महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०६
पिछले कुछ हफ़्तों से अगर आपने महफिल को ध्यान से देखा होगा तो महफ़िल पेश करने के तरीके में हुए बदलाव पर आपकी नज़र ज़रूर गई होगी। पहले महफ़िल देर-सबेर १० बजे तक पूरी की पूरी तैयार हो जाती थी और फिर उसके बाद उसमें न कुछ जोड़ा जाता था और न हीं उससे कुछ हटाया जाता था। लेकिन अब १०:३० तक महफ़िल का एक खांका हीं तैयार हो पाता है, जिसमें उस दिन पेश होने वाली नज़्म/ग़ज़ल होती है, उसके बोल होते हैं, फ़नकार के बारे में थोड़ी-सी जानकारी होती है एवं पिछली महफ़िल के गायब हुए शब्द और शेर का ज़िक्र होता है। और इस तरह महफ़िल जब पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के लिए खोल दी जाती है, उस वक़्त महफ़िल खुद पूरी तरह से रवानी पर नहीं होती। ऐसा लगता है मानो दर्शक फ़नकारों का प्रदर्शन देख रहे हैं लेकिन उस वक़्त मंच पर दरी, चादर, तकिया भी सही से नहीं सजाए गए हैं। ऐसे समय में जो दर्शक एवं श्रोता महफ़िल से लौट जाते हैं और दुबारा नहीं आते, वो महफ़िल का सही मज़ा नहीं ले पाते, उनसे बहुत कुछ छूट जाता है। इसलिए मैं आप सभी प्रियजनों से आग्रह करूँगा कि भले हीं आप बुधवार की सुबह महफ़िल का आनंद ले चुके हों, फिर भी बुधवार की शाम या अगली सुबह महफ़िल का एक और चक्कर ज़रूर लगा लें.. महफ़िल पूरी तरह से सजी हुई आपको तभी नज़र आएगी। इसी दरख्वास्त के साथ आज की महफ़िल का शुभारंभ करते हैं।
आज की महफ़िल में हम जो नज़्म लेकर हाज़िर हुए हैं, वह शायद ठुमरी है। इसे ठुमरी मानने के दो कारण हैं:
१) इसे जिस फ़नकार ने गाया है वो ज्यादातर ख्याल एवं ठुमरी हीं गाते हैं।
२) इसी नाम की एक और नज़्म श्री भीमसेन जोशी की आवाज़ में मुझे सुनने को मिली और वह नज़्म एक ठुमरी है, राग "मिश्र पुली" में
लेकिन मैं "शायद" शब्द का हीं इस्तेमाल करूँगा, क्योंकि मुझे कहीं यह लिखा नहीं मिला कि "उस्ताद शफ़क़त अली खान" ने "नदिया किनारे मोरा गाँव" नाम की एक ठुमरी गाई है। वैसे इस गाने के बारे में मेरा शोध अभी खत्म नहीं हुआ है, जैसे हीं मुझे कुछ और जानकारी मिलती है, मैं पूरी महफ़िल को उससे अवगत करा दूँगा।
हाँ तो हम इतना जान चुके हैं कि आज के फ़नकार का नाम "उस्ताद शफ़कत अली खान" है। शुरू-शुरू में मैंने जब इनका नाम सुना तो मैं इन्हें "शफ़कत अमानत अली खान" हीं मान बैठा था, लेकिन इनकी आवाज़ सुनने पर मुझे अपनी हीं सोच हजम नहीं हुई। इनकी आवाज़ का टेक्सचर "शफ़कत अमानत अली खान" ("फ़्युज़न" वाले) से काफी अलग है। इनके कई गाने (ठुमरी, ख्याल..) सुनने और इनके बारे में और ढूँढने के बाद मुझे सच का पता चला। लीजिए आप भी जानिए कि ये कौन हैं (सौजन्य: एक्सडॉट २५)
चलिए तो हम और आप सुनते हैं उस्ताद की आवाज़ में "नदिया किनारे मोरा गाँव":
संवरिया मोरे आ जा रे,
तोहू बिन भई मैं उदास रे.. हो..
आ जा रे.
नदिया किनारे मोरा गाँव..
आ जा रे संवरिया आ जा..
नदिया किनारे मोरा गाँव..
साजन प्रीत लगाकर
अब दूर देश मत जा
आ बस हमरे _____ अब
हम माँगे तू खा..
नदिया किनारे मोरा गाँव रे.
संवरिया रे
ऊँची अटरिया चंदन केंवरिया
राधा सखी रे मेरो नाँव
नदिया किनारे मोरा गाँव..
ना मैं माँगूं सोना, चाँदी
माँगूं तोसे प्रीत रे..
बलमा मैका छाड़ गए
यही जगत की रीत रे..
नदिया किनारे मोरा गाँव रे..
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "फ़लक" और शेर कुछ यूँ था-
जो फूल खुशबू गुलाब में है,
ज़मीं, फ़लक, आफ़ताब में है
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:
फलक पे जितने सितारे हैं वो भी शर्माए
ओ देने वाले मुझे इतनी जिन्दगी दे दे
उसका चेहरा आंसुओं से धुआं धुआं सा हुआ,
फलक पे चाँद तारों मैं गुमशुदा सा हुआ,
उसके साथ बीता ख़ुशी का हर लम्हा,
उसीकी याद से ग़मों का कारवाँ सा हुआ !! -अवनींद्र जी
है जिसकी कीमत हर एक कण मे ,खुदा वही है
है जिसने की,झुक के इबादत,फलक है उसका,खुदा वही है. - नीलम जी
जैसे फलक पर चाँद चांदनी संग चमचमा रहा.
वैसे ही खुदा फूलों की खुशबू बन जग महका रहा. - मंजू जी
ये किसको देख फ़लक से गिरा है गश खा कर
पड़ा ज़मीं पे जो नूरे-क़मर को देखते हैं. - शेख इब्राहीम ज़ौक़
कहते है जिंदगी है फकत चार दिनों की
क्या पता फलक में कितना इंतज़ार हो. - शन्नो जी
यूँ तो पिछली महफ़िल की शुरूआत हुई शन्नो जी की टिप्पणी से, जिसमें उन्होंने गायब शब्द पर एक शेर भी कहा था, लेकिन बदकिस्मती से एक बार फिर वह शान-ए-महफ़िल बनने से चूक गईं। चूक हुई सही शब्द पहचानने में.. शब्द था "फ़लक" और उन्होंने "तलक" समझकर शेर तक सुना डाला। अवनींद्र जी ने सही शब्द की शिनाख्त की और आगे आने वाले ग़ज़ल-प्रेमियों के लिए शेर कहने का रास्ता खोल दिया। "फ़लक" पर शेर/रूबाई कहकर आप शान-ए-महफ़िल भी साबित हुए। आपके बाद जहाँ नीलम जी एवं मंजू जी अपने स्वरचित शेरों के साथ महफ़िल का हिस्सा बनीं, वही अवध जी ने बड़े-बड़े शायरों के शेर सुनाकर महफ़िल में चार चाँद लगा दिए। हमें कुहू जी एवं पूजा जी का भी प्रोत्साहन हासिल हुआ। तो यूँ कुल मिलाकर सभी दोस्तों ने हमारी पिछली महफ़िल को सफल बना्या। इसके लिए हम आप सबके तह-ए-दिल से आभारी हैं।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
पिछले कुछ हफ़्तों से अगर आपने महफिल को ध्यान से देखा होगा तो महफ़िल पेश करने के तरीके में हुए बदलाव पर आपकी नज़र ज़रूर गई होगी। पहले महफ़िल देर-सबेर १० बजे तक पूरी की पूरी तैयार हो जाती थी और फिर उसके बाद उसमें न कुछ जोड़ा जाता था और न हीं उससे कुछ हटाया जाता था। लेकिन अब १०:३० तक महफ़िल का एक खांका हीं तैयार हो पाता है, जिसमें उस दिन पेश होने वाली नज़्म/ग़ज़ल होती है, उसके बोल होते हैं, फ़नकार के बारे में थोड़ी-सी जानकारी होती है एवं पिछली महफ़िल के गायब हुए शब्द और शेर का ज़िक्र होता है। और इस तरह महफ़िल जब पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के लिए खोल दी जाती है, उस वक़्त महफ़िल खुद पूरी तरह से रवानी पर नहीं होती। ऐसा लगता है मानो दर्शक फ़नकारों का प्रदर्शन देख रहे हैं लेकिन उस वक़्त मंच पर दरी, चादर, तकिया भी सही से नहीं सजाए गए हैं। ऐसे समय में जो दर्शक एवं श्रोता महफ़िल से लौट जाते हैं और दुबारा नहीं आते, वो महफ़िल का सही मज़ा नहीं ले पाते, उनसे बहुत कुछ छूट जाता है। इसलिए मैं आप सभी प्रियजनों से आग्रह करूँगा कि भले हीं आप बुधवार की सुबह महफ़िल का आनंद ले चुके हों, फिर भी बुधवार की शाम या अगली सुबह महफ़िल का एक और चक्कर ज़रूर लगा लें.. महफ़िल पूरी तरह से सजी हुई आपको तभी नज़र आएगी। इसी दरख्वास्त के साथ आज की महफ़िल का शुभारंभ करते हैं।
आज की महफ़िल में हम जो नज़्म लेकर हाज़िर हुए हैं, वह शायद ठुमरी है। इसे ठुमरी मानने के दो कारण हैं:
१) इसे जिस फ़नकार ने गाया है वो ज्यादातर ख्याल एवं ठुमरी हीं गाते हैं।
२) इसी नाम की एक और नज़्म श्री भीमसेन जोशी की आवाज़ में मुझे सुनने को मिली और वह नज़्म एक ठुमरी है, राग "मिश्र पुली" में
लेकिन मैं "शायद" शब्द का हीं इस्तेमाल करूँगा, क्योंकि मुझे कहीं यह लिखा नहीं मिला कि "उस्ताद शफ़क़त अली खान" ने "नदिया किनारे मोरा गाँव" नाम की एक ठुमरी गाई है। वैसे इस गाने के बारे में मेरा शोध अभी खत्म नहीं हुआ है, जैसे हीं मुझे कुछ और जानकारी मिलती है, मैं पूरी महफ़िल को उससे अवगत करा दूँगा।
हाँ तो हम इतना जान चुके हैं कि आज के फ़नकार का नाम "उस्ताद शफ़कत अली खान" है। शुरू-शुरू में मैंने जब इनका नाम सुना तो मैं इन्हें "शफ़कत अमानत अली खान" हीं मान बैठा था, लेकिन इनकी आवाज़ सुनने पर मुझे अपनी हीं सोच हजम नहीं हुई। इनकी आवाज़ का टेक्सचर "शफ़कत अमानत अली खान" ("फ़्युज़न" वाले) से काफी अलग है। इनके कई गाने (ठुमरी, ख्याल..) सुनने और इनके बारे में और ढूँढने के बाद मुझे सच का पता चला। लीजिए आप भी जानिए कि ये कौन हैं (सौजन्य: एक्सडॉट २५)
१७ जून १९७२ को पाकिस्तान के लाहौर में जन्मे शफ़कत अली खान पूर्वी पंजाब के शाम चौरासी घराने से ताल्लुक रखते हैं। इस घराने का इतिहास तब से है जब हिन्दुस्तान में मुग़ल बादशाह अकबर का शासन था। इस घराने की स्थापना दो भाईयों चाँद खान और सूरज खान ने की थी। शफ़कत अली खान के पिताजी उस्ताद सलामत अली खान और चाचाजी उस्ताद नज़ाकत अली खान.. दोनो हीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने जाते हैं और ये दोनों शाम चौरासी घराने के दसवीं पीढी के शास्त्रीय गायक हैं।
शफ़क़त ने महज ७ साल की उम्र में अपनी हुनर का प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था। अपनी गायकी का पहला जौहर इन्होंने १९७९ में लाहौर संगीत उत्सव में दिखलाया। अभी तक ये यूरोप के कई सारे देशों मसलन फ़्रांस, युनाईटेड किंगडम, इटली, जर्मनी, हॉलेंड, स्पेन एवं स्वीटज़रलैंड (जेनेवा उत्सव) के महत्वपूर्ण कन्सर्ट्स में अपना परफ़ॉरमेंश दे चुके हैं। हिन्दुस्तान, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश में तो ये नामी-गिरामी शास्त्रीय गायक के रूप में जाने जाते है हीं, अमेरिका और कनाडा में भी इन्होंने अपनी गायकी से धाक जमा ली है। १९८८ और १९९६ में स्मिथसोनियन इन्स्टिच्युट में, १९८८ में न्यूयार्क के मेट्रोपोलिटन म्युज़ियम के वर्ल्ड म्युज़िक इन्स्टिच्युट में एवं १९९१ में मर्किन कन्सर्ट हॉल में दिए गए इनके प्रदर्शन को अभी भी याद किया जाता है।
शफ़कत को अभी तक कई सारे पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है। १९८६ में इन्हें "सर्वश्रेष्ठ युवा शास्त्रीय गायक" के तौर पर लाहौर का अमिर खुसरो पुरस्कार मिला था। आगे चलकर १९८७ में इन्हें पाकिस्तान के फ़ैज़लाबाद विश्वविद्यालय ने "गोल्ड मेडल" से सम्मानित किया। ये अभी तक दुनिया की कई सारी रिकार्ड कंपनियों के लिए गा चुके हैं, मसलन: निम्बस (युके), इ०एम०आई० (हिन्दुस्तान), एच०एम०वी० (युके), वाटरलिली एकॉसटिक्स (युएसए), वेस्ट्रॉन (हिन्दुस्तान), मेगासाउंड (हिन्दुस्तान), कीट्युन प्रोडक्शन (हॉलैंड), प्लस म्युज़िक (हिन्दुस्तान) एवं फोक़ हेरिटेज (पाकिस्तान)। गायकी के क्षेत्र में ये अभी भी निर्बाध रूप से कार्यरत हैं।
चलिए तो हम और आप सुनते हैं उस्ताद की आवाज़ में "नदिया किनारे मोरा गाँव":
संवरिया मोरे आ जा रे,
तोहू बिन भई मैं उदास रे.. हो..
आ जा रे.
नदिया किनारे मोरा गाँव..
आ जा रे संवरिया आ जा..
नदिया किनारे मोरा गाँव..
साजन प्रीत लगाकर
अब दूर देश मत जा
आ बस हमरे _____ अब
हम माँगे तू खा..
नदिया किनारे मोरा गाँव रे.
संवरिया रे
ऊँची अटरिया चंदन केंवरिया
राधा सखी रे मेरो नाँव
नदिया किनारे मोरा गाँव..
ना मैं माँगूं सोना, चाँदी
माँगूं तोसे प्रीत रे..
बलमा मैका छाड़ गए
यही जगत की रीत रे..
नदिया किनारे मोरा गाँव रे..
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "फ़लक" और शेर कुछ यूँ था-
जो फूल खुशबू गुलाब में है,
ज़मीं, फ़लक, आफ़ताब में है
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:
फलक पे जितने सितारे हैं वो भी शर्माए
ओ देने वाले मुझे इतनी जिन्दगी दे दे
उसका चेहरा आंसुओं से धुआं धुआं सा हुआ,
फलक पे चाँद तारों मैं गुमशुदा सा हुआ,
उसके साथ बीता ख़ुशी का हर लम्हा,
उसीकी याद से ग़मों का कारवाँ सा हुआ !! -अवनींद्र जी
है जिसकी कीमत हर एक कण मे ,खुदा वही है
है जिसने की,झुक के इबादत,फलक है उसका,खुदा वही है. - नीलम जी
जैसे फलक पर चाँद चांदनी संग चमचमा रहा.
वैसे ही खुदा फूलों की खुशबू बन जग महका रहा. - मंजू जी
ये किसको देख फ़लक से गिरा है गश खा कर
पड़ा ज़मीं पे जो नूरे-क़मर को देखते हैं. - शेख इब्राहीम ज़ौक़
कहते है जिंदगी है फकत चार दिनों की
क्या पता फलक में कितना इंतज़ार हो. - शन्नो जी
यूँ तो पिछली महफ़िल की शुरूआत हुई शन्नो जी की टिप्पणी से, जिसमें उन्होंने गायब शब्द पर एक शेर भी कहा था, लेकिन बदकिस्मती से एक बार फिर वह शान-ए-महफ़िल बनने से चूक गईं। चूक हुई सही शब्द पहचानने में.. शब्द था "फ़लक" और उन्होंने "तलक" समझकर शेर तक सुना डाला। अवनींद्र जी ने सही शब्द की शिनाख्त की और आगे आने वाले ग़ज़ल-प्रेमियों के लिए शेर कहने का रास्ता खोल दिया। "फ़लक" पर शेर/रूबाई कहकर आप शान-ए-महफ़िल भी साबित हुए। आपके बाद जहाँ नीलम जी एवं मंजू जी अपने स्वरचित शेरों के साथ महफ़िल का हिस्सा बनीं, वही अवध जी ने बड़े-बड़े शायरों के शेर सुनाकर महफ़िल में चार चाँद लगा दिए। हमें कुहू जी एवं पूजा जी का भी प्रोत्साहन हासिल हुआ। तो यूँ कुल मिलाकर सभी दोस्तों ने हमारी पिछली महफ़िल को सफल बना्या। इसके लिए हम आप सबके तह-ए-दिल से आभारी हैं।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
नज़र से नज़र का बड़ा फासला था,
मगर आज दिल के करीब हो गए हो/
तुम्हें मैंने देखा दिल की नज़र से,
मेरी भी नज़र में हसीं हो गए हो.
अवध लाल
मेरे जवाब में गीतकार का नाम बताना रह गया था.
इनके रचयिता का नाम है: गुलशन बावरा
अवध लाल
" मेरे नगर के लोग बडे होशियार हैं
रातें गुजारते है सभी जाग जाग कर "
(स्वरचित)
सन्दर्भ से तो 'आ बस मेरे "नगर" अब' उचित है.
अवध लाल
मेरे नगर में खुशबू रचते हाथ ,
महकाते समाज -देश - संसार .
लाचारी -गरीबी रहती उनके साथ ,
पेट के लिए करें तन - मन से काम .
आप हमेशा लिखते हैं कि ऊपर जो ग़ज़ल हमने पेश की है उसके एक शे’र में एक शब्द गायब है’ किन्तु मेरे विचार यह से यह गज़ल नहीं है और ना ही इसमें शेर हैं
बात तो आपकी सही है। वो क्या है कि मैं वो पूरा का पूरा पैराग्राफ हर बार पेस्ट कर देता हूँ, इसलिए "शेर" और "ग़ज़ल" वाली पंक्तियाँ बदलती नही। अगली बार से कोशिश करूँगा कि नज़्म और ग़ज़ल के हिसाब से बदलाव कर दिया करूँ।
इस ओर हमारा ध्यान मोड़ने के लिए आपका तह-ए-दिल से आभार!
-विश्व दीपक
शे'र- नगरी नगरी फिरा मुसाफिर घर का रास्ता भूल गया,
क्या है तेरा , क्या है मेरा, अपना पराया भूल गया
शायर का नाम याद नही और मिसरा सानी भी ठीक से याद नही
शे'र- नगरी नगरी फिरा मुसाफिर घर का रास्ता भूल गया,
क्या है तेरा , क्या है मेरा, अपना पराया भूल गया
शायर का नाम याद नही और मिसरा सानी भी ठीक से याद नही
तब तक के लिए bbye..........
जिस नगर में अब कोई याद करता नहीं
उसकी गलियों से भी अब वास्ता है नहीं.
यूँ बादल सा बनके ना भटक अब कहीं
न जाने कितने नगर हैं जा बस जा कहीं.
दोनों शेर स्वरचित हैं...
जो अब तक तो देखी न थी,पर अब सबमे दिखती है .......
अयोध्या जो नगर था ,राम उसमे रहते थे ,
वो किस का नगर था ,सब जिसमे रहते थे
एक नगर सपनो का होता है
एक नगर अपनों का होता है.
( स्वरचित )
पत्थर के नगर मैं इंसान भी
पत्थर सा हो गया है !
घात लपेटे हर रिश्ता
बदतर सा हो गया है !
पड़ोस मैं कोई मुस्कुराता सा चेहरा
अपनी खुशियों पे आता
कहर सा हो गया है !!
पास आओ बैठो मगर
प्यार की बाते न करो
प्यार का हर हर्फ़ अब तो
ज़हर सा हो गया है !!(स्वरचित)
ख्यालों के रंगीन झरने,
बहारों का नगर है यह,
यहाँ खुशियों के फल हैं मिलते.
बिन बुलाये मेहमान से थे उस नगर में हम
जहाँ किसी ने अपना समझा था हमें भी कभी.
( स्वरचित )