना होता था- जैसे धरती हरे रंग का छाता लगा लेती थी। लेकिन मनुष्य के प्रकृति को जीतने की उत्कंठा और होड़ ने पूरी तस्वीर ही बदल दी। आलम यह कि जहाँ 20 मिलि॰ वर्षा होती थी वहाँ 500 मिलि॰ बारिश हो रही है और जहाँ बरसात न हो तो किसना खाना नहीं खाता, वहाँ सूखा पड़ा है। सूरत यह कि गुजरात के सौराष्ट्र में बाढ़ और जल-प्लावन का संकट है तो वहीं उत्तर प्रदेश के 20 जिलों को वहाँ की सरकार सूखा घोषित कर चुकी है। मौसम विज्ञानियों कि मानें तो मौसम के इस नये मिजाज़ को समझने की ज़रूरत है और यह मान लेने की ज़रूरत है कि जलवायु में 180 डिग्री का बदलाव आ चुका है। जितनी जल्दी समझेंगे, उतनी जल्दी शायद हम इस संकट से उबर पायेंगे। इसीलिए हमने भी मौसम के जानकारों की मानने की सोची और इतनी विडम्बनाओं के बावज़ूद भी पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का बारिश अंक लेकर हम आपके सामने उपस्थित हैं, जिसमें बारिश, सूखा और इससे जुड़ीं

जब दिल से दिल टकराता है... दिलीप का अंदाज़ और रफी साहब की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 152 ज ब रफ़ी साहब के गीतों पर दस चेहरों की अदायगी की बात हो, तो एक अभिनेता जिनके ज़िक्र के बग़ैर चर्चा अधूरी रह जायेगी, वो हैं अभिनय के शहंशाह दिलीप कुमार साहब। रफ़ी साहब ने एक से एक बढ़कर गीत गाये हैं दिलीप साहब के लिये, लेकिन दिलीप साहब जब फ़िल्मों में आये थे तब रफ़ी साहब मुख्य रूप से उनका प्लेबैक नहीं किया करते थे। अरुण कुमार ने पहली बार दिलीप कुमार का पार्श्वगायन किया था उनकी पहली फ़िल्म 'ज्वार भाटा' में। उसके बाद तलत महमूद बने दिलीप साहब की आवाज़ और कई मशहूर गीत बनें जैसे कि 'दाग़', 'आरज़ू', 'बाबुल', 'तराना', 'संगदिल', 'शिकस्त', 'फ़ूटपाथ', इत्यादि फ़िल्मों में। तलत साहब के साथ साथ मुकेश ने भी कई फ़िल्मों में दिलीप कुमार के लिये गाया जैसे कि 'मधुमती', 'यहूदी' वगेरह। लेकिन जो आवाज़ दिलीप साहब पर सब से ज़्यादा जचीं, वो थी मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़। रफ़ी साहब ने उनके लिए इतने सारे मशहूर गीत गाये हैं कि अगर उसकी फ़ेहरिस्त लिखने बैठें तो उलझ कर रह जायेंगे। बस इतना कहेंगे कि दिलीप सा

दीवाना मुझसा नहीं इस अम्बर के नीचे...रफी साहब के किया दावा शम्मी कपूर के लिए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 151 "म स्ती में छेड़ के तराना कोई दिल का, आज लुटायेगा ख़ज़ाना कोई दिल का"। जी हाँ दोस्तों, तैयार हो जाइए उस ख़ज़ाने से निकलने वाले तरानों के साथ बहने के लिए जिस ख़ज़ाने को हम और आप मोहम्मद रफ़ी के नाम से जानते हैं। आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रहा है रफ़ी साहब को समर्पित दस विशेषांकों की एक ख़ासम-ख़ास पेशकश - "दस चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी"। जैसा कि शीर्षक से ही प्रतीत हो रहा है कि ये दस गानें दस अलग अलग नायकों पर फ़िल्माये हुए होंगे। रफ़ी साहब के अलग अलग अंदाज़-ए-बयाँ को इस शृंखला में क़ैद करने के लिए हमने नायकों के तराजू को इसलिए चुना क्योंकि रफ़ी साहब अपनी आवाज़ से अभिनय ही तो करते थे। हर नायक के स्टाइल और मैनरिज़्म को अच्छी तरह से जज्ब कर उनका पार्श्व गायन किया करते थे, और यही वजह है कि चाहे परदे पर दिलीप कुमार हो या धर्मेन्द्र, भारत भूषण हो या जीतेन्द्र, रफ़ी साहब की आवाज़ हर एक नायक को उसकी आवाज़ बना लेती थी। तो दोस्तों, आज से लेकर अगले दस दिनों तक हर रोज़ सुनिये रफ़ी साहब की आवाज़ लेकिन अलग अलग नायकों को दी हुई। यूं त

सुनो कहानी: आँखें - स'आदत हसन 'मंटो'

मंटो की "आँखें" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में उर्दू और हिंदी प्रसिद्ध के साहित्यकार उपेन्द्रनाथ अश्क की एक छोटी कहानी " ज्ञानी " का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं सआदत हसन मंटो की "आँखें" , जिसको स्वर दिया है "किस से कहें" वाले अमिताभ मीत ने। इससे पहले आप अमिताभ मीत की आवाज़ में सआदत हसन मंटो की " कसौटी " और अनुराग शर्मा की आवाज़ में मंटो की अमर कहानी टोबा टेक सिंह और एक लघुकथा सुन चुके हैं। "आँखें" का कुल प्रसारण समय ११ मिनट और २३ सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो ख़ुद को ख़ुदा कहता था। ~ सआदत हसन मंटो (१९१२-१९५५) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

जब ओल्ड इस गोल्ड के श्रोताओं ने सुनाये सुजॉय को अपनी पसंद के गीत- 150 वें एपिसोड का जश्न है आज की शाम

२० फरवरी २००९ को आवाज़ पर शुरू हुई एक शृंखला, जिसका नाम रखा गया ओल्ड इस गोल्ड. सुजॉय चट्टर्जी विविध भारती ग्रुप के सबसे सक्रिय सदस्य थे, यही माध्यम था उनसे परिचय का. फिर एक बार वो दिल्ली आये उन्होंने अपने ग्रुप के सभी मित्रों को मिलने के लिए बुलाया. उस दिन युग्म के नियंत्रक शैलेश भारतवासी जी उनसे मिले. उसके अगले दिन मैं सुजॉय से व्यक्तिगत रूप से मिला, उनके पास रेडियो प्रोग्राम्स का एक ऐसा खजाना मौजूद था जिस पर किसी की भी नज़र ललचा जाए, तब से यही जेहन में दौड़ता रहा कि किस तरह सुजोय के इस खजाने को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाया जाए, तभी अचानक ओल्ड इस गोल्ड का आईडिया क्लिक किया. २० फरवरी का दिन क्यों चुना गया इसकी भी एक ख़ास वजह थी, यहाँ थोडा सा व्यक्तिगत हो गया था मैं....यही वो दिन था जब मेरी सबसे प्रिय पूजनीय नानी माँ दुनिया को विदा कह गयी थी, मुझे लगा क्यों ना इस शृंखला को उन्हीं की यादों को समर्पित किया जाए. खैर जब सुजॉय से पहले पहल इस बारे में बात की तो सुजॉय तो क्या मैं और आवाज़ की टीम भी इसकी सफलता को लेकर संशय में थे, और फिर रोज एक नया गीत डालना, क्या हम ये सब नियमित रूप से कर पा

बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी..... एक फ़रमाईश जो पहुँची कफ़ील आज़र तक

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३२ आ ज महफ़िल-ए-गज़ल की ३२वीं कड़ी है और वादे के अनुसार हम फ़रमाईश की पहली गज़ल/नज़्म लेकर हाज़िर हैं। जिन लोगों को फ़रमाईश वाली बात पता नहीं, उनके लिए हम पिछली बार के पोस्ट पर की गई टिप्पणी वापस यहाँ पेस्ट किए दे रहे हैं। पिछली बार "शामिख" जी ने यह सवाल उठाया था तो हमारा जवाब कुछ यूँ था: हमने २५वें से २९वें एपिसोड के बीच प्रश्नों का एक सिलसिला चलाया था। उन पहेलियों/प्रश्नों का जिन्होंने भी सही जवाब दिया, उन्हें हमने अंकों से नवाज़ा। इस तरह पाँच एपिसोडों के अंकों को मिलाने से हमें दो विजेता मिले - शरद साहब और दिशा जी। हमने वादा किया था कि जो भी विजेता होगा वो हमसे ५ गज़लों की फ़रमाईश कर सकता है, जिनमें से हम किन्हीं भी ३ गज़लों की फ़रमाईश पूरी करेंगे। इस तरह चूँकि दो विजेता हैं इसलिए हम फ़रमाईश की ६ गज़लों/नज़्मों को ३२वें से ४२वें एपिसोड के बीच पेश करेंगे। तो लीजिए हम हाज़िर हैं अपनी पहली पेशकश के साथ....अहा! अपनी नहीं, "शरद" जी की पहली पेशकश के साथ। आज की नज़्म की फ़रमाईश शरद जी ने हीं की थी। वैसे "दिशा" जी को हम याद दिलाना चाहेंगे कि उ