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स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल – 12




मैंने देखी पहली फ़िल्म

भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान में प्रत्येक गुरुवार को हम आपके लिए सिनेमा के इतिहास पर विविध सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं। माह के दूसरे और चौथे गुरुवार को आपके संस्मरणों पर आधारित ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ स्तम्भ का प्रकाशन प्रतियोगी रूप में प्रस्तुत करते हैं। परन्तु आज माह का पाँचवाँ गुरुवार है, इसलिए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं, गैर-प्रतियोगी संस्मरण। आज का यह संस्मरण, हमारे संचालक-मण्डल के किसी सदस्य का नहीं, बल्कि हमारे सम्मानित अतिथि लेखक और फिल्म-पत्रकार शिशिर कृष्ण शर्मा का है।  
शिशिर जी मूलतः देहरादून के हैं और वर्तमान में मुम्बईवासी जाने-माने कथाकार, पत्रकार और फिल्म-इतिहासकार हैं। ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी स्तम्भों को रुचि के साथ पढ़ते/सुनते हैं। शिशिर जी ने ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ के पिछले अंकों को देख कर गैर-प्रतियोगी रूप में भाग लेने की इच्छा व्यक्त की। तो लीजिए, प्रस्तुत है- शिशिर कृष्ण शर्मा की स्मृतियों में बसी फिल्म ‘बीस साल बाद’ का रोचक और रोमांचक संस्मरण।



‘फिल्म देख कर गायत्री मंत्र कण्ठस्थ किया...’ : शिशिर कृष्ण शर्मा 

‘जनता की भारी माँग पर...’न्यू एम्पायर’ में, नए प्रिंट के साथ...घटी दरों पर देखिए...’ !!!...और तांगे के दोनों तरफ़ लगे होर्डिंग्स पर नज़र पड़ते ही मेरी बांछें, बकौल श्रीलाल शुक्ल ‘वो शरीर में जहाँ कहीं भी थीं’, खिल उठीं। होर्डिंग्स पर मौजूद थे, हेट लगाए और ओवरकोट ओढ़े, शहरी बाबू विश्वजीत और लहँगा-चोली पहने और दुपट्टे का कोना मुंह में दबाए शरमाती-इठलाती ग्रामीण बाला वहीदा रहमान।...पार्श्व में था वो मशहूर ख़ूनी पंजा जिसका ज़िक़्र मैं अपने होश सम्भालने के वक़्त से बुआ-चाचा और माँ के मुंह से सुनता आ रहा था। तांगे पर लगे भोंपू ऐलान कर रहे थे...’रोज़ाना चार शो’...’ख़ून को जमा देने वाला खेल’...’बीस साल बाद’...’बीस साल बाद’ !!!

आज की पीढ़ी के लिए भले ही ये एक अजूबा हो, लेकिन 70 के दशक में फ़िल्मों का प्रचार इसी तरह से तांगों और रिक्शों पर शहरों-क़स्बों के गली-कूंचों में घूम-घूम कर किया जाता था। उस जमाने में न तो टेलीविज़न थे और न ही ऑडियो-वीडियो कैसेट। सी.डी.-डी.वी.डी.प्लेयर और कम्प्यूटर जैसी अलौकिक चीज़ों का तो ख़्याल भी किसी के ज़हन में नहीं था। मनोरंजन का सस्ता और सुलभ साधन सिर्फ़ सिनेमा था, पुरानी फ़िल्में सालों-साल बार-बार प्रदर्शित की जाती थीं और हरेक शहर और क़स्बे में कम से कम एक सिनेमाहॉल सिर्फ़ पुरानी फ़िल्मों के प्रदर्शन के लिए सुरक्षित होता था, जैसा कि मेरे शहर देहरादून का ‘न्यू एम्पायर’। बरसों के इन्तज़ार की मेरी घड़ियाँ ख़त्म हो चुकी थीं और मेरे शहर में अब फिर से दिखाया जा रहा था... ‘ख़ून को जमा देने वाला खेल’...’बीस साल बाद’...जनता की भारी माँग पर...घटी दरों पर, रोज़ाना चार शो...!!!

‘बीस साल बाद’ और मेरी पैदाईश एक ही साल, यानि 1962 की थी। और अब 15 साल की उम्र में मैं पहली बार अकेला कोई फ़िल्म देखने पहुँचा था।...मेरा ‘हमउम्र’ और बहुप्रतीक्षित ‘खेल’...’बीस साल बाद’। माँ ने दो रूपए दिए थे, बीस पैसे साईकिल स्टैंड के ख़र्च हुए और एक रूपए बीस पैसे का फ़िल्म का टिकट ख़रीदा। फ़िल्म के शुरू होते ही कलेजा घोड़े पर सवार हो गया। माथे पर पसीना, अटकती साँसें, खटमलों से भरी, फटी सीट के टूटे हत्थों पर कसती मुट्ठियाँ। हॉल में गूँजती अजीब-अजीब सी डरावनी आवाज़ें, दहशत के ग्राफ़ को चाँद के पार पहुँचा थीं। ये आवाज़ें उन ‘लौंडे-लफ़ाड़ेनुमा’ दर्शकों की थीं, जो नवरस के प्रत्येक रस को सिर्फ़ ‘मौजमस्ती-रस’ में बदलकर रख देना चाहते हैं। उधर परदे पर आदमक़द घास के बीच से गुज़रता, डरा हुआ सा आदमी, उलटे क़दमों से चलकर घने पेड़ के पास पहुँचा और इधर हॉल में गूँजती डरावनी आवाज़ें अपने चरम पर पहुँच गई...और फिर अचानक वो खूनी पंजा !...उस आदमी का क़त्ल !!...और अन्ततः हॉल में पसरा हुआ सन्नाटा !!!

मेरा दृढ़ विश्वास है कि ‘ब्लैक एंड व्हाईट’ की सी मनमोहक लाईटिंग और असरदार गहराई, रंगीन सिनेमा में और वो भी रहस्य-रोमांच वाली फ़िल्मों में हो ही नहीं सकती। हिन्दी सिनेमा के स्वर्णकाल की एक पूर्ण प्रतिनिधि उस फ़िल्म का मेरे किशोर मन पर ऐसा ज़बर्दस्त असर हुआ कि आज 35 बरस बाद भी अपनी उस ‘हमउम्र’ के साथ मेरा उतना ही क़रीबी रिश्ता बना हुआ है। क़ातिल का पता तो उस पहले शो में ही चल चुका था लेकिन इस फिल्म को देखने का मौक़ा मैं आज भी ढूँढ ही लेता हूँ।...हर बार वही आनन्द...वही नयापन। कसी हुई कथा-पटकथा, कमाल की फ़ोटोग्राफ़ी, बेमिसाल निर्देशन!...सुनसान भुतही हवेली...पैशाचिक ध्वनि के साथ खुलते-बन्द होते खिड़की-दरवाज़े... दूर कहीं किसी औरत का रूदन... घुँघरूओं की छमछम... गलियारे से गुज़रता रहस्यमय साया... ऐसे में कलेजा उछलकर आख़िर हलक़ में क्यों न आए? उधर कानों में रस घोलता गीत-संगीत, विशेषत: लता के पारलौकिक स्वर में तमाम रहस्यमयता को समेटे, दिल में उतर जाने वाला गीत ‘कहीं दीप जले कहीं दिल, जरा देख ले आकर परवाने...’, सीप के मोती की तरह बेहद ख़ूबसूरती के साथ गढ़ा गया फ़िल्म का एक-एक चरित्र... नायक-नायिका की दिलकश जोड़ी...बग्घी पर सवार ‘डॉक्टर पाण्डेय’ (मदन पुरी)...बैसाख़ी का सहारा लिए ‘मोहन त्रिपाठी’ (सज्जन)...दर्शकों के तमाम तनाव और भय को तिरोहित करने के लिए मशहूर ‘गोपीचन्द्र जासूस’ (असित सेन)...सीधे-सादे बुज़ुर्ग चाचा (मनमोहन कृष्ण)...सुनसान हवेली के पुराने नौकर ‘लक्ष्मण’ का अपने ही शब्दों को दोहराना...’समझ गया...मैं सब समझ गया’!...आज भी ये चरित्र मेरे दिल के सबसे ज़्यादा क़रीब है। ‘लक्ष्मण’ के रहस्यों से लिपटे हुए चरित्र को निभाया था अभिनेता देवकिशन ने जो इस फ़िल्म के संवाद-लेखक भी थे।

देहरादून की ‘सर्वे ऑफ़ इण्डिया’ की सरकारी कॉलोनी ‘हाथीबड़कला एस्टेट’ का 4 नम्बर ब्लॉक, जहाँ मेरी ज़िन्दगी के शुरूआती 28 साल गुज़रे, उस ज़माने में घने जंगलों से घिरा हुआ था। फ़िल्म ‘बीस साल बाद’ देखने के बाद काफ़ी अरसे तक मेरे लिए रात-बिरात उस इलाक़े की सुनसान सड़कों से गुज़रना आसान नहीं रह गया था। देर रात नाटकों की रिहर्सल से लौटते वक़्त मैं इन्तज़ार करता था कि मेरे घर की दिशा में जाने वाला जाना-अनजाना कोई तो साथी मिले। सच कहूँ तो उन दिनों कण्ठस्थ किया ‘गायत्री-मंत्र’ आज भी मुझे शक्ति देता है... ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यम........”!!!

और अब हम आपको शिशिर जी की देखी हुई फिल्म ’बीस साल बाद’ का रोमांचक किन्तु मधुर गीत- ‘कहीं दीप जले कहीं दिल, जरा देख ले आकर परवाने...’ सुनवाते हैं। इस गीत को हेमन्त कुमार ने राग शिवरंजिनी  के सुरों में संगीतबद्ध किया और लता मंगेशकर ने अपने पारलौकिक सुरों में गाया है।

फिल्म – बीस साल बाद : ‘कहीं दीप जले कहीं दिल, जरा देख ले आकर परवाने...’ : लता मंगेशकर



आपको शिशिर जी की देखी पहली फिल्म का संस्मरण कैसा लगा? हमें अवश्य लिखिएगा। आप अपनी प्रतिक्रिया radioplaybackindia@live.com पर भेज सकते हैं। आप भी हमारे इस आयोजन- ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ में भाग ले सकते हैं। आपका संस्मरण हम रेडियो प्लेबैक इण्डिया के इस अनुष्ठान में सम्मिलित तो करेंगे ही, यदि हमारे निर्णायकों को पसन्द आया तो हम आपको पुरस्कृत भी करेंगे। आज ही अपना आलेख और एक चित्र हमे radioplaybackindia@live.com पर मेल करें। जिन्होने आलेख पहले भेजा है, उन प्रतिभागियों से अनुरोध है कि अपना एक चित्र भी भेज दें।

प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
 

Comments

Sajeev said…
बहुत बढ़िया संस्मरण, मुझे लगता है ये फिल्म दुबारा देखनी पड़ेगी :) क्योंकि इतना डर पहले देख महसूस नहीं हुआ था
Amit said…
बहुत ही बेहतरीन ढंग से संस्मरण को प्रस्तुत करा गया है.
sudarshan pandey said…
Bahut dino de baad itne dilchasp dhang se likhe sansmaran ko padhne ka aanand mila. Ek hi saath darshakon aur cinema hall ki dasha par tippani aanand de gayee. Us zamaane mein Khatmal bhi adhikaansh cinema halls mein kisi darshak ka khoon peete huye film dekhne ke aanand ko alene ke liye anivaarya roop se upasthit rahte the.
फ़िल्म के शुरू होते ही कलेजा घोड़े पर सवार हो गया। line bahut majedaar lagi. Dhanyavaad..
आप सभी का हार्दिक धन्यवाद !!!...वैसे 'न्यू एम्पायर' के बारे में एक कहावत मशहूर थी, 'अगर खटमल दर्शक को पकड़कर न रखें तो उसे मच्छर उड़ा ले जाएं' !!! :):):)
This comment has been removed by the author.
AVADH said…
Bhai Shishir ji,
Atyuttam sansmaran.
Bahut khoob hai aapka andaz-e-bayan.
Jeete rahiye,kya samaan baandha hai.
Aabhaar sahit,
Avadh Lal
धन्यवाद अवध जी !!! :)
Biren Kothari said…
यह फिल्म देखने के बाद घर की दिवार पर खुद के हाथ के पंजे का साया बनाने की सफल कोशिश की थी,वो याद आ गया। बडा ही दिलचश्प बयान।
बहुत सुंदर

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