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भला हुआ मेरी मटकी फूटी.. ज़िन्दगी से छूटने की ख़ुशी मना रहे हैं कबीर... साथ हैं गुलज़ार और आबिदा

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११३

सूफ़ियों-संतों के यहां मौत का तसव्वुर बडे खूबसूरत रूप लेता है| कभी नैहर छूट जाता है, कभी चोला बदल लेता है| जो मरता है ऊंचा ही उठता है, तरह तरह से अंत-आनन्द की बात करते हैं| कबीर के यहां, ये खयाल कुछ और करवटें भी लेता है, एक बे-तकल्लुफ़ी है मौत से, जो जिन्दगी से कहीं भी नहीं|

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आयेगा, मैं रोदुंगी तोहे ॥


माटी का शरीर, माटी का बर्तन, नेकी कर भला कर, भर बरतन मे पाप पुण्य और सर पे ले|

आईये हम भी साथ-साथ गुनगुनाएँ "भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे"..:

भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे ।
मैं तो पनिया भरन से छूटी रे ॥

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलिया कोय ।
जो दिल खोजा आपणा, तो मुझसा बुरा ना कोय ॥

ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नांहि ।
सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठे घर मांहि ॥

हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को हुशारी क्या ।
रहे आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ॥

कहना था सो कह दिया, अब कछु कहा ना जाये ।
एक गया सो जा रहा, दरिया लहर समाये ॥

लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल ।
लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल ॥

हँस हँस कुन्त ना पाया, जिन पाया तिन रोये ।
हाँसि खेले पिया मिले, कौन _____ होये ॥

जाको राखे साईंयाँ, मार सके ना कोये ।
बाल न बांकाँ कर सके, जो जग बैरी होये ॥

प्रेम न भाजी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-प्रजा जोही रूचें, शीश देई ले जाय ॥

कबीरा भाठी कलाल की, बहूतक बैठे आई ।
सिर सौंपें सोई पीवै, नहीं तो पिया ना जाये ॥

सुखिया सब संसार है, खाये और सोये ।
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये ॥

जो कछु सो तुम किया, मैं कछु किया नांहि ।
कहां कहीं जो मैं किया, तुम ही थे मुझ मांहि ॥

अन-राते सुख सोवणा, राते नींद ना आये ।
ज्यूं जल छूटे माछरी, तडफत नैन बहाये ॥

जिनको साँई रंग दिया, कभी ना होये कुरंग ।
दिन दिन वाणी आफ़री, चढे सवाया रंग ॥

ऊंचे पानी ना टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचे होये सो भरि पिये, ऊँचा प्यासा जाय ॥

आठ पहर चौंसठ घडी, मेरे और ना कोये ।
नैना मांहि तू बसे, नींद को ठौर ना होये ॥

सब रगे तान्त रबाब, तन्त दिल बजावे नित ।
आवे न कोइ सुन सके, के साँई के चित ॥

कबीरा बैद्य बुलाया, पकड के देखी बांहि ।
बैद्य न वेधन जानी, फिर भी करे जे मांहि ॥

यार बुलावे भाव सूं, मोपे गया ना जाय ।
दुल्हन मैली पियु उजला, लाग सकूं ना पाय ॥




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो दोहे हमने पेश किए हैं, उसके एक दोहे की एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उन दोहों को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "चाह" और मिसरे कुछ यूँ थे-

चाह गयी चिन्ता मिटी, मनवा बेपरवाह ।
जिनको कछु न चहिये, वो ही शाहनशाह ॥

इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:

चाहे गीता बांचिये या पढ़िए कुरआन
मेरी तेरी प्रीत है हर पुस्तक का ज्ञान - निदा फाजली .. वैसे इसमें चाल शब्द नहीं है, बल्कि चाहे है... इसलिए इस शेर को सही नहीं माना जा सकता..

चाह मेरे भारत की ,विश्व कप जाए जीत,
हर एक करे प्रार्थना , क्रिकेट से है प्रीत - मंजु जी आपकी चाह पूरी हो गयी, खुश हैं न ? :)

चाह होती है तो राह होती नहीं
हर ख्वाहिश कभी पूरी होती नहीं
जिंदगी जीने का ढूँढती है सबब
हर कली खिलके फूल होती नहीं. - शन्नो जी

कभी हम में तुम में भी चाह थी , कभी हम से तुम से भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना तुम्हे याद हो के न याद हो - मोमिन खां मोमिन

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

Disha said…
dohon mein shabd to poore hi lag rahe hain...........
Disha said…
said by kabeer ji-

कबीरा खडा बाजार में सबकी माँगे खैर।
ना काहू से दोस्ती ना काहू से वैर।।
Disha said…
i think sahi shabd hai- kabeer

कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहि।
सिस उतारै भू धरै फिर पेछे घर माहि।।
Manju Gupta said…
विश्व जी ,
नमस्ते .

मरे साथ पूरा देश खुश है .आपने मेरे मनोभाव प्रकाशित किए. इससे ज्यादा खुश हूँ . मेरी चाह को आपने पूरा किया .

ध्यन्यवाद .
माफ़ कीजिएगा.. इस बार फिर मैं शब्द गायब करना भूल गया था। अब कर दिया है.. सही शब्द की पहचान करें...

धन्यवाद,
विश्व दीपक

और हाँ, पोस्ट अभी पूरी नहीं है, रात तक बाकी की सामग्री आ जाएगी... फिर से पधारियेगा... अवश्य :)
AVADH said…
तनहा साहेब,
शुक्रिया. आपने नाचीज़ को याद रखने की ज़हमत उठाई.
सुबह से पोस्ट तो देख ली थी पर शब्द गायब होने का इन्तेज़ार कर रहा था. अब देखा तो पता चला कि गायब शब्द है - सुहागिन.
शेर के लिए माफ कीजियेगा एक दम कुछ सूझ नहीं रहा है. थोड़ी देर की मोहलत दें बंदा आपकी खिदमत में अभी हाज़िर होता है.
धन्यवाद.
अवध लाल
"नाचीज को याद करने की ज़हमत" - ऐसा क्यों कह रहे हैं अवध जी? मेरी किसी बात का बुरा लगा क्या? अगर हाँ तो मुआफ़ कीजिएगा...

आपका स्वागत है! शेर के साथ जल्दी तशरीफ़ लाएँ..

धन्यवाद,
विश्व दीपक
Disha said…
sahee shabd hai suhaagin
Manju Gupta said…
जवाब - सुहागिन

स्वरचित दोहा प्रस्तुत है -

पिया साथ लिए फेरे , डाला सिंदूर मांग .

सुहागिन बनी गई मैं ,साक्षी थे चंद्र -आग .
एक तरफ वीर ज़ारा सुनाई दे रही है दूसरी ओर चक दे .
बंद करने का स्विच नही मिल रहा.अब आबिदा को कैसे सुनु?बताइए बताइए.

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