भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘स्मृतियों के झरोखे से’ में आप सभी सिनेमा प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। आज माह का दूसरा गुरुवार है और आज बारी है- ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ की। इस द्विसाप्ताहिक स्तम्भ के पिछले अंक में पंकज मुकेश की देखी पहली फिल्म के संस्मरण के साझीदार रहे। आज का संस्मरण है वरिष्ठ कथाकार और शायर प्रेमचंद सहजवाला का. यह भी प्रतियोगी वर्ग की प्रविष्ठि है।
‘‘अनुपमा’ फिल्म और मेरी पिटाई...’
बचपन से फिल्मों का शौक था. पांचवीं में पढ़ता था कि हर फिल्म देखने का शौक़ीन बन गया. ‘उड़न खटोला’ फिल्म देखने के लिये बहुत लंबी लाईन में खड़ा हुआ. स्कूल का एक बदमाश सा लड़का भी दिख गया. उस ने उस लंबी लाईन के अंत में से मुझे कॉलर पकड़ कर बाहर खींचा और खींचते खींचते आगे आगे दसवें पन्द्रहवें नंबर पर खड़ा कर गया. मुझे उसकी बदमाशी खूब पसंद आई. पर इस के बावजूद हुआ यह कि जब मैं चौथे नंबर तक पहुँच गया था तब तक खिड़की बंद हो गई और बुकिंग क्लर्क ने बोर्ड लगा दिया – हाऊस फुल! वे यादें बहुत रोचक हैं. माँ सोई होती थी तो तकिये के नीचे से छः आने गिन कर चुरा लेता था. पैदल पैदल उल्हासनगर की वीनस थियेटर तक जा कर पांच आने वाला टिकेट लेता था और एक आना पापड़ या पकोडे खाने के लिये रख लेता था! बड़ा हुआ तो सिनेमा को गंभीरता से लिया. एम.एस.सी तक पहुँचते पहुँचते साहित्यिक फिल्मों का बेहद शौक़ीन हो गया. इस संस्मरण में वह दिन है जब मैं अपनी पूरी एम.एस.सी क्लास को ‘अनुपमा’ जैसी अनमोल फिल्म दिखाने ले गया था

-
‘क्यों?’ मैं कुछ चकित था.
बोली – ‘सब कह रहे हैं किस रद्दी
फिल्म पर ले गए तुम. फिल्म में न तो मारधाड़,
न कोई
कामोत्तेजक डांस. साले ने बोर कर के रख दिया सबको. हा हा हा...’ प्रभा को हंसी आती जा रही थी. फिर बोली – ‘ये लड़के उसी प्रकार के
रहेंगे, जैसे हैं. गाँव के हैं, सो इन्हें टाईम पास हिंसात्मक फिल्में चाहियें, या कामोत्तेजक दृश्यों वाली. कह रहे हैं कहाँ है वह स्कॉलर
महाशय, हाई टेस्ट का गुरूर रखने वाला. हम सब
मिल कर उसे पीटेंगे. यह भी कोई फिल्म होती है. हमारा पैसा और टाईम दोनों खराब.’ मैं क्लास में तो प्रभा के साथ ही पहुँच गया, पर सब के सब मेरी तरफ देख दबी दबी हंसी हँसने लगे. प्रोफ़ेसर
क्लास में आ कर पढ़ाने लगा तब भी एक जना बीच में इशारे से अपना मुक्का दिखा कर मानो
दोस्ताना धमकी दे रहा था. सब ने बाद में भी यही शिकायत की – ‘ले चलना था तो किसी तड़कती भड़कती फिल्म पर ले चलते, यह क्या फिल्म थी.’ मुझे लगा कि सच्मुच, यहाँ मेरी पसंद वाला कोई एकाध ही होगा. मैं जब कुछ वर्ष बाद
फिरोज़ाबाद यूं ही एक इंटरव्यू पर गया तो विजय टाकीज़ के साथ वाली अमर टाकीज़ में
शर्मीला टैगोर की ‘ईवनिंग इन पेरिस’ लगी हुई थी और टाकीज़ के ऊंचे से पोस्टर में वह स्विमिंग सूट
में अधनंगी सी एक मोटर बोट में उड़ सी रही थी. उस समय मुझे अपने उन दोस्तों की खूब
याद आई कि अगर वे अब भी यहाँ पढ रहे होते और मैं उनको इस फिल्म में लाता तो सब के
सब अगले दिन मुझ से गले भी मिलते और बलाएं भी ले रहे होते. कहते – ‘वाह स्कॉलर सा’ब, बहुत बढ़िया फिल्म दिखाई. और कौन सी दिखा रहे हो अगली बार?’
लीजिए, प्रेमचंद सहजवाला की देखी पहली फिल्म ‘अनुपमा’ से एक बेहद लोकप्रिय गीत- "ऐसी भी बातें होती है..."
आपको प्रेमचंद सहजवाला जी की देखी इस खास फिल्म का संस्मरण कैसा लगा? हमें अवश्य लिखिएगा। आप अपनी प्रतिक्रिया radioplaybackindia@live.com पर भेज सकते हैं। आप भी हमारे इस आयोजन- ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ में भाग ले सकते हैं। आपका संस्मरण हम रेडियो प्लेबैक इण्डिया के इस अनुष्ठान में सम्मिलित तो करेंगे ही, यदि हमारे निर्णायकों को पसन्द आया तो हम आपको पुरस्कृत भी करेंगे। आज ही अपना आलेख और एक चित्र हमे swargoshthi@gmail.com पर मेल करें। जिन्होने आलेख पहले भेजा है, उन प्रतिभागियों से अनुरोध है कि अपना एक चित्र भी भेज दें।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
Comments
धन्यवाद प्रेमचंदजी और कृष्ण मोहन जी!!!