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स्वाधीनता दिवस विशेषांक : भारतीय सिनेमा के सौ साल – 10


फ़िल्मों में प्रारम्भिक दौर के देशभक्ति गीत 

'रुकना तेरा काम नहीं चलना तेरी शान, चल चल रे नौजवान...'


हिन्दी फ़िल्मों में देशभक्ति गीतों का होना कोई नई बात नहीं है। 50 और 60 के दशकों में मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे और महेन्द्र कपूर के गाये देशभक्तिपूर्ण फ़िल्मी गीतों ने अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की थी। परन्तु देशभक्ति के गीतों का यह सिलसिला शुरू हो चुका था, बोलती फ़िल्मों के पहले दौर से ही। ब्रिटिश शासन की लाख पाबन्दियों के बावजूद देशभक्त फ़िल्मकारों ने समय-समय पर देशभक्तिपूर्ण गीतों के माध्यम से जनजागरण उत्पन्न करने के प्रयास किये और हमारे स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आज 66वें स्वाधीनता दिवस पर आइए 30 के दशक में बनने वाले फिल्मों के देशभक्तिपूर्ण गीतों पर एक दृष्टिपात करते हें, जिन्हें आज हम पूरी तरह से भूल चुके हैं।आज का यह अंक स्वतन्त्रता दिवस विशेषांक है, इसीलिए आज के अंक में हम मूक फिल्मों की चर्चा नहीं कर रहे हैं। आगामी अंक से यह चर्चा पूर्ववत की जाएगी।


1930 के दशक के आते-आते पराधीनता की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ, देश आज़ादी के लिए ज़ोर-शोर से संघर्ष करने लगा। राष्ट्रीयता और देश-प्रेम की भावनाओं को जगाने के लिए फ़िल्म और गीत-संगीत मुख्य भूमिकाएँ निभा सकती थीं। परन्तु ब्रिटिश सरकार ने इस तरफ़ भी अपना शिकंजा कसा और समय-समय पर ऐसी फ़िल्मों और गीतों पर पाबंदियाँ लगाई जो देश की जनता को ग़ुलामी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। फिर भी कई बार फ़िल्मों में इस तरह के कुछ गीत ज़रूर सुनाई पड़े। 1934 में अजन्ता सिनेटोन ने मुंशी प्रेमचंद की कथा पर आधारित फिल्म ‘मजदूर’ का निर्माण किया था, जिसे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। राष्ट्रवादी फिल्मों के इतिहास में यह फिल्म प्रथम स्थान पर अंकित है। 1935 में संगीतकार नागरदास नायक ने 'भारतलक्ष्मी पिक्चर्स' की फ़िल्म 'बलिदान' में "जागो जागो भारतवासी..." गीत स्वरबद्ध किया था। इस गीत के बाद इसी वर्ष नागरदास की ही धुन पर पण्डित सुदर्शन का लिखा हुआ एक और देशभक्ति-भाव से ओत-प्रोत गीत आया "भारत की दीन दशा का तुम्हें भारतवालों, कुछ ध्यान नहीं...", फ़िल्म थी 'कुँवारी या विधवा'। इन दोनो गीतों के गायकों का पता नहीं चल सका है। चंदूलाल शाह निर्देशित 'देशवासी' भी इसी वर्ष आई पर इसके संगीतकार/गीतकार की जानकारी उपलब्ध नहीं है, हाँ इतना ज़रूर बताया जा सकता है कि इस फ़िल्म में भी एक देशभक्ति गीत था "सेवा ख़ुशी से
संगीतकार, गायक और अभिनेता मास्टर मोहम्मद  
करो देश की रे जीवन हो जाए फूलबगिया..."। 'वाडिया मूवीटोन' की 1935 की फ़िल्मों में 'देश-दीपक' उल्लेखनीय है, जिसमें संगीत दिया था मास्टर मोहम्मद ने और गीत लिखे थे जोसेफ़ डेविड ने। सरदार मन्सूर की आवाज़ में फ़िल्म का एक देशभक्ति गीत "हमको है जाँ से प्यारा, प्यारा वतन हमारा, हम बागबाँ हैं इसके..." लोकप्रिय हुआ था। इन बोलों को पढ़ कर इसकी "सारे जहाँ से अच्छा" गीत के साथ समानता मिलती है। 1936 में 'वाडिया मूवीटोन' की ही एक फ़िल्म आई 'जय भारत', जिसमें सरदार मंसूर और प्यारू क़व्वाल के अलावा मास्टर मोहम्मद ने भी कुछ गीत गाये थे। मास्टर मोहम्मद का गाया इसमें एक देशभक्ति गीत था "हम वतन के वतन हमारा, भारतमाता जय जय जय..."। आइए अब हम आपको फिल्म ‘जय भारत’ का यह दुर्लभ गीत सुनवाते है, जिसे मास्टर मोहम्मद और साथियों ने स्वर दिया है।

फिल्म – जय भारत : "हम वतन के वतन हमारा...” : मास्टर मोहम्मद और साथी


व्ही. शान्ताराम 
मास्टर मोहम्मद ने 1936 में बनी एक कम चर्चित फिल्म ‘लुटेरी ललना’ में सरिता और साथियों की आवाज़ में “झण्डा ऊँचा रहे हमारा...” गीत स्वरबद्ध किया था। मास्टर मोहम्मद ने इस दौर की फिल्मों में न केवल राष्ट्रवादी विचारों से युक्त गीतों पर बल दिया था, बल्कि तत्कालीन राजनीति में पनप रही हिन्दू-मुस्लिम अलगाववादी प्रवृत्तियों अपने गीतों के माध्यम से नकारते हुए परस्पर एकता को रेखांकित करने में अपनी भूमिका निभाई। फिल्मों के माध्यम से राष्ट्रीय विचारधारा को पुष्ट करने में व्ही. शान्ताराम का नाम शीर्ष फ़िल्मकारों में लिया जाता है। उनकी फिल्मों के कथानक और गीतों में समाज-सुधार के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वाभिमान का भाव भी उपस्थित रहता था। 1937 में बनी उनकी द्विभाषी फिल्म ‘दुनिया न माने’ (हिन्दी) और ‘कंकु’ (मराठी) महिलाओं की शिक्षा, बेमेल विवाह और विधवा समस्या को रेखांकित किया गया था। इस फिल्म के एक गीत- “भारत शोभा में है सबसे आला...” में भारत-भूमि का गौरवशाली वर्णन किया गया है। फिल्म के संगीतकार थे केशव राव भोले और इसे स्वर दिया है फिल्म की एक बाल कलाकार बासन्ती ने। लीजिए आप भी सुनिए यह गीत।

फिल्म – दुनिया न माने : “भारत शोभा में है सबसे आला...” : बासन्ती


कवि प्रदीप 
1939 में 'बॉम्बे टॉकीज़' की फ़िल्म 'कंगन' में प्रदीप ने गीत भी लिखे और तीन गीत भी गाए। यह वह दौर था जब द्वितीय विश्वयुद्ध रफ़्तार पकड़ रहा था। 1सितम्बर, 1939 को जर्मनी ने पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया, चारों तरफ़ राजनैतिक अस्थिरता बढ़ने लगी। इधर हमारे देश में भी स्वाधीनता के लिए सरगर्मियाँ तेज़ होने लगीं थीं। ऐसे में फ़िल्म 'कंगन' में प्रदीप ने लिखा "राधा राधा प्यारी राधा, किसने हम आज़ाद परिंदों को बन्धन में बाँधा..."। गीतकार प्रदीप आरंभ से राष्ट्रीय विचारधारा के पोषक थे। अपनी उग्र कविताओं के लिए वे विदेशी सत्ता के आँखों की किरकिरी बने हुए थे। ब्रिटिश राज में राष्ट्रीय भावों के गीत लिखने और उसका प्रचार करने पर सज़ा मिलती थी, ऐसे में प्रदीप ने कितनी चतुराई से इस गीत में राष्ट्रीयता के विचार भरे हैं। अशोक कुमार और लीला चिटनिस ने इस गीत को गाया था। स्वतन्त्रता दिवस के पावन पर्व पर आइए यह अर्थपूर्ण गीत भी सुनते चलें।

फिल्म – कंगन : "राधा प्यारी किसने हम आज़ाद परिंदों को बन्धन में बाँधा..." : अशोक कुमार और लीला चिटनीस



1939 में ही 'सागर मूवीटोन' की एक फ़िल्म आई 'कॉमरेड्स' जिसमें संगीत था अनिल विश्वास का। सुरेन्द्र, माया बनर्जी, हरीश और ज्योति अभिनीत इस फ़िल्म में सरहदी और कन्हैयालाल के साथ-साथ आह सीतापुरी ने भी कुछ गीत लिखे थे। फ़िल्म में एक देशभक्तिपूर्ण गीत "कर दे तू बलिदान बावरे..." स्वयं अनिल विश्वास ने ही गाया था। 1939 की ही स्टण्ट फ़िल्म 'पंजाब मेल' में नाडिया, सरिता देवी, शाहज़ादी, जॉन कावस आदि कलाकार थे। पण्डित 'ज्ञान' के लिखे गीतों को सरिता, सरदार मन्सूर और मोहम्मद ने स्वर दिया। फ़िल्म में दो देशभक्ति गीत थे- "इस खादी में देश आज़ादी, दो कौड़ी में बेड़ा पार..." (सरिता, मोहम्मद, साथी) और "क़ैद में आए नन्ददुलारे, दुलारे भारत के रखवारे..." (सरिता, सरदार मन्सूर)। संगीतकार एस.पी. राणे का संगीत इस दशक के आरम्भिक वर्षों में ख़ूब गूँजा था। 1939 में उनकी धुनों से सजी एक ही फ़िल्म आई 'इन्द्र मूवीटोन' की 'इम्पीरियल मेल' (संगीतकार प्रेम कुमार के साथ)। सफ़दर मिर्ज़ा के लिखे इस फ़िल्म के गीत आज विस्मृत हो चुके हैं, पर इस फ़िल्म में एक देशभक्ति गीत था- "सुनो सुनो हे भाई, भारतमाता की दुहाई, ग़ैरों की ग़ुलामी करते…"।

देशभक्तिपूर्ण गीतों के संदर्भ में 1939 में प्रदर्शित 'वतन के लिए' फ़िल्म के दो गीतों का उल्लेख आवश्यक है। 'वनराज पिक्चर्स' के बैनर तले निर्मित इस फ़िल्म ने पराधीन भारत के लोगों में देशभक्ति के जज़्वे को जगाने के लिए दो गीत दिए; पहला "इतहाद करो, इतहाद करो, तुम हिन्द के रहने वालों..." और दूसरा "भारत के रहने वालों, कुछ होश तो संभालो, ये आशियाँ हमारा..."। इन दोनों गीतों को गुलशन सूफ़ी और बृजमाला ने गाया था। उधर 'न्यू थिएटर्स' के संगीतकार तिमिर बरन के कैरियर की सबसे बड़ी उपलब्धि 1939 में उनकी संगीतबद्ध की हुई 'वन्देमातरम' रही। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस इस गीत के लिए एक ऐसी धुन चाहते थे जो समूहगान के रूप में गायी जाए और जिससे जोश पैदा हो, मातृभूमि के लिए मर-मिटने की। तिमिर बरन ने राग दुर्गा के स्वरों का आधार लेकर नेताजी की मनोकामना को पूरा किया और जब नेताजी ने अपनी 'आज़ाद हिन्द फ़ौज' का निर्माण किया तो सिंगापुर रेडियो से 'वन्देमातरम' के इसी संस्करण को प्रसारित कराया। 1939 के अन्तिम दौर में अशोक कुमार और लीला चिटनीस के अभिनय और गायन से सजी एक और फिल्म आई थी- ‘बन्धन’। इस फिल्म के एक गीत- “चल चल रे नौजवान...” ने उस समय के सभी कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया था। सरस्वती देवी के संगीत से सजे इस गीत को फिल्म के कई प्रसंगों में इस्तेमाल किया गया था। अब हम आपको इस गीत के दो संस्करण सुनवाते है। पहले संस्करण में अशोक कुमार और लीला चिटनीस की और दूसरे में बाल कलाकार सुरेश की आवाज़ें हैं।

फिल्म – बन्धन : “चल चल रे नौजवान...” : अशोक कुमार और लीला चिटनीस



फिल्म – बन्धन : “चल चल रे नौजवान...” : बाल कलाकार सुरेश

आगे चलकर नए दौर में बहुत से देशभक्ति गीत बने हैं, पर आज़ादी-पूर्व फ़िल्मी देशभक्ति गीतों का ख़ास महत्व इसलिए बन जाता है क्योंकि उस समय देश पराधीन था। एक तरफ़ जनसाधारण में राष्ट्रीयता के विचार जगाने थे और दूसरी तरफ़ ब्रिटिश शासन के प्रतिबन्ध का भय था। फिल्म संगीत के माध्यम से स्वतन्त्रता संग्राम का अलख जगाने में फ़िल्मकारों ने जो सराहनीय योगदान दिया है, आज इस अंक के माध्यम से हम उनकी स्मृतियों को सादर नमन करते हैं।

आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमें अवश्य लिखिएगा। आपकी प्रतिक्रिया, सुझाव और समालोचना से हम इस स्तम्भ को और भी सुरुचिपूर्ण रूप प्रदान कर सकते हैं। ‘स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल’ के आगामी अंक में बारी है- ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ स्तम्भ की। अगला गुरुवार मास का पाँचवाँ गुरुवार होगा और इस सप्ताह हम प्रस्तुत करेंगे एक गैरप्रतियोगी संस्मरण। यदि आपने ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ प्रतियोगिता के लिए अभी तक अपना संस्मरण नहीं भेजा है तो हमें तत्काल radioplaybackindia@live.com पर मेल करें।


आलेख : सुजॉय चटर्जी

प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र

Comments

Sajeev said…
excellent post
Amit said…
बेहतरीन जानकारी
Smart Indian said…
बहुत बढिया आलेख! अमर हो स्वतंत्रता!

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