संगीत समीक्षा - गेंगस ऑफ़ वासेपुर - २
पुस्तक चर्चा - ...डार्क रूम
और अंत में आपकी बात- अमित तिवारी के साथ
दोस्तों जब हमने गैंग्स ऑफ वासेपुर के पहले भाग के संगीत की समीक्षा की थी और उसे ४.३ की रेटिंग दी थी, तो कुछ श्रोताओं ने पूछा था कि क्या वाकई ये अल्बम इस बड़ी रेटिंग की हकदार है? तो दोस्तों हम आपको बता दें कि हमारा मापदंड मुख्य रूप से इस तथ्य में रहता है कि संगीत में कितनी रचनात्मकता है और कितना नयापन है. क्योंकि इस कड़ी प्रतियोगिता के समय में अगर कोई कुछ नया करने की हिम्मत करता है तो उसे सराहना मिलनी चाहिए.
तो इसी बात पर जिक्र करें गैंग्स ऑफ वासेपुर के द्रितीय भाग के संगीत की. संगीत यहाँ भी स्नेहा कंवलकर का है और गीत लिखे हैं वरुण ग्रोवर ने. एक बार फिर इस टीम ने कुछ ऐसा रचा है जो बेहद नया और ओरिजिनल है, लेकिन याद रखें अगर आप भी हमारी तरह नयेपन की तलाश में हैं तभी आपको ये अल्बम रास आ सकती है.
१२ साल की दुर्गा, चलती रेल में गाकर अपनी रोज़ी कमाती थी, मगर स्नेहा ने उसकी कला को समझा और इस अल्बम के लिए उसे मायिक के पीछे ले आई. दुर्गा का गाया ‘छी छी लेदर” सुनने लायक है, दुर्गा की ठेठ और बिना तराशी आवाज़ का खिलंदड़पन गीत का सबसे बड़ा आकर्षण है.
स्नेहा की अपनी आवाज़ में कोयला बाजारी के काले बाज़ार के भेद खोलता है गीत "काला रे”, पार्श्व वाध्य बेहद सीमित हैं, शब्द और गायन पर जोर अधिक है, “सैयां करते जी कोल बाजारी” स्नेहा की ठहरी हुई आवाज़ में एक रहस्य का काला संसार रच जाते हैं सुनने वाले के जेहन में.
इलेक्ट्रिक पिया और तार बिजली से पतले हमारे पिया, दरअसल एक ही गीत के दो संस्करण है, निश्चित ही रसिका रानी की आवाज़ के इलेक्टिक पिया से कई गुना बेहतर है पद्म श्री गायिका शारदा सिन्हा की आवाज़ में “तार बिजली” गीत. लोक वाद्यों का प्रयोग और गुदगुदाते शब्दों के चलते“तार बिजली” अल्बम का सबसे बेहतर गीत सुनाई पड़ता है. इस गीत को सुनते हुए आपके चेहरे पर एक रसीली मुस्कान अवश्य ही बिखर जायेगी.“सूख के हो गए हैं छुआरे पिया....”, शारदा सिन्हा को एक प्रमुख धारा की अल्बम में सुनना बेहद सुखद लगता है.
बच्चों की आवाज़ में “बहुत खूब” एक रैप है. एक दम स्वाभाविक साउंड है....चट्टानों से क्रीडा करती....एक ऐसा गीत है जिसे जिसे आप सुन सुनकर नहीं थकेंगें. वाह स्नेहा इस ओरीजिनिलाटी पर कौन न कुर्बान जाए भला.
पियूष मिश्रा एक बार फिर यहाँ दिखे हैं व्यंगात्मक अंदाज़ में, मगर इस बार लोरी की जगह कव्वाली का सहारा लिया गया है तीखे तीखे व्यंगों के बाण कसने के लिए, पियूष के साथ हैं भूपेश सिंह. गीत का नाम है “आबरू”...
कह के लूँगा का एक नया संस्करण है "के के एल" में, "मूरा" एक अलग अंदाज़ का गीत है, मार खराबे के बीच एक मेलोडी मगर शब्दों का अलग तडका अल्बम के मूड को बदलने नहीं देता. परपेंडीकुलर और तुनिया फिल्म के किरदारों को समर्थित करते गीत हैं. कुल मिलाकर वासेपुर के इस संस्करण के गीत भी निराश नहीं करते. रेडियो प्लेबैक दे रहा है ४ की रेटिंग ५ में से.
पुस्तक चर्चा - ...डार्क रूम
द डार्क रूम उपन्यास की रचना तमिलनाडु में जन्मे अंग्रेजी लेखक आर.के. नारायण ने करी. १९०६ में जन्मे नारायण का पूरा नाम रसीपुरम कृष्णास्वामी अय्यर नारायणस्वामी था. साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित आर.के. नारायण ने अपने जीवन में १५ उपन्यास, कहानियों के पांच खंड, अनेक यात्रा वृतांत लिखे, और महाभारत एवम रामायण के अंग्रेजी अनुवाद किये हैं और अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले भारतीय लेखकों में सबसे अधिक लोकप्रिय रहे हैं.
उनकी अन्य रचनाओं की तरह यह भी मालगुड़ी कस्बे की कहानी है. दाम्पत्य जीवन के उतार चढाव पर आधारित आर.के. नारायण का यह उपन्यास पाठकों के दिलों को छु जाता है. शादी का रिश्ता निभाने के लिए पति और पत्नी दोनों को क्या क्या समझोते करने पड़ते हैं यही है इस रोमांचक पुस्तक का केंद्रबिंदु. है.
उपन्यास की मुख्य पात्र है ‘सावित्री’, जिसकी शादी हुई है रमानी से. रमानी इंगलेडिया इन्सुरेन्स कम्पनी में मैनेजर है. उनके तीन बच्चे कमला, सुमति और बाबू है. सावित्री उस समय की एक टिपिकल गृहिणी है जिसके लिए पति का कहा ही सब कुछ है. उनके घर में एक डार्क रूम है जिसमे सावित्री पति से नाराजगी होने पर चली जाती है. सावित्री के पति का उसकी फर्म में एक नव नियुक्त महिला कर्मचारी के साथ प्रेम सम्बन्ध हो जाता है. सावित्री इसकी वजह से घर छोड़कर आत्महत्या करने चल पड़ती है और असफल रहती है. उसके बाद वह अपने बल पर जिन्दगी जीने का निर्णय लेती है और एक मंदिर में परिचारिका की नौकरी कर लेती है. अंततः सावित्री अपने बच्चों के बिना नहीं रह पाती और सीने पर बोझ लिए वापस लौट आती है.
इस अंग्रेजी उपन्यास का हिन्दी में अनुवाद करा है ‘महेंद्र कुलश्रेष्ठ’ ने और प्रकाशक हैं ‘राजपाल एंड सन्स’.
और अंत में आपकी बात- अमित तिवारी के साथ
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