मैं बन की चिड़िया बन के.....ये गीत है उन दिनों का जब भारतीय रुपहले पर्दे पर प्रेम ने पहली करवट ली थी
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 551/2010/251
नमस्कार दोस्तों! स्वागत है बहुत बहुत आप सभी का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस सुरीली महफ़िल में। पिछली कड़ी के साथ ही पिछले बीस अंकों से चली आ रही लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' सम्पन्न हो गई, और आज से एक नई लघु शृंखला का आग़ाज़ हम कर रहे हैं। और यहाँ पर आपको इस बात की याद दिला दूँ कि यह साल २०१० की आख़िरी लघु शृंखला होगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। जी हाँ, देखते ही देखते यह साल भी अब विदाई के मूड में आ गया है। तो कहिए साल के आख़िरी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' लघु शृंखला को कैसे यादगार बनाया जाए? क्योंकि साल के इन आख़िरी कुछ दिनों में हम सभी छुट्टी के मूड में होते हैं, हमारा मिज़ाज हल्का फुल्का होता है, मौसम भी बड़ा ख़ुशरंग होता है, इसलिए हमने सोचा कि इस लघु शृंखला को कुछ बेहद सुरीले प्यार भरे युगल गीतों से सजायी जाये। जब से फ़िल्म संगीत की शुरुआत हुई है, तभी से प्यार भरे युगल गीतों का भी रिवाज़ चला आ रहा है, और उस ज़माने से लेकर आज तक ये प्रेम गीत ना केवल फ़िल्मों की शान हैं, बल्कि फ़िल्म के बाहर भी सुनें तो एक अलग ही अनुभूति प्रदान करते हैं। और जो लोग प्यार करते हैं, उनके लिए तो जैसे दिल के तराने बन जाया करते हैं ऐसे गीत। तो आइए आज से अगले दस अंकों में हम सुनें ३० के दशक से लेकर ८० के दशक तक में बनने वाली कुछ बेहद लोकप्रिय फ़िल्मी युगल रचनाएँ, जिन्हें हमने आज तक अपने सीने से लगाये रखा है। वैसे तो इनके अलावा भी बेशुमार सुमधुर युगल गीत हैं, बस युं समझ लीजिए कि आँखें बंद करके समुंदर से एक मुट्ठी मोतियाँ हम निकाल लाये हैं, और आँखें खोलने पर ही देखा कि ये मोती कौन कौन से हैं। पेश-ए-ख़िदमत है साल २०१० के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की अंतिम लघु शृंखला 'एक मैं और एक तू'। जैसा कि हमने कहा कि हम युगल गीतों का यह सफ़र ३० के दशक से शुरु करेंगे, तो फिर ऐसे में फ़िल्म 'अछूत कन्या' के उस यादगार गीत से ही क्यों ना शुभारम्भ की जाए! "मैं बन की चिड़िया बनके बन बन बोलूँ रे, मैं बन का पंछी बनके संग संग डोलूँ रे"। अशोक कुमार और देविका रानी के गाये इस गीत का उल्लेख आज भी कई जगहों पर चल पड़ता है। और इस गीत को सुनते ही आज भी पेड़ की टहनी पर बैठीं देविका रानी और उनके पीछे खड़े दादामुनि अशोक कुमार का वह दृष्य जैसे आँखों के सामने आ जाता है।
'अछूत कन्या' १९३६ की फ़िल्म थी जो बनी थी 'बॊम्बे टॊकीज़' के बैनर तले। संगीतकार थीं सरस्वती देवी। यह वह दौर था जब गांधीजी ने अस्पृश्यता को दूर करने के लिए एक मिशन चला रखी थी। निरंजन पाल की लिखी कहानी पर आधारित इस फ़िल्म में भी अछूतप्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाया गया था। पंडित नेहरु और सरोजिनी नायडू 'बॊम्बे टॊकीज़' में जाकर यह फ़िल्म देखी थी। 'अछूत कन्या' पहली बोलती फ़िल्म है जिसके गानें सर्वसाधारण में बहुत ज़्यादा लोकप्रिय हुए। सिर्फ़ हमारे देश में ही नहीं, बल्कि इसके गीतों के ग्रामोफ़ोन रेकॊर्ड्स इंगलैण्ड तक भेजे गये। कहा जाता है कि सरस्वती देवी घण्टों तक अशोक कुमार और देविका रानी को गाना सिखाती थीं, ठीक वैसे जैसे कोई स्कूल टीचर बच्चों को नर्सरी राइम सिखाती है। उस ज़मानें में प्लेबैक का चलन शुरु नहीं हुआ था, इसलिए अभिनेता अशोक कुमार और देविका रानी को अपने गानें ख़ुद ही गाने थे। ऐसे में संगीतकार के लिए बहुत मुश्किल हुआ करता था कम्पोज़ करना और जहाँ तक हो सके वो धुनें ऐसी बनाते थे जो अभिनेता आसानी से गा सके। इसलिए बहुत ज़्यादा उन्नत कम्पोज़िशन करना सम्भव नहीं होता था। फिर भी आज का प्रस्तुत गीत उस ज़माने में ऐसी लोकप्रियता हासिल की कि उससे पहले किसी फ़िल्मी गीत ने नहीं की थी। उस समय के प्रचलित नाट्य संगीत और शास्त्रीय संगीत के बंधनों से बाहर निकलकर सरस्वती देवी ने हल्के फुल्के अंदाज़ में इस फ़िल्म के गानें बनाये जो बहुत सराहे गये। इस फ़िल्म के संगीत की एक और महत्वपूर्ण बात आपको बताना चाहूँगा। फ़िल्म में एक गीत है "कित गये हो खेवनहार"। कहा जाता है कि इस गीत को सरस्वती देवी की बहन चन्द्रप्रभा द्वारा गाया जाना था जो उस फ़िल्म में अभिनय कर रही थीं। लेकिन जिस दिन इस गाने की शूटिंग् थी, उस दिन उनका गला ख़राब हो गया और गाने की हालत में नहीं थीं। ऐसे में सरस्वती देवी ने पर्दे के पीछे खड़े होकर ख़ुद गीत को गाया जब कि चन्द्रप्रभा ने केवल होंठ हिलाये। इस तरह से सरस्वती देवी ने प्लेबैक की नींव रखी। वैसे पहले प्लेबैक का श्रेय न्यु थिएटर्स के आर. सी. बोराल को जाता है जिन्होंने १९३५ की फ़िल्म 'धूप-छाँव' में इसकी शुरुआत की थी, लेकिन उस फ़िल्म में उस अभिनेता ने अपने लिए ही प्लेबैक किया। "प्योर प्लेबैक" की बात करे तो सरस्वती देवी ने अपनी बहन चन्द्रप्रभा के लिए प्लेबैक कर 'प्लेबैक' के असली अर्थ को साकार किया। तो लीजिए दोस्तों, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर प्रस्तुत है हिंदी सिने संगीत का ना केवल पहला मशहूर युगल गीत, बल्कि यु कहें कि पहला मशहूर गीत। अशोक कुमार और देविका रानी के साथ साथ सरस्वती देवी को भी 'आवाज़' का सलाम।
क्या आप जानते हैं...
कि सरस्वती देवी का असली नाम था ख़ुरशीद मंचशेर मिनोचा होमजी (Khursheed Manchersher Minocher Homji)। उस समय पारसी महिलाओं को फ़िल्म और संगीत में जाने की अनुमति नहीं थी। इसलिए उन्हें अपना नाम बदल कर इस क्षेत्र में उतरना पड़ा।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 2/शृंखला 06
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र -इस युगल गीत की गायिका हैं नूरजहाँ.
सवाल १ - गायक बताएं - १ अंक
सवाल २ - एक अमर प्रेम कहानी पर आधारित थी फिल्म, नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - किस संगीतकार की अंतिम फिल्म थी ये - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर पहले सवाल के साथ शरद जी ने बढ़त बनाई है, पर क्या वो पिछली बार की तरह इस बार भी श्याम जी से पिछड़ जायेगें आगे चल कर या वो और अमित जी मिलकर ४ बार के विजेता श्याम जी को पछाड पायेंगें, देखना दिलचस्प होगा, बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
नमस्कार दोस्तों! स्वागत है बहुत बहुत आप सभी का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस सुरीली महफ़िल में। पिछली कड़ी के साथ ही पिछले बीस अंकों से चली आ रही लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' सम्पन्न हो गई, और आज से एक नई लघु शृंखला का आग़ाज़ हम कर रहे हैं। और यहाँ पर आपको इस बात की याद दिला दूँ कि यह साल २०१० की आख़िरी लघु शृंखला होगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। जी हाँ, देखते ही देखते यह साल भी अब विदाई के मूड में आ गया है। तो कहिए साल के आख़िरी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' लघु शृंखला को कैसे यादगार बनाया जाए? क्योंकि साल के इन आख़िरी कुछ दिनों में हम सभी छुट्टी के मूड में होते हैं, हमारा मिज़ाज हल्का फुल्का होता है, मौसम भी बड़ा ख़ुशरंग होता है, इसलिए हमने सोचा कि इस लघु शृंखला को कुछ बेहद सुरीले प्यार भरे युगल गीतों से सजायी जाये। जब से फ़िल्म संगीत की शुरुआत हुई है, तभी से प्यार भरे युगल गीतों का भी रिवाज़ चला आ रहा है, और उस ज़माने से लेकर आज तक ये प्रेम गीत ना केवल फ़िल्मों की शान हैं, बल्कि फ़िल्म के बाहर भी सुनें तो एक अलग ही अनुभूति प्रदान करते हैं। और जो लोग प्यार करते हैं, उनके लिए तो जैसे दिल के तराने बन जाया करते हैं ऐसे गीत। तो आइए आज से अगले दस अंकों में हम सुनें ३० के दशक से लेकर ८० के दशक तक में बनने वाली कुछ बेहद लोकप्रिय फ़िल्मी युगल रचनाएँ, जिन्हें हमने आज तक अपने सीने से लगाये रखा है। वैसे तो इनके अलावा भी बेशुमार सुमधुर युगल गीत हैं, बस युं समझ लीजिए कि आँखें बंद करके समुंदर से एक मुट्ठी मोतियाँ हम निकाल लाये हैं, और आँखें खोलने पर ही देखा कि ये मोती कौन कौन से हैं। पेश-ए-ख़िदमत है साल २०१० के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की अंतिम लघु शृंखला 'एक मैं और एक तू'। जैसा कि हमने कहा कि हम युगल गीतों का यह सफ़र ३० के दशक से शुरु करेंगे, तो फिर ऐसे में फ़िल्म 'अछूत कन्या' के उस यादगार गीत से ही क्यों ना शुभारम्भ की जाए! "मैं बन की चिड़िया बनके बन बन बोलूँ रे, मैं बन का पंछी बनके संग संग डोलूँ रे"। अशोक कुमार और देविका रानी के गाये इस गीत का उल्लेख आज भी कई जगहों पर चल पड़ता है। और इस गीत को सुनते ही आज भी पेड़ की टहनी पर बैठीं देविका रानी और उनके पीछे खड़े दादामुनि अशोक कुमार का वह दृष्य जैसे आँखों के सामने आ जाता है।
'अछूत कन्या' १९३६ की फ़िल्म थी जो बनी थी 'बॊम्बे टॊकीज़' के बैनर तले। संगीतकार थीं सरस्वती देवी। यह वह दौर था जब गांधीजी ने अस्पृश्यता को दूर करने के लिए एक मिशन चला रखी थी। निरंजन पाल की लिखी कहानी पर आधारित इस फ़िल्म में भी अछूतप्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाया गया था। पंडित नेहरु और सरोजिनी नायडू 'बॊम्बे टॊकीज़' में जाकर यह फ़िल्म देखी थी। 'अछूत कन्या' पहली बोलती फ़िल्म है जिसके गानें सर्वसाधारण में बहुत ज़्यादा लोकप्रिय हुए। सिर्फ़ हमारे देश में ही नहीं, बल्कि इसके गीतों के ग्रामोफ़ोन रेकॊर्ड्स इंगलैण्ड तक भेजे गये। कहा जाता है कि सरस्वती देवी घण्टों तक अशोक कुमार और देविका रानी को गाना सिखाती थीं, ठीक वैसे जैसे कोई स्कूल टीचर बच्चों को नर्सरी राइम सिखाती है। उस ज़मानें में प्लेबैक का चलन शुरु नहीं हुआ था, इसलिए अभिनेता अशोक कुमार और देविका रानी को अपने गानें ख़ुद ही गाने थे। ऐसे में संगीतकार के लिए बहुत मुश्किल हुआ करता था कम्पोज़ करना और जहाँ तक हो सके वो धुनें ऐसी बनाते थे जो अभिनेता आसानी से गा सके। इसलिए बहुत ज़्यादा उन्नत कम्पोज़िशन करना सम्भव नहीं होता था। फिर भी आज का प्रस्तुत गीत उस ज़माने में ऐसी लोकप्रियता हासिल की कि उससे पहले किसी फ़िल्मी गीत ने नहीं की थी। उस समय के प्रचलित नाट्य संगीत और शास्त्रीय संगीत के बंधनों से बाहर निकलकर सरस्वती देवी ने हल्के फुल्के अंदाज़ में इस फ़िल्म के गानें बनाये जो बहुत सराहे गये। इस फ़िल्म के संगीत की एक और महत्वपूर्ण बात आपको बताना चाहूँगा। फ़िल्म में एक गीत है "कित गये हो खेवनहार"। कहा जाता है कि इस गीत को सरस्वती देवी की बहन चन्द्रप्रभा द्वारा गाया जाना था जो उस फ़िल्म में अभिनय कर रही थीं। लेकिन जिस दिन इस गाने की शूटिंग् थी, उस दिन उनका गला ख़राब हो गया और गाने की हालत में नहीं थीं। ऐसे में सरस्वती देवी ने पर्दे के पीछे खड़े होकर ख़ुद गीत को गाया जब कि चन्द्रप्रभा ने केवल होंठ हिलाये। इस तरह से सरस्वती देवी ने प्लेबैक की नींव रखी। वैसे पहले प्लेबैक का श्रेय न्यु थिएटर्स के आर. सी. बोराल को जाता है जिन्होंने १९३५ की फ़िल्म 'धूप-छाँव' में इसकी शुरुआत की थी, लेकिन उस फ़िल्म में उस अभिनेता ने अपने लिए ही प्लेबैक किया। "प्योर प्लेबैक" की बात करे तो सरस्वती देवी ने अपनी बहन चन्द्रप्रभा के लिए प्लेबैक कर 'प्लेबैक' के असली अर्थ को साकार किया। तो लीजिए दोस्तों, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर प्रस्तुत है हिंदी सिने संगीत का ना केवल पहला मशहूर युगल गीत, बल्कि यु कहें कि पहला मशहूर गीत। अशोक कुमार और देविका रानी के साथ साथ सरस्वती देवी को भी 'आवाज़' का सलाम।
क्या आप जानते हैं...
कि सरस्वती देवी का असली नाम था ख़ुरशीद मंचशेर मिनोचा होमजी (Khursheed Manchersher Minocher Homji)। उस समय पारसी महिलाओं को फ़िल्म और संगीत में जाने की अनुमति नहीं थी। इसलिए उन्हें अपना नाम बदल कर इस क्षेत्र में उतरना पड़ा।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 2/शृंखला 06
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र -इस युगल गीत की गायिका हैं नूरजहाँ.
सवाल १ - गायक बताएं - १ अंक
सवाल २ - एक अमर प्रेम कहानी पर आधारित थी फिल्म, नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - किस संगीतकार की अंतिम फिल्म थी ये - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर पहले सवाल के साथ शरद जी ने बढ़त बनाई है, पर क्या वो पिछली बार की तरह इस बार भी श्याम जी से पिछड़ जायेगें आगे चल कर या वो और अमित जी मिलकर ४ बार के विजेता श्याम जी को पछाड पायेंगें, देखना दिलचस्प होगा, बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
Comments
अब मेरी हाजिरी लगा देना.ओके?
मेरे पिता गाते थे मेरी माँ की लिए
हम भी छुप चुप के सुनते थे १९४५ में
समय याद आज भी है
1936 में इस गीत ने बहुत धूम मचाई थी ऐसा सुना
जब हम गाने लगे हमारी पिटाई हुई